Friday, 30 April 2021

संशोधित ब्लूम वर्गीकरण पर आधारित विशिष्ट उद्देश्य लेखन

 

संशोधित ब्लूम वर्गीकरण पर आधारित विशिष्ट उद्देश्य लेखन

संशोधित ब्लूम वर्गीकरण












 

शिक्षण एक सतत प्रक्रिया है, जहां शिक्षार्थी के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन के उद्देश्य से शिक्षण अधिगम की योजना बनाई जाती है । ये अपेक्षित व वांछित परिवर्तित व्यवहार ही सीखने के प्रतिफल माने जाते हैं ।समसामयिक विद्यालय शिक्षण व्यवस्था में शिक्षण की प्रभावशीलता एवं विद्यार्थी के अधिगम की संप्राप्तियों का मापन सीखने के प्रतिफल द्वारा ही किया जाता है ।राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के द्वारा 2017 में प्राथमिक एवं 2019 में माध्यमिक कक्षाओं के लिए इसे इस उद्देश्य से प्रकाशित किया गया कि शिक्षण प्रक्रिया की प्रभावशीलता को निर्धारित कर वांछित सुधार हेतु फीडबैक (प्रतिपुष्टि) प्राप्त किया जा सके । राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा विकसित सभी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखाओं में शिक्षा की गुणवत्ता को प्रमुख लक्ष्य के रूप में शामिल किया गया है । इनमें इस बात पर बल दिया गया है कि सभी बच्चों को सीखने के मूलभूत अवसर उपलब्ध हों, वैश्विक नागरिक बनने के लिए सभी आवश्यक हस्तांतरणीय कौशल अर्जित करने के अवसर मिलें, निर्धारित लक्ष्य स्पष्ट तथा मापने योग्य हों और विद्यालय एवं सामुदायिक स्तर के विभिन्न साझेदार भी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं ।



 

2.

बेंजामिन ब्लूम (1913-1999) (Bloom Taxonomy in Hindi) एक मनोवैज्ञानिक थे,ब्लूम ने अपनी पुस्तक Taxonomy of Education Objectives में ब्लूम का वर्गीकरण, 1956 Bloom Taxonomy काफी प्रचलित है, शैक्षिक सीखने के उद्देश्यों को जटिलता और विशिष्टता के स्तरों में वर्गीकृत करने के लिए किया जाता है।

मॉडल की उत्पत्ति-

मॉडल का नाम बेंजामिन ब्लूम के नाम पर रखा गया, जिन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय में शिक्षकों की समिति की अध्यक्षता की जिसने कर-व्यवस्था को तैयार किया। उन्होंने मानक पाठ का पहला खंड, शैक्षिक उद्देश्यों के वर्गीकरण: शैक्षिक लक्ष्यों का वर्गीकरण, पहली बार 1956 में प्रकाशित किया।

वर्तमान की शिक्षा ब्लूम के वर्गीकरण पर ही संचालित होती है, जैसे एक अध्यापक पढ़ाने से पहले उस प्रकरण से जुड़े ज्ञानात्मक,बोधात्मक एवं क्रियात्मक उद्देश्यों के चयन करता है यह सब ब्लूम के वर्गीकरण Bloom Taxonomy का ही परिणाम हैं।

ब्लूम टैक्सोनोमी 1956 में प्रकाशित हुई। इसका निर्माण कार्य ब्लूम द्वारा हुआ इसलिये यह bloom taxonomy के नाम से प्रचलित हुई ।ब्लूम के वर्गीकरण को “शिक्षा के उद्देश्यों” के नाम से जाना जाता हैं अतः शिक्षण प्रक्रिया का निर्माण इसी तरीके से किया जाता हैं ताकि इन उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव हो सके।

ब्लूम का वर्गीकरण Bloom Taxonomy 

 ब्लूम के वर्गीकरण के आधार पर ही कई मनोवैज्ञानिकों ने अपने परीक्षण किए और वह अपने परीक्षणों में सफल भी हुए। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि ब्लूम का यह सिद्धांत काफी हद तक सही हैं। बेंजामिन ब्लूम के वर्गीकरण (bloom taxonomy) में

संज्ञानात्मक उद्देश्य(Cognitive Domain)

भावात्मक उद्देश्य (Affective Domain)

 मनोशारीरिक उद्देश्य(Psychomotor Domain)

समाहित हैं। सर्वप्रथम हम संज्ञानात्मक उद्देश्य Cognitive Domain की प्राप्ति के लिए निम्न बिंदुओं को उजागर किया –

संज्ञानात्मक उद्देश्य Cognitive Domain

1. ज्ञान (knowledge) – ज्ञान को ब्लूम ने प्रथम स्थान दिया क्योंकि बिना ज्ञान के बाकी बिंदुओं की कल्पना करना असंभव हैं। जब तक किसी वस्तु के बारे में ज्ञान knowledge नही होगा तब तक उसके बारे में चिंतन करना असंभव है और अगर संभव हो भी जाये तो उसको सही दिशा नही मिल पाती। इसी कारण ब्लूम के वर्गीकरण bloom taxonomy में इसकी महत्ता को प्रथम स्थान दिया गया।

