Sunday, 25 February 2024

मैं गीत हूँ...मैं मीत हूँ

 मैं गीत हूँ...मैं मीत हूँ


मैं वह गीत हूँ, जो हर पक्षी को गाता है

मैं वह पत्ता हूँ, जो ज़मीन को उर्वर बनाता है

मैं वह फूल हूँ, जो जग को महकाता है

मैं वह वृक्ष हूँ, जो झूमता-झुकता-लहराता है

मैं वो बादल हूँ, जो धरती को महकाता है


मैं वह ज्वार हूँ, जो चंद्रमा को हिलाता है

मैं वह धारा हूँ,  जो रेत को संवारती है

मैं वह पृथ्वी हूँ,  जो सूरज को रोशन करती है

मैं वो आग हूँ,  जो पत्थर से लगती है

मैं वह मिट्टी हूँ, जो हाथ से आकार पाती है

मैं वह नदी हूँ, जो तटों को बनाती है


मैं वह मयूर हूँ, जो पंख पसार थिरकता है

मैं वह राग हूँ, जो मन-मंदिर में बजता है

मैं वह सागर हूँ, जो रत्नाकर कहलाता है

मैं वह शब्द हूँ, जो जन-जन बोलता है


मैं वह मीत हूँ, जो अपने स्नेहिल स्पर्श से

कभी वृक्ष, कभी बादल, कभी आग,कभी मिट्टी,

कभी नदी, कभी मयूर, कभी राग, कभी फूल,

और कभी शब्द बनकर दिलों में बस जाता है॥

मेरे अंदर एक भारत बसता है

 

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है

 

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है

ज़िंदगी से हारकर जब उदास होती हूं मैं,

तब यह प्यार देता है, दुलार देता है

अपनी बाँहों में कसता है

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है।

 

मेरे अंदर एक पर्वत है

जिसका गुरुत्व नभ को चूमता है

जिसकी नस-नस अपनत्व में झूमता है

अपनी बाँहों में कसता है

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है।

 

मेरे अंदर कुछ पवित्र नदियां हैं

जो धरती के कोरे पन्नों पर

लिखती हैं नित प्यार के नए गीत,

और कहती हैं....

जागो, जागो, जागो, मेरे मीत

मीत जो अपनी बाँहों में कसता है

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है।

 

मेरे अंदर मंदिर हैं, मसजिद हैं, गिरजा है

जहां केवल श्रद्धा के फूल चढ़ते हैं,

और सब प्यार से हिलते-मिलते हैं

मेरे अंदर एक सभ्यता है, एक संस्कृति है

जो जीने की राह बताती है

सदियों पुरानी होकर भी, अमर- नवीन कहलाती है

यही प्यार अपनी बाँहों में कसता है

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है।

 

स्कूल- कॉलेज- अस्पताल, कल- कारखाने, खेत

नहरें- बाँध- पुल हैं, जहां श्रम के फूल खिलते हैं

और एक सौ चालीस करोड़ लोग एक दूसरे के गले मिलते हैं

मेरे अंदर कश्मीर ताज अजंता एलोरा का

विलक्षण रूप झलकता है

जो हर नई सांस के संग

एक नए सूरजमुखी-सा खिलता है

यही सूरजमुखी अपनी बाँहों में कसता है

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है।

 

ज़िंदगी से हारकर जब उदास होती हूं मैं,

तब यह प्यार देता है, दुलार देता है

अपनी बाँहों में कसता है

मेरे अंदर एक HINDOSTA  बसता है

 

 

मीता गुप्ता

 

Saturday, 24 February 2024

लोग जो मुझमें रह गए- अनुराधा बेनीवाल

 

लोग जो मुझमें रह गए- अनुराधा बेनीवाल

(यायावरी की दूसरी कड़ी)



