अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सभी महिला साहित्यकारों को समर्पित.
पितृसत्तात्मक सोच से टकराता स्त्री-विमर्श साहित्य
बालिका अहं बालिका नव युग जनिता अहं बालिका ।
नाहमबला दुर्बला आदिशक्ति अहमम्बिका ।।
अर्थात मैं एक आधुनिक युग की स्त्री हूँ, मैं शक्तिहीन नहीं हूँ| मैं
आदिशक्ति हूँ, मैं अंबिका हूँ। स्त्री
के प्रति पितृसत्तात्मक समाज का रवैया निश्चित मानदंडों और आदर्शों से संचालित
होता रहा है, जिसमें स्त्री की भूमिका पहले से तय कर दी
गई है। उसे उस आदर्श आचरण संहिता के अनुसार जीना है, जिसके
निर्धारण का अधिकार सदियों से पुरुष ने अपने पास सुरक्षित रखा है। वास्तव में,
स्त्री की लड़ाई पुरुष से नहीं बल्कि उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से
है, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरुषों को एक ही पाठ पढ़ाती
आई है कि स्त्रियां उनसे हीनतर हैं,
उनके भोग का साधन-मात्र। आज के स्त्रीवादी रचनाकारों ने इन्हीं
पितृसत्तात्मक मानव-मूल्यों और दोहरे मानदंडों पर प्रहार करते हुए इन पर
प्रश्न-चिह्न लगाया है।
विगत
कुछ दशकों से "स्त्री" साहित्य के केंद्र में रही है। स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री-विमर्श, स्त्रीत्ववाद, आधुनिक
स्त्री आदि विषय रोज़ किसी-न-किसी रचना, पत्र-पत्रिका में
दिखाई दे जाते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि स्त्री विमर्श पर केवल
पिछले दो–तीन दशकों से ही लिखा जा रहा है। इससे पूर्व भी देशी-विदेशी अनेक रचनाकार
स्त्री विमर्श-संबंधी विभिन्न मुद्दों पर प्रकाश डाल चुके हैं। महादेवी वर्मा की
"श्रृंखला की कड़ियां ", केट मिलेट की
"सेक्सुअल पॉलिटिक्स", सीमोन दी बोउवार की "द
सैकंड सैक्स", वर्जीनिया वुल्फ की "ए रूम ऑफ वंस
ओन" आदि ऐसी ही कुछ गिनी-चुनी रचनाएं हैं जिन्होंने स्त्री विमर्श के विभिन्न
मुद्दों को उद्घाटित किया है।
यह
विवाद का विषय रहा है कि स्त्री विमर्श का क्षेत्र केवल महिलाओं के लिए सुरक्षित
होना चाहिए या फिर एक लेखक के रूप में पुरुष की भागीदारी की कोई सम्भावना भी यहां
बनती है। यहां ज़ोर देकर यह बात उठाई गई है कि स्त्री-विमर्श को स्त्री के लिए ही
सुरक्षित रखा जाना चाहिए। पुरुष के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है। इसके वाजिब कारण
भी हैं। वस्तुत: स्त्री का आत्म-संघर्ष अपनी निरंतरता में प्रत्येक युग में
विद्यमान रहा है। परंपरागत दृष्टि से देखें, तो स्त्री के
प्रति पितृसत्तात्मक समाज का रवैया निश्चित मानदंडों और आदर्शों से संचालित होता
रहा है, जिसमें स्त्री की भूमिका पहले से तय कर दी गई है।
उसे उस आदर्श आचरण संहिता के अनुसार जीना है, जिसके निर्धारण
का अधिकार सदियों से पुरुष ने अपने पास सुरक्षित रखा है। पुरुष के अन्याय, अत्याचार और शोषण को चुप होकर सहते रहना ही स्त्री की नियति मान लिया गया
था। बचपन में पिता की, युवावस्था में पति की और बुढ़ापे में
बेटे की अधीनता लंबे समय तक स्त्री-जीवन का केन्द्रीय सत्य रहा है। एक लंबे समय तक
