Saturday, 28 January 2023

वन्दे मातरम्

 

 

वन्दे मातरम्

 

 

वन्दे मातरम् ( बाँग्ला: বন্দে মাতরম)  बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित इस गीत का प्रकाशन सन् 1882 में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ[2] था। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी। इस गीत को गाने में 65 सेकेंड (1 मिनट और 5 सेकेंड) का समय लगता है। सन् 2003 मेंबीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग 7000 गीतों को चुना गया था और बी०बी०सी० के अनुसार 155 देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के 10 गीतों में दूसरे स्थान पर था।[3]

गीत

 

भारतीय संविधान के पृष्ठ 167 पर व्यौहार राममनोहर सिंहा द्वारा चित्रित वन्दे–मातरम् (सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम्)

यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय तो इसका शीर्षक "बन्दे मातरम्" होना चाहिये "वन्दे मातरम्" नहीं। चूँकि हिन्दी  संस्कृत भाषा में 'वन्दे' शब्द ही सही है, लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था और चूँकि बाँग्ला लिपि में  अक्षर है ही नहीं अत: बन्दे मातरम् शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक 'बन्दे मातरम्' होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में 'बन्दे मातरम्' का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा "वन्दे मातरम्" उच्चारण करने से "माता की वन्दना करता हूँ" ऐसा अर्थ निकलता है, अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम् ही लिखना व पढ़ना समीचीन होगा।

संस्कृत मूल गीत[

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥

हिन्दी अनुवाद

आनन्दमठ के हिन्दीमराठीतमिलतेलुगुकन्नड आदि अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी-अनुवाद भी प्रकाशित हुए। डॉ॰ नरेशचन्द्र सेनगुप्त ने सन् 1906 में Abbey of Bliss के नाम से इसका अंग्रेजी-अनुवाद प्रकाशित किया। अरविन्द घोष ने 'आनन्दमठ' में वर्णित गीत 'वन्दे मातरम्' का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया। महर्षि अरविन्द द्वारा किए गये अंग्रेजी गद्य-अनुवाद का हिन्दी-अनुवाद इस प्रकार है:

मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता!
पानी से सींची
, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त
,
कटाई की फसलों के साथ गहरी
,
माता!

उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं
,
उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुन्दर ढकी हुई है
,
हँसी की मिठास
, वाणी की मिठास,
माता! वरदान देने वाली
, आनन्द देने वाली।

रचना की पृष्ठभूमि

सन् १८७०-८० के दशक में ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेजों के इस आदेश से बंकिमचन्द्र चटर्जी को, जो उन दिनों एक सरकारी अधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने सम्भवत: 1876 में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से एक नये गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया - ‘वन्दे मातरम्’। शुरुआत में इसके केवल दो ही पद रचे गये थे जो संस्कृत में थे। इन दोनों पदों में केवल मातृभूमि की वन्दना थी। उन्होंने 1882 में जब आनन्द मठ नामक बाँग्ला उपन्यास लिखा तब मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत इस गीत को भी उसमें शामिल कर लिया। यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण व प्राकृतिक प्रकोप (अकाल) में मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था। इस तथ्यात्मक इतिहास का उल्लेख बंकिम बाबू ने 'आनन्द मठ' के तीसरे संस्करण में स्वयं ही कर दिया था। और मजे की बात यह है कि सारे तथ्य भी उन्होंने अंग्रेजी विद्वानों-ग्लेग व हण्टर[5] की पुस्तकों से दिये थे। उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम का एक संन्यासी विद्रोही गाता है। गीत का मुखड़ा विशुद्ध संस्कृत में इस प्रकार है: "वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम् मातरम्।" मुखड़े के बाद वाला पद भी संस्कृत में ही है: "शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम्, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्।" किन्तु उपन्यास में इस गीत के आगे जो पद लिखे गये थे वे उपन्यास की मूल भाषा अर्थात् बाँग्ला में ही थे। बाद वाले इन सभी पदों में मातृभूमि की दुर्गा के रूप में स्तुति की गई है। यह गीत रविवार, कार्तिक सुदी नवमी, शके 1898 (7 नवम्बर 1875) को पूरा हुआ।कहा जाता है कि यह गीत उन्होंने सियालदह से नैहाटी आते वक्त ट्रेन में ही लिखी थी।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भूमिका


बंगाल
 में चले स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। ब्रिटिश सरकार इसकी लोकप्रियता से भयाक्रान्त हो उठी और उसने इस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। सन् 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी सन् 1901 में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरणदास ने यह गीत पुनः गाया। सन् 1905 के बनारस अधिवेशन में इस गीत को सरलादेवी चौधरानी ने स्वर दिया।

कांग्रेस-अधिवेशनों के अलावा आजादी के आन्दोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस 'जर्नल' का प्रकाशन शुरू किया था उसका नाम वन्दे मातरम् रखा। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जुबान पर आखिरी शब्द "वन्दे मातरम्" ही थे। सन् 1907 में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में "वन्दे मातरम्" ही लिखा हुआ था। आर्य प्रिन्टिंग प्रेसलाहौर तथा भारतीय प्रेसदेहरादून से सन् 1929 में प्रकाशित काकोरी के शहीद पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' की प्रतिबन्धित पुस्तक "क्रान्ति गीतांजलि" में पहला गीत "मातृ-वन्दना" वन्दे मातरम् ही था जिसमें उन्होंने केवल इस गीत के दो ही पद दिये थे और उसके बाद इस गीत की प्रशस्ति में वन्दे मातरम् शीर्षक से एक स्वरचित उर्दू गजल दी थी जो उस कालखण्ड के असंख्य अनाम हुतात्माओं की आवाज को अभिव्यक्ति देती है। ब्रिटिश काल में प्रतिबन्धित यह पुस्तक अब सुसम्पादित होकर पुस्तकालयों में उपलब्ध है।

राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृति

स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी तो वन्दे मातरम् के स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी गयी। इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को "वन्दे मातरम्" गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। इन आपत्तियों के मद्देनजर सन् 1937 में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है; इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत राष्ट्रगान ही रहने दिया गया और मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने सारे जहाँ से अच्छा के साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 में 'वन्दे मातरम्' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे स्वीकार कर लिया गया।

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है) :

शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा। (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)

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Thursday, 26 January 2023

लोकतंत्र की 74वीं पायदान पर भी प्रासंगिक हैं गांधी

 

 

लोकतंत्र की 74वीं पायदान पर भी प्रासंगिक हैं गांधी




 

संत, महात्मा हो तुम जग के, बापू हो हम दीनों के

दलितों के अभीष्ट वर-दाता, आश्रय हो गतिहीनों के

आर्य अजातशत्रुता की उस परंपरा के स्वतः प्रमाण

सदय बंधु तुम विरोधियों के, निर्दय स्वजन अधीनों के!

