Thursday, 15 February 2024

वसंत दूत-निराला

 

वसंत दूत-निराला



वसंत पंचमी के साथ महाकवि निराला की याद वैसे ही जुड़ी हुई है, जैसे वे दोनों दो शरीर एक आत्मा हों। निराला ने ‘हिंदी के सुमनों’ को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी है, उसमें अपने को ‘वसंत दूत’ ही कहा है। एक जमाने में वसंत पर मौसमी कविताएं लिखना आम था, पर इस विषय पर सबसे श्रेष्ठ गीत निराला ने ही लिखे हैं। उनके जीवन में अभाव ही अभाव रहे, पर उनकी आत्मा में वसंत की खुशबू रची-बसी रही। इसीलिए हिंदी जगत उन्हें ‘महाप्राण’ मानता है। निराला जी का जन्म दिवस वसंत पंचमी को मनाया जाता है। हम लोगों ने यह मान ही लिया है कि किसी और दिन उनका जन्म हो ही नहीं सकता था। वसंत पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा होती है। निराला सरस्वती के वरद पुत्र थे, सरस्वती साधक थे। खड़ी बोली हिंदी में सरस्वती पर जितनी कविताएं निराला जी ने लिखीं, किसी और कवि ने नहीं। उन्होंने सरस्वती को अनेक अनुपम और अभूतपूर्व चित्रों में उकेरा है। उन्होंने सरस्वती के मुखमंडल को करुणा के आंसुओं से धुला कहा है। यह सरस्वती का नया रूप है, उन्होंने किसानों की सरस्वती की प्रतिष्ठा की है। निराला ने सरस्वती को मंदिरों, पूजा-पाठ के कर्मकांड से बाहर निकलकर खेतों-खलिहानों में श्रमजीवी किसानों के सुख-दुख भरे जीवन क्षेत्र में स्थापित किया-

हरी-भरी खेतों की सरस्वती लहराई,

मगन किसानों के घर उन्माद बड़ी बधाई।

सरस्वती भाषा की देवी हैं। वाणी हैं, वाणी सामाजिक देवी हैं। वे शब्दों को सिद्धि देती हैं। कवि सरस्वती की साधना करके शब्दों को अर्थ प्रदान करता है, उन्हें सार्थक बनता है, वस्तुतः शब्द ही कवि की सबसे बड़ी संपत्ति है और इस संपत्ति पर वह सबसे अधिक भरोसा करता है।एक उदाहरण मार्मिक तो है ही, मनोरंजन भी है। कहते हैं एक वृद्ध ने घनघोर जाड़े के दिनों में निराला को बेटा कह दिया। वृद्धाएं प्राय युवकों को बेटा या बच्चा कहकर संबोधित करती हैं। वह वृद्धा तो निराला को बेटा का कर चुप हो गई, लेकिन कवि निराला के लिए ‘बेटा’ एक अर्थवान शब्द था। वह इस संबोधन से बेचैन हो उठे, अगर वह इस वृद्धा के ‘बेटा’ हैं, तो क्या उन्हें इस वृद्धा को अर्थात अपनी मां को इस सर्दी में तड़पता हुआ छोड़ देना चाहिए? संयोग से उन्हीं दिनों निराला ने अपने लिए एक अच्छी रजाई बनवाई थी। उन्होंने वह रजाई उसे वृद्धा को दे दी। यह एक साधारण सा उदाहरण है कि शब्दों को महत्व देने वाला कवि शब्दार्थ की साधना जीवन में कैसे करता है। यह साधना केवल शब्द पर ही विश्वास नहीं पैदा करती है, यह मानवता पर विश्वास भी जागती है।

जिन दिनों निराला इलाहाबाद में थे, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के यशस्वी वाइस चांसलर अमरनाथ झा भी वहीं थे। शिक्षा, संस्कृति और प्रशासकीय सेवाओं के क्षेत्र में अमरनाथ झा का डंका बजता था। उनका दरबार संस्कृतिकर्मियों से भरा रहता था। अमरनाथ झा ने निराला जी को पत्र लिखकर अपने घर पर काव्य-पाठ के लिए निमंत्रित किया। निराला तो कहीं भी किसी को भी कविता सुना सकते थे, लेकिन वह वाइस चांसलर और उनके घर में लगने वाले दरबार में बैठे साहित्य संरक्षकों के यहां जाकर अपनी कविताएं नहीं सुनाते थे। यह शब्दार्थ का सम्मान है, सरस्वती की साधना का सच्चा रूप है।

कहते हैं एक बार ओरछा नरेश से अपना परिचय देते हुए निराला ने कहा था कि हम वह हैं जिनके बाप-दादों की पालकी आपके बाप-दादा उठाते थे। यह कवि की अपनी नहीं, बल्कि कवियों की परंपरा की हेकड़ी थी और निराला उसे पारंपरिक घटना स्मृति का संकेत कर रहे थे, जब सम्मानित करने के लिए छत्रसाल ने भूषण की पालकी स्वयं उठा ली थी।

निराला का जन्म रविवार को हुआ था। इसी से उनका नाम सूर्यकांत पड़ा। लेकिन सूर्य के पास अपनी धधकन के अलावा और क्या है? हम सूर्य की पूजा करते हैं, क्योंकि वह जीवनदाता है। लेकिन सूर्य किसकी पूजा करे? कवियों के कवि निराला सूर्य की तरह ही जीवन भर धधकते रहे। बचपन में मां चली गईं, जवानी आते-आते पिता न रहे। धर्मपत्नी भी नहीं रहीं। बेटी का विवाह नहीं हो सका और अकालमृत्यु हुई। जीवन भर कभी इतने साधन नहीं हुए कि कल की चिंता न करनी पड़े। किसी प्रतिभाशाली और संवेदनशील लेखक के साथ इससे ज्यादा ट्रेजेडी और क्या हो सकती है? फिर भी, निराला प्रकृति और संस्कृति दोनों के अभिशापों को झेलते हुए अपनी सृजन यात्रा पर चलते रहे। यह आत्मिक शक्ति ही निराला जैसे लेखकों की विलक्षणता है। निराला ने ठीक ही कहा है-

मैं बाहर से खाली कर दिया गया हूं,

पर भीतर से भर दिया गया हूं।

यह कोरा अनुप्रास नहीं था - निराला का यथार्थ था। वेदना सिर्फ उन्हें ही तोड़ पाती है, जिनके पास व्यक्तित्व नहीं होता। निराला की जिस कमाई का हम अभिनंदन करते हैं, वह है, उनका व्यक्तित्व। अपने समय के लेखकों में सूर्यकांत ‘निराला’ में ही व्यक्तित्व दिखाई देता है। वह अक्खड़ थे, स्वाभिमानी थे और परदुखकातर भी थे। उन्हें मर जाना, या जीते जी मर जाना कुबूल था, पर किसी के सामने रिरियाना नहीं। आज के हिंदी साहित्यकारों की तुलना निराला से करने पर हम कहीं विक्षुब्ध और कहीं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, इसलिए आज उनके जन्म दिवस पर उनकी साधना को नमन करें और उनके जैसे महान साहित्यकार को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि दें।

मीता गुप्ता

 

  

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