वह इस भौतिक, आर्थिक और भावनात्मक गुलामी को सहती आई है।
बदलते
सामाजिक संदर्भों में अपनी बदलती भूमिका के बावजूद स्त्री-संघर्ष के प्रश्न बदले
नहीं हैं। स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंध और व्यवस्था से जुड़े प्रश्न और जटिल
होते गए हैं। आज स्त्री खुले आसमान में उड़ान भरने के लिए छटपटा रही है। यह आसान
नहीं है,
इसलिए उसे विद्रोह करना पड़ा है। वास्तव में, स्त्री
की लड़ाई पुरुष से नहीं बल्कि उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से है जो जन्म से लेकर
मृत्यु तक पुरुषों को एक ही पाठ पढ़ाती है कि स्त्रियां उनसे हीनतर हैं, उनके भोग
का साधन मात्र। आज के स्त्रीवादी रचनाकारों ने इन्हीं पितृसत्तात्मक मानव-मूल्यों
और दोहरे मानदंडों पर प्रहार करते हुए इन पर प्रश्न-चिह्न लगाया है।
"स्त्री
विमर्श" का सामान्य अर्थ स्त्री के सन्दर्भ में विचार एवं चिंतन करना है। एक
अन्य अर्थ है ऐसा लेखन और विमर्श जो स्त्री के द्वारा स्त्री के लिए किया गया हो।
लेकिन रेखा कस्तावार का मानना है कि "इसे स्त्री
तक सीमित रखने से जहां पुरुष स्त्री-विषय से बाहर का व्यक्ति हो जाता है, वहीं स्त्री भी स्त्री-विषय तक सीमित हो जाती
है।" एक तरह से यह बात सही है क्योंकि स्त्री
द्वारा लिखी गई हर रचना स्त्री विमर्श नहीं हो सकती। स्त्री विमर्श की अर्थवत्ता
और सार्थकता पर ज़ोर देते हुए तस्लीमा नसरीन साफ शब्दों में कहती हैं कि "हमारा विरोध पुरुष जाति से नहीं है, विरोध है पुरुष की उस सामंती मनोवृत्ति से जो नारी को
दासी से अधिक दर्ज़ा नहीं देती।" वहीं
आशा रानी व्होरा का मानना है कि "अधिकारों की मां
ग नहीं अधिकारों का अर्जन ही वह लक्ष्य है जिसके लिए हमें अपने आपसे और अपने बाहर, दो मोर्चों पर दोहरा संघर्ष करना है। यह संघर्ष जितना
तीव्र होगा, जीत उतनी ही सुनिश्चित होगी।"
इसी प्रकार, मृणाल पांडे लिखती हैं कि "स्त्री के अस्तित्व को पुरुष से जुड़े उसके संबंधों तक
ही सीमित करके न देखा जाए बल्कि पुरुष की ही तरह उसे भी मानवता का एक अभिन्न तथा
अनिवार्य और पूरक तत्व माना जाए।" इसलिए
जो लोग इसे केवल उग्रता मानते हैं, वह तर्कसंगत नहीं लगता।
नारी
सामंतवादी व्यवस्था में संपत्ति, उपभोग और विलास का प्रतीक
रही है। डॉ. सूर्यनारायण रणसूभे के अनुसार,
"दुनिया की पुरुष-प्रधान संस्कृति ने स्त्री को उसके जैविक रूप
में ही स्वीकारा है, एक जनन-यंत्र के रूप में। उसे कहीं भी
उसने व्यक्ति के रूप में नहीं स्वीकारा।"वे
आगे कहते हैं कि स्त्री की यह मांग बहुत पुरानी है कि
उसे वस्तु नहीं व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाए। वे द्रौपदी का
उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि वह एक तेजस्वी स्त्री थी जिसने भरे दरबार में तत्कालीन
सभी तथाकथित महापुरुषों से यह प्रश्न किया था कि वह जुए में हारी जाने वाली एक
वस्तु है या एक व्यक्ति? वस्तुत: नारी मुक्ति का अर्थ ही है
नारी की वस्तु रूप से मुक्ति। धर्मपाल के अनुसार, "निजी स्वार्थवश तथा निजी वर्चस्व बनाए रखने
के लिए पुरुष ने नारी को स्वयं से हीनतर प्रस्थापित किया। यही कारण है कि समूचे