 

30 जनवरी को महात्मा गांधी के निर्वाण-दिवस पर उन्हें याद करने की परंपरा का निर्वहन प्रति वर्ष किया जाता है। इस वर्ष भी इस अवसर पर देश ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर रहा है और हाड़-मांस के उस दुबले अधनंगे फ़कीर (तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का गांधी को दिया संबोधन) को याद कर रहा हैजिसके बारे में प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन का कहना था कि आने वाली पीढ़ियों को यह यकीन ही नहीं होगा कि ऐसा भी कोई व्यक्ति इस धरती पर आया था। परंतु तीन गोलियाँ खाने के गणतंत्र भारत के 73 वर्ष बीत जाने के बाद भी वे ज़िंदा हैंहमारी धमनियों में रक्त के साथ बहते हैं ।दुनिया में उन्हें आज और भी अधिक प्रासंगिक माना जा रहा हैक्योंकि वैश्विक स्तर पर व्याप्त हिंसामतभेदबेरोज़गारीमंहगाई तथा तनावपूर्ण माहौल में उनके सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों के महत्व को सारा विश्व समझ रहा है ।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता मोहनदास करमचंद गांधी के आदर्शोंविश्वासों एवं दर्शन से उदभूत विचारों के संग्रह को गांधीवाद कहा जाता है।

गांधी का कहना था कि स्वराज्य एक पवित्र शब्द हैयह एक वैदिक शब्द हैजिसका अर्थ आत्मशासन और आत्मसंयम है। अंग्रेजी शब्द ‘इंडिपेंडेंस’ सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आज़ादी या स्वच्छंदता का अर्थ देता हैलेकिन स्वराज्य शब्द के अर्थ में ऐसा नहीं है। गांधी का स्वराज गाँवों में बसता था और वे गाँवों में गृह उद्योगों की दुर्दशा से चिंतित थे। खादी को प्रोत्साहन और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार उनके जीवन के आदर्श थेजिनको आधार बनाकर उन्होंने देशभर के करोड़ों लोगों को आज़ादी की लड़ाई के साथ जोड़ा। उनका कहना था कि खादी का मूल उद्देश्य प्रत्येक गाँव को अपने भोजन एवं कपड़े के मामले में स्वावलंबी बनाना है।

गांधी यह मानते थे कि आर्थिक व्यवस्था का व्यक्ति और समाज पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है और उससे उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक मान्यताएँ राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती हैं। उत्पादन की केंद्रित प्रणाली से केंद्रीभूत पूंजी उत्पन्न होती हैजिसके फलस्वरूप समाज के कुछ ही लोगों के हाथों में आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था केंद्रित हो जाती है। ऐसे में गांधी के समाज की रचना विकेंद्रीकरण पर आधारित मानी जा सकती है। गांधी के आर्थिक-सामाजिक दर्शन में विक्रेंद्रित उत्पादन प्रणालीउत्पादन के साधनों का विकेंद्रित होना और पूंजी विकेंद्रित होने की बात कही गई हैताकि समाज जीवन के लिए आवश्यक पदार्थों की उपलब्धि में स्वावलंबी हो और उसे किसी का मुखापेक्षी न बनना पड़े।

पंचायत और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विषय में गांधी के विचार बहुत स्पष्ट थे। उनका कहना था कि यदि हिंदुस्तान के प्रत्येक गाँव में कभी पंचायती राज कायम हुआतो मैं अपनी इस तस्वीर की सच्चाई साबित कर सकूंगाजिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगेअर्थात् न कोई पहला होगा और न आखिरी। इस बारे में उनका मानना था कि जब पंचायती राज स्थापित हो जाएगा तब लोकतंत्र ऐसे भी अनेक काम कर दिखाएगाजो हिंसा कभी नहीं कर सकती।

गांधी भलीभाँति जानते थे कि भारत की वास्तविक आत्मा देश के गाँवों में बसती है। अत: जब तक गाँव विकसित नहीं होंगेतब तक देश के वास्तविक विकास की कल्पना करना बेमानी है। गांधी के दर्शन में देश के आर्थिक आधार के लिये गाँवों को ही तैयार करने की कल्पना की गई है। गांधी का विचार था कि भारी कारखाने स्थापित करने के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बचाए रखना ज़रूरी है।

गांधी को समझने के लिए यह स्पष्टतः समझना होगा कि गांधीवाद धर्म की एक ठोस बुनियाद पर खड़ा हैजिसके बारे में उनका मानना था कि इसके संस्कार उन्हें अपनी माता से मिले। गांधी ने अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि सार्वजनिक जीवन के आरंभ से ही उन्होंने जो कुछ कहा और किया हैउसके पीछे एक धार्मिक चेतना और धार्मिक उद्देश्य रहा है। राजनीतिक जीवन में भी उनके धार्मिक विचार उनके राजनीतिक आचरण के लिये पथ-प्रदर्शक बने रहे। वे स्वधर्म के साथ अन्य सभी धर्मों का समान आदर करते थे। उनका कहना था कि मेरा धर्म तो वह है जो मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है...जो मनुष्य को उसके आंतरिक सत्य के अटूट संबंध में बाँध देता है...और जो सदैव पाक-साफ करता है। गांधी के अनुसार धर्म सबसे प्रेम करना सिखाता है...न्याय तथा शांति की स्थापना के लिये खुद के बलिदान की प्रेरणा देता है। उनकी निगाह में धर्म निर्बल का बल तथा सबल का मार्गदर्शक है।

स्वच्छता एवं अस्पृश्यता गांधी दर्शन के केंद्र में हैं और इन पर उनके विचार स्पष्ट एवं पूर्ण रूप से केंद्रित थे। जनसरोकारों से जुड़े अपने लगभग हर संबोधन में गांधी स्वच्छता के मामले को उठाते थे। उनका मानना था कि नगरपालिका का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सफ़ाई रखना है। जो भी उनके आश्रम में रहने आता थागांधी जी की पहली शर्त यह होती थी कि उसे आश्रम की सफ़ाई का काम करना होगाजिसमें शौच का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करना भी शामिल था। गांधी का मानना था कि स्वच्छता ईश्वर भक्ति के बराबर हैइसलिए वे चाहते थे कि भारत के सभी नागरिक एक साथ मिलकर देश को स्वच्छ बनाने के लिये कार्य करें।