2. बोध (comprehensive) – ज्ञान को समझना उसके सभी पहलुओं से परिचित होना एवं उसके गुण-दोषों के सम्बंध में ज्ञान अर्जित करना।

3. अनुप्रयोग(application) – ज्ञान को क्रियान्वित (practical) रूप देना अनुप्रयोग कहलाता हैं प्राप्त किये गए ज्ञान की आवश्यकता पड़ने पर उसका सही तरीके से अपनी जिंदगी में उसे लागू करना एवं उस समस्या के समाधान निकालने प्राप्त किये गए ज्ञान के द्वारा। यह ज्ञान को कौशल(skill) में परिवर्तित कर देता है यही मार्ग छात्रों को अनुभव प्रदान करने में उनकी सहायता भी करता हैं।

4. विश्लेषण(analysis) – विश्लेषण से ब्लूम का तात्पर्य था तोड़ना अर्थात किसी बड़े प्रकरण topic को समझने के लिए उसे छोटे-छोटे भागों में विभक्त करना एवं नवीन ज्ञान का निर्माण करना तथा नवीन विचारों की खोज करना। यह ब्लूम का विचार समस्या-समाधान में भी सहायक हैं।

5. संश्लेषण(sysnthesis) – प्राप्त किये गए नवीन विचारो या नवीन ज्ञान को जोड़ना उन्हें एकत्रित करना अर्थात उसको जोड़कर एक नवीन ज्ञान का निर्माण करना संश्लेषण कहलाता हैं।

6. मूल्यांकन(evaluation) – सब करने के पश्चात उस नवीन ज्ञान का मूल्यांकन करना कि यह सभी क्षेत्रों में लाभदायक है कि नहीं। कहने का तात्पर्य है कि वह वैध(validity) एवं विश्वशनीय (reliability) हैं या नहीं। जिस उद्देश्य से वह ज्ञान छात्रों को प्रदान किया गया वह उस उद्देश्य की प्राप्ति करने में सक्षम हैं कि नही यह मूल्यांकन द्वारा पता लगाया जा सकता हैं।

2001 रिवाइज्ड ब्लूम वर्गीकरण (2001 Revised Bloom Taxonomy) –

ब्लूम के वर्गीकरण में संशोधित रूप एंडरसन और कृतवोल ने दिया। इन्होंने ब्लूम के वर्गीकरण को वर्तमान की रूपरेखा को देखते हुए उसमे कुछ प्रमुख परिवर्तन किये। जिसे रिवाइज्ड ब्लूम वर्गीकरण revised bloom taxonomy के नाम से जाना जाता हैं।

1. स्मरण (remembering) – प्राप्त किये गये ज्ञान को अधिक समय तक अपनी बुद्धि (mind) में संचित रख पाना एवं समय आने पर उसको पुनः स्मरण (recall) कर पाना स्मरण शक्ति का गुण हैं।

2. समझना(understanding) – प्राप्त किया गया ज्ञान का उपयोग कब, कहा और कैसे करना है यह किसी व्यक्ति के लिए तभी सम्भव हैं जब वह प्राप्त किये ज्ञान को सही तरीके से समझे।

3. लागू करना((Apply) – जब वह ज्ञान समझ में आ जाये जब पता चल जाये कि इस ज्ञान का प्रयोग कब,कहा और कैसे करना हैं तो उस ज्ञान को सही तरीके से सही समय आने पर उसको लागू करना।

4. विश्लेषण(analysis) – उस ज्ञान को लागू करने के पश्चात उसका विश्लेषण करना अर्थात उसको तोड़ना उसको छोटे-छोटे भागों में विभक्त करना।

5. मूल्यांकन(evaluate) – विश्लेषण करने के पश्चात उसका मूल्यांकन करना कि जिस उद्देश्य से उसकी प्राप्ति की गयी है वह उस उद्देश्य की प्राप्ति कर रहा हैं या नहीं इसका पता हम उसका मूल्यांकन करके कर सकते हैं।

6. रचना(creating) – मूल्यांकन करने के पश्चात उस स्मरण में एक नयी विचार का निर्माण होता हैं जिससे एक नवीन विचार की रचना होती हैं।

भावात्मक उद्देश्य (Affective Domain)

Bloom taxonomy के अंतर्गत भावात्मक उद्देश्य affective domain का निर्माण क्रयवाल एवं मारिया ने (1964) में किया। इन्होंने छात्रों के भावात्मक पक्ष पर ध्यान देते हुए कुछ प्रमुख बिंदुओं को हमारे सम्मुख रखा। भावात्मक पक्ष से तात्पर्य हैं कि उस प्रत्यय topic के प्रति छात्रों के भावात्मक (गुस्सा,प्यार,चिढ़ना, उत्तेजित होना, रोना आदि) रूप का विकास करना।

