लोकतंत्र की 74वीं पायदान पर भी प्रासंगिक हैं गांधी
संत, महात्मा हो तुम
जग के, बापू हो हम दीनों के
दलितों के अभीष्ट वर-दाता, आश्रय हो गतिहीनों
के
आर्य अजातशत्रुता की उस परंपरा
के स्वतः प्रमाण
सदय बंधु तुम विरोधियों के, निर्दय स्वजन अधीनों
के!
30 जनवरी को महात्मा गांधी के निर्वाण-दिवस पर उन्हें
याद करने की परंपरा का निर्वहन प्रति वर्ष किया जाता है। इस वर्ष भी इस अवसर पर
देश ने उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित कर रहा है और हाड़-मांस के उस दुबले अधनंगे फ़कीर
(तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का गांधी को दिया संबोधन) को याद
कर रहा है, जिसके बारे में प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन
का कहना था कि आने वाली पीढ़ियों को यह यकीन ही नहीं होगा कि ऐसा भी कोई व्यक्ति इस
धरती पर आया था। परंतु तीन गोलियाँ खाने के गणतंत्र भारत के 73 वर्ष बीत जाने के
बाद भी वे ज़िंदा हैं, हमारी धमनियों में रक्त के साथ
बहते हैं ।दुनिया में उन्हें आज और भी अधिक प्रासंगिक माना जा रहा है, क्योंकि वैश्विक स्तर पर व्याप्त हिंसा, मतभेद, बेरोज़गारी, मंहगाई तथा तनावपूर्ण माहौल में
उनके सत्य व अहिंसा पर आधारित दर्शन और विचारों के महत्व को सारा विश्व समझ रहा है
।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े राजनैतिक एवं
आध्यात्मिक नेता मोहनदास करमचंद गांधी के आदर्शों, विश्वासों एवं
दर्शन से उदभूत विचारों के संग्रह को गांधीवाद कहा जाता है।
गांधी का कहना था कि स्वराज्य एक
पवित्र शब्द है, यह एक वैदिक शब्द है, जिसका अर्थ आत्मशासन और आत्मसंयम है। अंग्रेजी शब्द ‘इंडिपेंडेंस’ सब
प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आज़ादी या स्वच्छंदता का अर्थ देता है, लेकिन स्वराज्य शब्द के अर्थ में ऐसा नहीं है। गांधी का स्वराज गाँवों में
बसता था और वे गाँवों में गृह उद्योगों की दुर्दशा से चिंतित थे। खादी को
प्रोत्साहन और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार उनके जीवन के आदर्श थे, जिनको आधार बनाकर उन्होंने देशभर के करोड़ों लोगों को आज़ादी की लड़ाई के
साथ जोड़ा। उनका कहना था कि खादी का मूल उद्देश्य प्रत्येक गाँव को अपने भोजन एवं
कपड़े के मामले में स्वावलंबी बनाना है।
गांधी यह मानते थे कि आर्थिक व्यवस्था का व्यक्ति और
समाज पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है और उससे उत्पन्न हुई आर्थिक और सामाजिक
मान्यताएँ राजनीतिक व्यवस्था को जन्म देती हैं। उत्पादन की केंद्रित प्रणाली से
केंद्रीभूत पूंजी उत्पन्न होती है, जिसके फलस्वरूप
समाज के कुछ ही लोगों के हाथों में आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था केंद्रित हो जाती
है। ऐसे में गांधी के समाज की रचना विकेंद्रीकरण पर आधारित मानी जा सकती है। गांधी
के आर्थिक-सामाजिक दर्शन में विक्रेंद्रित उत्पादन प्रणाली, उत्पादन के साधनों का विकेंद्रित होना और पूंजी विकेंद्रित होने की बात
कही गई है, ताकि समाज जीवन के लिए आवश्यक पदार्थों की
उपलब्धि में स्वावलंबी हो और उसे किसी का मुखापेक्षी न बनना पड़े।
पंचायत और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विषय में गांधी के
विचार बहुत स्पष्ट थे। उनका कहना था कि यदि हिंदुस्तान के प्रत्येक गाँव में कभी
पंचायती राज कायम हुआ, तो मैं अपनी इस तस्वीर की सच्चाई साबित कर सकूंगा, जिसमें सबसे पहला और सबसे आखिरी दोनों बराबर होंगे, अर्थात् न कोई पहला होगा और न आखिरी। इस बारे में उनका मानना था कि जब
पंचायती राज स्थापित हो जाएगा तब लोकतंत्र ऐसे भी अनेक काम कर दिखाएगा, जो हिंसा कभी नहीं कर सकती।
गांधी भलीभाँति जानते थे कि भारत की वास्तविक आत्मा
देश के गाँवों में बसती है। अत: जब तक गाँव विकसित नहीं होंगे, तब
तक देश के वास्तविक विकास की कल्पना करना बेमानी है। गांधी के दर्शन में देश के
आर्थिक आधार के लिये गाँवों को ही तैयार करने की कल्पना की गई है। गांधी का विचार
था कि भारी कारखाने स्थापित करने के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बचाए रखना ज़रूरी
है।
गांधी को समझने के लिए यह स्पष्टतः समझना होगा कि
गांधीवाद धर्म की
एक ठोस बुनियाद पर खड़ा है, जिसके बारे में उनका मानना
था कि इसके संस्कार उन्हें अपनी माता से मिले। गांधी ने अपने अखबार ‘यंग इंडिया’
में लिखा था कि सार्वजनिक जीवन के आरंभ से ही उन्होंने जो कुछ कहा और किया है, उसके पीछे एक धार्मिक चेतना और धार्मिक उद्देश्य रहा है। राजनीतिक जीवन
में भी उनके धार्मिक विचार उनके राजनीतिक आचरण के लिये पथ-प्रदर्शक बने रहे। वे
स्वधर्म के साथ अन्य सभी धर्मों का समान आदर करते थे। उनका कहना था कि मेरा धर्म तो वह है जो
मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है...जो मनुष्य को उसके आंतरिक सत्य के अटूट संबंध
में बाँध देता है...और जो सदैव पाक-साफ करता है। गांधी के अनुसार धर्म सबसे प्रेम
करना सिखाता है...न्याय तथा शांति की स्थापना के लिये खुद के बलिदान की प्रेरणा
देता है। उनकी निगाह में धर्म
निर्बल का बल तथा सबल का मार्गदर्शक है।
स्वच्छता एवं अस्पृश्यता गांधी
दर्शन के केंद्र में हैं और इन पर उनके विचार स्पष्ट एवं पूर्ण रूप से केंद्रित
थे। जनसरोकारों से जुड़े अपने लगभग हर संबोधन में गांधी स्वच्छता के मामले को उठाते
थे। उनका मानना था कि नगरपालिका का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य सफ़ाई रखना है। जो भी
उनके आश्रम में रहने आता था, गांधी जी की पहली शर्त यह
होती थी कि उसे आश्रम की सफ़ाई का काम करना होगा, जिसमें
शौच का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करना भी शामिल था। गांधी का मानना था कि स्वच्छता ईश्वर भक्ति के
बराबर है, इसलिए
वे चाहते थे कि भारत के सभी नागरिक एक साथ मिलकर देश को स्वच्छ बनाने के लिये
कार्य करें।
गांधी ने सर्वप्रथम सत्य, अहिंसा
और शत्रु के प्रति प्रेम के आध्यात्मिक और
नैतिक सिद्धांतों का राजनीति के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया और सफलता
प्राप्त की। उन्होंने जहां एक ओर भारत को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति दिलाने
में अग्रणी भूमिका निभाई, वहीं दूसरी ओर संसार को
अहिंसा का ऐसा मार्ग दिखाया, जिस पर यकीन करना कठिन ही
नहीं, अविश्वसनीय भी लगता है। गांधी ने राजनीति, समाज, अर्थ एवं धर्म के क्षेत्र में नए आदर्श
स्थापित किए व उसी के अनुरूप लक्ष्य प्राप्ति के लिए स्वयं को समर्पित ही नहीं
किया, बल्कि देश की जनता को भी प्रेरित किया और
आशानुरूप परिणाम भी प्राप्त किए।
गांधी अस्पृश्यता या छुआछूत के
विरुद्ध संघर्ष को
साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष से भी कहीं अधिक विकराल मानते थे। इसकी वजह यह थी कि
साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में तो उन्हें बाहरी ताकतों से लड़ना था, लेकिन
अस्पृश्यता से संघर्ष में उनकी लड़ाई अपनों से थी। वे कहते थे कि मेरा जीवन अस्पृश्यता
उन्मूलन के लिए समर्पित है। गांधी ने अस्पृश्यता को समाज का कलंक
तथा घातक रोग माना, जो न केवल स्वयं को अपितु संपूर्ण समाज को नष्ट कर
देता है।
उनके अनुसार एक सत्याग्रही सदैव सच्चा, अहिंसक
व निडर रहता है। गांधी जी का सत्याग्रह सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित
था। उनका कहना था कि किसी भी सत्याग्रही में बुराई के विरुद्ध संघर्ष करते समय सभी
प्रकार की यातनाओं को सहने की शक्ति होनी चाहिए।
गांधी सविनय अवज्ञा की बात करते हैं और वह
भी पूर्णतः अहिंसक तरीके से। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद 1917 में
बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों के समर्थन में उनका पहला सत्याग्रह
देखने को मिला, जिसने अंग्रेज़ी सरकार को झुकने पर विवश किया।
गांधी ज्ञान आधारित शिक्षा के स्थान पर आचरण आधारित शिक्षा के समर्थक थे। उनका
कहना था कि शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए, जो व्यक्ति को
अच्छे-बुरे का ज्ञान प्रदान कर उसे नैतिक रूप से सबल बनाए। व्यक्ति के सर्वांगीण
विकास के लिये उन्होंने वर्धा योजना में प्रथम सात वर्षों की शिक्षा को निःशुल्क
एवं अनिवार्य करने की बात कही थी। गांधी का यह भी मानना था कि व्यक्ति अपनी
मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा को अधिक रुचि तथा सहजता के साथ ग्रहण कर सकता है। अखिल
भारतीय स्तर पर भाषायी एकीकरण के लिए वे कक्षा सात तक हिंदी भाषा में ही शिक्षा
प्रदान करने के पक्षधर थे।
उन्हें बेहद प्रयोगधर्मी व्यक्ति माना जाता है, लेकिन
यह प्रयोग केवल बौद्धिक स्तर तक सीमित नहीं था; बल्कि
इसे उन्होंने अपने जीवन में भी उतारा, जिसकी कुछ लोग आज
के दौर में आलोचना भी करते हैं। उनकी जीवन-दृष्टि ‘वसुधैव
कुटुम्बकं’ का मार्ग प्रशस्त करती है। आज गांधी हमारे बीच नहीं
हैं, किंतु वे एक प्रेरणा और प्रकाश-पुंज बनकर आज भी
दैदीप्यमान हैं और हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। निश्चित ही उनके द्वारा दिखाए
गए मार्ग का अनुसरण करके एक सुंदर,सुखद और सुदृढ़ विश्व की
संकल्पना की जा सकती है । उनके निर्वाण-दिवस पर उनको भावपूरित श्रद्धांजलि –
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि!
हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम!
मीता गुप्ता
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