गांधी ने सर्वप्रथम  सत्यअहिंसा और शत्रु के प्रति प्रेम के आध्यात्मिक और नैतिक सिद्धांतों का राजनीति के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया और सफलता प्राप्त की। उन्होंने जहां एक ओर भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति दिलाने में अग्रणी भूमिका निभाईवहीं दूसरी ओर संसार को अहिंसा का ऐसा मार्ग दिखायाजिस पर यकीन करना कठिन ही नहींअविश्वसनीय भी लगता है। गांधी ने राजनीतिसमाजअर्थ एवं धर्म के क्षेत्र में नए आदर्श स्थापित किए व उसी के अनुरूप लक्ष्य प्राप्ति के लिए स्वयं को समर्पित ही नहीं कियाबल्कि देश की जनता को भी प्रेरित किया और आशानुरूप परिणाम भी प्राप्त किए।

गांधी अस्पृश्यता या छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष को साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष से भी कहीं अधिक विकराल मानते थे। इसकी वजह यह थी कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में तो उन्हें बाहरी ताकतों से लड़ना थालेकिन अस्पृश्यता से संघर्ष में उनकी लड़ाई अपनों से थी। वे कहते थे कि मेरा जीवन अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए समर्पित है। गांधी ने अस्पृश्यता को समाज का कलंक तथा घातक रोग मानाजो न केवल स्वयं को अपितु संपूर्ण समाज को नष्ट कर देता है।

उनके अनुसार एक सत्याग्रही सदैव सच्चाअहिंसक व निडर रहता है। गांधी जी का सत्याग्रह सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था। उनका कहना था कि किसी भी सत्याग्रही में बुराई के विरुद्ध संघर्ष करते समय सभी प्रकार की यातनाओं को सहने की शक्ति होनी चाहिए।

गांधी सविनय अवज्ञा की बात करते हैं और वह भी पूर्णतः अहिंसक तरीके से। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद 1917 में बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों के समर्थन में उनका पहला सत्याग्रह देखने को मिलाजिसने अंग्रेज़ी सरकार को झुकने पर विवश किया।

गांधी ज्ञान आधारित शिक्षा के स्थान पर आचरण आधारित शिक्षा के समर्थक थे। उनका कहना था कि शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिएजो व्यक्ति को अच्छे-बुरे का ज्ञान प्रदान कर उसे नैतिक रूप से सबल बनाए। व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिये उन्होंने वर्धा योजना में प्रथम सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क एवं अनिवार्य करने की बात कही थी। गांधी का यह भी मानना था कि व्यक्ति अपनी मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा को अधिक रुचि तथा सहजता के साथ ग्रहण कर सकता है। अखिल भारतीय स्तर पर भाषायी एकीकरण के लिए वे कक्षा सात तक हिंदी भाषा में ही शिक्षा प्रदान करने के पक्षधर थे।

उन्हें बेहद प्रयोगधर्मी व्यक्ति माना जाता हैलेकिन यह प्रयोग केवल बौद्धिक स्तर तक सीमित नहीं थाबल्कि इसे उन्होंने अपने जीवन में भी उताराजिसकी कुछ लोग आज के दौर में आलोचना भी करते हैं। उनकी जीवन-दृष्टि वसुधैव कुटुम्बकं का मार्ग प्रशस्त करती है। आज गांधी हमारे बीच नहीं हैंकिंतु वे एक प्रेरणा और प्रकाश-पुंज बनकर आज भी दैदीप्यमान हैं और हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। निश्चित ही उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करके एक सुंदर,सुखद और सुदृढ़ विश्व की संकल्पना की जा सकती है । उनके निर्वाण-दिवस पर उनको भावपूरित श्रद्धांजलि –

हे कोटिचरणहे कोटिबाहु!

हे कोटिरूपहे कोटिनाम!

तुम एक मूर्तिप्रतिमूर्ति कोटि!

हे कोटि मूर्तितुमको प्रणाम!

 

 

मीता गुप्ता

 

Monday, 23 January 2023

‘परीक्षा पे चर्चा’-एक सार्थक पहल

 

परीक्षा पे चर्चा’-एक सार्थक पहल



 

आपके मन में परीक्षा को लेकर यह डर क्यों होता है? क्या आप पहली बार परीक्षा देने जा रहे हैं? आप सभी बहुत सारे एग्जाम दे चुके हैं।आप एक बात तय कर लीजिए की परीक्षा जीवन का एक सहज हिस्सा है। जीवन के यह छोटे-छोटे पड़ाव है जिनसे हमें गुजारना है और हम पहले गुजर भी चुके हैं।

परीक्षा में शामिल होने जा रहे व परीक्षा के तनाव से ग्रस्त छात्रों की चिंता को दूर करने के लिए ‘परीक्षा पे चर्चा’ कार्यक्रम भी शुरू किया गया था। ‘परीक्षा पे चर्चा’ मनाने का उद्देश्य परीक्षाओं को एक आनंददायक गतिविधि बनाने की दिशा में अपने प्रयास को जारी रखना था। एनसीपीसीआर के मुताबिक परीक्षा एक पर्व है, एक जश्न है, जिसका उद्देश्य एक मंच पर परीक्षा के कारण होने वाले तनाव के प्रति बच्चों के दृष्टिकोण में बदलाव लाना और परीक्षा परिणाम से पहले उनकी चिंता को दूर करना था।

परीक्षा पे चर्चा एक ऐसी पहल है, जो हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा शुरू की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य बोर्ड परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों की मन की बात को सुनना और उनके मन में समाए परीक्षा के डर को निकालना है। परीक्षा पर चर्चा 2018 से हर साल आयोजित होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम है। इस आयोजन के दौरान भारत के प्रधानमंत्री देश भर के विद्यार्थियों, शिक्षकों पर अभिभावकों के साथ बातचीत करते हैं। बोर्ड की परीक्षाएं प्रत्येक विद्यार्थी के लिए काफी महत्वपूर्ण होती है। इन परीक्षाओं में बच्चों को अंक प्राप्त करने के लिए काफी मेहनत करनी होती है। यही कारण है कि इस परीक्षा का अच्छा परिणाम प्राप्त करने के लिए बच्चों के अंदर साहस बढ़ाया जाए।

‘परीक्षा पे चर्चा’ का मुख्य उद्देश्य बोर्ड के विद्यार्थियों का साहस और हौसला बढ़ाना है। चूंकि परीक्षा जीवन का एक सहज हिस्सा है। सच मानें तो जीवन ही एक परीक्षा है। परीक्षा हमारे विकास की यात्रा के छोटे-छोटे पड़ाव माने जाते हैं। ऐसे में इन पड़ावों से बहादुरी से निकलना ही परीक्षा पे चर्चा का मुख्य उद्देश्य माना जाता है। प्रधानमंत्री से परीक्षा पर चर्चा करने के लिए विद्यार्थियों को आमतौर पर एक प्रतियोगिता के माध्यम से चुना जाता है। प्रतियोगिता के विजेताओं को परीक्षा पे चर्चा कार्यक्रम में भाग लेने का मौका दिया जाता है और कुछ विजेताओं को प्रधानमंत्री के साथ सीधे बातचीत करने का मौका मिलता है। इन प्रतियोगिताओं में भाग लेकर विद्यार्थियों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना जागती है।

