मन की अपार शक्ति, शिक्षण में सहयोगी
मन की अपार शक्ति,शिक्षण में सहायक
मन की अपार शक्ति का अर्थ और शिक्षण में उसका
महत्व-
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत,
मत निराश हो यों, तू
उठ, ओ मेरे मन के मीत!
माना पथिक अकेला तू, पथ
भी तेरा अनजान,
और जिन्दगी भर चलना इस तरह नहीं आसान।
पर चलने वालों को इसकी नहीं तनिक परवाह,
बन जाती है साथी उनकी स्वयं अपरिचित राह।
दिशा दिशा बनती अनुकूल, भले कितनी विपरीत।
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥
तोड़ पर्वतों को, चट्टानों
को सरिता की धार
बहती मैदानों में, करती
धरती का श्रृंगार।
रुकती पल भर भी न, विफल
बाँधों के हुए प्रयास,
क्योंकि स्वयं पथ निर्मित करने का उसमें विश्वास।
लहर लहर से उठता हर क्षण जीवन का संगीत
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥
समझा जिनको शूल वही हैं तेरे पथ के फूल,
और फूल जिनको समझा तूने ही पथ के शूल।
क्योंकि शूल पर पड़ते ही पग बढ़ता स्वयं तुरंत,
किंतु फूल को देख पथिक का रुक जाता है पंथ।
इसी भाँति उलटी-सी है कुछ इस दुनिया की रीत
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥
मन की तुलना मुकुरा के साथ दी जाती है जो बहुत ही उपयुक्त है। मुकुर
में आपका मुख तभी साफ़ दिखाई देगा, जब
दर्पण निर्मल होगा। वैसा ही मन भी है, जब किसी तरह के विकार से रहित और निर्मल है, तभी मनन, जो मन
का व्यापार है,
भलीभाँति बन पड़ेगा । तनिक भी बाहर की
चिंता का कपट तथा कुटिलाई की मैल से मन संक्रामित हुआ, तो उसके सूक्ष्म विचारों की स्फूर्ति चली
जाती है। इसी से प्राचीनकाल में लोग मन पवित्र रखने को वन में जा बसते थे, प्रात: काल और साँझ को कहीं एकांत स्थल में स्वच्छ
जलाशय के समीप बैठ मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते थे। मस्तिष्क, मन, चित्त, हृदय, अंत:करण, बुद्धि ये सब मन के पर्याय हैं।
यदि मन अकलुषित और स्वस्थ है, तभी विविध ज्ञान उसमें उत्पन्न होते हैं, व्यग्र हो जाने पर नहीं। जैसे चतुर सारथी
घोड़े को अपने अधीन रखता है और लगाम के द्वारा उनको सही रास्ते पर ले जाता है, वैसे ही मन हमें चलाता है। तात्पर्य यह है कि
मन देह-रथ का सारथी है और इंद्रियाँ घोड़े। चतुर सारथी हुआ, तो घोड़े जब कुपंथ पर जाने लगते हैं, तब लगाम कड़ी कर उन्हें रोक लेता है। जब देखता
है रास्ता साफ है तो बागडोर ढीली कर देता है, वैसा ही मन करता है।
मन के बराबर चंचल संसार में कुछ नहीं है। पतंजलि महामुनि ने उसी
चंचलता को रोक मन के एकाग्र रखने को योग दर्शन निकाला। निर्मल मन वाले सदा पूजनीय
हैं। जिनके मन में किसी तरह का कल्मष नहीं है, द्रोह, ईर्ष्या, मत्सर, लालच तथा काम-वासना से मुक्त जिनका मन है, उन्हीं को जीवंत कहेंगे।
मनुष्य का सबसे प्रभावशाली अंग मन है। मनुष्य की जीवन-लीला मन से ही
चलती है। सारे संकल्प-विकल्प, इच्छाएं-कामनाएं
मन की ही उपज हैं। बुद्धि इनकी पूर्ति के लिए क्रियाशील रहती है।
भौतिक शरीर में मन कोई अंग नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर का अंग है।
भौतिक शरीर का अंग तो बुद्धि भी नहीं है, पर बुद्धि को क्रिया करने के लिए तंत्र की आवश्यकता पड़ती है और यह
तंत्र है हमारा मस्तिष्क।
