क्या नारी केवल श्रद्धा है?
‘मनुस्मृति’ में कहा गया है-“यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः। अर्थात जहां महिलाओं की पूजा होती है,
वहां देवता निवास करते हैं। वाल्मीकि रामायण में ऋषि भारद्वाज श्री राम
को संबोधित करते हुए कहते हैं-
मित्राणि धन धान्यानि
प्रजानां सम्मतानिव ।
जननी जन्म भूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अर्थात
"मित्र,
धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक
सम्मान है, किंतु माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी
ऊपर है। धर्मग्रंथों में महिला को 'आदिशक्ति' मानकर उसकी पूजा की गई है। जयशंकर प्रसाद ने भी हमारी इसी पुरातन संस्कृति
की गरिमा को बनाए रखते हुए कहा कि-
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में॥
कविवर जयशंकर प्रसाद की कामायनी में उपरोक्त पंक्तियां मनु द्वारा
श्रद्धा से कही गई है। ये पंक्तियां हमेशा मुखर आलोचना एवं विवाद का विषय रही हैं।
इसका कारण यह है कि यह संकेतात्मक रूप से समाज में महिला की भूमिका को नेपथ्य में
धकेलती है क्योंकि वह अपने जीवन के स्वर्णिम सपनों की आहुति अपने परिवार, पति एवं
संतानों के लिए दे चुकी होती है, जहां उसे इस महान बलिदान के
बदले नगण्य प्राप्त हुआ है। यह आत्मोत्सर्ग सदा स्वप्रेरित नहीं रहा है। अक्सर यह
उस परवरिश से उत्पन्न होता है, जो एक स्त्री को दी जाती है।
जहां कि उसे इस त्याग के साथ रहना सिखाया जाता है। इस विषय पर भारतीय दृष्टि से विचार
करने की की ज़रूरत है क्योंकि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में यानी भारतीय संस्कृति, साहित्य, परंपराओं, रीतिरिवाज़ों
और शास्त्रों के अनुसार इसका आकलन करते हैं, पश्चिम की
दृष्टि से नहीं।
भारतीय संदर्भों में मनीषा समानाधिकार, समानता,
प्रतियोगिता की बात नहीं करती, वह सहयोगिता, सहधर्मिती, सहचारिता की बात करती है। ऐसा माना जाता
रहा है कि इसी से परस्पर संतुलन स्थापित हो सकता है। पौराणिक युग में महिला वैदिक
युग के दैवी पद से उतरकर सहधर्मिणी के स्थान पर आ गई थी। धार्मिक अनुष्ठानों और
याज्ञिक कर्मो में उसकी स्थिति पुरूष के बराबर थी। कोई भी धार्मिक कार्य बिना
पत्नी नहीं किया जाता था। श्रीरामचन्द्र ने अश्वमेध के समय सीता की हिरण्यमयी
प्रतिमा बनाकर यज्ञ किया था। यद्यपि उस समय भी अरुंधती (महर्षि वशिष्ठ की पत्नी),
लोपामुद्रा, महर्षि अगस्त्य की पत्नी), अनुसूया ( महर्षि अ़त्रि की पत्नी) आदि महिलाएं दैवी रूप की प्रतिष्ठा के
अनुरूप थी तथापि ये सभी अपने पतियों की सहधर्मिणी ही थीं। भारत में महिलाओं की
स्थिति सदैव एक समान नही रही है। इसमें युगानुरूप परिवर्तन होते रहे हैं। उनकी
स्थिति में वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे हैं तथा उनके
अधिकारों में तदनरूप बदलाव भी होते रहे हैं।वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल में महिलाओं
को गरिमामय स्थान प्राप्त था। उसे देवी, सहधर्मिणी
अर्द्धांगिनी, सहचरी माना जाता था। पौराणिक काल में शक्ति का
स्वरूप मानकर उसकी आराधना की जाती रही है। किंतु 11वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी
के बीच भारत में महिलाओं की स्थिति दयनीय होती गई। एक तरह से यह महिलाओं के सम्मान,
विकास, और सशक्तिकरण का अंधकार युग था। मुगल
शासन, सामंती व्यवस्था, केंद्रीय सत्ता
