Monday, 13 February 2023

जो भी प्यार से मिला

 

जो भी प्यार से मिला



कल दुनिया भर में ‘वैलेंटाइन्स डे’ मनाया गया, तो सोचा बात तो प्यार की है, तो कुछ लिख कर देखूँ? प्यार के बारे में। वैसे मेरा मानना है कि ‘प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो’ वाली बात सोलह आने सच है | तो किस्सा एक सहेली का है| उस दिन वे मिलीं।  बहुत ही गुस्से में थीं और दुखी भी,  ऑफिस में उनका अपने बॉस से झगड़ा हुआ था। उनका कहना था की बॉस ने सबके सामने उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचाई है और वे उससे बहुत खफ़ा हैं, दुखी हैं । कई बार प्रेम संबंधों और अन्य रिश्तों में भी यही होता है।  हम छोटी-छोटी बातों को अपने आत्मसम्मान से जोड़ कर देखने लगते हैं। रिश्ते टूटें तो टूटें, पर अहम पर आँच न आने पाए। घरों से,  दफ़्तरों से उठकर अब ये कीड़ा सोशल साइट्स पर भी रेंगने लगा है। फ़ेसबुक की लाइक्स को साहित्यकारों, लेखकों और कवियों ने अपने आत्मसम्मान से जोड़ दिया है। उनकी लिखी बात,  उनके स्टेटस पर अगर कोई दूसरा व्यक्ति उनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़े, तो सब ठीक।  जो अगर उसने अपने निजी विचार व्यक्त कर दिए,तो लेखक के आत्मसम्मान  को ठेस लग जाती है। और फिर फ़ेसबुक कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाती है।

अक्सर लोग अपने पहनावे,  अपनी आवाज़,  अपने नाम, अपने चाल-ढाल, अपने हेयर स्टाइल इत्यादि को लेकर भी इतने सचेत रहते हैं कि  कोई मज़ाक में भी इन पर कमेन्ट कर दे तो झगड़े की नौबत आ जाए। क्या हमारा आत्मसम्मान इन छोटी-छोटी चीज़ों से मिलकर बना है? क्या अहमियत है इन चीज़ों की जीवन में ?  क्यों हमारा ध्यान बार-बार इन चीज़ों की तरफ़ ही जाता है ? सब हमें ही देख रहे हैं, सब हमारे ही दुश्मन हैं,  सब की निगाह हम पर ही क्यों है,  सभी हमसे जलते है या मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है,  या सभी मेरे खिलाफ़ साज़िश करते हैं।  ये संदेह,  ये शंका कभी भी हमें सहज नहीं होने देती। जब हम किसी चीज़ के प्रति बहुत ज़्यादा सचेत होने लगते हैं तो इससे हमारे व्यवहार में असहजता आ जाती है। हम जिन चीज़ों पर बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहते, उसी पर  बार -बार ध्यान जाता है। हम परेशान  हो जाते हैं कि  हम कैसे अपना ध्यान हटा लें ताकि चीजें या घटनाएं  हमें परेशान न करें।

अक्सर किसी चीज़ पर ध्यान देना या ना देना,  किसी चीज़  के प्रति सचेत होना या न होना, उसके प्रति  हमारे रवैये पर निर्भर करता  है। हम  किसी वस्तु विशेष या व्यक्ति विशेष के प्रति लगाव या महत्त्वपूर्ण रवैया रखते हैं,  तो हम कितनी भी कोशिश कर लें,  हमारा ध्यान उस तरफ बरबस जाता ही रहेगा। हम उसके प्रति सचेत होते ही रहेंगे। इसका सीधा-सीधा मतलब यह हुआ कि चीज़ों के प्रति  जब तक हमारा नज़रिया नहीं बदलेगा,  सोच नहीं बदलेगी और रवैया नहीं बदलेगा तब तक उन पर ध्यान जाना कम नहीं होगा। संबंधों से,  लोगों से या चीजों से  घबरा कर उनसे दूर भागना,बातचीत बंद कर देना,उनसे ध्यान हटाने के लिए नशे में डूब जाना ये पलायन है। यह समस्या का हल नहीं और न ये समस्या का निपटारा ही है।

अक्सर हम ज़रा-ज़रा सी बात पर नाराज़ हो जाते हैं,कोई हमारा अगर मज़ाक उड़ा दे, तो हमें क्रोध आ जाता है और हम सामने वाले को नीचा दिखाने की सभी कोशिशें कर डालते हैं। जब तक उसे जी भर कर कोस न लें मन शांत नहीं होता... कभी आपने सोचा है,  ऐसा क्यों होता है?  ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमने अपने अहम को,  अपनी इज़्ज़त को,  अपने आत्मसम्मान को बहुत अधिक बड़ा बना लिया है। उसे बहुत अधिक महत्त्व दे दिया है। हम किन्हीं भी परिस्थितियों में इनके साथ समझौता करना नहीं चाहते। हम हमेशा  इस बात के लिए सचेत रहते हैं की चाहे जो हो हमारे अहम पर आँच न आए। जब-जब भी हमारी इज़्ज़त,  अहम और आत्मसम्मान पर कोई खतरा हमें दिखाई देता है,  हम असहज हो जाते हैं।  थोड़ा आगे बढ़ें तो, हमें गुस्सा आने लगता है। और अचानक हमारा व्यवहार बहुत उग्र हो जाता है।

