Sunday, 15 January 2023

हम और हमारे त्योहार


 

हम और हमारे त्योहार

 

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली॥

बरस-बरस पर आती होली, रंगों का त्यौहार अनोखा
चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल-भाल पर कुमकुम फूटा,

दिवाली- दीपों का मेला, झिलमिल महल-कुटी-गलियारे
भारत-भर में उतने दीपक, जितने जलते नभ में तारे,

मन में राम, बगल में गीता, घर-घर आदर रामायण का
किसी वंश का कोई मानव, अंश साझते नारायण का,

जहाँ राम की जय जग बोला, बजी श्याम की वेणु सुरीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली॥

भारतीय   संस्कृति   में   व्रत ,  पर्व - त्योहार   उत्सव ,  मेले   आदि   अपना   विशेष   महत्व   रखते   हैं।   हिंदूओं   के   ही   सबसे   अधिक   त्योहार   मनाये   जाते   हैं ,  कारण   हिंदू   ऋषि - मुनियों   के   रूप   में   जीवन   को   सरस   और   सुंदर   बनाने   की   योजनाएं   रखी   है।   प्रत्येक   पर्व - त्योहार ,  व्रत ,  उत्सव ,  मेले   आदि   का   एक   गुप्त   महत्व   हैं।   प्रत्येक   के   साथ   भारतीय   संस्कृति   जुडी   हुई   है।   वे   विशेष   विचार   अथवा   उद्देश्य   को   समाने   रखकर   निश्चित   किय   गये   हैं।  हमारे   सांस्कृतिक   और   विराट   समाज   में   शिक्षा   के   जरिये   विकसित   किए   जाने   वाले   मूल्यों   में   सार्वभौमिक   भावना   होनी   चाहिए   और   इनसे   हमारे   लोगों   में   एकता   और   एकीकरण   की   भावना   विकसित   होनी   चाहिए।   इस   प्रकार   की   मूल्य   शिक्षा   रूढ़िवाद ,  धार्मिक   कट्टरता ,  हिंसा ,  अंधविश्वास   और   भाग्यवाद   को   समाप्त   करेगी।   इस   निर्णायक   भूमिका   के   अतिरिक्त ,  मूल्य   शिक्षा   की   एक   गहन   ओर   ठोस   विषयवस्तु   हमारी   विरासत ,  राष्ट्रीय   और   सार्वभौमिक   उद्देश्य   और   विचारों   पर   आधारित   है।   इसमें   इस   पहलू   पर   मुख्य   रूप   से   दिया   जाना   चाहिए।

भारतीय   संस्कृति   में   व्रत ,  पर्व - त्योहार   उत्सव ,  मेले   आदि   अपना   विशेष   महत्व   रखते   हैं।   हिंदूओं   के   ही   सबसे   अधिक   त्योहार   मनाये   जाते   हैं ,  कारण   हिंदू   ऋषि - मुनियों   के   रूप   में   जीवन   को   सरस   और   सुंदर   बनाने   की   योजनाएं   रखी   है।   प्रत्येक   पर्व - त्योहार ,  व्रत ,  उत्सव ,  मेले   आदि   का   एक   गुप्त   महत्व   हैं।   प्रत्येक   के   साथ   भारतीय   संस्कृति   जुडी   हुई   है।   वे   विशेष   विचार   अथवा   उद्देश्य   को   समाने   रखकर   निश्चित   किय   गये   हैं।   प्रथम   विचार   तो   ऋतुओं   के   परिवर्तन   का   है।   भारतीय   संस्कृति   में   प्रकृति   का   साहचर्य   अपना   विशेष   महत्व   रखता   है।   प्रत्येक   ऋतु - परिवर्तन   अपने   साथ   विशेष   निर्देश   लाता   है ,  खेती   मे   कुछ   स्थान   रखता   हैं।   कृषि   प्रधान   होने   के   कारण   प्रत्येक   ऋतु - परिवर्तन   हंसी - खुशी   मनोरंजन   के   साथ   अपना - अपना   उपयोग   रखता   है।   इन्हीं   अवसरों   पर   त्योहार   का   समावेश   किया   गया   है ,  जो   उचित   है।   ये   त्योहार   दो   प्रकार   के   होते   है   और   उद्देश्य   की   दृष्टि   से   इन्हें   दो   भागों   में   विभक्त   किया   जा   सकता   है।