का विनष्ट होना, विदेशी आक्रमण और शासकों की विलासितापूर्ण
प्रवृत्ति ने महिलाओं को उपभोग की वस्तु बना दिया था और उसके कारण बाल विवाह,
पर्दा प्रथा, अशिक्षा आदि विभिन्न सामाजिक
कुरीतियों का समाज में प्रवेश हुआ, जिसने महिलाओं की स्थिति
को हीन बना दिया तथा उनके निजी व सामाजिक जीवन को कलुषित कर दिया। स्वतंत्रता
प्राप्ति के पूर्व तक स्त्रियों की निम्न दशा के प्रमुख कारण अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता, धार्मिक निषेध, जाति बंधन, स्त्री नेतृत्व का अभाव तथा पुरूषों का
उनके प्रति अनुचित दृष्टिकोण आदि थे। मेटसन ने हिंदू संस्कृति में स्त्रियों की एकांतता
तथा उनके निम्न स्तर के लिए पांच कारकों को उत्तरदायी ठहराया है, यह है- हिंदू धर्म, जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार, इस्लामी शासन तथा ब्रिटिश
उपनिवेशवाद। परंतु ऐसा कहते हुए हम उन महान महिला स्वतंत्रता सेनानियों को नहीं
भुला सकते, जिनके अथक परिश्रम, अदम्य
साहस और अटल विश्वास ने भारत को आज़ादी दिलाई, भले ही इनकी
संख्या कम है।
19वीं सदी के मध्यकाल से लेकर 21वीं सदी तक आते-आते पुनः महिलाओं
की स्थिति में सुधार हुआ और महिलाओं ने शैक्षिक, राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, प्रशासनिक,
खेलकूद आदि विविध क्षेत्रों में उपलब्धियों के नए आयाम तय किए। बाल-विवाह,
भ्रूण-हत्या पर सरकार द्वारा रोक लगाने का अथक प्रयास हुआ है।
शैक्षणिक गतिशीलता से पारिवारिक जीवन में परिवर्तन आया। संवैधानिक अधिकारों में
विभिन्न कानूनों के द्वारा महिलाओं को पुरूषों के समान अधिकार मिलने से उनकी
स्थिति में परिवर्तन हुआ। महिलाओं की विवाह विच्छेद परिवार की सम्पत्ति में
पुरूषों के समान अधिकार दिये गए। दहेज पर कानूनी प्रतिबंध लगा तथा उन व्यक्तियों
के लिए कठोर दंड की व्यवस्था की गई, जो दहेज की मांग को लेकर
महिलाओं का उत्पीड़न करते रहे हैं। संयुक्त परिवारों के विघटित होने से जैसे-जैसे
एकाकी परिवारों की संख्या बढ़ी, इनमें न केवल महिलाओं को
सम्मानित स्थान मिलने लगा, बल्कि लड़कियों की शिक्षा को भी एक
प्रमुख आवश्यकता के रूप में देखा जाने लगा । वातावरण अधिक समताकारी होने से
महिलाओं को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के अवसर मिलने लगे हैं।
सरकार द्वारा उनकी आर्थिक, सामाजिक,
शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार लाने तथा उन्हे विकास की मुख्य
धारा में समाहित करने हेतु अनेक कल्याणकारी योजनाओं और विकासात्मक कार्यक्रमों का
संचालन किया गया है। महिलाओं को विकास की अखिल धारा में प्रवाहित करने, शिक्षा के समुचित अवसर उपलब्ध कराकर उन्हें अपने अधिकारों और दायित्वों के
प्रति सजग करते हुए उनकी सोच में मूलभूत परिवर्तन लाने, आर्थिक
गतिविधियों में उनकी अभिरूचि उत्पन्न कर उन्हे आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से
आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की ओर अग्रसारित करने जैसे अहम उद्देश्यों की पूर्ति
हेतु पिछले कुछ दशकों में विशेष प्रयास किए गए हैं।
आज महिलाएं आत्मनिर्भर, स्वनिर्मित, आत्मविश्वासी
हैं, जिसने पुरूष प्रधान चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में भी अपनी
योग्यता प्रदर्शित की है। वह केवल शिक्षिका, नर्स, स्त्री रोग की डाक्टर न बनकर इंजीनियर, पायलट,
