अभिभावकों के साथ, मदद के हाथ
शिक्षा मानव को एक अच्छा इंसान बनाती है। शिक्षा में ज्ञान, उचित आचरण और तकनीकी दक्षता, शिक्षण और विद्या प्राप्ति आदि समाविष्ट हैं। इस प्रकार यह कौशलों (skills), व्यापारों या व्यवसायों एवं मानसिक, नैतिक और सौन्दर्यविषयक के उत्कर्ष पर केंद्रित है।
शिक्षा, समाज
एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस
विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में
महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है।
बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है।
बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है।
शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का
विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका
निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने
के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। शिक्षा शब्द संस्कृत
भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है
सीखना और सिखाना। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया।
जब हम शिक्षा शब्द के प्रयोग को देखते हैं तो मोटे तौर पर यह दो
रूपों में प्रयोग में लाया जाता है, व्यापक
रूप में तथा संकुचित रूप में। व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने
वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का
विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं
व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है।
मनुष्य क्षण-प्रतिक्षण नए-नए अनुभव प्राप्त करता है व करवाता है, जिससे उसका दिन-प्रतिदन का व्यवहार प्रभावित
होता है। उसका यह सीखना-सिखाना विभिन्न समूहों, उत्सवों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन आदि से अनौपचारिक रूप से होता है। यही
सीखना-सिखाना शिक्षा के व्यापक तथा विस्तृत रूप में आते हैं। संकुचित अर्थ में
शिक्षा किसी समाज में एक निश्चित समय तथा निश्चित स्थानों (विद्यालय, महाविद्यालय) में सुनियोजित ढंग से चलने वाली
एक सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा विद्यार्थी निश्चित पाठ्यक्रम को
पढ़कर संबंधित परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना सीखता है।
बच्चों में जीवन जीने के सलीके में बहुत बदलाव आ गया है। आज का
नागरिक अपना जीवन अपने अंदाज में व्यतीत करना चाहता है। इसमें किसी का हस्तक्षेप
करना उसे बिल्कुल पसंद नहीं है। इस जीवन जीने की कला में वह अपनी जिम्मेदारियों से
बचने का भी प्रयास कर रहा है। इसका प्रतिकूल प्रभाव परिवार और समाज पर पड़ रहा है।
हमें विशेषकर अभिभावकों ओर शिक्षकों का मार्गदर्शन बच्चों के जीवन जीने की शैली को
बहुत हद तक प्रभावित करता है। हमें उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाते हुए परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति उनके दायित्वों के
प्रति भी जागरूक करना होगा। ऐसा नहीं करते हैं तो युवा पीढ़ी अपने जीवन और उनके
दायित्वों के बारे में जिम्मेदार नहीं हो पाएंगे।
संस्कारों का रहता है असर: आज के विद्यार्थियों के जीवन की शैली में
जो परिवर्तन आया है वह सबसे अधिक संस्कारों का है। आज का विद्यार्थी मेधावी, इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी में बहुत अधिक रुचि रखता
है लेकिन सुसंस्कारित नहीं है। अच्छे संस्कारों की कमी के कारण उठना, बैठना, बोलना, बड़ों का आदर सत्कार, माता-पिता, गुरुजनों के सम्मान में रुचि नहीं रखता। इन
सबका कारण माता-पिता के समय अभाव एवं संयुक्त परिवार का कम होना है। प्रत्येक माता
पिता यह उम्मीद करते है कि उनका बच्चा बेहतर शिक्षा ग्रहण करे, अच्छे संस्कार स्कूल में शिक्षक भी सिखाएं।
विषय ज्ञान के लिए विद्यार्थी उत्तरदायित्व हैं लेकिन संस्कारों, वास्तविक प्रयोगशाला तो घर एवं परिवार हैं जहां
बच्चों के व्यवहार एवं संस्कारों का वास्तविक प्रयोग होता है। आज का शिक्षक एवं
