मैं पुस्तक हूँ
मैं विश्व की हर आवाज़ को शब्दों की स्याही में
डुबोती हूँ.
दिल को छूती, ज्ञान से भरपूर कई विधाओं को संजोती
हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
शैशव, युवावस्था, प्रौढ़
जीवन के विविध रंग उकेरती हूँ
हर तबके, हर संस्कृति, सभ्यता
के अनुभव को समेटती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
मानव, पशु-पक्षी, पर्वत
नदियों संग अठखेलियाँ करती हूँ
मुखौटे लगे चेहरों की भी शराफत बन रंगरेलियां
रचती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
उत्थान पतन की लहरें,ऐतिहासिक
स्मृति से उठाती गिराती हूँ
गीले रेत पर पड़े अपने ही निशाँ बनाती और फिर
मिटाती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
आज की, कल की, हर पल की गाथा बन जुबां में सजती हूँ
सार्वभौमिक सत्य, वैज्ञानिक रहस्य का हर लम्हा बुनती
हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
गंगोत्री से निकली यात्रा को, मैं ही
गंगासागर ले चलती हूँ
राजा रानी के किस्सों में समा बच्चों के सपनों
में पलती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
कभी सौंदर्य कुदरत का, कभी
ज्ञान के सागर में डुबोती हूँ
शब्दों के बादल पर बिठा, भावों
की बारिश से भी भिगोती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
कभी हंसाती ,कभी रुलाती, कभी
संजीदा, विचारमग्न
करती हूँ
मस्तिष्क के बंद पट को, चुपके-चुपके
अहिस्ता से खोलती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
भूल जाना ना मुझे कभी, दुःख
सुख हर लम्हे में साथ देती हूँ
जहां कोई नहीं तुम्हारा, सिवा
तन्हाई के,अपना
हाथ देती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
इस कंप्यूटर युग में तो जैसे, बनती
जा रही मैं डूबती कश्ती हूँ
फट जाऊं, गल जाऊं, फिर भी, रहूँ
स्मृति में, एक ऐसी
हस्ती हूँ
मैं पुस्तक हूँ!
तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे
साथ ले लो
मैं पुस्तक हूँ!
डॉ मीता गुप्ता
विचारक, साहित्यकार
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