वैज्ञानिक, तकनीशियन, सेना,
पत्रकारिता जैसे नए क्षेत्रों को अपना रही है। राजनीति के क्षेत्रों
में महिलाओं ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर श्रीमती
द्रौपदी मूर्मू और श्रीमती प्रतिभा पाटिल, लोकसभा स्पीकर के
पद पर मीरा कुमार, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, नेत्री ममता बैनर्जी, मायावती, वसुंधरा राजे, सुषमा स्वराज, जयललिता,
ममता बनर्जी, शीला दीक्षित आदि महिलाएं
राजनीति के क्षेत्र में शीर्ष पर रही हैं। सामाजिक क्षेत्र में भी मेधा पाटकर,
किरण मजूमदार, इलाभट्ट, सुधा
मूर्ति आदि महिलाएं ख्यातिलब्ध हैं। खेल जगत में पी.टी. ऊषा, अंजू बाबी जार्ज, सुनीता जैन, सानिया
मिर्जा, अंजू चोपड़ा,साइना नेहवाल, मैरी कॉम, साक्षी मलिक आदि ने नए कीर्तिमान स्थापित
किए हैं। आई.पी.एस. किरण बेदी, अंतरिक्ष यात्री सुनीता
विलियम्स, मिसाइल वुमैन टैसी थॉमस आदि ने उच्च शिक्षा
प्राप्त करके विविध क्षेत्रों में अपने बुद्धि कौशल का परिचय दिया है।
20वीं सदी के उत्तरार्द्ध और अब 21वीं सदी के प्रारंभ में नौकरी
वाली महिला के साथ पुरूष की मानसिकता में बदलाव आया है। पहले नौकरी वाली औरत के
पति को ”औरत की कमाई खाने वाला” कह कर चिढ़ाया जाता था। आज यह सोच बदल चुकी है।
स़्त्री स्वायत्ता में अर्थशास्त्र का योगदान अद्भुत है। स्त्रियां धन कमाने लगीं
हैं, तो पुरूष की मानसिकता में भी परिवर्तन आया है। आर्थिक दृष्टि से महिला
अर्थचक्र के केंद्र की ओर बढ़ रही है। विज्ञापन की दुनिया में महिलाएं बहुत आगे
हैं। बहुत कम ही ऐसे विज्ञापन होंगे जिनमें महिला न हो,
लेकिन विज्ञापन में अश्लीलता चिंतन का विषय है।
भूमंडलीकृत दुनिया में भारत और यहां की महिलाओं ने अपनी एक नितांत
सम्मानजनक जगह कायम कर ली है। आंकड़े दर्शाते हैं कि प्रतिवर्ष कुल परीक्षार्थियों
में 50 प्रतिशत महिलाएं डाक्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण करती हैं। आज़ादी के बाद लगभग
12 महिलाएं विभिन्न राज्यों की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। भारत के अग्रणी साफ्टवेयर
उद्योग में 21 प्रतिशत पेशेवर महिलाऐं हैं। फौज, राजनीति, खेल, पायलट तथा उद्यमी सभी क्षेत्रों में जहां वर्षो
पहले तक महिलाओं के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वहां सिर्फ महिला स्वयं
को स्थापित ही नहीं कर पाई है, बल्कि वहां सफल भी हो रही
हैं। नेहरू जी ने कहा था कि यदि आपको विकास करना है, तो महिलाओं का उत्थान करना होगा। महिलाओं का विकास
होने पर समाज का विकास स्वतः हो जाएगा। महिलाओं को शिक्षा देने तथा सामाजिक
कुरीतियों को दूर करने के लिए जो सुधार आंदोलन प्रारंभ हुआ उससे समाज में एक नई
जागरूकता उत्पन्न हुई है।
महिला-शिक्षा समाज का आधार है। समाज द्वारा पुरूष को शिक्षित करने
का लाभ केवल मात्र पुरूष को होता है जबकि महिला शिक्षा का स्पष्ट लाभ परिवार, समाज एवं संपूर्ण
राष्ट्र को होता है। महिला ही माता के रूप में बच्चे की प्रथम शिक्षक होती है। आज
समय एवं परिस्थितियों ने महिला शिक्षा को अनिवार्य बना दिया है। भारत ही नहीं,
विश्व पटल पर अपनी पहचान बनाती हुई स्त्रियों ने अपनी पुरानी
मान्यताएं बदली हैं। आज की स्त्री की अस्मिता का प्रश्न मुखर होता जा रहा है। अपने
अस्तित्व को बचाये रखने के लिये संघर्ष करती हुई स्त्रियों ने लंबा रास्ता तय कर
लिया है।