हम कभी भी नहीं चाहते की हमारा व्यवहार उग्र हो,  लोग हमें कठोर समझें या अहमवादी समझें,  लेकिन फिर भी हम इस स्थिति से खुद को बचा नहीं पाते। हम ऐसी स्थिति से बचने का प्रयास करते हैं,  अपने क्रोध को दबाने की कोशिश करते हैं। दूसरी जगह पर दूसरी चीजों  पर ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ये सब बेकार के टोटके सिद्ध होते हैं। दरअसल  हमने इसके मूल कारण को तो जाना नहीं । अपने क्रोध की,  प्रेम की,  भावनाओं को दबा दिया और इन्हें दबाने से हमने उनके तात्कालिक प्रदर्शन को तो रोक दिया लेकिन इसकी प्रतिक्रियास्वरूप अवसादग्रस्त हो गए। हमने अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को दबाया,  उसका दमन किया और बदले में गहरा अवसाद पाया। सिर्फ अवसाद ही नहीं बहुत-सी मनोवैज्ञानिक समस्याएं  बुला लीं। पहले भावनाओं का दमन,  फिर क्रोध और अंत हुआ अवसाद पर... है न………….? 

अब सवाल यह कि इस समस्या से  कैसे बचें ?  मैं फिर उसी बात पर आती हूँ कि  हमें अपने स्वभाव,  अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों और अपने रवैए से आंतरिक लड़ाई करनी पड़ेगी। हमें खुद को समझाना होगा कि हमारी इज़्ज़त,  अहम और आत्मसम्मान की हमारे जीवन में क्या अहमियत है ? समाज और परिवेश के साथ अंतर्संबंधों में इनकी क्या भूमिका होनी चाहिए? हमें सीखना होगा कि कब हमारा आत्मसम्मान महत्वपूर्ण है,  और कब बाकी चीज़ें। कहीं ऐसा तो नहीं की कि हमने अपने आत्म-सम्मान को,  अपने अहम को बचाने में कोमल रिश्तों की बलि दे दी हो। हमें खुद से पूछना होगा कि क्या वास्तव में हमारा आत्मसम्मान छुई-मुई जैसा है,  जिसे कोई भी अपने स्पर्श से मुरझा कर चला  जाए। क्या हमारा आत्मसम्मान इससे अधिक लचीला और मजबूत नहीं होना चाहिए,  जिस पर किसी की बात का कोई असर न पड़े। किसी की क्या बिसात जो हमें तोड़ जाए। हमें हमारे आत्म-सम्मान के प्रति हमारे संबंधों को समझना  और बदलना होगा।

दूसरी बात, हमें ऐसे हालातों में अपने प्रतिक्रियात्मक रवैये को भी समझना होगा। हमें देखना होगा कि हमारी प्रतिक्रियाएं  कहीं हमारी छवि तो खराब नहीं कर रहीं, हमारे व्यक्तित्व की किसी कमज़ोरी को इंगित तो नहीं कर रहीं, सब के सामने हमें हँसी का पात्र तो नहीं बना रहीं। हम कहीं कोई गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार तो नहीं कर बैठे।

जब हम धीरे-धीरे ही सही आत्मसम्मान के प्रति अपने रवैए में उचित बदलाव करेंगे;  तब हम देखेंगे कि हमारे सामने कितनी भी विपरीत स्थिति हो हमने खुद पर नियंत्रण करना सीख लिया।  यानी जिन चीज़ों से अभी तक हमें तकलीफ़ होती थी, जो चीज़ें हमें बार-बार असहज बना रही थीं ; हमने उनके प्रति अपना सम्बन्ध बदला और रवैया भी... इससे लाभ यह हुआ कि हमारा ध्यान अब बार-बार उन चीजों पर नहीं जाता। और हम अब हम सभी चीज़ों के प्रति सहज हो गए हैं।

और हाँ, हमें समाज,  रिश्तों और अपने संबंधों के प्रति भी नज़रिया बदलना होगा। अपने मन की भी सुनें,  लेकिन रिश्तों की परवाह भी करें। हमें खुद को सहज और सरल बनाना होगा। आत्मसम्मान को मज़बूत करना होगा। जो भी मिले जैसा भी मिले हमें उसे स्वीकार करते जाना है।

जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए वाले अंदाज हो हमारे!


 

मीता गुप्ता  

 

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