Tuesday, 28 March 2023

हिंदी साहित्य में एक नवीन धारा की नींव डालता-‘वर्षावास’ उपन्यास

 

हिंदी साहित्य में एक नवीन धारा की नींव डालता-वर्षावास उपन्यास






 

"यह समीक्षातीत और समयातीत किताब है। इस किताब का गद्य ऐंद्रजालिक है। इसके मोह से बाहर आने के लिए जानलेवा प्रयत्न करना पड़ता है। इस किताब को हर नई क़लम को अनिवार्य रूप से पढ़ना चाहिए। रिजेक्ट करना हो, तो भी पढ़ना चाहिए।"- धीरेंद्र अस्थाना

उपन्यास आरंभ होता है, इन शब्दों के साथ- सबका मंगल हो। वे जो इश्क के खंजर से हलाक होते हैं, उन्हें ग़ैब से हमेशा एक नई ज़िंदगी मिलती है। पर महात्मा बुद्ध तो रियलिस्ट थे, ग़ैब से क्या लेना देना? ग़ैब यानी कोई अदृश्य ताकत। प्रकृति, अल्लाह या कुछ और...जिन्न, भूत प्रेत शायद,या विदेशी हाथ...या हमारा अंतस...या हमारा छुपा हुआ प्यार...या हिंसा...या काला धन।

वर्षावास बौद्ध धर्म की रीतियों से जुड़ा हुआ है। महात्मा बुद्ध ने यह समयकाल खुद बनाया था। बरसात के मौसम में तीन महीने यानी आषाढ़ की पूर्णिमा से लेकर अश्विन की पूर्णिमा तक बौद्ध भिक्षुओं को एकांत में रहकर चिंतन-मनन करना होता था क्योंकि बारिश के मौसम में आने-जाने में तकलीफ़ होती थी, कार्य भी ठीक से नहीं होता था।

पर वर्षावास में भिक्षुओं को शील और विनय का आचरण करना होता है। लेकिन अविनाश मिश्र के उपन्यास वर्षावास में शील और विनय दोनों से ही छत्तीस का आंकड़ा है, या उनहत्तर का। एक तो यह बौद्धिक ताप का उपन्यास है, जो कि दो और दो चार के फॉर्मूले पर नहीं चलता है। दूसरा कि इसमें लेखन और संभोग को समानांतर रखा गया है। संभोग ऐसी क्रिया है नहीं जिससे कोई मुंह चुरा सकता है। बल्कि इंसान की सारी इच्छओं के पूरा हो जाने के बाद भी इच्छा (ज़रूरत) बनी रहती है। राजाओं ने सब कुछ हासिल कर लेने के बाद इसके लिए युद्ध किए। एक आलोचक, एक प्रकाशक, एक लेखक, एक भिक्षु- इनके जीवन में क्या मिसिंग है? पता नहीं। पर इस किताब में बौद्ध भिक्षु जो करते हैं, उसके लिए महात्मा बुद्ध ने उनको मना किया था। इस किताब का एक पात्र ज्योतिषी भी है, पर वह भविष्य की बात नहीं करता, वह पूरे समय अपने भूतकाल की घटनाओं को याद करते रहता है।

एक उपन्यासकार का मस्तिष्क बहुत हाल के नहीं अपने पूर्वज उपन्यासकारों के पाठ और कथा-विवेक से बनता है। यहां एक सुविधा के लिए मान लीजिए कि अब तक हुए सुप्रतिष्ठित उपन्यासकारों के मार्ग विविध-विभिन्न सही, पर उनका केंद्रीय लक्ष्य एक ही रहा होगा-उपन्यास की अब तक प्रस्तुत-प्रचलित परिभाषाओं, कथाओं और संरचनाओं से बाहर चले जाना। इसमें सफलता या असफलता भविष्य का कष्ट है, लेकिन सार्वजनिक होने के बिल्कुल अंतिम क्षणों तक इस प्रयत्न और प्रक्रिया में बने रहना एक महत्त्वपूर्ण विचार-अनुभव है।

