मेरा तो रब खो गया
उस
दिन पूरे घर में कोहराम मचा हुआ था। दादी परेशान थी, हैरान
थी, रुआंसी हो उठी थी। उनके ठाकुर जी की बंसी खो गयी थी।
ठाकुर जी को तो कोई चिंता नहीं थी पर दादी बहुत दुखी थी। बहरहाल थोड़ी देर
बाद बंसी मिल ही गयी। दादी इतनी खुश की
जैसे ठाकुर जी ने दर्शन दे दिए हों। रोज़मर्रा के काम और जल्दबाजी में अक्सर किसी
न किसी का कुछ न कुछ खो ही जाता। माँ,
अक्सर अपनी अलमारी की चाबी खो जाने पर परेशान हो जाती। पिताजी के
प्राण उनकी कलम में बसते। भाई की जान गाडी़ की चाबी में, तो
बहन की साँस मोबाईल में। इन सब चीजों को ये कभी आँखों से ओझल नहीं करते, और जो ये इनकी प्रिय वस्तु खो जाए तो... इनकी दुनिया ही बेकार हो जाए।
यानी सबने अपने-अपने रब बना लिए है, अपनी सुविधा, ज़रुरत और ख़ुशी के लिए अपने -अपने खुदा गढ़ लिए हैं। अपने खुदा, जिन्हें पाकर,
जिन्हें पास रखकर वो खुश हैं। जैसे
किसी व्यापारी को नोटों की हरियाली में ईश्वर दिखता है, किसी सुंदर महिला को आईना ही खुदा जैसा दिखता है, किसी
प्रेमी को अपनी प्रियतमा में। किसी दिन
इनकी ये प्रिय चीज खो जाए तो उसे ढूँढने के लिए पागल हो जाएँ।
उस
दिन किसी मंदिर के बाहर बहुत भीड़ देखी, सभी का कुछ न
कुछ खोया था, किसी का धन, किसी का मन,
किसी का तन (स्वास्थ्य), कोई भाग्य खोज रहा था,
कोई शांति, कोई ख़ुशी, कोई
हँसी, कोई आनंद, कोई शोहरत, कोई शक्ति, कोई मुक्ति और कोई दीवाना प्रेम खोजता था। सभी अपनी अपनी मन्नत के धागे
बाँध देने को आतुर थे। मन्दिर की चौखट मुझे देख हँसी, बोली
तुम्हारा भी कुछ खोया है क्या?
हाँ, हाँ मेरा तो रब ही खो गया है। तुमने देखा है क्या? चौखट
बोली, जाओ भीतर देखो वहीं होगा... मैं बोली भीतर इक छोटे
कमरे में पत्थर की एक सुंदर मूर्ति है जिसे
चढ़ावा चढ़ा का लोग खुश कर रहे
हैं..... मेरा रब पत्थर का नहीं होगा, न उसे मेरे किसी चढ़ावे की ज़रुरत होगी। वो यहाँ नहीं हो सकता।
वो शायद उस मस्जिद में हो, किसी ने सुझाया... देखो वहाँ...
जहाँ ज़ोर-ज़ोर से पुकारते हैं लोग अपने खुदा को... नहीं-नहीं, मेरे रब को ज़ोर से पुकारने की ज़रुरत नहीं, वो तो
मेरी साँसों की आवाज़ को सुन कर ही आ जाता था। जब-जब उसे याद किया, वो भीतर ही महसूस हुआ।
पर
वो अभी तो यहीं था, इक पल में ना जाने कहाँ गया। फिर
किसी ने इशारा किया, वो उस तरफ बहुत से लोग कुछ पढ़ते हैं वहाँ जाओ। वहाँ देखा तो इक मोटे ग्रन्थ को बहुत से लोग पढ़ते दिखाई दिए। उस
किताब में वो छिपा है शायद... मुझे उस किताब की भाषा बिल्कुल समझ नहीं आई। आँखें
खोलो तो दिखे, बंद करो तो गायब... इसीलिए मैं उसकी कोई किताब,
कहानी, कविता नहीं पढ़ सकी, वो किसी भी कहानी या गीत में नहीं मिला, उसकी किताब
में भी वो कहीं नहीं था। क्या मेरा रब किसी किताब में व्यक्त हो सकता था? अपने सवालों के साथ थक कर ज़रा बैठी ही थी इक फ़कीर वहाँ से गुज़रे...
