विश्व काव्य दिवस (21 मार्च) के अवसर पर सभी सहृदयों
को सादर नमस्कार
कविताओं का सशक्त प्रभाव
काव्य कला समाज में परिवर्तन का कारक होती है। समाज में
परिवर्तन लाने के लिए, आवश्यक
है कि मनुष्य की मानसिकता में परिवर्तन हो। मानसिकता मनुष्य के अवचेतन में स्थापित
भावनाओं से निर्धारित होती है। काव्य-कला मनुष्य के अवचेतन मन को सीधे स्पर्श करने
में सक्षम है। इसीलिए काव्य-कला एक सशक्त परिवर्तक है। प्राचीन काल से लेकर आज तक सामाजिक
विकास और सामूहिक मानसिकता को प्रभावित करने में कविता ने महत्त्वपूर्ण योगदान
दिया है। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि परिवर्तन सकारात्मक भी हो सकता
है और नकारात्मक भी। इसलिए आवश्यक है कि कवि अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति
जागरूक रहे और इस शक्ति का दुरूपयोग न हो।
आज इस पुनीत अवसर पर मैं ऐसी दो कविताओं के विषय में लिखूँगी, जिन्होंने मेरे मानस को बहुत प्रभावित किया। इन दो कविताओं
ने मेरे व्यक्तित्व के विकास में अत्यधिक योगदान दिया है।
पहली कविता है कविवर सियाराम शरण गुप्त की "एक फूल की
चाह"। मुझे ठीक से याद नहीं, इसे
मैंने पहली बार कब पढ़ा था। संभवतः मैं सातवीं कक्षा में थी। इस कविता को पढ़ कर
मैंने पहली बार जाना कि वर्ण और जाति व्यवस्था के आवरण में कितनी दुःख भरी मानवीय
अनुभूतियां छिपी रहती हैं। कविता में महामारी का ज़िक्र है जो कोविड के संदर्भ में
और भी प्रभावकारी लगता है। महामारी के बीच में, एक बीमार छोटी बच्ची सुखिया अपने पिता से मांगती है
"मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर" ।
कविता पढ़ कर मेरी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि इतनी छोटी-सी
मांग पूरी करने में क्या कठिनाई हो सकती है? जब मैंने समस्या को समझा, तो मेरे मन में बहुत गहराई तक दुखियारी सुखिया का दुःख जैसे समा गया। यह
चित्र मुझे कितने दिनों तक, व्यथित करता रहा। पहले पिता अपनी बीमार पुत्री को अन्य
फूलों से बहलाने का प्रयास करता है, किंतु सुखिया बार-बार वही मांग दोहराती है:
"मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो
लाकर" ।
आखिर पिता पुत्री की खुशी के लिए मंदिर जाने के लिए नहा
धोकर तैयार है। चलते-चलते वह बीमार बेटी को देखने और उसे बताने आता है कि वह बेटी
की इच्छा पूरी करने के लिए जा रहा है। देवी के प्रसाद का एक फूल लेने जा रहा है।
उस समय तक सुखिया की बीमारी बढ़ चुकी है और वह पलंग पर लेटी है:
"आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी मुरझाया-सा पड़ा हुआ; ...
मैंने चाहा - उसे चूम लूँ, किन्तु
अशुचिता से डर कर;
अपने वस्त्र सँभाल सिकुड़कर; खड़ा रहा
कुछ दूरी पर।”
“वह कुछ कुछ
मुसकाई सहसा, जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही बोल
उठा तब धीरज धर “
फिर असहाय पिता का वह कमज़ोर वादा।
“ तुझको देवी
के प्रसाद का एक फूल तो दूँ लाकर!"
और पिता अपनी बेटी को बिना चूमे ही चला गया। उसके बाद उसे
सुखिया नहीं मिल सकी और अपना वह छोटा वादा भी पूरा नहीं कर सका।
कविता पढ़ने के बाद, कितने दिनों तक मैं सुखिया की आवाज़ सुनता रहा "मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर"।
उसका पिता उसे अंतिम समय चूम भी नहीं सका। मेरे मन में यही विचार आता रहता था कि
यदि पूजा से एक छोटी बच्ची की छोटी-सी इच्छा भी नहीं पूरी होती, तो मंदिर में जाकर कुछ मांगने से क्या
फायदा? और कोई अपनी सुकुमार
बीमार बेटी को चूम कर मंदिर में जाए, तो उससे मंदिर कैसे अपवित्र हो सकता है?
यह इस कविता का ही प्रभाव है कि मैंने अपने जीवन में कभी
छुआ-छूत को नहीं माना और किसी भी मनुष्य को उसकी जाति या वर्ण के आधार पर नहीं
परखा। एक और महत्त्वपूर्ण बात मैंने यह जानी कि आवश्यक है कि हम पूजा के मर्म को
समझें। पूजा-पाठ से प्रकृति के नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता।
दूसरी कविता जिसने मेरी मानसिकता पर गहरी छाप छोड़ी है, वह है साहिर लुधियानवी की "परछाइयाँ"।
मेरे विचार में, युद्ध विरोधी कविताओं
में इससे अधिक सशक्त कोई और कविता हिंदी या उर्दू में नहीं है। इस कविता की एक-एक
पंक्ति ने मुझे बार-बार झझकोरा है। जब मैंने इसे पहली बार पढ़ा था, तब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रही थी। इस कविता
के आरंभ में ही इन पंक्तियों में जो छवि चित्रण है, उसे मैं कभी भूल ही नहीं सकती।
"यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही
ज़माना था,
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी;
धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से,
हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं-सी इल्तिजा की थी"
इस कविता की इस नन्हीं-सी इल्तिजा से मुझे सुखिया की
छोटी-सी मांग का ध्यान आया। इनकी नन्ही इल्तिज़ा तो और भी छोटी थी:
"कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें;
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें "।
जो सारे ब्रह्मांड का विधाता है, उसके दरबार में दो प्रेमियों की यह
नन्ही-सी इल्तिज़ा तो मंज़ूर हो ही जाएगी। किंतु उन्हें मिला क्या? युद्ध की विभीषिका??
"कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा
था;
वह भाई 'नर्ग़ा-ए-दुश्मन' में काम आया है"।
हमारे समाज के मूल्य ऐसे आ गए हैं कि हम सिकंदर और नेपोलियन
जैसे आतंकियों को महान कहने लगते हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए धरती पर कितना खून बहाया:
"बहुत दिनों से है यह मश्ग़ला सियासत का,
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जायें।
बहुत दिनों से है यह ख़ब्त हुक्मरानों का,
कि दूर-दूर के मुल्कों में क़हत बो जायें।"
मैने ऐसे आतंकियों को कभी अपना हीरो या महान नहीं माना। इस
कविता ने मेरे मानस पर जो प्रभाव डाला, वह संभवतः हम सबके अधिक निकट है। आरंभिक पंक्तियों में, हुजूरे-ग़ैब में हम सबकी नन्ही-सी इल्तिज़ा क़ुबूल करने के लिए हमारी
मानसिकता में परिवर्तन होना चाहिए। जो हमें न मिल सका, वह इन्हें
तो मिले:
"हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,
मगर इन्हें तो मुरादों की रात मिल जाये।
हमें तो कश्मकशे-मर्गे-बेअमा ही मिली,
इन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाये।”
मेरे मानस पर इस कविता का प्रभाव यह हुआ है कि मैंने आजतक
किसी के प्यार में कोई भेदभाव की दीवाल नहीं खड़ी की।
अंत में, इस
लेख का सार यह है कि कविता एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिससे सकारात्मक परिवर्तन संभव
है।
मीता गुप्ता
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