छात्र दोनों अंकों के खेल में व्यस्त हो गए हैं। उनका एक ही लक्ष्य सर्वाधिक अंक
लाकर कुछ बनने का होता है। अध्यापक भी छात्रों के सर्वांगीण विकास के स्थान पर
मानसिक विकास पर केंद्रीत होता है। इस भागदौड़ में जीवन के अच्छा नागरिक या अच्छा
इंसान बनाने की पहलू अछूते रह जाते हैं। हमारे समय में शिक्षक एक ईश्वर की तरह
वास्तविक रूप से पूज्यनीय होते थे। आज इस स्तर में बहुत बदलाव आया हुआ है। इसके
लिए हम सभी समाज के लोग जिम्मेदार हैं। आज अभिभावक शिक्षक पर अपने बच्चों से
ज्यादा भरोसा नहीं करता पहले शिक्षक की बात पर विश्वास किया जाता था। पहले माता
पिता अपने से ज्यादा शिक्षक को बच्चों का शुभ¨चतक मानते थे।
विद्यालय एक उपवन है: विद्यालय भी एक उपवन हैं जहां बच्चे उसके फूल
हैं। उन फूलों को हम कैसी शिक्षा से पोषण करते हैं यही उन्हें जिम्मेदार नागरिक
बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। जब हम बच्चे का सर्वांगीण विकास की बात करते हैं
तो वह केवल किताबी ज्ञान में ही बौद्धिक रूप से सफल नहीं बना रहे हैं बल्कि व्यक्तित्व
और विचारों से भी उन्हें जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
शिक्षकों को बच्चों के समक्ष उदाहरण बनना होगा। बच्चे माता पिता और साथियों की
अपेक्षा शिक्षकों के विचार और व्यवहार को जल्दी अनुसरण करते हैं। जब जब अभिभावक यह
कहता रहेगा कि बच्चों के लिए उनके पास समय नहीं है तब तब बच्चों के प्रति हम अपनी
जिम्मेदारी से दूर भाग रहे हैं। ऐसे में बच्चों को उनके दायित्व के प्रति केवल
पढ़ाने मात्र से काम नहीं चलेगा। ऐसे बच्चे किशोर अवस्था तथा युवा अवस्था तक
पहुंचते पहुंचते वे अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारण नहीं कर पाते जिस कारण उन्हें
अपना जीवन नीरस लगने लगता है। ऐसे में हमें बच्चों में पहले मेरा जीवन का अहसास
कराना होगा इसके बाद ही वे अपना दायित्व समझ सकेंगे।
विद्यार्थियों की जिम्मेदारी: बच्चों को अपने जीवन के उद्देश्यों के
प्रति जागरूक करना चाहिए। शिक्षण संस्थानों में क्लास मोनिटर बनाने के साथ उन्हें
जो जिम्मेदारियां सौंपी जाती है उसका कारण उन्हें जिम्मेदारी बोध कराना है। यही
कारण है कि विभिन्न सदनों के माध्यम से बच्चों को कई प्रभार सौंपे जाते हैं। हम
सभी शिक्षकों का कर्तव्य बनता है कि समाज व विद्यालय के हर बच्चे को सुसंस्कृत एवं
संस्कारी बनाने का प्रयास करें जिससे वह देश व समाज का एक जिम्मेदार नागरिक बन
सके। अनुशासन प्रेम एवं वात्सल्य के साथ दी गई शिक्षा ही विद्यार्थियों को अच्छा
नागरिक बना सकती है।
लगातार करते रहें प्रेरित: बच्चों को शुरू से ही उनकी जिम्मेदारियों
के प्रति प्रेरित करना चाहिए। इसकी शुरूआत घर से की जानी चाहिए। घर के छोटी छोटी
जिम्मेदारियां सौंपनी चाहिए जैसे पढ़ाई से फुर्सत के दौरान छोटे मोटे सामान लाने
के लिए बाजार जाने, घर
में मेहमान आते हैं तो जलपान आदि परोसने, माता पिता के साथ बागवानी में हाथ बंटाने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
इससे बड़े होने पर वे अपनी जिम्मेदारी समझ सकेंगे। इससे उनमें घर व्यवहार की समझ
विकसित होगी। इस दौरान गलती होने पर उन्हें डांटने के बजाय समझाते हुए प्रेरित
करना चाहिए। कई बार अभिभावक बच्चों को नालायक या बिल्कुल ही नाकारा मानने लगते
हैं। इससे बच्चों के मानस पटल पर गलत प्रभाव पड़ता है। हमें इससे बचना चाहिए। बच्चे
गलती करें तो भी उनके काम की तारीफ करते हुए उनकी खामियों को बताना चाहिए ताकि वे
अगली बार उन गलतियों को नहीं दोहराएं। बच्चों को अपना जीवन जीने के लिए प्रेरित
करना चाहिए। हमारा दायित्व केवल उन्हें मार्गदर्शन करने का होना चाहिए।
‘विद्यार्थियों के माता-पिता (अभिभावक) कैसे
हों’ इस अनोखे विषय को स्पर्श करती है। ‘विद्यार्थी कैसे हों’, ‘शिक्षक कैसे हों’, के क्रम को ‘अभिभावक कैसे हों’
बच्चों के विकास में शिक्षक और अभिभावक की भूमिका क्या है?