प्रधानमंत्री जी द्वारा परीक्षा को त्योहार के रूप में मनाने का आगाज किया। वर्तमान समय में शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति सफलता को प्राप्त कर सकता है। ऐसे में विद्यार्थियों को भविष्य की परीक्षाओं में भी बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए बोर्ड की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करना बेहद आवश्यक हो जाता है।

इस पहल के तहत परीक्षा को लेकर विद्यार्थियों का बढ़ा हुआ तनाव कम हुआ है। इसी के साथ विद्यार्थियों को परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए टिप्स मिले, जिसे उन्होंने अपने जीवन में उतारा। बच्चों का बोर्ड परीक्षा को लेकर तनाव कम हुआ है। साथ ही इसके माध्यम से बच्चों का बोर्ड को लेकर बढ़ने वाला डर भी दूर हुआ है। इस प्रकार परीक्षा पे चर्चा इस देश के विद्यार्थियों के लिए काफी फायदेमंद रहा है। इस योजना अथवा पहल के तहत विद्यार्थी, शिक्षक और माता-पिता सभी अत्यधिक लाभान्वित हुए हैं।

इन चर्चाओं में प्रधानमंत्री जी एग्ज़ाम फीयर के साथ-साथ शिक्षा से जुड़े अन्य विषयों पर भी बातचीत करते हैं। न्यू एजुकेशन पॉलिसी के सवाल पर प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि यह न्यू नहीं नेशनल एजुकेशन पॉलिसी है, जो व्यक्तित्व के विकास पर जोर दे रही है। ज्ञान के भंडार से ज्यादा जरूरी स्किल डेवलपमेंट है। हमने इस तरह का खाका बनाया है, जिसमें अगर पढ़ाई के बीच में आपको मन ना लगे, तो आप छोड़ कर दूसरा कोर्स भी कर सकते हैं। हमें 21वीं सदी के अनुकूल अपनी सारी व्यवस्थाओं और सारी नीतियों को ढालना चाहिए। अगर हम अपने आपको इन्वॉल्व नहीं करेंगे, तो हम ठहर जाएंगे और पिछड़ जाएंगे। प्रधानमंत्री जी ने कहा कि खेले बिना कोई खिल नहीं सकता। किताबों में जो हम पढ़ते हैं, उसे आसानी से खेल के मैदान से सीखा जा सकता है।

प्रधानमंत्री जी मां-बाप को बच्चों की स्थिति को समझते हैं और उनके विचार से माता-पिता जो अपने जीवन में करना चाहते थे, उसे बच्चों पर लागू करना चाहते हैं। माता-पिता आज के दौर में अपनी महत्वाकांक्षा और सपने को बच्चों पर थोपने की कोशिश करते हैं। दूसरी बात टीचर भी अपने स्कूल का उदाहरण देकर उस पर दबाव बनाते हैं। हम बच्चों के स्किल को समझने की कोशिश नहीं करते हैं, जिससे कई बार बच्चे लड़खड़ा जाते हैं। वे मानते हैं कि हर बच्चे की अपनी एक विशेषता होती है। परिजनों के, शिक्षकों के तराजू में वो फिट हो या न हो, लेकिन ईश्वर ने उसे किसी न किसी विशेष प्रयोजन के साथ भेजा है।

प्रधानमंत्री जी मोटिवेशन के विषय में भी अपने विचार साझा करते हुए कहा कि मोटिवेशन का कोई इंजेक्शन नहीं होता है। कोई फॉर्मूला नहीं होता है। आप खुद देखें कि कौन सी ऐसी चीज है, जिससे आप डिमोटिवेट हो जाते हैं। अपनी हताशा की असली वजह जानें। किसी पर निर्भर न रहें। अपनी पॉजिटिव और नेगेटिव दोनों चीजों को समझें। इससे आप अपने आप को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे और किसी दूसरे के मोटिवेशन की जरूरत नहीं पड़ेगी।

प्रधानमंत्री जी विद्यार्थियों को संदेश देते हैं कि खुद की परीक्षा लें, मेरी किताब एग्जाम वॉरियर्स में लिखा है कि कभी एग्जाम को ही एक चिट्ठी लिख दो- हे डियर एग्जाम मैं इतना सीख कर आया हूं। इतनी तैयारी की है तुम कौन होते हो मेरा मुकाबला करने वाले। मैं तुम्हें नीचे गिराकर दिखा दूंगा। रीप्ले करने की आदत बनाइए। एक दूसरे को सिखाइए। ऐसी बातें बच्चों को बहुत प्रभावित करती हैं। उनके अनुसार पढ़ी हुई चीजें एग्जाम हॉल में भूलने के सवाल के जवाब में पीएम ने कहा कि आप यहां बैठे हैं और सोच रहे हैं कि मम्मी घर पर टीवी देख रही होंगी। मतलब आप यहां नहीं हैं, आपका ध्यान कहीं ओर है। ध्यान को सरलता से स्वीकार कीजिए। यह कोई साइंस नहीं है। आप जहां वर्तमान में हैं उस पल को जी भरकर जीने की कोशिश कीजिए। ध्यान बहुत सरल है। आप जिस पल में हैं, उस पल को जीने की कोशिश कीजिए। अगर आप उस पल को जी भरकर जीते हैं तो वो आपकी ताकत बन जाता है। ईश्वर की सबसे बड़ी सौगात वर्तमान है। जो वर्तमान को जान पाता है, जो उसे जी पाता है, उसके लिए भविष्य के लिए कोई प्रश्न नहीं होता है

प्रधानमंत्री जी के अनुसार कॉम्पिटिशन को हमें जीवन की सबसे बड़ी सौगात मानना चाहिए। अगर कॉम्पिटिशन ही नहीं है तो जिंदगी कैसी। सच में तो हमें कॉम्पिटिशन सा स्वागत करना चाहिए, तभी तो हमारी कसौटी होती है। कॉम्पिटिशन जिंदगी को आगे बढ़ाने का एक अहम माध्यम होता है, जिससे हम अपना आकलन भी कर सकते हैं।