1. अनुकरण (receiving) – भावात्मक उद्देश्य affective domain की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम बालको को अनुकरण (नकल) के माध्यम से ज्ञान प्रदान करना चाहिए। एक अध्यापक को छात्रों को पढ़ाने के समय उस प्रकरण का भावात्मक पक्ष को महसूस feel कर उसको क्रियान्वित रूप देना चाहिये जिससे छात्र उसका अनुकरण कर उसको महसूस कर सकें।

2. अनुक्रिया (responding) – तत्पश्चात अनुकरण कर उस अनुकरण के द्वारा क्रिया करना अनुक्रिया कहलाता हैं।

3. अनुमूल्यन (valuing) – उस अनुक्रिया के पश्चात हम उसका मूल्यांकन करते है कि वह सफल सिध्द हुआ कि नहीं।

4. संप्रत्यय (conceptualization) – हम उसके सभी पहलुओं पर एक साथ विचार करते हैं।

5. संगठन (organization) – उस प्रकरण topic को एक स्थान में रखकर उसके बारे में चिंतन करते हैं उसमें विचार करना शुरू करते हैं।

6. चारित्रीकरण (characterisation) – तत्पश्चात हम उस पात्र का एक चरित्र निर्माण करते हैं जिससे हमारे भीतर उसके प्रति एक भाव उत्त्पन्न होता हैं जैसे गुंडो के प्रति गुस्से का भाव हीरो के प्रति सहानुभूति वाला भाव आदि।

इन सभी बिंदुओं को हम एक माध्यम के द्वारा समझ सकते है जब हमारा बर्थडे birthday होता हैं और कोई व्यक्ति हमारे लिए उपहार gift लाता है तो हम उस समय खुश होते है या उसको धन्यवाद thanks बोलते हैं अर्थात अनुक्रिया करते हैं गिफ्ट प्राप्ति के लिये। तत्पश्चात जब सभी व्यक्ति चले जाते है तो हम उसको देखते हैं और अंदाजा लगाते है कि इसका मूल्य कितना होता अर्थात उसकी valuing करते हैं उसके बाद उसको सही जगह रखने के लिए उचित जगह निश्चित करते हैं अर्थात उसको संगठित करते हैं तत्पश्चात हम उस गिफ्ट देने वाले व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करते हैं कि उसके लिए हम कितने महत्वपूर्ण हैं। ( यह एक सिर्फ उदाहरण हैं जिसके माध्यम से आपको समझाया जा रहा हैं सच तो यह है कि इस प्रकार किसी के चरित्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। )

मनोशारीरिक उद्देश्य (Psychomotor Domain)

Bloom taxonomy के अंतर्गत मनोशारीरिक उद्देश्य का निर्माण सिम्पसन ने (1969) में किया। इन्होंने ज्ञान के क्रियात्मक पक्ष पर बल देते हुए निन्म बिंदुओं को प्रकाशित किया।

1. उद्दीपन (stimulation) – उद्दीपन से आशय कुछ ऐसी वस्तु जो हमे अपनी ओर आकर्षित करती हैं तत्पश्चात हम उसे देखकर अनुक्रिया करतें हैं जैसे भूख लगने पर खाने की तरफ क्रिया करते हैं इस उदाहरण (example) में भूख उद्दीपन हुई जो हमें क्रिया करने के लिये उत्तेजित कर रहीं हैं।

2. कार्य करना (manipulation) – उस उद्दीपन के प्रति क्रिया हमको कार्य करने पर मजबूर करती हैं।

3. नियंत्रण (control) – उस क्रिया पर हम नियंत्रण रखने का प्रयास करते हैं।

4. समन्वय (coordination) – उसमें नियंत्रण रखने के लिए हम उद्दीपन ओर क्रिया के मध्य समन्वय स्थापित करते हैं।

5. स्वाभाविक (naturalization) – वह समन्वय करते करते एक समय ऐसा आता हैं कि उनमें समन्वय स्थापित करना हमारे लिए सहज हो जाता हैं हम आसानी के साथ हर परिस्थिति में उनमें समन्वय स्थापित कर पाते हैं वह हमारा स्वभाव बन जाता हैं।

6. आदत ( habit formation) – वह स्वभाव में आने के पशचात हमारी आदत बन जाता है। ऐसी परिस्थिति दुबारा आने के पश्चात हम वही क्रिया एवं प्रतिक्रिया हमेशा करते रहते हैं जिससे हमारे अंदर नयी आदतों का निर्माण होता हैं।

निष्कर्ष Conclusion –

ब्लूम के वर्गीकरण (bloom taxonomy in hindi) में ब्लूम ने छात्रों के ज्ञान एवं बौद्धिक पक्ष पर पूरा ध्यान केंद्रित किया हैं। वह छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिये बौद्धिक विकास पर अध्यधिक बल देते हैं। उनका यह वर्गीकरण छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने हेतु काफी उपयोगी सिद्ध हुआ हैं। ब्लूम के वर्गीकरण के माध्यम से चलकर ही हम शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकतें हैं।