बच्चों के विकास में अभिभावक की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। इस
भूमिका के निर्वाह में स्कूलों के साथ उनका अच्छा तालमेल और समन्वय वाला रिश्ता
होना जरूरी है। ऐसा करने के लिए ऐसे फोरम की जरूरत है जहाँ शिक्षक, अभिभावक और बच्चे एक साथ मौजूद हों। विद्यालय
एक ऐसी जगह है जहाँ हर समुदाय से बच्चे आते हैं और औपचारिक शिक्षा ग्रहण करते हैं, जिससे वो अपने समुदाय की संस्कृति और काम को
सीखते हुए जोड़ते हैं। इस यात्रा में बच्चे अपनी विभिन्न क्षेत्रों की दक्षता में
सतत सुधार करते हुए सीखते हैं।
अभिभावकों की भूमिका है महत्वपूर्ण
अगर आप भी किसी बच्चे के
अभिभावक हैं तो आपको नियमित अंतराल पर स्कूल जाना चाहिए। ताकि बच्चे के बारे में
आपको शिक्षक से वास्तविक फीडबैक मिल सकें। बच्चों को भी एक संदेश पहुंचे कि
मम्मी-पापा उनकी परवाह करते हैं। इसके लिए स्कूल में आयोजित होने वाली विद्यालय
प्रबंधन समिति (एसएमसी) या अभिभाव-शिक्षक बैठक में अपनी सक्रिय भागीदारी जरूर
सुनिश्चित करें।
इससे आपको शिक्षकों के नज़रिये से बच्चे की सफलताओं, प्रगति के साथ-साथ चुनौतियों यानि सहयोग के
क्षेत्रों की सटीक पहचान हो सकेगी, जिस
पर आप काम कर सकते हैं। शिक्षकों की शिकायत होती है कि बहुत से बच्चों के अभिभावक
स्कूल में होने वाली बैठकों में हिस्सा नहीं लेते। ऐसे पैरेंट्स को भी प्रेरित
करने में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। ताकि ऐसी बैठकों को ज्यादा प्रभावशाली, उद्देश्यपूर्ण और उपयोगी बनाया जा सके।
क्रियात्मक शोध के नतीजे क्या कहते हैं?
फाइल फोटोः एक स्कूल की एसएमसी के सभी सदस्य।
संतोष कहते हैं कि लगभग एक साल पूर्व मैंने एक छोटा सा क्रियात्मक
शोध किया था, जिसमे तीन तरह के स्कूल लिए गये थे, एक स्कूल जो किसी शहर से लगभग पचास किलोमीटर
दूर एक गाँव में था । दूसरा स्कूल उसी शहर से कुछ दस किलोमीटर के भीतर था और तीसरा
स्कूल जो उसी शहर में था। इस शोध में यह देखने की कोशिश की गई थी कि क्या
अभिभावकों के स्कूल में न जाने से बच्चों के उत्साह में कमी आती है?