इन बातों के साथ-साथ वे पर्यावरण-सुरक्षा और संरक्षण की बातें भी करते हैं। वे कहते हैं कि हमें यूज एंड थ्रो कल्चर को रोकना होगा और री-साइकल पर शिफ्ट होना होगा। हमारा दायित्व है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ देकर जाएं। हमे प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों चाहिए।

निष्कर्षतः परीक्षा पे चर्चा” कार्यक्रम विद्यार्थियों, शिक्षकों और अभिभावकों सभी के लिए एक अत्यंत उपयोगी और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम है।

शिक्षा:आज बेटियों को सक्षम बनाने का अस्त्र

 

शिक्षा:आज बेटियों को सक्षम बनाने का अस्त्र



बेटियां गुरुग्रंथ की वाणी,

बेटियां वैदिक ऋचाएं हैं।

जिनमें खुद भगवान बसता है,

बेटियां वे वंदनाएं हैं।

त्याग, तप, गुणधर्म, साहस की

बेटियां गौरव कथाएं हैं।

मुस्करा के पीर पीती हैं,

बेटी हर्षित व्यथाएं हैं।

मेलिंडा गेट्स के अनुसार, ‘जब आप किसी लड़की को स्कूल भेजते हैं, तो इस भले काम का असर  स्थायी रहता है। यह पहल पीढ़ियों तक जनहित के तमाम कार्यों को आगे बढ़ाने का काम करती है, स्वास्थ्य से लेकर आर्थिक लाभ, लैंगिक समता और राष्ट्रीय समृद्धि तक।’दुनिया भर में लगभग 132 मिलियन लड़कियां स्कूल से बाहर हैं और भारत में लगभग 40 प्रतिशत किशोरियां स्कूल नहीं जाती हैं। दूसरे शब्दों में, यदि स्कूल नहीं जा पा रही कुल लड़कियों की एक देश के रूप में कल्पना करें, तो यह दुनिया का 10वां सबसे बड़ा देश होगा।

नीति निर्माता और सिविल सोसायटी दशकों से प्रत्येक बालिका को शिक्षित करने की ज़रूरत पर चर्चा कर रहे हैं। लेकिन लाखों लड़कियां शिक्षा के दायरे से बाहर रहने को मजबूर हैं, जबकि अध्ययनों ये पता चलता है कि लड़कियों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के नतीजे हमेशा गरीबी की कम दर और बेहतर स्वास्थ्य मानकों के रूप में सामने आते हैं। बालिका शिक्षा का समाज और मानव विकास पर सकारात्मक प्रभाव दीर्घकालिक और दूरगामी होता है। आगे चलकर मां बनने वाली शिक्षित बालिकाओं के अपने बच्चों को स्कूल भेजने और उनका बेहतर पोषण सुनिश्चित करने की संभावना रहती है। स्कूली शिक्षा पूरी करने वाली लड़कियों पर बाल विवाह और मातृत्व के दौरान मृत्यु के खतरे कम होते हैं। उनके कम बच्चे पैदा करने की संभावना रहती है, और उन्हें स्वास्थ्य एवं प्रसव काल के लिए उपलब्ध सेवाओं का बेहतर ज्ञान होता है। शिक्षा के सकारात्मक प्रभावों में शोषणकारी श्रम और मानव तस्करी जैसे खतरों से बच्चों की रक्षा भी शामिल हैं।

कई दशकों बाद जाकर हमें समझ आया कि मानव विकास से भी आर्थिक विकास को गति मिल सकती है। फिर शिक्षा को विकास मॉडल में केंद्रीय महत्व दिया गया और हम लैंगिक विभेद को समाप्त करने के महत्व को पहचानने लगे। हालांकि, ये मानने की गलती की गई कि सामान्य सर्वशिक्षा अभियान चलाने मात्र से ही लैंगिक विभेद की समस्या कम हो जाएगी। हमारी बालिकाओं के अशिक्षित छूटने के पीछे सिर्फ गलत नीतियों और रोडमैप की ही भूमिका नहीं है। सुरक्षा या अर्थव्यवस्था संबंधी चिंताओं पर आधारित फैसलों समेत लैंगिक भूमिकाओं को लेकर स्थानीय नज़रिया भी लड़कियों को पीछे रखने के लिए ज़िम्मेदार होता है। हालांकि, इस बात को लेकर आम सहमति दिखती है कि यह समस्या मांग पक्ष की उतनी नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब स्थानीय स्तर पर स्कूलों की उपलब्धता बढ़ाई जाती है, या ट्यूशन फीस को समाप्त किया जाता है, तो माता-पिता उत्साहपूर्वक अपनी बेटियों को स्कूल भेजते हैं। यह समस्या आपूर्ति पक्ष की दिखती है — यानि सुरक्षित, सुलभ, लैंगिक समता के लिए संवेदनशील स्कूलों की उपलब्धता; परिवारों के लिए शिक्षा संबंधी जानकारी; और महिलाओं के लिए रोजगार की संभावनाओं से संबंधित।

शैक्षिक अवसरों का अभाव और गरीबी की समस्या परस्पर संबद्ध हैं। गरीबी में बसर करने वाले बच्चों के लिए शिक्षा में लैंगिक असमानता काफी अधिक है। इस परिस्थिति में लड़कियों को दोहरे संकट का सामना करना पड़ता संकट है, क्योंकि उन्हें लैंगिक विभेद और गरीबी दोनों की मार झेलनी पड़ती हैं। इसका समाधान विकास के मानवाधिकार और विविध सेक्टरों पर आधारित मॉडल में है, जो लड़कियों की शिक्षा में निवेश के बहुगुणक प्रभावों को अधिकतम प्रभावी बना सकेगा। कोई भी देश मानव संसाधन और महिला सशक्तिकरण में पर्याप्त निवेश किए बिना सतत आर्थिक विकास प्राप्त नहीं कर सकता है। मानव संसाधन सिद्धांत के अनुसार शिक्षा सरकार के लिए उपभोग केंद्रित खर्चीला साधन नहीं, बल्कि एक ऐसा निवेश है जो व्यक्तियों की आर्थिक उपयोगिता को बढ़ाता है, जिसके परिणामस्वरूप देश की समग्र उत्पादकता और आर्थिक प्रतिस्पर्धा की क्षमता बढ़ती है। यानि, शिक्षा हर दृष्टि से विकास के मूलभूत कारकों में से एक है। सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की दिशा में सफलता ने विकास को बेहतर स्वास्थ्य, गरीबी में कमी, और लैंगिक समानता से जोड़ दिया है; और यह सभी बच्चों की ज़िंदगी और सारे राष्ट्रों के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है।