बच्चे अपने साथ बहुत कुछ लेकर विद्यालय आते हैं – अपनी भाषा, अपने अनुभव और दुनिया को देखने का अपना नज़रिया आदि। बच्चे घर – परिवार एवं परिवेश से जिन अनुभवों को लेकर विद्यालय आते हैं, वे बहुत समृद्ध होते हैं। उनकी इस भाषायी पूँजी का इस्तेमाल भाषा सीखने –  सिखाने के लिए किया जाना चाहिए। पहली बार विद्यालय में आने वाला बच्चा अनेक शब्दों के अर्थ और उनके प्रभाव से परिचित होता है। लिपिबद्ध (चिह्न) और उनसे जुड़ी ध्वनियाँ बच्चों के लिए अमूर्त होती हैं, इसलिए पढ़ने का प्रारंभ अर्थपूर्ण सामग्री से ही होना चाहिए और किसी उद्देश्य के लिए होना चाहिए। यह उद्देश्य कहानी या कविता सुनकर – पढ़कर आनंद लेना भी हो सकता है। धीरे – धीरे बच्चों में भाषा की लिपि से परिचित होने के बाद अपने परिवेश में उपलब्ध लिखित भाषा को पढ़ने – समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होने लगती है। इसलिए बच्चों को ऐसा वातावरण मिलना जरूरी है जहाँ वे बिना रोक - टोक के अपनी उत्सुकता के अनुसार अपने परिवेश की खोज – बीन कर सकें और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर सकें । भाषा सीखने – सिखाने के संबंध में यह एक ज़रूरी बात है कि बच्चे सहज, कल्पनाशील, प्रभावशाली और व्यवस्थित ढंग से भाषा का सही प्रयोग कर सकें। वे भाषा को प्रभावी बनाने के लिए सही शब्दों का प्रयोग कर सकें। यह ज़रूरी है कि पढ़ना, सुनना, लिखना, बोलना- इन चारों भाषायी कौशलों में बच्चे अपने पूर्वज्ञान की सहायता से अर्थ की रचना कर पाएं और कही गई बात के मूल अर्थ तक पहुँच पाएं । इन सभी कौशलों में समान रूप से कक्षा के स्तर के अनुसार दक्षता प्राप्त करना भाषा शिक्षण का मूल निहितार्थ है ।

हिंदी शिक्षण की योजना बनाते समय अधिगम हेतु अनुकूल वातावरण का सृजन एवं उसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए बहुआयामी उपागम सुनिश्चित किया जाना चाहिए। प्रत्येक पाठ में निहित सीखने की संप्राप्तियों का स्पष्ट निर्धारण करते हुए तदानुसार शिक्षण प्रविधियों का चयन किया जाए । इससे सभी विद्यार्थियों के सीखने को सुनिश्चित किया जा सकेगा और उन्हें गुणात्मक शिक्षा प्रदान करने के प्रयासों को एक सही दिशा मिल सकेगी । सीखने की निरन्तरता को ध्यान में रखते हुए यह सुनिश्चित करना कि शिक्षार्थी ने सटीक रूप से क्या सीखा, एक चुनौती भरा कार्य है। पाठ के अंत में शिक्षार्थियों को क्या-क्या आना चाहिए, यही सीखने के प्रतिफल के रूप में योजना के स्तर पर निर्धारित किया गया था, जिसे शिक्षण की समाप्ति पर मूल्यांकन प्रक्रिया के माध्यम से मापा जाना चाहिए । समय-समय पर शैक्षिक अनुसंधान के अंतर्गत शिक्षण प्रक्रिया  के मापन हेतु विभिन्न सरकारी व निजी संस्थाओं द्वारा विद्यार्थियों के अधिगम स्तर का मापन कराया जाता है, जो शिक्षण प्रक्रिया की प्रभावशीलता को निर्धारित कर वांछित सुधार हेतु फीडबैक (प्रतिपुष्टि) प्रदान करता है । इसी फ़ीडबैक के आलोक में शिक्षण प्रक्रिया की पुनः संरचना करते हुए सीखने के प्रतिफल प्राप्त करने के सार्थक प्रयास किए जाने चाहिए, जिनकी प्राप्ति के बगैर विद्यार्थियों में न्यूनतम अधिगम स्तर की प्राप्ति एवं गुणात्मक सुधार संभव नहीं है।

Sunday, 25 April 2021

मन की अपार शक्ति, शिक्षण में सहयोगी

 मन की अपार शक्ति, शिक्षण में सहयोगी


मन की अपार शक्ति,शिक्षण में सहायक















मन की अपार शक्ति का अर्थ और शिक्षण में उसका महत्व-

मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत,

मत निराश हो यों, तू उठ, ओ मेरे मन के मीत!

