Monday, 21 November 2022

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य

 

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों की विवेचना कीजिए तथा इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय को समझाइए।

 

अनुक्रम (Contents)

शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य (Individual Aims of Education)

वैयक्तिक उद्देश्यों के रूप

व्यक्तिगत उद्देश्य के पक्ष में तर्क

व्यक्तिगत उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य (Social Aim of Education)

सामाजिक उद्देश्यों के पक्ष में तर्क

सामाजिक उद्देश्यों के विपक्ष में तर्क

वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय (Coordination between Individual and Social Aims)

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शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य (Individual Aims of Education)

 

प्राचीन समय में शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य को उस समय के विद्वानों का काफी समर्थन प्राप्त रहा है। आधुनिक युग में भी शिक्षा मनोविज्ञान की प्रगति के कारण इस उद्देश्य पर विशेष बल दिया जाने लगा है। आधुनिक समय में इस उद्देश्य के प्रमुख समर्थकों के नाम हैं- रूसो, फ्राबेल पेस्टालाजी, नन् आदि । नन् के अनुसार– “शिक्षा की ऐसी दशायें उत्पन्न होनी चाहिये जिसमें वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो सके और व्यक्ति मानव जीवन का अपना मौलिक योगदान दे सके। “

 

शिक्षा अपने उद्देश्य को तभी प्राप्त कर सकती है जब राज्य, समाज तथा शिक्षा संस्थायें सभी इस दिशा में प्रयत्न करें।

 

 

 

यूकेन (Eucken) ने वैयक्तिकता का अर्थ आध्यात्मिक वैयक्तिकता से लगाया है। उसके मतानुसार, आध्यात्मिक वैयक्तिकता एवं व्यक्तित्त्व जन्मजात नहीं होते वरन् उन्हें प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार, वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ- श्रेष्ठ व्यक्तित्त्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास रॉस के अनुसार, “शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ जो हमारे स्वीकार करने के योग्य है, वह केवल यह है- महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्त्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास “

 

वैयक्तिक उद्देश्यों के रूप

शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य के दो रूप हैं-

 

 

(i) आत्माभिव्यक्ति, और (ii) आत्मानुभूति।

 

आत्माभिव्यक्ति के समर्थक विद्वान आत्म-प्रकाशन का बल देते हैं अर्थात् व्यक्ति को अपने कार्य या व्यवहार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिये, भले ही उससे दूसरों को हानि पहुँचे। लेकिन इस विचार को ठीक मान लेने का अर्थ होगा-व्यक्ति को आदिकाल में पहुँचा देना अथवा व्यक्ति को पशु के समान बना देना।

 

 

आत्मानुभूति, आत्माभिव्यक्ति से भिन्न है। आत्माभिव्यक्ति में ‘स्व’ (Self) से अभिप्राय होता है-जैसे मैं उसे जानता हूँ लेकिन आत्मानुभूति में ‘स्व’ से आशय होता है- जैसे मैं उसका होना चाहता हूँ। आत्माभिव्यक्ति में ‘स्व’ व्यक्ति का ‘मूर्त स्व’ है जबकि आत्मानुभूति में ‘स्व’ आदर्श स्व होता है जिसके विषय में हम कल्पना करते हैं। आत्माभिव्यक्ति में समाज के लाभ या हानि के विषय में कोई ध्यान नहीं दिया जाता जबकि एडम्स के शब्दों में – “आत्मानुभूति के आदर्श में ‘स्व’ समाज-विरोधी व्यवहार करके अपनी अनुभूति नहीं कर सकता है। “

 

व्यक्तिगत उद्देश्य के पक्ष में तर्क

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का वैयक्तिक विकास होना चाहिये क्योंकि-

 

संसार में सभी श्रेष्ठ रचनायें व्यक्ति के स्वतन्त्र प्रयत्नों के परिणामस्वरूप हुई हैं।

जनतन्त्रीय व्यवस्था व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर बल देती है।

मनोविज्ञान के अनुसार, व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर ऐसी दिशाओं का निर्माण किया जाये जो उसके स्वतन्त्र विकास में सहायक हो।

प्रत्येक समाज की संस्कृति और सभ्यता को व्यक्ति ही विकसित करके एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपते हैं, अतः शिक्षा में वैयक्तिक विकास का ही समर्थन किया जाना चाहिये।

व्यक्ति समाज की इकाई है। यदि व्यक्ति को अपने पूर्ण उत्कर्ष के लिये अवसर प्रदान किये गये तो इससे अन्तोगत्वा समाज की भी उन्नति होगी। इस दृष्टि से भी वैयक्तिक उद्देश्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

नन के शब्दों में- “वैयक्तिकता जीवन का आदर्श है। शिक्षा की किसी भी योजना का महत्त्व उसकी उच्चतम वैयक्तिक श्रेष्ठता का विकास करने की सफलता से आँका जाना चाहिये। “

 

व्यक्तिगत उद्देश्य के विपक्ष में तर्क

शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य से व्यक्तिवाद को बल मिलता है।

वैयक्तिक उद्देश्य समाजवादी विचारधारा के विपरीत है।

यह उद्देश्य आत्म-प्रदर्शन की गलत धारणा पर आधारित है।

इससे व्यक्ति में पाश्विक प्रवृत्तियों का विकास हो सकता है।

इस उद्देश्य के अन्तर्गत मनुष्य के सामाजिक स्वरूप की उपेक्षा की गई है।

व्यक्ति को अत्यधिक स्वतन्त्रता देने से अन्त में सामाजिक विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है।

