स्त्री की स्वतंत्रता की नई आवाज है
अनुराधा बेनीवाल की ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’!
“जो समाज एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है। वह कल्चर जो एक अकेली लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकता, वह गोबर कल्चर है। उस पर तुम कितने ही सोने-चाँदी के वर्क चढ़ाओ उसकी बास नहीं रोक पाओगे, बल्कि और धंसोगे। मेरी बात सुनो इस गोबर को जला दो। मैं चीख रही हूँ, ज़ोर ज़ोर से … जला दो, जला दो ! 2 बजे रात को बर्न की अकेली सड़क पर चीखते चीखते अब मैं रोने लगी थी… मैं यह आज़ादी लिए बिना नहीं जाऊँगी। मैं यह आज़ादी अपने देश ले जाना चाहती हूँ। मुझे इस आज़ादी को अपने खेतों, अपने गाँवों, अपने शहरों में महसूस करना है। मुझे आधी रात को दिल्ली और रोहतक की गलियों में घूमना है – बेफिक्र, बेपरवाह, स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार से स्वतंत्रता के एहसास से।”
अनुराधा की किताब रूढ़ संस्कृति के दायरों में सिमटी आज़ादी को मुक्त करने की बात करती है। अनुराधा के प्रश्नों के उत्तर की खोज में हम एक बेहतर इन्सान बनते दिखाई देते हैं।राजकमल प्रकाशन ने अनुराधा की घुमक्कड़ी के संस्मरणों को एक किताब का रूप दे दिया है – ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’।यह घुमक्कड़शास्त्र भारत की उन तमाम स्त्रियों के लिए स्वंतत्रता का घोषणापत्र-सा मालूम पड़ता है, जो अपने एकतरफा संस्कार, धर्म, मर्यादाओं की बेडि़यों में कैद हैं
अनुराधा की किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ यूं तो एक यात्रा-वृतांत है पर असल में यह समाज में विमर्श पैदा करती किताब है। यहां नारीवाद जैसा कोई वाद नहीं है लेकिन पूरी किताब लड़कियों के सम्मान के साथ जिंदा रहने, अपनी निजता और स्पेस खोजने की वकालत करती है। सबकुछ भूलकर घूमने की हिमायत करती है। सिर्फ घूमने के दम पर अनुराधा खुद लड़कियों और पूरे समाज की सोच को बदलने की बात करती हैं, ‘तुम चलोगे तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी और मेरी बेटी भी। जब सब साथ चलेंगी तो सब आजाद, बेफिक्र और बेपरवाह ही चलेंगी। दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जाएगी। अगर नहीं होगी तो आदत डलवानी पड़ेगी, डरकर घर में मत रह जाना। तू खुद अपना सहारा है। तुम अपने-आप के साथ घूमना। अपने तक पहुंचने और अपने-आप को पाने के लिए घूमना; तुम घूमना!’
अनुराधा ने अपनी किताब के अंत में हमवतन लड़कियों के नाम एक ख़त लिखा है। यह ख़त आज़ादी का इंकलाब है जिसकी चिंगारी हर एक लड़की के दिल में जल रही है …“तुम चलना। अपने गाँव में नहीं चल पा रही हो तो अपने शहर में चलना। अपने शहर में नहीं चल पा रही हो तो अपने देश में चलना। अपना देश भी चलना मुश्किल करता है तो यह दुनियाँ भी तेरी ही है, अपनी दुनियाँ में चलना। लेकिन तुम चलना। तुम आज़ाद, बेफिक्र, बेपरवाह,बेकाम, बेहया होकर चलना। तुम चलना ज़रुर।”
अनुराधा के अंदर आत्मविश्वास की एक लहर है जो शब्दों के जरिए आपकी आँखों को लाल कर देती है …“डर कर घर में मत रह जाना। तुम्हारे अपने घर से कहीं ज्यादा सुरक्षित यह पराई अनजानी दुनियाँ है। वह कहीं ज्यादा तेरी अपनी है। बाहर निकलते ही खुद पर यकीन करना। खुद पर यकीन रखते हुए घूमना। तू खुद अपना सहारा है। तुझे किसी सहारे की जरुरत नहीं। तुम अपने आप के साथ घूमना। अपने गम, अपनी खुशियाँ, अपनी तन्हाई सब साथ लिए इस दुनियाँ के नायाब ख़जाने ढूंढना। यह दुनियाँ तेरे लिए बनी है, इसे देखना जरुर। इसे जानना इसे जीना। यह दुनियाँ अपनी मुठ्ठी में लेकर घूमना, इस दुनियाँ में गुम होने के लिए घूमना, इस दुनियाँ में खोजने के लिए घूमना। इसमें कुछ पाने के लिए घूमना, कुछ खो देने के लिए घूमना। अपने तक पहुँचने और अपने आप को पाने के लिए घूमना; तुम घूमना!”