प्रथम   श्रेणी   में   वे   व्रत ,  उत्सव ,  पर्व - त्योहार   और   मेले   है ,  जो   सांस्कृतिक   हैं   और   जिनका   उद्देश्य   भारतीय   संस्कृति   के   मूल   तत्वों   और   विचारों   की   रक्षा   करना   है।   इस   वर्ग   में   हिंदूओं   के   सभी   बड़े - बड़े   पर्व - त्योहार      जाते   है ,  जैसे  -  होलिका - उत्सव ,  दीपावली ,  वसंत ,  श्रावणी ,  संक्रान्ति   आदि।   संस्कृति   की   रक्षा   इनकी   आत्मा   है।

दूसरी   श्रेणी   में   वे   पर्व - त्योहार   आते   है ,  जिन्हें   किसी   महापुरूष   की   पुण्य   स्मृति   में   बनाया   गया   है।   जिस   महापुरूष   की   स्मृति   के   ये   सूचक   है ,  उसके   गुणों ,  लीलाओं ,  पावन   चरित्र ,  महानताओं   को   स्मरण   रखने   के   लिए   इनका   विधान   है।   इस   श्रेणी   में   रामनवमी ,  कृष्णाष्टमी ,  भीष्म - पंचमी ,  हनुमान - जयंती ,  नाग - पंचमी   आदि   त्योहार   रखे   जा   सकते   हैं।

दोनों   वर्गों   में   मुख्य   बात   यह   है   कि   लोग   सांसरिकता   में   डूब   गए   या   उनका   जीवन   नीरस ,  चिन्ताग्रस्त ,  भारस्वरूप      हो   जाए, उन्हें   ईश्वर   की   दिव्य   शक्तियों   और   अतुल   सामर्थ्य   के   विषय   में   चिन्तन   मनन ,  स्वाध्याय   के   लिए   पर्याप्त   अवकाश   मिले।   पर्व - त्योहार   के   कारण   सांसकरिक   आध - व्याधि   से   पिसे   हुए   लोगों   में   नये   प्रकार   की   उमंग   और   जागृति   उत्पन्न   हो   जाती   है।   बहुत   दिन   पूर्व   से   ही   पर्व - त्योहार   मनाने   में   उत्साह   और   औत्सुक्य   में   आनंद   लेने   लगते   हैं।   हमारा   होलिका - उत्सव   गेहूं   और   चने   की   नई   फसल   का   स्वागत ,  गर्मी   के   आगमन   का   सूचक ,  हंसी - खुशी   और   मनोरंजन   का   त्योहार   है।   ऊंच - नीच ,  अमीर - गरीब,  जाति - वर्ण   का   भेद - भाव   भूलकर   सब   हिंदू   प्रसन्न   मन   से   एक - दूसरे   के   गले   मिलते   और   गुलाब ,  चंदन,  रोली ,  रंग ,  अबीर   लगाते   हैं।   पाररस्परिक   मन - मुटाव   और   वैमनस्य   की   पुण्य   गंगा   बहाई   जाती   है।   यह   वैदिक   कालीन   और   अति   प्राचीन   त्योहार   हैं।   ऋतुराज   वसंत   का   उत्सव   है।   वसंत   पशु - पक्षी ,  कीट ,  पतंग ,  मानव   सभी   के   लिए   मादक   मोहक   ऋतु   है।   इसमें   मनुष्य   का   स्वास्थ्य   भी   अच्छा   रहता   है।  