और हमें आशा की किरण नज़र आती है। यह आशा कि हमने कोविड-19 से समग्र मानवता को पहुंचे नुकसान पर गौर करते हुए एक अधिक समतापूर्ण दुनिया बनाने की सीख ली है — एक ऐसी दुनिया जहां अवसरों की समानता को प्राथमिकता दी जाती हो। ये सुनिश्चित करना समय की मांग है कि हमारे बच्चों, तमाम बालक-बालिकाएं को आसान, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुलभ हो और उन्हें स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए बराबरी का अवसर मिले, ताकि वे 21वीं सदी की नौकरियों और उद्यमशीलता के अवसरों का लाभ उठाकर भारत के विकास में योगदान कर सकें।

मीता गुप्ता

 

Sunday, 15 January 2023

हम और हमारे त्योहार


 

हम और हमारे त्योहार

 

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली॥

बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनोखा
चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा,

दिवाली- दीपों का मेला, झिलमिल महल-कुटी-गलियारे
भारत-भर में उतने दीपक, जितने जलते नभ में तारे,

मन में राम, बगल में गीता, घर-घर आदर रामायण का
किसी वंश का कोई मानव, अंश साझते नारायण का,

जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली॥

भारतीय   संस्कृति   में   व्रत ,  पर्व - त्योहार   उत्सव ,  मेले   आदि   अपना   विशेष   महत्व   रखते   हैं।   हिंदूओं   के   ही   सबसे   अधिक   त्योहार   मनाये   जाते   हैं ,  कारण   हिंदू   ऋषि - मुनियों   के   रूप   में   जीवन   को   सरस   और   सुंदर   बनाने   की   योजनाएं   रखी   है।   प्रत्येक   पर्व - त्योहार ,  व्रत ,  उत्सव ,  मेले   आदि   का   एक   गुप्त   महत्व   हैं।   प्रत्येक   के   साथ   भारतीय   संस्कृति   जुडी   हुई   है।   वे   विशेष   विचार   अथवा   उद्देश्य   को   समाने   रखकर   निश्चित   किय   गये   हैं।  हमारे   सांस्कृतिक   और   विराट   समाज   में   शिक्षा   के   जरिये   विकसित   किए   जाने   वाले   मूल्यों   में   सार्वभौमिक   भावना   होनी   चाहिए   और   इनसे   हमारे   लोगों   में   एकता   और   एकीकरण   की   भावना   विकसित   होनी   चाहिए।   इस   प्रकार   की   मूल्य   शिक्षा   रूढ़िवाद ,  धार्मिक   कट्टरता ,  हिंसा ,  अंधविश्वास   और   भाग्यवाद   को   समाप्त   करेगी।   इस   निर्णायक   भूमिका   के   अतिरिक्त ,  मूल्य   शिक्षा   की   एक   गहन   ओर   ठोस   विषयवस्तु   हमारी   विरासत ,  राष्ट्रीय   और   सार्वभौमिक   उद्देश्य   और   विचारों   पर   आधारित   है।   इसमें   इस   पहलू   पर   मुख्य   रूप   से   दिया   जाना   चाहिए।

भारतीय   संस्कृति   में   व्रत ,  पर्व - त्योहार   उत्सव ,  मेले   आदि   अपना   विशेष   महत्व   रखते   हैं।   हिंदूओं   के   ही   सबसे   अधिक   त्योहार   मनाये   जाते   हैं ,  कारण   हिंदू   ऋषि - मुनियों   के   रूप   में   जीवन   को   सरस   और   सुंदर   बनाने   की   योजनाएं   रखी   है।   प्रत्येक   पर्व - त्योहार ,  व्रत ,  उत्सव ,  मेले   आदि   का   एक   गुप्त   महत्व   हैं।   प्रत्येक   के   साथ   भारतीय   संस्कृति   जुडी   हुई   है।   वे   विशेष   विचार   अथवा   उद्देश्य   को   समाने   रखकर   निश्चित   किय   गये   हैं।   प्रथम   विचार   तो   ऋतुओं   के   परिवर्तन   का   है।   भारतीय   संस्कृति   में   प्रकृति   का   साहचर्य   अपना   विशेष   महत्व   रखता   है।   प्रत्येक   ऋतु - परिवर्तन   अपने   साथ   विशेष   निर्देश   लाता   है ,  खेती   मे   कुछ   स्थान   रखता   हैं।   कृषि   प्रधान   होने   के   कारण   प्रत्येक   ऋतु - परिवर्तन   हंसी - खुशी   मनोरंजन   के   साथ   अपना - अपना   उपयोग   रखता   है।   इन्हीं   अवसरों   पर   त्योहार   का   समावेश   किया   गया   है ,  जो   उचित   है।   ये   त्योहार   दो   प्रकार   के   होते   है   और   उद्देश्य   की   दृष्टि   से   इन्हें   दो   भागों   में   विभक्त   किया   जा   सकता   है।

प्रथम   श्रेणी   में   वे   व्रत ,  उत्सव ,  पर्व - त्योहार   और   मेले   है ,  जो   सांस्कृतिक   हैं   और   जिनका   उद्देश्य   भारतीय   संस्कृति   के   मूल   तत्वों   और   विचारों   की   रक्षा   करना   है।   इस   वर्ग   में   हिंदूओं   के   सभी   बड़े - बड़े   पर्व - त्योहार      जाते   है ,  जैसे  -  होलिका - उत्सव ,  दीपावली ,  वसंत ,  श्रावणी ,  संक्रान्ति   आदि।   संस्कृति   की   रक्षा   इनकी   आत्मा   है।

दूसरी   श्रेणी   में   वे   पर्व - त्योहार   आते   है ,  जिन्हें   किसी   महापुरूष   की   पुण्य   स्मृति   में   बनाया   गया   है।   जिस   महापुरूष   की   स्मृति   के   ये   सूचक   है ,  उसके   गुणों ,  लीलाओं ,  पावन   चरित्र ,  महानताओं   को   स्मरण   रखने   के   लिए   इनका   विधान   है।   इस   श्रेणी   में   रामनवमी ,  कृष्णाष्टमी ,  भीष्म - पंचमी ,  हनुमान - जयंती ,  नाग - पंचमी   आदि   त्योहार   रखे   जा   सकते   हैं।