हरियाणा की एक लड़की यूरोप गई थी। वह पढने नहीं गई, नौकरी करने भी नहीं गई, न ही वह पर्यटक बन के गई थी। वह आज़ादी की साँस महसूस करने गई थी। एक साँस जिसका समय, स्थान, कारण, सब कुछ उसने तय किया था। उस लड़की का नाम है- अनुराधा बेनीवाल। राजकमल प्रकाशन ने अनुराधा की घुमक्कड़ी के संस्मरणों को एक किताब का रूप दे दिया है – 'आज़ादी मेरा ब्रांड'।
अनुराधा कहती हैं, “घूमना कठिन काम नहीं है कि उसके बारे में चिंतित हुआ जाए अगर घूमने के बारे में आपके मन में सवाल हैं, तब आपका मन अभी तक सच में घूमने का नहीं हुआ है। जब घूमने का मन होता है, तो मन में सवाल नही होते। अकेले घूमना आपको साहस देता है। अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहने का साहस। सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस। ‘संस्कारी’ और ‘लायक’ की कूपमंडूक परिभाषा में बंध के रहने से अच्छा है कि यायावर बन के खुद परिभाषाएं गढ़ी जाएँ जिन्हें हमने खुद के अनुभव से जाना हो।”अनुराधा ने यह परिभाषाएं खुद रची हैं। अनुराधा ‘नए ज़माने की नितांत भारतीय फ़कीरन’ हैं लेकिन उनकी फ़कीरी भी अलग किस्म की है और भारत की परिभाषा भी। आज़ादी की तलाश में भटकना ही आज़ादी है। यह तलाश हरेक आदमी को खुद करनी पड़ेगी। अनुराधा की तलाश सांसारिक भी है और आध्यात्मिक भी। अनुराधा इस समाज की आंख में आंख डालकर बहुत सारे सवाल पूछती हैं, ‘आखिर एक लड़के को एक लड़की के साथ बेहतर जीवन जीने की तैयारी पहले से क्यों नहीं करनी चाहिए?’ यह देखकर कुछ जलन सी होती है कि जितनी सुरक्षा हमें अपने घर और अपने देश के भीतर नहीं मिलती, उससे कहीं ज्यादा सुरक्षित लेखिका खुद को अंजान देश के अंजान लोगों के बीच पाती है। अनुराधा यूरोप के 13 शहरों में अंजान लोंगों के घर रुकीं। अंजान लोगों के साथ कार में लंबी यात्रा की।
वह कहती हैं, “भीतर की मंज़िलों को हम बाहर चलते हुए भी छू सकते हैं, बशर्ते अपने आप को लादकर न चले हों। उतना ही एकांत साथ लेकर निकले हों जितना एकांत ऋषि अपने भीतर की यात्रा पर लेकर निकला होगा”।
सबसे अच्छी बात यह है कि अनुराधा उत्तर नहीं देती… प्रश्न पूछती हैं; बेहद गंभीर और जायज प्रश्न…
“क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे ? क्यों तुम्हें मैं अकेली चलती नहीं सुहाती ? मेरे महान देश के महान नारी पूजकों जवाब दो ! मेरी संस्कृति के रखवालों जवाब दो ! मैं चलते चलते जैसे चीखने लगती हूँ। मुझे बताओ मेरे कल्चर के ठेकेदारों क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकल कर चल पाना ?”
अनुराधा की किताब रूढ़ संस्कृति के दायरों में सिमटी आज़ादी को मुक्त करने की बात करती है।अनुराधा के प्रश्नों के उत्तर की खोज में हम एक बेहतर इंसान बनते दिखाई देते हैं।
अंत में 'बच्चन' जी की कविता सार्थक बैठती है-
शूल कुछ ऐसे, पगों में
चेतना की स्फूर्ति भरते,
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते,
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए,
किंतु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफ़िर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफ़िर!
No comments:
Post a Comment