एसएमसी और अभिभावक-शिक्षक बैठक को रोचक बनाएं
जो स्कूल दूर गाँव में था, वहां से कभी-कभार एक-दो अभिभावक स्कूल पर आते जाते थे। इसका कारण था
कि अभिभावक विद्यालय को एक फैक्ट्री के रूप में देखते थे। यानि उन्होंने अपने
बच्चों को स्कूल भेज दिया मतलब उनका काम खतम हो गया और वे अपने काम पर चले गए।
इसका परिणाम था कि उस स्कूल का नामांकन कम था और बच्चों में उत्साह की कमी था।
दूसरा स्कूल जो दस किलोमीटर के भीतर था और गाँव में ही था, उनसे बच्चों की उपस्थिति, उनके पहनावे कहीं ज्यादा बेहतर थे । यहां
अभिभावक सप्ताह में एक-दो बार बारी-बारी से स्कूल जरूर आते थे। जबकि तीसरे स्कूल में
अभिभावक बच्चों को स्कूल छोड़ने के लिए आते थे और सभी शिक्षकों से निरंतर संवाद
में बने रहते थे। इसका शिक्षकों और बच्चों के ऊपर सकारात्मक असर पड़ा।
विद्यालय को समुदाय से जोड़ने की अहम कड़ी हैं शिक्षक
अभिभावकों को विद्यालय से
जोड़ने में शिक्षकों ने अहम भूमिका निभाई। वे बच्चों की प्रगति के बारे में
अभिभावकों को बताते और उनके सहयोग के क्षेत्रों को भी रेखांकित करते थे। मसलन घर
पर बच्चों को ख़ुद से बैठकर पढ़ने का समय देने और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने
जैसे बुनियादी मुद्दों पर बात करते थे। अभिभावकों की बैठक में रोचक प्रयासों
द्वारा उनकी भागीदारी को सतत बनाए रखने जैसे प्रयास किये जा सकते हैं।
अगर विद्यालय में अभिभावकों के आने पर शिक्षक साथी उनके साथ अगर
सिर्फ शिकायतें साझा करें, तो
शायद वे दोबारा स्कूल आने से कतराएंगे। यही बात शिक्षकों के संदर्भ में भी लागू होती
है जिनके बच्चे अन्य विद्यालयों में पढ़ते हैं। वे भी सकारात्मक व्यवहार की उम्मीद
करते हैं। इसके साथ ही व्यावहारिक समस्याओं को व्यावहारिक तरीके से हल करना जरूरी
होता है। ऐसे में समुदाय का सहयोग मिलना बहुत सारी समस्याओं के समाधान में मदद भी
करता है।
अभिभावक की परिभाषा
जो अपने बच्चे को उसमें स्थित दोष दूर कर उसमें सदगुण लाने हेतु
सहायता करता है,
वास्तव में वही अभिभावक । वर्तमान में
अभिभावक की परिभाषा क्या होती है ? अधिक
से अधिक महंगे कपडों की पूर्ति करना, उन्हें इच्छानुसार खाना खिलाना एवं महंगी पढाई के लिए भेजकर इनके
कर्तव्य समाप्त हो जाते हैं । इससे हम
अपने बच्चे को भोगी बना रहे हैं । भोग के आधारद्वारा अनेक प्रकार के विकार जन्म लेते हैं । भोगी व्यक्ति
अनेक दोषों को जन्म देते हैं , तो
त्यागी व्यक्ति सदगुणों को । अतः अभिभावकों को अंतर्मुख होकर विचार करना चाहिए कि
क्या वे सच्चे अर्थों में बच्चे को सीख दे
रहे हैं ? ‘ बच्चेके जीवन को सदगुणों से परिपूर्णकर
उसका जीवन आनंदी करना’, ही
सच्चे अभिभावक का धर्म है ।
२. आनंदी अभिभावक में ही आनंदी पीढी खडी करने की क्षमता
आनंदी अभिभावक ही आनंदी पीढी खडी
कर सकते हैं । बच्चेपर संस्कार डालने हेतु अभिभावक एवं बच्चे में सुसंवाद