विश्व के पुरुष समान सोच रखते आए हैं। वेद-ऋषि, मुनि,
अवतार अथवा पुरुष सभी ने नारी की भर्त्सना की, उसमें अवगुण देखे और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ जताने की गाथाएं लिखी और यह
पक्षपातपूर्ण विचारधारा नारी को पददलित करने में सफल हुई, और
नारी आज भी इसी प्रकार शिकार है।" कहना न
होगा कि अपनी अस्मिता को लेकर नारी का संघर्ष आज भी जारी है।
लेकिन
आज स्त्री ने अपनी शक्ति को पहचान लिया है, जिसके चलते
पितृसत्तात्मक समाज आतंकित हो गया है। स्त्री को पीछे ठेलने के लिए वेद, पुराण, आख्यानक आदि की दुहाई देकर उसकी स्थिति को
पुन: पहले जैसी बनाने की कोशिश की जा रही है। ब्राह्मण, आख्यानक,
उपनिषद, सूत्र-साहित्य आदि का मंथन करें,
तो स्त्री का जो चित्र उभरकर सामने आता है उसमें उसे कहीं भी मनुष्य
नहीं माना गया है। पूर्व-वैदिक काल में कुछ स्त्रियों का उल्लेख अवश्य मिलता है
लेकिन उनमें से अधिकांश ब्राह्मण वर्ग से संबंधित थीं। उस समय साधारण स्त्री का
कोई महत्व नहीं था और कुछ गिनी-चुनी स्त्रियों के शिक्षित होने से सामाजिक ढाँचे
में परिवर्तन आना सम्भव नहीं था।
हालाँकि
भारतीय संस्कृति के उन्मेष काल में नारी की प्रतिष्ठा को पुरुष के समानांतर ही
स्वीकार किया गया था। पूर्व-वैदिक काल की सामाजिक, धार्मिक
व्यवस्था में ऐसे संकेत मिलते हैं कि इस कालखंड में स्त्रियों को समाज में
प्रतिष्ठा प्राप्त थी। बौद्धिक और आध्यात्मिक जीवन में उन्हें पुरुषों के समान ही
अधिकार प्राप्त था। वेदों में मंत्र की द्रष्टा ऋषिकाओं के रूप में भी प्रसिद्ध
महिमामयी एवं विदुषी स्त्रियां अपने सद्गुणों से प्रतिष्ठित हैं। लेकिन बहुत पहले
एक नारीवादी ने कहा था, अब तक औरत के बारे में जो कुछ भी
लिखा गया है, उस पूरे पर शक़ किया जाना चाहिए क्योंकि लिखने
वाला न्यायाधीश और अपराधी दोनों ही है।" बात सही भी लगती है क्योंकि स्त्री
का कोई सुसंगत चित्रण प्राप्त नहीं होता है। कारण स्पष्ट है कि उन्हें कोई महत्व
नहीं दिया गया। वैदिक समाज पितृसत्तात्मक होने से उसमें पुत्री से ज़्यादा पुत्र को
वरीयता दी गई है। उस युग में बहु-विवाह प्रथा का भी प्रचलन था। कालांतर में
उत्तर-वैदिक काल में नियम और अधिक कठोर हो गए। बहु-विवाह के साथ दासी प्रथा भी
पनपने लगी थी। "युद्ध में बन्दी बनाकर लाई गई
स्त्रियों से जब अंत:पुर भर जाता था तो रथ भर-भर कर यज्ञ करने वाले पुरोहितों और
ऋषियों को स्त्री दान में दी जाती थी। अत: वह दान की वस्तु मात्र थी।"
उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। वह केवल पुरुष की अनुगामिनी थी। कुछ
उन्मुक्त काम-संबंधों के उदाहरण मिलते हैं पर यह स्वतंत्रता पुरुष वर्ग और गणिकाओं
को ही थी। पुरुष का आधिपत्य सर्वत्र था। इस युग में नारी के बस दो रूप ही मिलते
हैं, दासी और गणिका।
इसी
प्रकार,
रामायण, महाभारत काल में महिलाओं का वर्णन
विदुषियों के रूप में कम और तप, त्याग, नम्रता, पति-सेवा आदि गुणों से विभूषित गृह-स्वामिनी
के रूप में अधिक मिलता है। महाभारत काल में पांडवों द्वारा द्रौपदी को जुए में