महिलाएं राष्ट्र की निर्माता हैं। दुनिया की आधी आबादी सहित
महिलाएं भारतीय संस्कृति को बहुत महत्व देती हैं। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के
अनुसार,
मानव पूंजी में महिलाओं की हिस्सेदारी 50
प्रतिशत है, जो सबसे बड़ा मानव संसाधन है, जो बड़ी क्षमता वाले पुरुषों के बाद सबसे बड़ा मानव संसाधन है। शोध से पता
चला है कि बुजुर्ग महिलाएं, जो भारत में अकेले या अपने परिवार
के साथ रहने में सक्षम हैं, न केवल अपने देश में बल्कि
दुनिया के अन्य देशों में भी सामाजिक कार्यों में भाग ले सकती हैं, उन बच्चों के लिए कोचिंग प्रदान कर सकती हैं, जो
इसके शिकार होते हैं। गरीबी, जो वंचित, वंचित और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। इस कारण से, उन्हें क्षमता विकसित करने, आवश्यक कौशल रखने और
उनके द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषयों से अवगत होने की आवश्यकता है।
नेपोलियन ने कहा था, "मुझे अच्छी माताएं दो और मैं तुम्हें एक अच्छा राष्ट्र दूंगा।" महिलाएं परिवार की गुणवत्ता और सतत विकास की आधारशिला हैं, जो एक स्वस्थ समाज का निर्माण करती हैं। वे एक मुखिया, एक निर्देशक, एक पारिवारिक आय प्रबंधक और अंत में एक
माँ के रूप में विभिन्न भूमिकाएं निभाती हैं। समाज में महिलाओं की स्थिति मानव
विकास और सामाजिक न्याय पर केंद्रित है और राजनीतिक सुधार को प्रभावित करती है।
भारत में, महिलाओं की नीति सक्रियता में धार्मिक और राजनीतिक
समुदायों और संगठनों द्वारा उत्पन्न संदर्भ-विशिष्ट चुनौतियां शामिल हैं। महिला
सामाजिक कार्यकर्ता भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता को बढ़ावा देते हुए
निजी और सार्वजनिक संरचनाओं में विभिन्न लिंग भूमिकाओं से अभिभूत हैं। आत्म-सम्मान
अर्जित करने के लिए, प्रत्येक महिला को दूसरों पर निर्भर
रहने के बजाय खुद को बचाने के लिए मार्शल आर्ट सीखना होगा। इस प्रकार, राजनीतिक महिलाओं की ओर से सक्रियता में लिंग की सामाजिक संरचना को बदलना
और राज्य की नीतियों को नियंत्रित करने वाले विभिन्न संगठनों और संरचनाओं का सामना
करना शामिल है। इसलिए, यह बताया जा सकता है कि महिलाओं को यह
सुनिश्चित करना चाहिए कि वे नियमों का पालन करें और समाज के प्रति किसी भी स्थिति
में संलग्न होने के दौरान संरचित तरीके से व्यक्तियों और समुदाय दोनों की भलाई को
बढ़ावा दें।
जिस प्रकार उर्वर मृदा में बोया बीज एक विशाल एवं मजबूत वृक्ष में
परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार बच्चों के कोमल मन में अगर लैंगिक
समानता का बीज बोया जाए, तो भले ही आज यह एक छोटे से अंकुर
के रूप में संरक्षण खोजे पर समय के साथ यह एक विशाल वृक्ष में परिवर्तित होगा जो
स्त्रियों और पुरुषों, दोनों को छाया देगा। अतः महिला को
केवल श्रद्धा का पात्र बनाकर, उसे श्रद्धा के फ्रेम में जड़कर
या उसकी पूजा करके न तो उनका कल्याण होगा, न समाज का। यदि
वास्तव में महिलाएं श्रद्धा का पात्र हैं, तो केवल अपनी
अदम्य जिजीविषा, विपरीत परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने
की क्षमता, संघर्षशीलता, सदैव
ऊर्ध्वमुखी रहने की आकांक्षा तथा समाजोपयोगी बने रहने की चाहत के साथ-साथ
घर-परिवार दोनों का संतुलन बनाए रखने का अपूर्व सामर्थ्य के कारण।
क्यों है न.........!!!
मीता गुप्ता
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