उन्होंने मुस्कुरा कर पूछा, क्या खोजती हो... बाबा मेरा रब
खो गया। कभी देखा था उसे? कभी मिली हो उसे? जो उसे इन बाज़ारों में खोजने चली आई... क्या करोगी उससे मिलकर?
रब जब
खोता है ना, तो सब खो जाता है। फिर सारी दुनिया बेमानी
लगती है। वैसे कुछ खास काम नहीं था उससे। बस चंद सवाल ही करने थे, वो जो मिल जाता तो पूछ ही लेती... लेकिन उसका कोई पता ठिकाना ही नहीं। जो
भी पता वो देता है, छलिया उस पते पर कभी नहीं मिलता। ना
मंदिर में दिखा, ना मस्जिद में, रहता
कहीं और है, और पता कहीं और का देता है। जो दिखता नहीं,
उसे कोई कैसे खोजे? जो दिखाई ना दे, सुनाई ना दे, ऐसे लापता रब को कहाँ-कहाँ खोजूँ ?
उसकी आंच में जलना, कांच पे चलने जैसा
ही कठिन है।
दो आँखें
उसे क्यों खोजती हैं? जो कभी मिला ही नहीं। क्यों वो
जब चाहे जी भर के हँसा जाता है हमें। और वो चाहे तो ज़ार-ज़ार रुला जाता है। ऐसे
भी कोई किसी को सताता है? कभी तो सारी दुनिया कदमों में डाल देता है तो कभी... सब कुछ ले जाता है
अपने साथ... खाली हाथ उसके पीछे-पीछे चल देते हैं हम। वो जब-जब चाहे अपनी मर्ज़ी से
हमें तोड़ता है। जहाँ हम नहीं चाहते वो हमें वहीं जाकर क्यों जोड़ देता है?
जब वो चाहता है खुद में मिला लेता है। जिस पल हम उसे अपना हिस्सा
मानने लगते हैं, जीने लगते हैं, ठीक
उसी पल वो हमें छोड़ जाता है। उसके खेल निराले हैं। उसके छल अनोखे हैं। कहीं जो
मिल जाए तो उससे पूछूँ कि कितना आसान है ओट में छिप कर हँस लेना। कितना मुश्किल है
जीवन की कठिनाइयों का सामना करना। कितना आसान है ना परदों में छिप जाना, गुम हो
जाना, लेकिन खोजना कितना दुःख भरा है... कितना आसान है कहना
कि संभल जाओ, लेकिन कितना
कठिन है ना खुद को संभालना । कितना
आसान है दायरों में, सीमाओं में, रेखाओं में बंधने की हिदायतें देना, लेकिन
कितना कठिन है सीमाओं के भीतर पल-पल मरना।
कितना
आसान है जीने का हुकुम देना... कितना कठिन है जीने का स्वांग करना। जब उसे लापता होना ही था, गुम होना ही था, तो आया ही क्यों? ये खेल, ये छल, उसका चैन नहीं छीनते? सदियों
से तलाश है उसकी... क्यों नहीं मिलता? उसके लिए मर-मर कर जीते हैं लोग... क्या ज़रा
भी इल्म है उसे ? उसने हमें देह को दायरों में बाँध दिया, हदें बना दीं... खोजने वालों ने अपनी रूहें जगा ली... अब वो क्या करेगा?
उसकी खोज में रूहें जल-जल
कर कुंदन बन गयी। आँखें सागर हो गयी। इस
कदर दर्द बढ़ा कि अँधेरे रोशनी में बदल गए, आँसू
मुस्कान हो गए, वियोग
ही योग हो गया... इतना महसूस किया उसे कि
वो हर जगह हो गया... किसी रोज़ ऐसा ना हो कि लोग
उसे खोजना ही बंद कर दें। फिर क्या करेगा वो? उसे
पुकारना बंद कर दें और महसूस करना भी। या
किसी दिन परेशान होकर हम उसे भूल
ही बैठे... फिर किसी दिन घबरा कर वो धरती पर आए।
अपने होने के सौ कारण गिनाए।
अपनी उपस्थिति का अहसास कराए
और कहे,
देखो मैं हूँ तुम्हारा खोया रब... और हम कहें... आप कौन?
मेरा रब तो खो गया!
मीता
गुप्ता
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