दाँव पर लगा देना यही सिद्ध करता है कि पत्नी पति की संपत्ति थी। वह अधिकार-पूर्वक
उसके साथ मनचाहा व्यवहार कर सकता था। कालांतर में, स्त्री की
स्थिति में और अधिक गिरावट आने लगी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि "भारतीय स्त्री का दायरा घर की चार दीवारों तक सीमित होकर
रह गया। जिस समाज की आधी शक्ति लक्ष्मण रेखा के अंदर बाँध दी जाए, उसका बचाव की मुद्रा में आना स्वाभाविक
था।"
पुरुष
वर्चस्व वाले समाज में बड़ी चालाकी से नारी को संपत्ति और सत्ता के उत्तराधिकार से
वंचित कर दिया गया। रूढ़ियां इस क़दर बढ़ीं
कि कन्या का जन्म बोझ लगने लगा, उसके जन्म के साथ ही हत्या
का प्रचलन शुरू हो गया, उससे जीने का अधिकार तक छीन लिया
गया। भ्रूण-हत्या इसका विकसित रूप है। तस्लीमा नसरीन का कहना है "स्त्री को डरना और लज्जालु होना पुरुष-प्रधान समाज ने
सिखाया है, क्योंकि
भयभीत और लज्जालु रहने पर पुरुषों को उस पर अधिकार जताने में सुविधा होती
है।"
पाश्चात्य
स्त्री भी स्वतंत्रता एवं समानता के अधिकार से वंचित थी। औरत के इस दोयम दर्ज़े का
मूल कारण उसकी आर्थिक दुर्बलता रही है। यहां के सामाजिक नियम भी स्त्री को केवल
विवाह एवं संतानोत्पत्ति के अधिकार ही प्रदान करते थे। आज की भाँति वह सार्वजनिक
कार्य में भाग नहीं ले सकती थी और न ही उसे मतदान का अधिकार प्राप्त था। लेकिन
फ्रांस की राज्य-क्रांति और इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति ने इन स्त्रियों की स्थिति
में भारी परिवर्तन किया। ज़ाहिर है उच्चादर्शों से अनुप्रेरित ये क्रांतियां समय के हर वर्ग और क्षेत्र को छूने के क्रम में
स्त्री जाति से अलग नहीं रह सकती थी। क्रांतियों से प्रेरित होकर विविध देशों में
लोकतांत्रिक प्रणाली का विकास होने लगा। इस विकास के साथ ही जनता के प्रतिनिधित्व
व मताधिकार की मांग प्रबल हो उठी जो कालांतर में स्त्री आंदोलन का सबसे प्रमुख
अंग बन गई। यद्यपि क्रांति की वास्तविकता की ओर इशारा करते हुए राजकिशोर कहते हैं
– "फ्रांस की राज्य-क्रांति के जनक रूसो ने स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का जो नारा दिया, वह वस्तुत: पुरुष समाज के लिए ही था। नवयुग के उस महास्वप्न में स्त्रियां
कहीं नहीं थी।" फिर
भी,
इस क्रांति से स्त्रियों को अपने अधिकार मां गने में ज़रूर प्रेरणा
मिली। तत्पश्चात्, स्त्री समस्या का प्रश्न स्वयं स्त्री
विदुषियों द्वारा उठाया जाने लगा, जो स्वतंत्र जीवन पाश्चात्य स्त्रियां आज जी रही हैं, इसके लिए
उन्हें कई संघर्ष करने पड़े हैं। उन्होंने मताधिकार आंदोलन चलाए, तत्पश्चात अन्य अधिकार भी उन्हें धीरे-धीरे सुलभ होने लगे और वे
राजनीति के क्षेत्र में भी बेधड़क उतरने लगीं। अपने अधिकारों के प्रति चेतना उत्पन्न
करने के लिए अनेक स्त्रियां आगे आईं जिन्होंने
साहित्य के माध्यम से इस आंदोलन को गति प्रदान की।
भारत
में भी स्त्री को कई अधिकार मिले, जो पहले उसे प्राप्त नहीं थे। इसमें मताधिकार, पति की संपत्ति में अधिकार और सभी अन्य नागरिक अधिकार शामिल थे। तलाक़,