 

माना पथिक अकेला तू, पथ भी तेरा अनजान,

और जिन्दगी भर चलना इस तरह नहीं आसान।

पर चलने वालों को इसकी नहीं तनिक परवाह,

बन जाती है साथी उनकी स्वयं अपरिचित राह।

 

दिशा दिशा बनती अनुकूल, भले कितनी विपरीत।

मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥

तोड़ पर्वतों को, चट्टानों को सरिता की धार

बहती मैदानों में, करती धरती का श्रृंगार।

रुकती पल भर भी न, विफल बाँधों के हुए प्रयास,

क्योंकि स्वयं पथ निर्मित करने का उसमें विश्वास।

 

लहर लहर से उठता हर क्षण जीवन का संगीत

मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥

समझा जिनको शूल वही हैं तेरे पथ के फूल,

और फूल जिनको समझा तूने ही पथ के शूल।

क्योंकि शूल पर पड़ते ही पग बढ़ता स्वयं तुरंत,

किंतु फूल को देख पथिक का रुक जाता है पंथ।

 

इसी भाँति उलटी-सी है कुछ इस दुनिया की रीत

मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥

 

मन की तुलना मुकुरा के साथ दी जाती है जो बहुत ही उपयुक्त है। मुकुर में आपका मुख तभी साफ़ दिखाई देगा, जब दर्पण निर्मल होगा। वैसा ही मन भी है, जब किसी तरह के विकार से रहित और निर्मल है, तभी मनन, जो  मन का व्‍यापार है, भलीभाँति बन पड़ेगा । तनिक भी बाहर की चिंता का कपट तथा कुटिलाई की मैल से मन संक्रामित हुआ, तो उसके सूक्ष्‍म विचारों की स्‍फू‍र्ति चली जाती है। इसी से प्राचीनकाल में लोग मन पवित्र रखने को वन में जा बसते थे, प्रात: काल और साँझ को कहीं एकांत स्‍थल में स्‍वच्‍छ जलाशय के समीप बैठ मन को एकाग्र करने का अभ्‍यास करते थे। मस्तिष्‍क, मन, चित्‍त, हृदय, अंत:करण, बुद्धि ये सब मन के पर्याय हैं।

यदि मन अकलुषित और स्‍वस्‍थ है, तभी विविध ज्ञान उसमें उत्‍पन्‍न होते हैं, व्‍यग्र हो जाने पर नहीं। जैसे चतुर सारथी घोड़े को अपने अधीन रखता है और लगाम के द्वारा उनको सही रास्‍ते पर ले जाता है, वैसे ही मन हमें चलाता है। तात्‍पर्य यह है कि मन देह-रथ का सारथी है और इंद्रियाँ घोड़े। चतुर सारथी हुआ, तो घोड़े जब कुपंथ पर जाने लगते हैं, तब लगाम कड़ी कर उन्‍हें रोक लेता है। जब देखता है रास्‍ता साफ है तो बागडोर ढीली कर देता है, वैसा ही मन करता है।

मन के बराबर चंचल संसार में कुछ नहीं है। पतंजलि महामुनि ने उसी चंचलता को रोक मन के एकाग्र रखने को योग दर्शन निकाला। निर्मल मन वाले सदा पूजनीय हैं। जिनके मन में किसी तरह का कल्‍मष नहीं है, द्रोह, ईर्ष्‍या, मत्‍सर, लालच तथा काम-वासना से मुक्त जिनका मन है, उन्‍हीं को जीवंत कहेंगे।

मनुष्य का सबसे प्रभावशाली अंग मन है। मनुष्य की जीवन-लीला मन से ही चलती है। सारे संकल्प-विकल्प, इच्छाएं-कामनाएं मन की ही उपज हैं। बुद्धि इनकी पूर्ति के लिए क्रियाशील रहती है।

भौतिक शरीर में मन कोई अंग नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर का अंग है। भौतिक शरीर का अंग तो बुद्धि भी नहीं है, पर बुद्धि को क्रिया करने के लिए तंत्र की आवश्यकता पड़ती है और यह तंत्र है हमारा मस्तिष्क।

मन को किसी प्रकार के तंत्र की आवश्यकता नहीं होती, वह सदैव तंत्र के बगैर ही क्रियाशील रहता है। जब भौतिक शरीर (स्थूल शरीर) होता है तब भी और जब सूक्ष्म शरीर होता है तब भी। निद्रावस्था में सपनों के लिए उतरदायी मन ही होता है। इसलिए जब मन उद्विग्न होता है, तब हमें बुरे अवसाद वाले स्वप्न दिखाई देते हैं। वहीं जब मन प्रफुल्लित होता है तब हर्षदायक स्वप्न दिखाई देते हैं इसलिए हर्ष-दुख का सारा दारोमदार मन पर है।

चूंकि शरीर के सारे अंग मन के अनुसार संचालित होते हैं इसलिए मन का प्रबल होना आवश्यक है। कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन स्वस्थ है, तो शरीर स्वस्थ है। मन कैसे स्वस्थ रहे, कैसे प्रबल हो; इसके लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना होगा।

मन की अपार शक्ति का शिक्षण में महत्व

 

 1. शिक्षक की क्रियात्मक का और रचनात्मकता का विकास- शिक्षण एवं अध्ययन, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बहुत से कारक शामिल होते हैं। सीखने वाला जिस तरीके से अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुए नया ज्ञान, आचार और कौशल को समाहित करता है ताकि उसके सीख्नने के अनुभवों में विस्तार हो सके, वैसे ही ये सारे कारक आपस में संवाद की स्थिति में आते रहते हैं।