व्यक्ति की निरंकुश स्वतन्त्रता का समर्थन करने के कारण इस उद्देश्य से व्यक्ति की तर्कशक्ति का भी  होने लगता है। वह भले-बुरे तथा उचित-अनुचित में कोई अन्तर नहीं कर सकता।

यह उद्देश्य वास्तविक जीवन के लिये अव्यावहारिक है क्योंकि विद्यालयों में प्रत्येक छात्र के वैयक्तिक विकास के लिये विशेष प्रकार के पाठ्यक्रम और विधियों की व्यवस्था नहीं की जा सकती।

वैयक्तिकता के उद्देश्य में जहाँ तक आत्माभिव्यक्ति के रूप का प्रश्न है, उसे तो बिल्कुल भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके आत्मानुभूति के रूप को स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि उसमे व्यक्ति के सामाजिक विकास के पक्ष की उपेक्षा नहीं की गई है। लेकिन वैयक्तिक विकास का उद्देश्य पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य (Social Aim of Education)

सामाजिक उद्देश्य का अर्थ- सामाजिक उद्देश्य के अनुसार, समाज या राज्य का स्थान व्यक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण है। बैगेल और डीवी ने सामाजिक उद्देश्य का तात्पर्य सामाजिक दक्षता से लगाया है

 

लेकिन अपने अतिवादी स्वरूप में यह उद्देश्य व्यक्ति को समाज की तुलना में निचली श्रेणी का मानता है तथा व्यक्ति के सारे अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों को राज्य के हाथों में सौंप देता है। इस अतिवादी स्वरूप के अन्तर्गत समाज को साध्य और व्यक्ति को साधन माना जाता है, अर्थात् व्यक्ति का अपना अलग कोई अस्तित्त्व नहीं।

 

लेकिन यदि हम इस उद्देश्य के अतिवादी रूप को ध्यान में न रखें तो सरल रूप में इस उद्देश्य का अर्थ होगा-व्यक्तियों में सहयोग सामाजिक भावना का विकास करना। इसी सामाजिक भावना के आधार पर रेमण्ट ने कहा था कि-“समाजविहीन अकेला व्यक्ति कल्पना की खोज है। “

 

सामाजिक उद्देश्यों के पक्ष में तर्क

व्यक्ति को अपने जीवन-यापन की दृष्टि से समाज अनिवार्य है। समाज से अलग उसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिये समाज का हित ही व्यक्ति को सर्वोपरि रखना चाहिये।

समाज ही सभ्यता व संस्कृति को जन्म देता है जिनसे व्यक्ति संस्कारित होता है।

वंशानुक्रम से व्यक्ति केवल पारिवारिक प्रवृत्तियाँ ही प्राप्त करता है, लेकिन सामाजिक वातावरण उसे वास्तविक मानव बनाता है।

सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत ही नागरिकता के गुणों का विकास किया जा सकता है।

समाज में ही व्यक्ति की विभिन्न शक्तियों का विकास होता है।

सामाजिक जीवन ही व्यक्ति को नये आविष्कारों के लिये अवसर प्रदान करता है।

सामाजिक उद्देश्यों के विपक्ष में तर्क

सामाजिक उद्देश्य में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं-

 

इतिहास गवाह है कि सर्वाधिकारी राज्य युद्ध की विभीषिकाओं को जन्म देते हैं।

इस उद्देश्य से व्यक्ति का मानसिक सौन्दर्यात्मक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास नहीं हो पाता।

इस उद्देश्य पर आधारित शिक्षा संकुचित राष्ट्रीयता का विकास करती है ।

इस उद्देश्य के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का कोई महत्त्व नहीं है।

इस उद्देश्य के अनुसार, समाज को मनुष्य से श्रेष्ठ समझा जाता है जो एक गलत धारणा है।

राज्य या समाज के आदर्शों के प्रचार के लिये शिक्षा के साधनों का अनुचित प्रयोग किया जाता है।

यह उद्देश्य अमनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें बालक की व्यक्तिगत रुचियों, प्रवृत्तियों और योग्यताओं का विकास नहीं हो सकता है।

इस उद्देश्य में क्योंकि वैयक्तिक स्वतन्त्रता का अभाव है, इसलिये कला और साहित्य में विकास नहीं हो सकता है।

वैयक्तिक व सामाजिक उद्देश्यों में समन्वय (Coordination between Individual and Social Aims)

व्यक्ति और समाज का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के बिना हम दूसरे की कल्पना नहीं कर सकते। इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति का वैयक्तिक विकास भी आवश्यक है और सामाजिक विकास भी। अतः शिक्षा के वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य एक-दूसरे के विरोधी नहीं वरन् एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही उद्देश्यों में समन्वय की आवश्यकता है।

 

रॉस का कथन है कि “वैयक्तिकता का विकास केवल सामाजिक वातावरण में होता है, जहाँ सामान्य रुचियों और सामान्य क्रियाओं से उसका पोषण होता है। “

 

इस प्रकार से स्पष्ट है कि व्यक्ति के लिये समाज और समाज के लिये व्यक्ति आवश्यक है। व्यक्ति से समाज का निर्माण होता है और समाज व्यक्ति का निर्माण करता है। हमें समाज के स्वरूप के दर्शन व्यक्तियों के रूप में होते हैं और सामाजिक विरासत के कारण ही व्यक्ति का विकास सम्भव हो पाता है।

 

इन दोनों उद्देश्यों के समन्वय के आधार पर ही शिक्षा का स्वरूप निर्मित किया जाना चाहिये अर्थात् ऐसी व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो जिसमें न तो समाज व्यक्ति को अपना दास बना सके और न व्यक्ति ही सामाजिक नियमों की अवहेलना कर सके।

 

 

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