होना आवश्यक है । स्वयं तनावमुक्त अभिभावक ही अपने बच्चों को तनावमुक्त जीवन जीने
की सीख दे सकते हैं, अपने
बच्चे से सुसंवाद कर सकते हैं । तनाव में रहनेवाले अभिभावकों से संवाद करने की
इच्छा बच्चों को नहीं होती । स्वयं को व्यक्त करनेवाली नई कल्पना, विचार एवं स्वयं की अडचनें, तनाव से भरे अभिभावकों को बताने की इच्छा
बच्चों की नहीं होती अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि बच्चे बताना नहीं चाहते ; अतः पहले स्वयं अभिभावक का तनावमुक्त होना
आवश्यक है ।
३. अभिभावकों के मनपर आनेवाले तनाव के कारण
३ अ. निरंतर भूतकाल में रहना
: निरंतर भूतकाल में रहनेवाले अभिभावक बच्चों से संवाद नहीं कर सकते । बच्चे निरंतर वर्तमानकाल में
जीते हैं; अतः वे निरंतर आनंदी रहते हैं । हम
हमारे जीवन में घटे अनेक प्रसंग एवं घटना निरंतर स्मरण करते रहते हैं । ‘पडोसी के
साथ हुआ प्रसंग’, ‘ मन
को ठेस पहुंचानेवाली सास की बातें’, ‘कार्यशाला में अधिकारी का डांटना’, अधिकांश लोग इन विचारों के बोझ उठाए फिरते हैं
। अर्थात जब भी बच्चे कुछ बताने के लिए
आते हैं, तब हम उनके विचार सुनने की स्थिति में
नहीं होते । अतः हमें निरंतर वर्तमानकाल में रहने के लिए सीखना चाहिए । भूतकाल के विचारों में रहने के कारण बच्चे एवं
हमारा आपस में सुसंवाद होना असंभव ही होता
है ।
३ आ. नकारात्मक बातें करना : ‘आपको कुछ भी नहीं आता, आपका कुछ भी उपयोग नहीं है’, इस प्रकार की नकारात्मक बातें करने के कारण
बच्चे के मनपर आघात होते हैं । एक बार स्थूलदेहपर किए आघात भर जाते हैं; परंतु जीव के मनपर हुए आघात कभी भी नहीं भरते ।
अतः बच्चों के साथ बातें करते समय निरंतर सकारात्मक रहना चाहिए । अपनी बातों से
बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए ।
३ इ. अपने अपराध बच्चों के
सामने अस्वीकार करना : अपने अपराध स्वीकार करनेपर ही मनपर आया तनाव अल्प होता
है तथा अपने प्रति बच्चों के मन में आदर
का स्थान बनता है । हमारा आचरण देखकर
बच्चे भी प्रामाणिकता से अपराध स्वीकार
करना सीखते हैं । हम अपराध छिपाएं, तो सर्वप्रथम
हमारे मनपर ही तनाव आता है । हमारे सभी अपराध बच्चे जान जाते हैं । ‘माता
एवं पिता अपने अपराध स्वीकार नहीं करते, तो मैं क्यो करूं’, ऐसे
उनकी धारणा होती है; इससे
अभिभावक एवं बच्चों में सूक्ष्म-दूरी बढती
है ।
३ ई. निरंतर बच्चों के दोष
देखना : निरंतर बच्चों में स्थित दोष देखनेपर हमारे मनपर तनाव आता है । आप निरंतर
बच्चों के गुण देखें एवं उनसे लाड-प्यार के साथ व्यवहार करें । इससे बच्चे अपने दोष स्वीकारकर उन्हें दूर करने हेतु प्रयास करते हैं; परंतु अधिकांश अभिभावक बच्चों को निरंतर दोष ही
दिखाते हैं । ‘निरंतर बच्चों के दोष देखना
– तनाव के कारण तो निरंतर उनके गुण देखना – आनंद के ’, यह सूत्र आचरण में लाया गया तो निश्चय ही तनाव