 2. विपरीत परिस्थितियों और नकारात्मकता को दूर करने में सक्षम - जो लोग विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचते हैं, उनके जीवन की कई परेशानियां कम हो जाती हैं। ऐसे हालातों में नकारात्मक विचार हमारे काम को और ज्यादा बिगाड़ सकते हैं। इसीलिए हमेशा सकारात्मक रहना चाहिए। सोच को स्थिर रखें, चुनौती का सामना करें तनाव मुक्त रहने के लिए आभार व्यक्त करें रुटीन में रहकर शारीरिक ऊर्जा बनाए रखें जीवन में विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति

 3.नवाचार और नवप्रवर्तन की ओर उन्मुख - सामान्यतः मानव सभ्यता के विकास को विज्ञान की उन्नति और उसेक बढ़ते प्रभाव से जोड़कर देखा जाता है, क्योंकि आदिम अवस्था समाज की उन्नत अवस्था तक का सफर विज्ञान और उसके आविष्कारों की ही देन है।

 4. हंसमुख और प्रसन्नचित्त तथा आकर्षक व्यक्तित्व का विकास- जब हम हंसते हैं तो हमारे फेफड़ों से हवा तेजी से निकलती है, जिस वजह से हमें गहरी सांस लेने में मदद मिलती है. इससे शरीर में ऑक्सीजन की सप्लाई बेहतर तरीक 1. खुलकर हंसने से हमारे शरीर में ब्लड सर्कुलेशन सही बना रहता है. दरअसल, जब हम हंसते हैं तो हमारे शरीर में ज्यादा मात्रा में ऑक्सीजन पहुंचता हैं. जो हा... हंसने से हमारा इम्यून सिस्टम बेहतर बनता है, जो कई तरह की बीमारियों से लड़ने में फायदा पहुंचाता है. इसलिए स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है कि आप हंसते हुए अ...

 5. सक्रिय अधिगम विधि -प्रविधि में के लिए समर्पित-शिक्षक कि मुख्य भूमिका इस अधिगम तथा चिंतन प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना हो जाता है। ... पूर्वज्ञान के स्पष्टीकरण में उनकी सहायता करते हैं; सक्रिय अधिगम गतिविधियों द्वारा परिवेश में सहायता करते हैं जो विचार करते हैं; तथा विद्यार्थियों का चिंतन, मार्ग के सहनिर्माण तथा उच्च-संज्ञान के अन्य स्वरूपों को प्रयास करते हैं।

 6.  कार्य-निष्पादन, सहयोग, उत्साह, अनुशासन, कार्यकुशलता तथा सफलता संबंधी तत्वों को दिशा प्रदान करता है ।प्रत्येक बच्चे के संबंध में जानकारी रखना, उसकी समस्याओं के समाधान में सहयोग करना शिक्षक की जिम्मेदारी है। शिक्षको को शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन और सुधार के लिए प्रबंधन और प्रशासकों को अवगत कराना चाहिए। ... शिक्षकों के ऐसे प्रयास बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है।

 7. व्यक्ति या सहयोगियों के मानसिक चिंतन, भावनाओं तथा सामूहिक प्रतिक्रियाओं का विकास- भागती-दौड़ती ज़िंदगी में अचानक लगे इस ब्रेक और कोरोना वायरस के डर ने लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालना शुरू कर दिया है.

इस बीच चिंता, डर, अकेलेपन और अनिश्चितता का माहौल बन गया है और लोग दिन-रात इससे जूझ रहे हैं. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः की सोच उन सभी संकीर्ण मतों को निरुतर कर देता है जो उन्हें मानने वालों को स्वर्ग सुख और नाना प्रकार के सपने दिखाता है जबकि न मानने वालों को मारे जाने योग्य बता देता हैं.

 

 8. आन्तरिक बल तथा आत्मविश्वास का परिचायक- अपने अंदर का विश्वास ही किसी व्यक्ति के लिए सफलता का मार्ग खोलता है। अगर आपके पास सारा संसधान, क्षमता, योग्यता आदि हो लेकिन उसके ऊपर आपका विश्वास नहीं हो, तो सफलता आपसे उतनी ही दूर है, जितनी दूर समुद्र के किनारे बैठे व्यक्ति से मीठा पानी। आत्मविश्वास का जीवन में बहुत महत्व है जिस आदमी मे विश्वास नहीं होता वह जीवन में किसी भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता । आत्मविश्वास के बल पर मनुष्य असंभव काम को भी संभव कर दिखाता है । समाचार पत्रों में अक्सर ऐसे समाचार प्रकाशित होते रहते हैं जो आप में अविश्वसनीय लगते हैं । किंतु वे सच होते सकते हैं ।

गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में ऐसे हैरतअंगेज कारनामे भरे पड़े हैं, जो कि अविश्वसनीय लगते हैं । यहां पर सोचने वाली बात यह है कि इन हैरतअंगेज कारनामों को अंजाम देने वाले कौन लोग हैं । वह कोई दूसरी दुनिया से आए हुए लोग नहीं है । वह लोग भी आप और हम जैसे ही हैं । उन्होने जो कारनामे कर दिखाये वह किसी जादू की छड़ी के बल पर नहीं बल्कि जो कुछ भी किया आत्मविश्वास के बल पर किया ।