दीपावली   लक्ष्मी - पूजन   का   त्योहार   है।   गणेश   चतुर्थी ,  संकट   नाशक   पर्व - त्योहार   है।   गणेश   में   राजनीति ,  वैदिक   और   पौराणिक   महत्व   भरा   हुआ   है।   तत्कालीन   राजनीति   का   परिचायक   है।   वसंत   पंचमी   प्रकृति   की   शोभा   का   उत्सव   है।   ऋतुराज   वसंत   के   आगमन   का   स्वागत   इसमें   किया   जाता   है।   प्रकृति   का   जो   सौन्दर्य   इस   ऋतु   में   देखा   जाता   है ,  अन्य   ऋतुओं   में   नही   मिलता।   इस   दिन    सरस्वती   पूजन   भी   किया   जाता   है।   प्रकृति   की   मादकता   के   कारण   यह   उत्सव   प्रसन्नता   का   त्योहार   है।   इस   प्रकार   हमारे   अन्य   पर्व - त्योहार   का   भी   सांस्कृतिक   महत्व   है।   सामूहिक   रूप   से   सब   को   मिलकर   आनंद   मनाने ,  एकता   के   सूत्र   में   बाँधने   का   गुप्त   रहस्य   हमारे   त्योहार   और   उत्सवों   में   छिपा   हुआ   है।

यह   विश्व - प्रकृति   जिससे   मानव   तथा   अन्य   समस्त   प्राणियों   और   भौतिक   पदार्थों   की   उत्पत्ति   हुई   है ,  एक   विशेष   नियम   से   बँधी   है।   उस   नियम   के   अनुसार   ही   मानव - प्रकृति   का   भी   विकास   हुआ   है।   इस   व्यापक   नियम   के   नियन्त्रण   में   ही   हम   को   दिखलाई   पड़ने   वाले   इस   जड़   चैतन्य   संसार   के   सब   कार्य   चल   रहे   है।   इन्हीं   नियमों   को ,  जिनके   आधार   पर   यह   विश्व - संसार   टिका   हुआ   है ,  जान   लेना   और   उनके   अनुकूल   व्यक्तिगत   तथा   सामाजिक   जीवन   की   व्यवस्था   करना   यही   भारतीय   संस्कृति   और   सभ्यता   का   सार   है।   यहाँ   के   प्राचीन   ऋषि - मुनियों   ने   समाज   और   व्यक्तियों   के   लिए   जो   आचरण   और   कर्तव्य   नियत   किए   हैं ,  उन   सब   में   इसी   गहन   तत्व   को   दृष्टिगोचर   रखा   गया   है।   वे   जानते   थे   कि   मनुष्य   का   समस्त   जीवन   इन्हीं   नियमों   की   एक   श्रृंखला   के   रूप   में   है ,  इसलिए   उसका   कोई   भी   कार्य   इनके   विपरीत   नहीं   होना   चाहिए   अन्यथा   प्रकृति   उसे   अवश्य   दंड   देगी।   इसलिए   उन्होंने   हमारे   छोटे - बड़़े   सभी   कर्तव्यों   और   प्रातःकाल   से   लेकर   शयनकाल   तक   दैनिक   कृत्यों   को   धर्म   का   रूप   दे   दिया ,  जिन   पर   आचरण   करके   ही   हम   सुख   और   शन्ति   प्राप्त   कर   सकते   है।

जिस   प्रकार   हिंदू   शास्त्रों   में   हमारे   व्यक्तिगत   कृत्यों   को   धर्म   का   रूप   दिया   गया   है ,  उसी   प्रकार   सामाजिक   कार्यों   को   भी   धर्म   का   अंग   बना   दिया   गया   है ,  जिससे   लोग   उनके   पालन   में   ढिलाई      करें   और   उनसे   यथोचित   प्रेरणा   प्राप्त   करते   रहें।   पर्व - त्योहार   धार्मिक   और   सामाजिक   उत्सव   तथा   व्रत   आदि   का   विधान   वैसे   संसार   की   सभी   जातियों   और   देशों   में   पाया   जाता   है।  