दोनों   वर्गों   में   मुख्य   बात   यह   है   कि   लोग   सांसरिकता   में   डूब   गए   या   उनका   जीवन   नीरस ,  चिन्ताग्रस्त ,  भारस्वरूप      हो   जाए, उन्हें   ईश्वर   की   दिव्य   शक्तियों   और   अतुल   सामर्थ्य   के   विषय   में   चिन्तन   मनन ,  स्वाध्याय   के   लिए   पर्याप्त   अवकाश   मिले।   पर्व - त्योहार   के   कारण   सांसकरिक   आध - व्याधि   से   पिसे   हुए   लोगों   में   नये   प्रकार   की   उमंग   और   जागृति   उत्पन्न   हो   जाती   है।   बहुत   दिन   पूर्व   से   ही   पर्व - त्योहार   मनाने   में   उत्साह   और   औत्सुक्य   में   आनंद   लेने   लगते   हैं।   हमारा   होलिका - उत्सव   गेहूं   और   चने   की   नई   फसल   का   स्वागत ,  गर्मी   के   आगमन   का   सूचक ,  हंसी - खुशी   और   मनोरंजन   का   त्योहार   है।   ऊंच - नीच ,  अमीर - गरीब,  जाति - वर्ण   का   भेद - भाव   भूलकर   सब   हिंदू   प्रसन्न   मन   से   एक - दूसरे   के   गले   मिलते   और   गुलाब ,  चंदन,  रोली ,  रंग ,  अबीर   लगाते   हैं।   पाररस्परिक   मन - मुटाव   और   वैमनस्य   की   पुण्य   गंगा   बहाई   जाती   है।   यह   वैदिक   कालीन   और   अति   प्राचीन   त्योहार   हैं।   ऋतुराज   वसंत   का   उत्सव   है।   वसंत   पशु - पक्षी ,  कीट ,  पतंग ,  मानव   सभी   के   लिए   मादक   मोहक   ऋतु   है।   इसमें   मनुष्य   का   स्वास्थ्य   भी   अच्छा   रहता   है।  

दीपावली   लक्ष्मी - पूजन   का   त्योहार   है।   गणेश   चतुर्थी ,  संकट   नाशक   पर्व - त्योहार   है।   गणेश   में   राजनीति ,  वैदिक   और   पौराणिक   महत्व   भरा   हुआ   है।   तत्कालीन   राजनीति   का   परिचायक   है।   वसंत   पंचमी   प्रकृति   की   शोभा   का   उत्सव   है।   ऋतुराज   वसंत   के   आगमन   का   स्वागत   इसमें   किया   जाता   है।   प्रकृति   का   जो   सौन्दर्य   इस   ऋतु   में   देखा   जाता   है ,  अन्य   ऋतुओं   में   नही   मिलता।   इस   दिन    सरस्वती   पूजन   भी   किया   जाता   है।   प्रकृति   की   मादकता   के   कारण   यह   उत्सव   प्रसन्नता   का   त्योहार   है।   इस   प्रकार   हमारे   अन्य   पर्व - त्योहार   का   भी   सांस्कृतिक   महत्व   है।   सामूहिक   रूप   से   सब   को   मिलकर   आनंद   मनाने ,  एकता   के   सूत्र   में   बाँधने   का   गुप्त   रहस्य   हमारे   त्योहार   और   उत्सवों   में   छिपा   हुआ   है।

यह   विश्व - प्रकृति   जिससे   मानव   तथा   अन्य   समस्त   प्राणियों   और   भौतिक   पदार्थों   की   उत्पत्ति   हुई   है ,  एक   विशेष   नियम   से   बँधी   है।   उस   नियम   के   अनुसार   ही   मानव - प्रकृति   का   भी   विकास   हुआ   है।   इस   व्यापक   नियम   के   नियन्त्रण   में   ही   हम   को   दिखलाई   पड़ने   वाले   इस   जड़   चैतन्य   संसार   के   सब   कार्य   चल   रहे   है।   इन्हीं   नियमों   को ,  जिनके   आधार   पर   यह   विश्व - संसार   टिका   हुआ   है ,  जान   लेना   और   उनके   अनुकूल   व्यक्तिगत   तथा   सामाजिक   जीवन   की   व्यवस्था   करना   यही   भारतीय   संस्कृति   और   सभ्यता   का   सार   है।   यहाँ   के   प्राचीन   ऋषि - मुनियों   ने   समाज   और   व्यक्तियों   के   लिए   जो   आचरण   और   कर्तव्य   नियत   किए   हैं ,  उन   सब   में   इसी   गहन   तत्व   को   दृष्टिगोचर   रखा   गया   है।   वे   जानते   थे   कि   मनुष्य   का   समस्त   जीवन   इन्हीं   नियमों   की   एक   श्रृंखला   के   रूप   में   है ,  इसलिए   उसका   कोई   भी   कार्य   इनके   विपरीत   नहीं   होना   चाहिए   अन्यथा   प्रकृति   उसे   अवश्य   दंड   देगी।   इसलिए   उन्होंने   हमारे   छोटे - बड़़े   सभी   कर्तव्यों   और   प्रातःकाल   से   लेकर   शयनकाल   तक   दैनिक   कृत्यों   को   धर्म   का   रूप   दे   दिया ,  जिन   पर   आचरण   करके   ही   हम   सुख   और   शन्ति   प्राप्त   कर   सकते   है।

जिस   प्रकार   हिंदू   शास्त्रों   में   हमारे   व्यक्तिगत   कृत्यों   को   धर्म   का   रूप   दिया   गया   है ,  उसी   प्रकार   सामाजिक   कार्यों   को   भी   धर्म   का   अंग   बना   दिया   गया   है ,  जिससे   लोग   उनके   पालन   में   ढिलाई      करें   और   उनसे   यथोचित   प्रेरणा   प्राप्त   करते   रहें।   पर्व - त्योहार   धार्मिक   और   सामाजिक   उत्सव   तथा   व्रत   आदि   का   विधान   वैसे   संसार   की   सभी   जातियों   और   देशों   में   पाया   जाता   है।  

 सच   पूछा   जाए,  जो   हिंदू - जाति   अपनी   प्राचीन   सभ्यता   और   आचार - विचार   को   इतनी   शताब्दियों   के   परिवर्तन   के   बाद   भी   जो   अभी   तक   कायम   रख   सकी   है ,  इसका   बहुत   कुछ   श्रेय   इन   पर्व - त्योहार   और   उत्सवों   को   ही   है।   साधारण   जनता   धर्म   के   गंभीर   उपदेशों   को   नहीं   समझ   सकती   है।   उसको   शिक्षा   देने   और   सुमार्ग   पर   चलाने   का   एकमात्र   मार्ग   धार्मिक   कथा - कहानी   श्रवण   कराना   और   मनोरंजन   के   साथ   धार्मिक   कृत्यों   के   करने   की   विधि   बतलाना   ही   है।   यह   उद्देश्य   त्योहार   और   व्रतोत्सव   आदि   से   ही   सुगमतापूर्वक   सिद्ध   हो   सकता   है।   पर्व - त्योहार   को मनाने की परंपरा के नेपथ्य में अनेक कारण समझ आते हैं, जैसे- जनता में  जागृति ,  सदभावना ,  ऐक्य ,  संगठन   की   वृद्धि   करना ,  लोगों   को   सुसंस्कृत ,  शिष्ट   और   सुयोग्य   नागरिक   बनाना ,  उनमें   सच्ची   सामाजिकता   की   भावना   उत्पन्न   करना,  शस्त्रों   के   मतानुसार    परोपकार   के   कार्यों   के   लिए   यज्ञ करवाना,. किसी   विशेष   ऋतु   के   परिवर्तन   या   फसल   के   तैयार   होने   पर त्योहारों से  सामाजिकता का विकास, सर्व   साधारण   के   मनोरंजन   और   हृदयोल्लास - प्रकाश   के   लिए, किसी   युग - प्रवर्तक   महापुरूष ,  अद्वितीय   कर्मवीर ,  शूरवीर ,  प्रणवीर ,  दानवीर ,  महान   विद्वान ,  आदर्श   प्रतापी   की   अथवा   किसी   महान्   राष्ट्रीय   घटना   की   स्मृति   मनाने   के   निमित्त, आदि।