अगर कोई आदमी अपंग है और उसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा हुआ है । तो वह हिमालय की चोटी पर भी विजय पताका फहरा सकत्ता है । आज विश्वास के बल पर ही वैज्ञानिकों ने वह मुकाम हासिल कर लिया है कि अब धरती पर बैठकर चांद पर पांव पसार रहे हैं ।

 

निष्कर्ष

 

 

 

मन की तुलना मुकुरा के साथ दी जाती है जो बहुत ही उपयुक्त है। मुकुर में तुम्हारा मुख साफ तभी देख पडे़गा जब दर्पण निर्मल है। वैसा ही मन भी जब किसी तरह के विकार से रहित और निर्मल है तभीमनन जो उसका व्यापार है भलीभाँति बन पड़ता है। तनिक भी बाहर की चिंता का कपट तथा कुटिलाई की मैल मन पर संक्रामित रहे तो उसके दो चित्त हो जाने से सूक्ष्म विचारों की स्फूर्ति चली जाती है। इसी से पहले के लोग मन पवित्र रखने को वन में जा बसते थे, प्रात: काल और साँझ को कहीं एकांत स्थल में स्वच्छ जलाशय के समीप बैठ मन को एकाग्र करने का अभ्यास डालते थे। मन की तारीफ में यजुर्वेद संहिता की 34 अभ्यास में 5 ऋचाएँ हैं जो ऐसे ही मन के संबंध में हैं जो अकलुषित, स्वच्छ और पवित्र हैं। जल की स्वच्छता के बारे में एक जगह कहा भी है 'स्वच्छं सज्जनचित्तवत्' यह पानी ऐसा स्वच्छ है जैसा सज्जन का मन। अस्तु, उन 5 ऋचाओं में दो एक को हम यहाँ अनुवाद सहित उद्धृत कर अपने पढ़ने वालों को यह दिखाया चाहते हैं कि वैदिक समय के ऋषि-मुनि मन की फिलॉसफी को कहाँ तक परिष्कृत किए थे।

''यस्मिन्नृच सामयजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविचारा:।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते s भीषुभि र्वाजिन।
इवहूत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन:शिसंकल्पमस्तु।।''

रथ की पहिया में जैसे आरा सन्निविष्ट रहते हैं वैसे ही ऋग् यजु साम के शब्द समूह मन में सन्निविष्ट हैं। पट में तंतु समूह जैसे ओत-प्रोत रहते हैं। वैसे ही सब पदार्थों का ज्ञान मन में ओत-प्रोत है। अर्थात मन जब अकलुषित और स्वस्थ है तभी विविध ज्ञान उसमें उत्पन्न होते हैं, व्यग्र हो जाने पर नहीं। जैसे चतुर सारथी घोड़े को अपने अधीन रखता है और लगाम के द्वारा उनको अच्छे रास्ते पर ले चलता है वैसे ही मन हमें चलाता है। तात्पर्य यह है कि मन देह-रथ का सारथी है और इंद्रियाँ घोड़े हैं-चतुर सारथी हुआ तो घोड़े जब कुपंथ पर जाने लगते हैं तब लगाम कड़ी कर उन्हें रोक लेता है। जब देखता है रास्ता साफ है तो बागडोर ढीली कर देता है, वैसा ही मन करता है। जिन मन की स्थिति अंत:करण में है जो कभी बुढ़ापा नहीं जो अत्यंत वेग गामी है वह मेरा मन शांत व्यापार वाला हो -

यज्जाग्रतो दूरमुदैति तदु, सुप्तस्य तथैवैति।
दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे नम: शिवसंकल्पमस्तु।।

चक्षु आदि इंद्रियाँ इतनी दूर नहीं जाती जितना जागते हुए का मन दूर से दूर जाता है और लौट भी आता है, जो दैव अर्थात दिव्य-ज्ञान वाला है, आध्यात्मिक संबंधी सूक्ष्म विचार जिस मन में आसानी से आ सकते हैं, प्रगाढ़ निद्रा का सुषुप्ति अवस्था में जिसका सर्वथा नाश हो जाता है, जागते ही जो तत्क्षण फिर जी उठता है, वह मेरा मन शिव संकल्प वाला हो अर्थात सदा उसमें धर्म ही स्थान पाए, पाप मन से दूर रहे।

मन के बराबर चंचल संसार में कुछ नहीं है। पतंजलि महामुनि ने उसी चंचलता को रोक मन के एकाग्र रखने को योग दर्शन निकाला। यूरोप वाले हमारी और-और विद्याओं को तो खींच ले गए पर इस योग-दर्शन और फलित ज्योतिष पर उनकी दृष्टि नहीं गई सो कदाचित इसीलिए कि ये दोनों आधुनिक सभ्यता के साथ जोड़ नहीं खाते। इस तरह के निर्मल मन वाले सदा पूजनीय हैं। जिनके मन में किसी तरह का कल्मष नहीं है, द्रोह, ईर्ष्या, मत्सर, लालच तथा काम-वासना से मुक्ति जिनका मन है उन्हीं को जीवन्मुक्त कहेंगे।

