मन की अपार शक्ति
मन की तुलना मुकुर के साथ दी जाती है, जो बहुत ही उपयुक्त है। मुकुर में हमारा मुख साफ तभी दिख पडे़गा, जब दर्पण निर्मल हो। वैसा ही मन भी जब किसी तरह के विकार से रहित और निर्मल होगा, तभी मनन, जो मन का व्यापार है, भलीभाँति बन पड़ेगा। तनिक भी बाहर की चिंता का, कपट का, या कुटिलाई की मैल मन पर संक्रमित रहे, तो उसके सूक्ष्म विचारों की स्फूर्ति चली जाती है। इसी कारण पहले के लोग मन पवित्र रखने के उद्देश्य से वन में जा बसते थे, प्रात: काल और साँझ को कहीं एकांत स्थल में स्वच्छ जलाशय के समीप बैठ मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते थे। मन की प्रशंसा में यजुर्वेद संहिता की 34 अभ्यास में 5 ऋचाएँ हैं, जो ऐसे ही मन के संबंध में हैं जो अकलुषित, स्वच्छ और पवित्र है। जल की स्वच्छता के बारे में एक जगह कहा भी है 'स्वच्छं सज्जनचित्तवत्' यह पानी ऐसा स्वच्छ है, जैसा सज्जन का मन।
''यस्मिन्नृच सामयजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविचारा: ।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते S भीषुभि र्वाजिन।
इवहूत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन:शिसंकल्पमस्तु।।''
अर्थात रथ के पहिए में जैसे आरा सन्निविष्ट रहते हैं, वैसे ही ऋग् यजु साम के शब्द-समूह मन में सन्निविष्ट हैं। पट (वस्त्र) में जैसे तंतु समूह ओत-प्रोत रहते हैं, वैसे ही सब पदार्थों का ज्ञान मन में ओत-प्रोत है। अर्थात मन जब अकलुषित और स्वस्थ है, तभी विविध ज्ञान उसमें उत्पन्न होते हैं, व्यग्र हो जाने पर नहीं। जैसे चतुर सारथी घोड़े को अपने अधीन रखता है और लगाम के द्वारा उनको अच्छे रास्ते पर ले चलता है, वैसे ही मन हमें चलाता है। तात्पर्य यह है कि मन देह-रथ का सारथी है और इंद्रियाँ घोड़े हैं| चतुर सारथी हुआ, तो घोड़े जब कुपंथ पर जाने लगते हैं, तब वह लगाम कड़ी कर उन्हें रोक लेता है। जब देखता है कि रास्ता साफ है, तो बाग की डोर ढीली कर देता है, वैसा ही मन करता है। जिन मन की स्थिति अंत:करण में है, जो कभी बुढ़ाता नहीं, जो अत्यंत वेगगामी है, वह मेरा मन शांत व्यापार वाला हो, ऐसी कामना इस श्लोक में की गई है|
यज्जाग्रतो दूरमुदैति तदु, सुप्तस्य तथैवैति।
दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे नम: शिवसंकल्पमस्तु।।
इसी प्रकार चक्षु (आंखें) आदि इंद्रियाँ इतनी दूर नहीं जातीं, जितना जागते हुए का मन दूर से दूर जाता है और लौट भी आता है, जो दैव अर्थात दिव्य-ज्ञान वाला है, आध्यात्मिक संबंधी सूक्ष्म विचार जिस मन में आसानी से आ सकते हैं, प्रगाढ़ निद्रा का सुषुप्ति अवस्था में जिसका सर्वथा नाश हो जाता है, जागते ही जो तत्क्षण फिर जी उठता है, वह मेरा मन शिव संकल्प वाला हो, अर्थात उसमें सदा धर्म ही स्थान पाए, पाप मन से दूर रहे।
मन के बराबर चंचल संसार में कुछ नहीं है। पतंजलि महामुनि ने उसी चंचलता को रोक मन के एकाग्र रखने को योग दर्शन निकाला। यूरोप वाले हमारी और-और विद्याओं को तो खींच ले गए, पर इस योग-दर्शन और फलित ज्योतिष पर उनकी दृष्टि उसके मौलिक रूप पर नहीं गई, सो कदाचित इसीलिए कि ये दोनों आधुनिक सभ्यता के साथ मेल नहीं खाते। तभी तो ‘योग’ ‘योगा’ बन गया और उसका नैसर्गिक रूप ही बदल गया| इस तरह के निर्मल मन वाले सदा पूजनीय हैं, जिनके मन में किसी तरह का कल्मष नहीं है, द्रोह, ईर्ष्या, मत्सर, लालच तथा काम-वासना से मुक्ति जिनका मन है उन्हीं को जीवन्मुक्त कहेंगे।