 सच   पूछा   जाए,  जो   हिंदू - जाति   अपनी   प्राचीन   सभ्यता   और   आचार - विचार   को   इतनी   शताब्दियों   के   परिवर्तन   के   बाद   भी   जो   अभी   तक   कायम   रख   सकी   है ,  इसका   बहुत   कुछ   श्रेय   इन   पर्व - त्योहार   और   उत्सवों   को   ही   है।   साधारण   जनता   धर्म   के   गंभीर   उपदेशों   को   नहीं   समझ   सकती   है।   उसको   शिक्षा   देने   और   सुमार्ग   पर   चलाने   का   एकमात्र   मार्ग   धार्मिक   कथा - कहानी   श्रवण   कराना   और   मनोरंजन   के   साथ   धार्मिक   कृत्यों   के   करने   की   विधि   बतलाना   ही   है।   यह   उद्देश्य   त्योहार   और   व्रतोत्सव   आदि   से   ही   सुगमतापूर्वक   सिद्ध   हो   सकता   है।   पर्व - त्योहार   को मनाने की परंपरा के नेपथ्य में अनेक कारण समझ आते हैं, जैसे- जनता में  जागृति ,  सदभावना ,  ऐक्य ,  संगठन   की   वृद्धि   करना ,  लोगों   को   सुसंस्कृत ,  शिष्ट   और   सुयोग्य   नागरिक   बनाना ,  उनमें   सच्ची   सामाजिकता   की   भावना   उत्पन्न   करना,  शस्त्रों   के   मतानुसार    परोपकार   के   कार्यों   के   लिए   यज्ञ करवाना,. किसी   विशेष   ऋतु   के   परिवर्तन   या   फसल   के   तैयार   होने   पर त्योहारों से  सामाजिकता का विकास, सर्व   साधारण   के   मनोरंजन   और   हृदयोल्लास - प्रकाश   के   लिए, किसी   युग - प्रवर्तक   महापुरूष ,  अद्वितीय   कर्मवीर ,  शूरवीर ,  प्रणवीर ,  दानवीर ,  महान   विद्वान ,  आदर्श   प्रतापी   की   अथवा   किसी   महान्   राष्ट्रीय   घटना   की   स्मृति   मनाने   के   निमित्त, आदि।

हमारे   तत्ववेत्ता ,  पूज्यपाद   ऋषि - महर्षियों   के   ऊपर   बतलाये   पाँचों   उद्देश्यों   के   अनुकुल   अनेक   त्योहार   और   पर्व   के   दिवस   नियत   कर   दिए  हैं   और   उन   सब   में   लौकिक   कार्यों   के   साथ   ही   धार्मिक   तत्वों   का   ऐसा   समावेश   कर   दिया   है   कि   उनसे   हम   को   अपने   जीवन - निर्माण   में   बड़ी   सहायता   मिलती   है   और   समाज   भी   सुमार्ग   पर   अग्रसर   हो   सकता   है।   मनुष्य   स्वभाव   से   ही   अनुकरणशील   प्राणी   है।   दूसरों   को   कोई   शुभ   काम   करता   देख   कर   उसके   मन   में   भी   वैसा   ही   काम   करने   की   इच्छा   स्वतः   उत्पन्न   होती   है।  

समाज   या   जाति   व्यक्त्यिों   के   समूह   का   ही   नाम   है।   जिस   समाज   या   जिस   जाति   में   अधिक   संख्या   जैसे   भले   या   बुरे ,  उन्नतशील   अथवा   अवनतशील   लोगों   की   होगी ,  वैसी   ही   वह   जाति   बन   जाएगी।   इसीलिए   सभ्य   जातियां   अपने   महान्   कार्य   करने   वाले   पूर्व   पुरूषों ,  महात्माओं ,  प्रतापवान   व्यक्तियों   की   स्मृति   को   सुरक्षित   बनाए   रखने   के   लिए   प्राणपत्र   से   यत्न   करती   है,  जिससे   आगामी   पीढियों   को   उनका   श्रेष्ठ   आदर्श   प्रेरणा   देता   रहे।   एक   प्रकार   से   तो   हम   कह   सकते   है   कि   हिंदुओं   के   बराबर   त्योहार   और   पर्व - दिवस   संसार   की   किसी   भी   जाति   में   प्रचलित   नहीं   है। 