यह आज़ादी मेरा ब्रांड' कहने और जीने वाली अनुराधा बेनीवाल की दूसरी किताब है। यह कई यात्राओं के बाद की एक वैचारिक और रूहानी यात्रा का आख्यान है, जो यात्रा-वृत्तान्त के तयशुदा फ्रेम से बाहर छिटकते शिल्प में तयशुदा परिभाषाओं और मानकों के साँचे तोड़ते जीवन का दर्शन है। यात्राएं आपको आज़ाद करती हैं। वे आपको अपरिचित-अनजानी-अनदेखी दुनिया से परिचित कराती हैं, जिससे आपकी दुनिया बड़ी होती है और आपका हौसला भी बढ़ता है। खुद पर भरोसा भी बढ़ता है। यात्राएं आपको हदों को पार कर नई हदों तक पहुंचाती हैं। आपके दायरे का विस्तार करती हैं। यात्रा का मतलब केवल एक जगह से दूसरी जगह जाना नहीं है। इसका मलतब उन लोगों, संस्कृतियों, रवायतों, मसलों को देखना–समझना और उनसे जुड़ना भी है, जिनसे आप अब तक अनजान हैं।

लेखिका की ये यायावरी की दूसरी कड़ी है, यानी “आज़ादी  मेरा ब्रांड” का एक्सटेंशन कह सकते है, जिसमें ये समझने में ज़रा भी दिक़्क़त नहीं होती है कि दूसरे शहर दूसरे देश के अनजाने लोग कैसे आपके भीतर रह जाते हैं, जिनको हर मौक़े को आप जब चाहे अपने अंदर चहलक़दमी करवा सकते है। ये तो लाज़िम है, जब आप दूसरे देश में होते है, तो आपके लिए तुलना करना आसान हो जाता है। अपना सामाजिक स्ट्रक्चर और दूसरे देश का सामाजिक स्ट्रक्चर कई बार आपको असहज कर सकता है, लेकिन साथ-साथ यह् परिपक्वता और एक नया नज़रिया भी आपके अंदर पैदा करता है। फिर चाहे बिना शादी के साथ रह रहे लोगों की बात हो या लड़कियों की आज़ादी की बात हो। उनकी प्रायोरिटीज़ की बात हो, या फिर उनके जीवन का नज़रिया हो, सब कुछ आपको ये सोचने पर मजबूर तो करता है कि हम जिस सामाजिक व्यवस्था में है वो सही है या नहीं।

जब आप भारत में किसी भी अनजान इंसान से बात करने से पहले दस बार समझना चाहते है कि उससे ये बात की जाए या नहीं, तो वैसे में दुनिया घूमना और दुनिया के कल्चर को समझना और समझने से पहले किसी अनजान इंसान पर विश्वास करना कठिन तो होता ही है। इस कठिनाई और ऊहापोह में ख़ुद से कितना लड़ना होता है, उसकी भी जर्नी आसान नहीं होती है।

जिस तरह से अलग-अलग लोगों को सुनना अलग-अलग ज़िंदगियों के गलियों में घूमना है, उसी तरह इस किताब के अलग-अलग चैप्टर और उनके कैरेक्टर को पढ़ना आपको ज़िंदगी के क़रीब और उनकी गलियों में बहा ले जाते हैं। अनुराधा बेनीवाल पहले एक घुमक्कड़ हैं, जिज्ञासु हैं, समाजों और देशों के विभाजनों के पार देखने में सक्षम एक संवेदनशील ‘सेल्फ़’ हैं,  उसके बाद,  और इस सबको मिलाकर, एक समर्थ लेखिका हैं। हरियाणा के एक गाँव से निकली एक लड़की जो अलग-अलग देशों में जाती है, अलग-अलग जींस और जज़्बात के लोगों से मिलती है। कहीं गे, कहीं लेस्बियन, तलाक़शुदा, परिवारशुदा, कहीं धूप की तरह खुली सड़कें-गलियाँ, कहीं भारत से भी ज़्यादा ‘बांद समाज’। उनसे मुख़ातिब होते हुए उसे लगता है कि ये सब अलग हैं, लेकिन सब ख़ास हैं। दुनिया इन सबके होने से ही सुंदर है, क्योंकि सबकी अपनी अलहदा कहानी है। इनमें से किसी के भी नहीं होने से दुनिया से कुछ चला जाएगा। अलग-अलग तरह के लोगों से कटकर रहना नहीं, उनसे जुड़ना, उनको जोड़ना ही हमें बेहतर मनुष्य बनाता है; हमें हमारी आत्मा के पवित्र और श्रेष्ठ के पास ले जाता है। ऐसे में उस लड़की को लगता है—मेरे भीतर अब सिर्फ़ मैं नहीं हूँ, और भी अनेक लोग हैं। लोग, जो मुझमें हमेशा के लिए रह गए।