बुद्ध और ईसा आदि महात्मा दत्तात्रेय और याज्ञवल्क्य आदि योगी जो यहाँ तक पूजनीय हुए कि अवतार मान लिए गए ,उनमें जो कुछ महत्व था, सो इसी का कि वे मन को अपने वश में किए थे। जो मन से पवित्र और दृढ़ हैं, वे क्या नहीं कर सकते? संकल्प सिद्धि इसी मन की दृढ़ता का फल है। शत्रु ने चारों ओर से आके घेर लिया, लड़ने वाले फौज के सिपाहियों के हाथ-पाँव फूल गए, भाग के भी नहीं बच सकते, सबों की हिम्मत छूट गई, सब एक स्वर से चिल्ला रहे हैं, हार मन, अब' शत्रु के सुपर्द अपने को कर देने ही से कल्याण है, कैदी हो जाएँगे बला से, जान तो बची रहेगी। पर सेनाध्यक्ष 'कमांडर' अपने संकल्प का दृढ़ है, सिपाहियों के रोने-गाने और कहने-सुनने से विचलित नहीं होता, कायरों को सूरमा बनाता हुआ रण-भूमि में आ उतरा, तोप के गोलों का आघात सहता हुआ शत्रु की सेना पर जा टूटा, द्वंद्व युद्ध कर अंत को विजयी होता है। ऐसे ही योगी को जब उसका योग सिद्ध होने पर आता है, तो विघ्नरूप, जिन्हें अभियोग कहते हैं, होने लगते हैं, इंद्रियों को चलायमान करने वाले यावत प्रलोभन सब उसे आ घेरते हैं। उन प्रलोभनों में फँस गया, तो योग से भ्रष्ट हो गया। उनके प्रलोभन पर भी चलायमान न हुआ, दृढ़ बना रहा, तो अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उसकी गुलाम बन जाती हैं, योगी सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही विद्यार्थी जो मन और चरित्र का पवित्र है दृढ़ता के साथ पढ़ने में लगा रहता है, पर बुद्धि का तीक्ष्ण नहीं है, बार-बार फेल होता है, तो भी ऊब कर अध्ययन से मुँह नहीं मोड़ता, अंत को कृतकार्य हो संसार में नाम पाता है। बड़ी से बड़ी कठिनाई में पड़ा हुआ मन का पवित्र और दृढ़ है तो उसकी मुश्किल आसान होते देर नहीं लगती। आदमी में मन की पवित्रता छिपाए नहीं छिपती, न कुटिल और कलुषित मन वाला छिप सकता है। ऐसा मनुष्य जितना ही ऊपरी दाँव-पेंच अपनी कुटिलाई छिपाने को करता है उतना ही बुद्धिमान लोग जो ताड़बाज हैं, ताड़ लेते हैं।
कहावत है 'मन से मन को राहत है' 'मनु, मन को पहचान लेता है' पहली कहावत के यह माने समझे जाते हैं कि जो तुम्हारे मन में मैल नहीं है, वरन तुम बड़े सीधे और सरल चित्त हो तो दूसरा कैसा ही कुटिल और कपटी है तुम्हारा और उसका किसी एक खास बात में संयोग-वश साथ हो गया तो तुम्हारे मन को राहत न पहुँचेगी। जब तक तुम्हारा ही-सा एक दूसरा पड़ तुम्हें निश्चय न करा दे कि इसका विश्वास करो हम इसके बिचवई होते हैं। दूसरी कहावत के मतलब हुए कि हमसे कुटिल चालबाज का हमारे ही समान कपटी चालाक का साथ होने से पूरा जोड़े बैठ जाता है।
मस्तिष्क, मन, चित्त, हृदय, अंत:करण, बुद्धि ये सब मन के पर्याय शब्द हैं। दार्शनिकों ने बहुत ही थोड़ा अंतर इनके जुदे-जुदे 'फंक्शन' कामों में माना है-अस्तु हमारे जन्म की सफलता इसी में है कि हमारा मन सब वक्रता और कुटियाई छोड़ सरल वृत्ति धारण कर, भगवद्चरणारविंद के रसपान का लोलुप मधुप बन, अपने असार जीवन को इस संसार में सारवान बनाए, तत्सेवानुरक्त महजनों की चरण रज को सदा अपने माथे पर चढ़ाता हुआ ऐतिक तथा आमुष्मिक अनंत सुख का भोक्ता हो, जो निश्चितमेव नाल्पस्य तपसै: फलम् है। अंत को फिर भी हम एक बार अपने वाचक वृंदों को चिताते हैं कि जो तभी होगा जब चित्त मतवाला हाथी-सा संयम के खूँटे में जकड़ कर बाँधा जाय। अच्छा कहा है -
अप्यस्ति कश्चिल्लोकेस्मिन्येनचित्त मदद्विप:।
नीत: प्रशमशीलेन संयमालानलीनताम्।।
डॉ मीता गुप्ता
शिक्षाविद व साहित्यकार
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