पर्व - त्योहार   और   धार्मिक   उत्सवों   जाति   के   लिए   नव - जीवन   प्रदान   करने   वाले   और   स्फूर्ति   प्रदायक   होते   है ,  इसलिए   उनका   प्रचार   बढ़ाना   और   उनको   उत्साह   से   मनाना   तो   सभी   समाज - हितैषियों   का   परम   कर्तव्य   है ,  पर   साथ   ही   यह   ध्यान   रखना   भी   परमावश्यक   है   कि   हम   उनके   वास्तविक   उद्देश्य   और   स्वरूप   को      भूलें।  जिस   प्रकार   हम   प्रतिवर्ष   अपन   गृहों ,  वस्तुओं   की   सफाई ,  मरम्मत   आदि   कराते   रहते   हैं ,  उसी   प्रकार   सामाजिक   प्रथाओं   में   भी   समयानुकूल   संशोधन   और   परिवर्तन   करते   रहें।   प्रत्येक   सामाजिक   प्रथा ,  त्योहार   या   उत्सव   आदि   को   अटल - अचल   समझ   लेना   मूर्खता   का   लक्षण   है।   हमें   इस   संबंध   में   सबसे   पहले   यह   सूत्र   याद   कर   लेना   चाहिए   कि   तमाम   प्रथायें   मनुष्यों   के   लिए   बनाई   गई   है ,     कि   मनुष्य   इन   प्रथाओं   के   लिए।   जो   व्यक्ति   ऐसा   समझते   हैं   या   ऐसा   कहते   हैं   कि   ये   तमाम   पर्व - त्योहार   और   उनकी   पद्धतियां   सदा   से   ऐसी   ही   चली   आई   है   कि   सदा   ऐसी   ही   रहनी   चाहिए ,  वे   विचारशील   कदापि   नही   हो   सकते।

पर्व - त्योहार   और   सार्वजनिक   उत्सवों   की   विवेचना   में   हमारा   लक्ष्य   यही   है   कि   अपने   पूर्वजों के   अनुकरणीय   और   उज्ज्वल   सत्कार्यों   की   स्मृति   को   कायम   रखते  हुए ,  हम   उनको   इस   प्रकार   मनाएं   जिससे   वे   हमारे   लिए   ही   नहीं ,  मनुष्यमात्र   के   लिए   कल्याणकारी   सिद्ध   हों।   हमें   सदैव   उनसे   कोई   सत्शिक्षा ,  सत्प्रेरणा   ग्रहण   करनी   चाहिए।  

  सारभूत   मूल्यों   के   गिरते   हुए   स्तर   के   प्रति   बढ़ती   हुई   चिंता   और   समाज   में   बढ़ती   हुई   कटुता   से   यह   ज़रूरी   हो   गया   है।   कि   त्योहारों को  सामाजिक ,  नीतिपरक   और   नैतिक   मूल्य   पैदा   करने   के   लिए   एक   सशक्त   साधन   बनाया   जा   सके।   हमारे   बहुसांस्कृतिक   और   विराट   समाज   में  त्योहारों   के  ज़रिए  विकसित   किए   जाने   वाले   मूल्यों   में   सार्वभौमिक   भावना   हो  और   इनसे   लोगों   में   एकता   और   एकीकरण   की   भावना   विकसित   हो।   इसी से हमारी   विरासत ,  राष्ट्रीय   और   सार्वभौमिक   उद्देश्य   और   विचार अनुकरणीय बन सकेंगे।

लो गंगा-यमुना-सरस्वती या लो मंदिर-मस्जिद-गिरजा
ब्रह्मा-विष्णु-महेश भजो या जीवन-मरण-मोक्ष की चर्चा
सबका यहीं त्रिवेणी-संगम, ज्ञान गहनतम, कला रसीली
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रसम-ऋतु-रंग-रंगीली॥

 

 

मीता गुप्ता

 

 

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