Saturday, 24 February 2024

लोग जो मुझमें रह गए- अनुराधा बेनीवाल

 

लोग जो मुझमें रह गए- अनुराधा बेनीवाल

(यायावरी की दूसरी कड़ी)



यह आज़ादी मेरा ब्रांड' कहने और जीने वाली अनुराधा बेनीवाल की दूसरी किताब है। यह कई यात्राओं के बाद की एक वैचारिक और रूहानी यात्रा का आख्यान है, जो यात्रा-वृत्तान्त के तयशुदा फ्रेम से बाहर छिटकते शिल्प में तयशुदा परिभाषाओं और मानकों के साँचे तोड़ते जीवन का दर्शन है। यात्राएं आपको आज़ाद करती हैं। वे आपको अपरिचित-अनजानी-अनदेखी दुनिया से परिचित कराती हैं, जिससे आपकी दुनिया बड़ी होती है और आपका हौसला भी बढ़ता है। खुद पर भरोसा भी बढ़ता है। यात्राएं आपको हदों को पार कर नई हदों तक पहुंचाती हैं। आपके दायरे का विस्तार करती हैं। यात्रा का मतलब केवल एक जगह से दूसरी जगह जाना नहीं है। इसका मलतब उन लोगों, संस्कृतियों, रवायतों, मसलों को देखना–समझना और उनसे जुड़ना भी है, जिनसे आप अब तक अनजान हैं।

लेखिका की ये यायावरी की दूसरी कड़ी है, यानी “आज़ादी  मेरा ब्रांड” का एक्सटेंशन कह सकते है, जिसमें ये समझने में ज़रा भी दिक़्क़त नहीं होती है कि दूसरे शहर दूसरे देश के अनजाने लोग कैसे आपके भीतर रह जाते हैं, जिनको हर मौक़े को आप जब चाहे अपने अंदर चहलक़दमी करवा सकते है। ये तो लाज़िम है, जब आप दूसरे देश में होते है, तो आपके लिए तुलना करना आसान हो जाता है। अपना सामाजिक स्ट्रक्चर और दूसरे देश का सामाजिक स्ट्रक्चर कई बार आपको असहज कर सकता है, लेकिन साथ-साथ यह् परिपक्वता और एक नया नज़रिया भी आपके अंदर पैदा करता है। फिर चाहे बिना शादी के साथ रह रहे लोगों की बात हो या लड़कियों की आज़ादी की बात हो। उनकी प्रायोरिटीज़ की बात हो, या फिर उनके जीवन का नज़रिया हो, सब कुछ आपको ये सोचने पर मजबूर तो करता है कि हम जिस सामाजिक व्यवस्था में है वो सही है या नहीं।

जब आप भारत में किसी भी अनजान इंसान से बात करने से पहले दस बार समझना चाहते है कि उससे ये बात की जाए या नहीं, तो वैसे में दुनिया घूमना और दुनिया के कल्चर को समझना और समझने से पहले किसी अनजान इंसान पर विश्वास करना कठिन तो होता ही है। इस कठिनाई और ऊहापोह में ख़ुद से कितना लड़ना होता है, उसकी भी जर्नी आसान नहीं होती है।

जिस तरह से अलग-अलग लोगों को सुनना अलग-अलग ज़िंदगियों के गलियों में घूमना है, उसी तरह इस किताब के अलग-अलग चैप्टर और उनके कैरेक्टर को पढ़ना आपको ज़िंदगी के क़रीब और उनकी गलियों में बहा ले जाते हैं। अनुराधा बेनीवाल पहले एक घुमक्कड़ हैं, जिज्ञासु हैं, समाजों और देशों के विभाजनों के पार देखने में सक्षम एक संवेदनशील ‘सेल्फ़’ हैं,  उसके बाद,  और इस सबको मिलाकर, एक समर्थ लेखिका हैं। हरियाणा के एक गाँव से निकली एक लड़की जो अलग-अलग देशों में जाती है, अलग-अलग जींस और जज़्बात के लोगों से मिलती है। कहीं गे, कहीं लेस्बियन, तलाक़शुदा, परिवारशुदा, कहीं धूप की तरह खुली सड़कें-गलियाँ, कहीं भारत से भी ज़्यादा ‘बांद समाज’। उनसे मुख़ातिब होते हुए उसे लगता है कि ये सब अलग हैं, लेकिन सब ख़ास हैं। दुनिया इन सबके होने से ही सुंदर है, क्योंकि सबकी अपनी अलहदा कहानी है। इनमें से किसी के भी नहीं होने से दुनिया से कुछ चला जाएगा। अलग-अलग तरह के लोगों से कटकर रहना नहीं, उनसे जुड़ना, उनको जोड़ना ही हमें बेहतर मनुष्य बनाता है; हमें हमारी आत्मा के पवित्र और श्रेष्ठ के पास ले जाता है। ऐसे में उस लड़की को लगता है—मेरे भीतर अब सिर्फ़ मैं नहीं हूँ, और भी अनेक लोग हैं। लोग, जो मुझमें हमेशा के लिए रह गए।

अवश्य पढ़ें !

मीता गुप्ता

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