दहेज और उत्तराधिकार संबंधी अधिकार मिलने पर क़ानूनी तौर पर उसकी स्थिति
ठीक होने लगी, किन्तु समाज की स्थिति संकीर्ण ही रही क्योंकि
भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण तो हुआ लेकिन सामाजिक क्रांति नहीं हुई। आज़ादी
के बाद महिला संगठनों, महिला विचारकों आदि के संयुक्त
प्रयासों से अनेक सुधार-संबंधी क़ानून पास किए गए हैं। राष्ट्रव्यापी और राजनीतिक
महिला संस्थाओं की स्थापना हुई जिन्होंने महिलाओं के सामाजिक जागरण, शैक्षिक उत्थान और महिला एवं बाल कल्याण की दिशा में एक साथ कई कार्य
प्रारंभ किए। स्वतंत्र भारत के संविधान द्वारा लिंग, जाति,
सम्प्रदाय आदि के आधार पर बने भेदभाव को कानूनन समाप्त करने की
कोशिश की गई।
सन साठ
के पश्चात् का काल पितृसत्ता से टकराहट और स्त्री-मुक्ति विचारधारा की दृष्टि
से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि तब भारतीय सामाजिक परिप्रेक्ष्य
में स्त्री जीवन परंपरागत मान्यताओं से एकबारगी दूर हटकर अपने विकास की नई
भावभूमि तलाशने लगा। भारत के परिप्रेक्ष्य में, शिक्षित-अशिक्षित,
घरेलू-कामकाजी, शहरी एवं ग्रामीण तथा आँचलिक,
सभी क्षेत्रों की नारी की मानसिकता में बदलाव के चिह्न कहीं कम और
कहीं ज़्यादा दिखाई देने लगे। संयुक्त परिवारों में विघटन के कारण भारतीय स्त्री
में विवाह के प्रति भी नवीन दृष्टि उत्पन्न हुई। नैतिकता के प्रति मुक्त सोच
ने स्त्री-पुरुष संबंधों की नवीन व्याख्या की। व्यक्ति स्वातंत्र्य की भावना
ने सामाजिक धरातल पर नवीन मूल्यों को उभारा। ये सारी बातें इस युग की लेखिकाओं की
रचनाओं में दृष्टिगोचर होती हैं। इस दशक में लेखिकाओं की संख्या में बहुत अधिक
वृद्धि हुई। इस काल का लेखन सर्वाधिक स्त्रीवादी लेखन रहा है। लेखिकाओं के
जीवनानुभाव यथार्थ और विशिष्ट हैं। उनकी जीवन संबंधी धारणाएं नई और आधुनिक हैं।
इस युग की लेखिकाओं ने यह महसूस किया कि उन्हें अपनी संघर्षपूर्ण स्थितियों से
उभरकर जीवन-निर्वाह हेतु घर से बाहर आना होगा और समाज की टूटी-फूटी मर्यादाओं,
पुराने संस्कारों को बदलने के लिए आवाज़ मुखर करनी होगी।
आधुनिक
युग ने जहां स्त्री के व्यक्ति-स्वातंत्र्य को उभारा है, वहीं उसके जीवन में अनेक जटिलताओं को शामिल किया है। आज भी वह अपनी दयनीय
स्थिति से उभर नहीं पाई है। उसका आंतरिक द्वंद्व एवं विद्रोह उसकी वाणी को बुलंद
करता दिखाई देता है। आज की तारीख में स्त्री विमर्श, विश्व-स्तर
पर भी प्राणतत्व बन गया है। हालाँकि कई लोग "फेमिनिस्ट"
होने को नकारात्मक ढंग से देखने लगते हैं और प्राय: बहुत सी महिलाएं भी इस इस
विशेषण से परहेज़ करती दिखाई देती हैं। किंतु फेमिनिस्ट होने का एक सीधा-सादा अर्थ
होता है औरतों के प्रति एक जुड़ाव, एक सरोकार, और कोई भी पढ़ा-लिखा संवेदनशील व्यक्ति एक शोषित क़ौम के हक़ में खड़े होने से
इंकार नहीं कर सकता। इसमें कोई दो राय नहीं कि धीरे-धीरे स्त्री विमर्श हाशिए से
निकलकर केंद्र की ओर बढ़ रहा है और
पितृसत्ता से टकराहट की गूंज इसमें साफ सुनी जा सकती है।
मीता गुप्ता
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