Tuesday, 22 April 2025

मैं पुस्तक हूँ

 


मैं पुस्तक हूँ





मैं विश्व की हर आवाज़ को शब्दों की स्याही में डुबोती हूँ.

दिल को छूतीज्ञान से भरपूर कई विधाओं को संजोती हूँ

मैं पुस्तक हूँ!

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

शैशवयुवावस्थाप्रौढ़ जीवन के विविध रंग उकेरती हूँ

हर तबकेहर संस्कृतिसभ्यता के अनुभव को समेटती हूँ

मैं पुस्तक हूँ!

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

मानवपशु-पक्षीपर्वत नदियों संग अठखेलियाँ करती हूँ

मुखौटे लगे चेहरों की भी शराफत बन रंगरेलियां रचती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

उत्थान पतन की लहरें,ऐतिहासिक स्मृति से उठाती गिराती हूँ

गीले रेत पर पड़े अपने ही निशाँ बनाती और फिर मिटाती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

आज कीकल कीहर पल की गाथा बन जुबां में सजती हूँ

सार्वभौमिक सत्यवैज्ञानिक रहस्य का हर लम्हा बुनती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

गंगोत्री से निकली यात्रा कोमैं ही गंगासागर ले चलती हूँ

राजा रानी के किस्सों में समा बच्चों के सपनों में पलती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

कभी सौंदर्य कुदरत काकभी ज्ञान के सागर में डुबोती हूँ

शब्दों के बादल पर बिठाभावों की बारिश से भी भिगोती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

कभी हंसाती ,कभी रुलातीकभी संजीदाविचारमग्न करती हूँ

मस्तिष्क के बंद पट कोचुपके-चुपके अहिस्ता से खोलती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

भूल जाना ना मुझे कभीदुःख सुख हर लम्हे में साथ देती हूँ

जहां कोई नहीं तुम्हारासिवा तन्हाई के,अपना हाथ देती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

इस कंप्यूटर युग में तो जैसेबनती जा रही मैं डूबती कश्ती हूँ

फट जाऊंगल जाऊं, फिर भीरहूँ स्मृति मेंएक ऐसी हस्ती हूँ

मैं पुस्तक हूँ! 

तुम्हारी चिर परिचित संगिनी,मुझे साथ ले लो

मैं पुस्तक हूँ! 

डॉ मीता गुप्ता

विचारक, साहित्यकार

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