बुद्ध और ईसा आदि महात्मा दत्तात्रेय और याज्ञवल्क्य आदि योगी जो यहाँ तक पूजनीय हुए कि अवतार मान लिए गए उनमें जो कुछ महत्व था सो इसी का कि वे मन को अपने वश में किए थे। जो मन के पवित्र और दृढ़ हैं वे क्या नहीं कर सकते। संकल्प सिद्धि इसी मन की दृढ़ता का फल है। शत्रु ने चारों ओर से आके घेर लिया, लड़ने वाले फौज के सिपाहियों के हाथ-पाँव फूल गए, भाग के भी नहीं बच सकते, सबों की हिम्मत छूट गई, सब एक स्वर से चिल्ला रहे हैं, हार मन अब 'ईल्' शत्रु के सुपर्द अपने को कर देने ही से कल्याण है, कैदी हो जाएँगे बला से, जान तो बची रहेगी। पर सेनाध्यक्ष 'कमांडर' अपने संकल्प का दृढ़ है सिपाहियों के रोने-गाने और कहने-सुनने से विचलित नहीं होता, कायरों को सूरमा बनाता हुआ रण-भूमि में आ उतरा, तोप के गोलों का आघात सहता हुआ शत्रु की सेना पर जा टूटा, द्वंद्व युद्ध कर अंत को विजयी होता है। ऐसा ही योगी को जब उसका योग सिद्ध होने पर आता है तो विघ्नरूप, जिन्हें अभियोग कहते हैं, होने लगते हैं इंद्रियों को चलायमान करने वाले यावत प्रलोभन सब उसे आ घेरते हैं। उन प्रलोभनों में फँस गया तो योग से भ्रष्ट हो गया। अनके प्रलोभन पर भी चलायमान न हुआ दृढ़ बना रहा तो अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उसकी गुलाम बन जाती हैं, योगी सिद्ध हो जाता है। ऐसा ही विद्यार्थी जो मन और चरित्र का पवित्र है दृढ़ता के साथ पढ़ने में लगा रहता है पर बुद्धि का तीक्ष्ण नहीं है, बार-बार फेल होता है तो भी ऊब कर अध्ययन से मुँह नहीं मोड़ता, अंत को कृतकार्य हो संसार में नाम पाता है। बड़ी से बड़ी कठिनाई में पड़ा हुआ मन का पवित्र और दृढ़ है तो उसकी मुश्किल आसान होते देर नहीं लगती। आदमी में मन की पवित्रता छिपाए नहीं छिपती न कुटिल और कलुषित मन वाला छिप सकता है। ऐसा मनुष्य जितना ही ऊपरी दाँव-पेंच अपनी कुटिलाई छिपाने को करता है उतना ही बुद्धिमान लोग जो ताड़बाज हैं ताड़ लेते हैं। कहावत है 'मन से मन को राहत है' 'मनु, मन को पहचान लेता है' पहली कहावत के यह माने समझे जाते हैं कि जो तुम्हारे मन में मैल नहीं है वरन तुम बड़े सीधे और सरल चित्त हो तो दूसरा कैसा ही कुटिल और कपटी है तुम्हारा और उसका किसी एक खास बात में संयोग-वश साथ हो गया तो तुम्हारे मन को राहत न पहुँचेगी। जब तक तुम्हारा ही-सा एक दूसरा पड़ तुम्हें निश्चय न करा दे कि इसका विश्वास करो हम इसके बिचवई होते हैं। दूसरी कहावत के मतलब हुए कि हमसे कुटिल चालबाज का हमारे ही समान कपटी चालाक का साथ होने से पूरा जोड़े बैठ जाता है।

मस्तिष्, मन, चित्, हृदय, अंत:करण, बुद्धि ये सब मन के पर्याय शब्द हैं। दार्शनिकों ने बहुत ही थोड़ा अंतर इनके जुदे-जुदे 'फंक्शन' कामों में माना है-अस्तु हमारे जन्म की सफलता इसी में है कि हमारा मन सब वक्रता और कुटियाई छोड़ सरल वृत्ति धारण कर, भगवद्चरणारविंद के रसपान का लोलुप मधुप बन, अपने असार जीवन को इस संसार में सारवान् बनाए, तत्सेवानुरक्त महजनों की चरण रज को सदा अपने माथे पर चढ़ाता हुआ ऐतिक तथा आमुष्मिक अनंत सुख का भोक्ता हो, जो निश्चितमेव नाल्पस्य तपसै: फलम् है। अंत को फिर भी हम एक बार अपने वाचक वृंदों को चिताते हैं कि जो तभी होगा जब चित्त मतवाला हाथी-सा संयम के खूँटे में जकड़ कर बाँधा जाय। अच्छा कहा है -

अप्यस्ति कश्चिल्लोकेस्मिन्येनचित्त मदद्विप:।
नीत: प्रशमशीलेन संयमालानलीनताम्।।

मई, 1906 ई.

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...