हमारे   तत्ववेत्ता ,  पूज्यपाद   ऋषि - महर्षियों   के   ऊपर   बतलाये   पाँचों   उद्देश्यों   के   अनुकुल   अनेक   त्योहार   और   पर्व   के   दिवस   नियत   कर   दिए  हैं   और   उन   सब   में   लौकिक   कार्यों   के   साथ   ही   धार्मिक   तत्वों   का   ऐसा   समावेश   कर   दिया   है   कि   उनसे   हम   को   अपने   जीवन - निर्माण   में   बड़ी   सहायता   मिलती   है   और   समाज   भी   सुमार्ग   पर   अग्रसर   हो   सकता   है।   मनुष्य   स्वभाव   से   ही   अनुकरणशील   प्राणी   है।   दूसरों   को   कोई   शुभ   काम   करता   देख   कर   उसके   मन   में   भी   वैसा   ही   काम   करने   की   इच्छा   स्वतः   उत्पन्न   होती   है।  

समाज   या   जाति   व्यक्त्यिों   के   समूह   का   ही   नाम   है।   जिस   समाज   या   जिस   जाति   में   अधिक   संख्या   जैसे   भले   या   बुरे ,  उन्नतशील   अथवा   अवनतशील   लोगों   की   होगी ,  वैसी   ही   वह   जाति   बन   जाएगी।   इसीलिए   सभ्य   जातियां   अपने   महान्   कार्य   करने   वाले   पूर्व   पुरूषों ,  महात्माओं ,  प्रतापवान   व्यक्तियों   की   स्मृति   को   सुरक्षित   बनाए   रखने   के   लिए   प्राणपत्र   से   यत्न   करती   है,  जिससे   आगामी   पीढियों   को   उनका   श्रेष्ठ   आदर्श   प्रेरणा   देता   रहे।   एक   प्रकार   से   तो   हम   कह   सकते   है   कि   हिंदुओं   के   बराबर   त्योहार   और   पर्व - दिवस   संसार   की   किसी   भी   जाति   में   प्रचलित   नहीं   है। 

पर्व - त्योहार   और   धार्मिक   उत्सवों   जाति   के   लिए   नव - जीवन   प्रदान   करने   वाले   और   स्फूर्ति   प्रदायक   होते   है ,  इसलिए   उनका   प्रचार   बढ़ाना   और   उनको   उत्साह   से   मनाना   तो   सभी   समाज - हितैषियों   का   परम   कर्तव्य   है ,  पर   साथ   ही   यह   ध्यान   रखना   भी   परमावश्यक   है   कि   हम   उनके   वास्तविक   उद्देश्य   और   स्वरूप   को      भूलें।  जिस   प्रकार   हम   प्रतिवर्ष   अपन   गृहों ,  वस्तुओं   की   सफाई ,  मरम्मत   आदि   कराते   रहते   हैं ,  उसी   प्रकार   सामाजिक   प्रथाओं   में   भी   समयानुकूल   संशोधन   और   परिवर्तन   करते   रहें।   प्रत्येक   सामाजिक   प्रथा ,  त्योहार   या   उत्सव   आदि   को   अटल - अचल   समझ   लेना   मूर्खता   का   लक्षण   है।   हमें   इस   संबंध   में   सबसे   पहले   यह   सूत्र   याद   कर   लेना   चाहिए   कि   तमाम   प्रथायें   मनुष्यों   के   लिए   बनाई   गई   है ,     कि   मनुष्य   इन   प्रथाओं   के   लिए।   जो   व्यक्ति   ऐसा   समझते   हैं   या   ऐसा   कहते   हैं   कि   ये   तमाम   पर्व - त्योहार   और   उनकी   पद्धतियां   सदा   से   ऐसी   ही   चली   आई   है   कि   सदा   ऐसी   ही   रहनी   चाहिए ,  वे   विचारशील   कदापि   नही   हो   सकते।

पर्व - त्योहार   और   सार्वजनिक   उत्सवों   की   विवेचना   में   हमारा   लक्ष्य   यही   है   कि   अपने   पूर्वजों के   अनुकरणीय   और   उज्ज्वल   सत्कार्यों   की   स्मृति   को   कायम   रखते  हुए ,  हम   उनको   इस   प्रकार   मनाएं   जिससे   वे   हमारे   लिए   ही   नहीं ,  मनुष्यमात्र   के   लिए   कल्याणकारी   सिद्ध   हों।   हमें   सदैव   उनसे   कोई   सत्शिक्षा ,  सत्प्रेरणा   ग्रहण   करनी   चाहिए।  

  सारभूत   मूल्यों   के   गिरते   हुए   स्तर   के   प्रति   बढ़ती   हुई   चिंता   और   समाज   में   बढ़ती   हुई   कटुता   से   यह   ज़रूरी   हो   गया   है।   कि   त्योहारों को  सामाजिक ,  नीतिपरक   और   नैतिक   मूल्य   पैदा   करने   के   लिए   एक   सशक्त   साधन   बनाया   जा   सके।   हमारे   बहुसांस्कृतिक   और   विराट   समाज   में  त्योहारों   के  ज़रिए  विकसित   किए   जाने   वाले   मूल्यों   में   सार्वभौमिक   भावना   हो  और   इनसे   लोगों   में   एकता   और   एकीकरण   की   भावना   विकसित   हो।   इसी से हमारी   विरासत ,  राष्ट्रीय   और   सार्वभौमिक   उद्देश्य   और   विचार अनुकरणीय बन सकेंगे।

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा
सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली॥

 

 

मीता गुप्ता

 

 

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...