न्यून होने में सहायता होगी ।
३ उ. स्वयं की छवि संभालकर बातें करना : व्यवहार में स्थित
अभिभावक अपने पद से चिपककर बातें करते हैं
। वे स्वयं को भूलते नहीं हैं । ‘मैं आधुनिक वैद्य हूं’, ‘मैं अभियंता हूं’ अथवा ‘मैं अधिकारी हूं’, यह प्रतिमा जागृत रखकर बातें करने के कारण
अभिभावक एवं बच्चों में कदापि सुसंवाद
साध्य नहीं हो सकता । उलटे अभिभावकों को तनाव आते हैं एवं बच्चे सुनते नहीं हैं ।
‘अभिभावक’की भूमिका में आकर बच्चों के साथ सहजता से बातें करनी चाहिए । ‘व्यवहार
में स्थित छवि संभालकर बातें करना-तनाव, एवं बच्चोंके साथ अभिभावक के (मित्र के) नाते
बातें करना – आनंद’, यह
सूत्र ध्यान में रखना चाहिए ।
३ ऊ. अधिकारवाणी
में(प्रभुत्व से) बातें करना : बच्चों के
साथ बातें करते समय यदि हम अधिकारपूर्वक बातें करेंगे, तो उन्हें तनाव आएगा । बच्चों को हमारी बातें
अच्छी नहीं लगेंगी । अत: अधिकार की अपेक्षा हमें उनके साथ प्यार से बातें करनी
चाहिए । यदि कोई हमें किसी बात को अधिकार
से बताए, तो स्वयं हम भी स्वीकारना नहीं चाहेंगे
। । ‘अधिकार से बातें करना – तनाव एवं प्यार से बातें करना – आनंद’, यह सूत्र आचरण में लाना चाहिए ।
३ ए. ‘बच्चों में ईश्वरीय
तत्त्व है’, ऐसे विचारों का अभाव : ‘प्रत्येक बच्चे
में ईश्वर है’,
इसका भान रखकर संवाद करना चाहिए ।
बच्चे में स्थित ईश्वरीय तत्त्व का आदर कर ही बातें करनी चाहिए । मैं ‘व्यक्ति के
साथ बातें नहीं कर रहा हूं, अपितु
ईश्वरीय तत्त्व के साथ बातें कर रहा हूं’,
निरंतर
ऐसा विचार किया,
तो बच्चों के साथ संवाद सहज होकर तनाव
दूर होगा । अतएव ‘व्यक्ति के नाते बातें करना – तनाव एवं ईश्वरीय तत्त्व के साथ
बातें करना – आनंद’, इस
सूत्र की ओर निरंतर ध्यान देना चाहिए ।
३ ऐ. ‘जितने व्यक्ति उतनी
प्रकृति’, यह तथ्य ध्यान में रखकर व्यवहार का
अभाव : अभिभाव को, सूत्र
के अनुसार जितने व्यक्ति उतनी प्रकृति हैं । अपने बच्चे की प्रकृति कौनसी है, उसकी रुचि, शक्ति, शारीरिक एवं मानसिक क्षमता इन सभी का विचार
अभिभावकोंद्वारा होना ही चाहिए । स्पर्धावृत्ति एवं समाज स्थित स्वयं की छवि के नुसार कुछ अभिभावक बच्चों के साथ
व्यवहार करते हैं । इससे बच्चे एवं अभिभावकों में तनाव बढते हैं । ऐसा नहीं हो, इसलिए ‘बच्चे की प्रकृति ध्यान में रखते हुए
संवाद साधना-आनंद एवं बच्चे की प्रकृति ध्यान में न रखते हुए संवाद साधना – तनाव’, यह सूत्र ध्यान में रखना आवश्यक है ।
३ ओ. समजाकर न बताना :
बच्चों को प्रत्येक बात समजाकर बतानी चाहिए । सम अर्थात बच्चों के स्तरपर जाकर
बताना । बच्चा पहली श्रेणी में है, तो
अभिभावकों को उसके स्तरपर जाकर ही संवाद करना चाहिए । इससे बच्चे हमारी बात सुनते
हैं; परंतु अभिभावक अपने ही स्तरपर रहते हैं
। अतएव बच्चे हमारी बात नहीं सुनते । अभिभावकों के अहंकार के कारण ही ऐसा होता है । ‘बच्चों के स्तरपर जाकर बातें करना –