अवश्य पढ़ें !

मीता गुप्ता

Sunday, 18 February 2024

कुछ सपने बोए थे

 

कुछ सपने बोए थे

उसने कुछ सपने बोए थे,

की ज़मीन की गुडाई थी,

खेत की मुंडेर बनाई थी,

बहुत  की सिंचाई थी,

फिर बो दिए सपनों के बीज…..!

सपने बेटे की पढाई के...

बेटी की सगाई के...

माँ-बाबा की दवाई के...

चूड़ी भरी बीबी की कलाई के...

रोंप दिए थे नन्हें पौधे |

 उम्मीद भी यही थी –

कि कल जब ये पेड़ पनपेंगे

तो सपने भी जवान होंगे

धीमे-धीमे परवान होंगे

और मिलेंगे सुंदर फल |

सपने सब बड़े हो रहे थे

आँखों के सामने खड़े हो रहे थे,

कोपलें मुस्करा रही थीं

नन्ही कलियाँ खिलखिला रही थी

सपने बढ़ने जो लगे थे 

बेटे की उम्मीद की अमराई-सी

बेटी के मन की नई-नई अंगडाई-सी

माँ-बाबा की आंखों में रंगीन सपनाई-सी

खनकती चूड़ियों से भरी बीबी की कलाई-सी

सपने हज़ार

यौवन का खुमार

रंग बेशुमार

इंद्रधनुष बारंबार...

अचानक सपने झुलसने लगे,

ठंडी आग में लहकने लगे,

अश्क बन आँखों से ढलकने लगे,

शुष्क रेत से दरकने लगे ,

आँखों आँखों में आँखों ने

तब  कई बातें की थीं ,

जिन सपनों में रंग भरने को,

कितनी जवां रातें थी दी ,

वो सारे सपने आँखों के

स्याह अंधेरे ने आ घेरे थे |

 सिर्फ एक सवाल था मन में

कैसे होगी बेटे की पढ़ाई?

कौन करेगा अब बेटी से सगाई?

माँ-बाबा की दवा नहीं आई...!

सूनी रहेगी बीबी की कलाई 

सिर्फ एक आभास था अब,

कुछ नहीं हाथ था अब ,

बोए हुए कुछ सपनों की,

अब भी तलाश थी,

ज़िंदगी बना रही परिहास थी |

आज सबकी भूख मिटाने वाला ,

अपनी ही  भूख से डर गया,

आँखों में बसे स्वप्न क्या टूटे,

बिखरे सपने देख फिर किसान

क्या वक़्त से पहले वह बिखर गया ?

क्या कोई हाथ नहीं ऐसा

जो बढ़ता आगे और कहता

मैं तेरे साथ हूं, ग्राम-देवता

तू ख्वाब नए फिर बो

रार अपनी तू न खो 

कुछ सपनों के टूट जाने पर भी

सपनों की उर्वर-शक्ति को जान लेना

सपनों की दूब को फिर हरितिमा देना

सपनों को फिर ज़िंदगानी देना

सपनों को फिर ज़िंदगानी देना

 

 

 


और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...