भाषा और कथानक के स्तर पर उपन्यास लेखन की पारंपरिक शैली से आगे जाकर एक नई परिपाटी की नींव डालता है यह उपन्यास। समय व काल के अनुसार सिनेमा और हर कला में बदलाव आया है। साहित्य में भी बदलाव आया है, यह उपन्यास लेखन में एक नई दृष्टि का सूत्रपात करता है। इस उपन्यास में जीवन के बारे में बात की गई है। जीवन हर युग में यथास्थिति में विद्यमान रहता है।

इस उपन्यास में ढेर सारे पात्र हैं, जो अपनी कहानी कहते हैं। किताब, लेखक, प्रूफरीडर, आलोचक, लाइब्रेरियन, संपादक, ज्योतिषी, कवि, लेखिका, भिक्षु, अमीन इत्यादि। पर कई बार वे कहानी नहीं, विचार कहते हैं, जिनसे आपको उनकी कहानी खुद समझनी है। वह नहीं बताते कि उन्होंने कैसे कपड़े पहने हैं, आपको अनुमान लगाना है कि उनके कपड़े कैसे होंगे। यह भी नहीं पता चलता कि वे कैसे दिखते हैं। आपको उनकी मनःस्थिति से अनुमान लगाना है कि वे कैसे दिखते होंगे। इस उपन्यास में पात्र सिर्फ़ अपने मन की बातें बोलते हैं। पर उनके वाक्य निर्विकार भाव से बोले हुए हैं-या तो गहरे संताप के बाद या क्षोभ के बाद या फिर विरक्ति के बाद। चूंकि इसके मूल में महात्मा बुद्ध हैं, तो यह बातें माकूल मालूम पड़ती हैं। इसकी सबसे कठिन बात यह है कि इसमें आपको अपनी भावनाएं खर्च करनी हैं,अपनी तरफ से, जो सच कहूं तो मेरे जैसे विचारवान पाठक के लिए भी यह कठिन था।

जीवन क्या है? क्या लेखन, लेखक या कोई किताब किसी जीवन से बड़ी है? कदापि नहीं। एक जीवन में इतनी चीजें होती हैं जिनसे समस्त विश्व का लेखन किया जा सकता है। तो उपन्यास किस चीज के बारे में होता है? जीवन के बारे में? पता नहीं। पर यह पता है कि उपन्यास में कहानी नहीं, कथ्य महत्वपूर्ण होता है। वर्षावास में कथ्य बहुत मजबूत है। क्या किताब का लिखा जाना और उसका प्रकाशन जीवन जीने की तरह नहीं है? इस जीवन को जीने में भाषा का बहुत बड़ा रोल है। उपन्यास में एक जगह लिखा गया है-

मैं क्या था?

मेरे पास क्या था?

मुझे क्या आता था?

इन तीनों सवालों का एक ही जवाब है- भाषा।

तो जब किताब के लिखे जाने और उसके प्रकाशन को हम जीवन को जिए जाने की तरह देखते हैं, तो पात्रों की बातों की गंभीरता समझ आती है। जैसे इसमें मां की कहानी अलग अलग तरीकों से, अलग अलग पात्रों के मुंह से अलग अलग जगहों पर आती है। अगर इस किताब का नाम ‘मां’ भी होता तो आश्चर्य नहीं होता। मां को लेकर कई जगह जो बातें लिखी गई हैं, वे जनसामान्य को उद्वेलित करने वाली हैं। इसी तरह भिक्षुणियों के कथानक में जीवन के उस पहलू का जिक्र है, जो बातचीत में क्या, विचार में भी नहीं आता है। पर जो पात्र इन बातों को बोल रहे होते हैं, वे अनाम हैं, निर्गुण चित्रण है उनका, रूप रंग, स्वाद, सुगंध से विहीन। उनके पास बस एक चीज है- भाषा।

यह उपन्यास पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे कोई मधुशाला पूरी तरह मधुमय होकर खुद मधु होने का अभिनय कर रही हो, पर उसे पता है कि वह कितनी गंभीर बातें कर रही है। इसमें सलाह नहीं है, समाधान नहीं है, समस्या का भी ज़िक्र नहीं है- बस जीवन की विसंगतियों का जिक्र है।

अतः संक्षेप में कहा जाए तो वर्षावास संताप और खुद के प्रति क्षोभ का कथ्य है। इस नवीन कथ्य को अवश्य पढ़ें।

 

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