आनंद एवं अपने स्तरपर रहकर बातें करना – तनाव’, यह सूत्र आचरण में लाया गया, तो तनाव न्यून होता है ।
३ औ. बच्चों के साथ संवाद का
अभाव : वर्तमान में बच्चों की समस्या सुननेवाला कोई भी नहीं होता । अभिभावक कहते
हैं, ‘हम व्यस्त हैं’, तो अध्यापक कहते हैं, ‘हमें हमारा अभ्यासक्रम पूरा करना है ।’ अतएव वर्तमान में अधिकतर बच्चों के मानसिक विकास की गति में अवरोध होता है; इसलिए अभिभावकों के प्रति बच्चों के मन में आदर
एवं विश्वास का अभाव रहता है तथा बच्चे सुनते नहीं हैं; इससे अभिभावकों के मनपर तनाव आता है । अनौपचारिक
बात करने से मन का मेल होता है; इसलिए
बच्चों के साथ प्रतिदिन न्यूनतम १५ मिनट अनौपचारिक बातें करनी आवश्यक है । इससे
बच्चे खुले मन से रहते हैं एवं उनका
मानसिक विकास उचित ढंग से हो पाता है । ‘प्रतिदिन बच्चों के साथ न्यूनतम १५ मिनट
अनौपचारिक बातें करना – आनंद एवं प्रतिदिन इस अनौपचारिक बैठकका अभाव – तनाव’, यह सूत्र ध्यान में रखकर उसके अनुसार आचरण
करनेपर अभिभावक बच्चों के साथ अच्छी तरह संवाद कर सकते हैं ।
३ अं. अपेक्षा करना : हम बच्चों से अपेक्षा रखकर व्यवहार करेंगे, तो उन्हें
हमारी बातें अच्छी नहीं लगेंगी । उनमें अहं की मात्रा अल्प होने के कारण
उन्हें अपेक्षा के स्पंदन ज्ञात होते हैं । उनके साथ हमें निरपेक्षता से व्यवहार
करना चाहिए । जहां निरपेक्षता है, वहीं
प्यार है । ‘वृद्धावस्था में पुत्र मेरी सेवा एवं देखभाल करेगा, समाज स्थित मेरी प्रतिष्ठा रहेगी एवं उसमें वृद्धि होगी’, ऐसी अपेक्षा करने की अपेक्षा ‘ईश्वर मेरी
देखभाल करेंगे’, ऐसा विचार करना उचित होगा; क्योंकि ‘अपेक्षापूर्ण व्यवहार – तनाव एवं
अपेक्षारहित व्यवहार – आनंद.’
एक विद्यार्थी की शिक्षा में माता-पिता की अहम् भूमिका रहती है I वे बच्चे के जीवन का आधार होते हैं I वे अपने बच्चों के व्यस्क होने तक उनकी देखरेख
की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभाते हैं I घर पर यदि बच्चों को मदद मिले तो उनके सीखने -समझने की क्षमता बढ़
जाती है I माता-पिता की इस भूमिका को ओर सुदृढ़
करने के लिए अभिभावक-शिक्षक बैठक आयोजित की जाती है ताकि अभिभावकों को उनके बच्चों
की शिक्षा में भी भागीदार बनाया जा सके और साथ ही शिक्षकों को भी बच्चों के पूर्ण
विकास हेतु माता-पिता का सहयोग प्राप्त हो सके I इस तरह माता-पिता अपने बच्चों की पढाई में
दिलचस्पी लेने के लिए प्रेरित होते हैं विद्यालय की शैक्षणिक प्रक्रिया में
सांस्कृतिक और पारंपरिक तौर पर अपना योगदान दे पाते हैं I इसके अतिरिक्त अभिभावकों और शिक्षकों के बीच
प्रभावी संवाद से उनके बीच एक बेहतर रिश्ता कायम हो जाता है जिससे विद्यार्थी की
प्रगति को एक नया बल मिल जाता है I
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