मन को किसी प्रकार के तंत्र की आवश्यकता नहीं होती, वह सदैव तंत्र के बगैर ही क्रियाशील रहता है।
जब भौतिक शरीर (स्थूल शरीर) होता है तब भी और जब सूक्ष्म शरीर होता है तब भी।
निद्रावस्था में सपनों के लिए उतरदायी मन ही होता है। इसलिए जब मन उद्विग्न होता
है, तब हमें बुरे अवसाद वाले स्वप्न दिखाई
देते हैं। वहीं जब मन प्रफुल्लित होता है तब हर्षदायक स्वप्न दिखाई देते हैं इसलिए
हर्ष-दुख का सारा दारोमदार मन पर है।
चूंकि शरीर के सारे अंग मन के अनुसार संचालित होते हैं इसलिए मन का
प्रबल होना आवश्यक है। कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। मन स्वस्थ है, तो शरीर स्वस्थ है। मन कैसे स्वस्थ रहे, कैसे प्रबल हो; इसके लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना होगा।
मन की अपार शक्ति का शिक्षण में महत्व
1. शिक्षक की क्रियात्मक का
और रचनात्मकता का विकास- शिक्षण एवं अध्ययन, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बहुत से कारक शामिल
होते हैं। सीखने वाला जिस तरीके से अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुए नया ज्ञान, आचार और कौशल को समाहित करता है ताकि उसके
सीख्नने के अनुभवों में विस्तार हो सके, वैसे ही ये सारे कारक आपस में संवाद की स्थिति में आते रहते हैं।
2. विपरीत परिस्थितियों और नकारात्मकता
को दूर करने में सक्षम - जो लोग विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचते हैं, उनके जीवन की कई परेशानियां कम हो जाती हैं।
ऐसे हालातों में नकारात्मक विचार हमारे काम को और ज्यादा बिगाड़ सकते हैं। इसीलिए
हमेशा सकारात्मक रहना चाहिए। सोच को स्थिर रखें, चुनौती का सामना करें तनाव मुक्त रहने के लिए
आभार व्यक्त करें रुटीन में रहकर शारीरिक ऊर्जा बनाए रखें जीवन में विपरीत
परिस्थितियों का सामना करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति
3.नवाचार और नवप्रवर्तन की
ओर उन्मुख - सामान्यतः मानव सभ्यता के विकास को विज्ञान की उन्नति और उसेक बढ़ते
प्रभाव से जोड़कर देखा जाता है, क्योंकि
आदिम अवस्था समाज की उन्नत अवस्था तक का सफर विज्ञान और उसके आविष्कारों की ही देन
है।
4. हंसमुख और प्रसन्नचित्त
तथा आकर्षक व्यक्तित्व का विकास- जब हम हंसते हैं तो हमारे फेफड़ों से हवा तेजी से
निकलती है, जिस वजह से हमें गहरी सांस लेने में
मदद मिलती है. इससे शरीर में ऑक्सीजन की सप्लाई बेहतर तरीक 1. खुलकर हंसने से
हमारे शरीर में ब्लड सर्कुलेशन सही बना रहता है. दरअसल, जब हम हंसते हैं तो हमारे शरीर में ज्यादा
मात्रा में ऑक्सीजन पहुंचता हैं. जो हा... हंसने से हमारा इम्यून सिस्टम बेहतर
बनता है, जो कई तरह की बीमारियों से लड़ने में
फायदा पहुंचाता है. इसलिए स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है कि आप हंसते हुए अ...
5. सक्रिय अधिगम विधि
-प्रविधि में के लिए समर्पित-शिक्षक कि मुख्य भूमिका इस अधिगम तथा चिंतन प्रक्रिया
को प्रोत्साहित करना हो जाता है। ... पूर्वज्ञान के स्पष्टीकरण में उनकी सहायता
करते हैं; सक्रिय अधिगम गतिविधियों द्वारा परिवेश
में सहायता करते हैं जो विचार करते हैं; तथा विद्यार्थियों का चिंतन, मार्ग के सहनिर्माण तथा उच्च-संज्ञान के अन्य
स्वरूपों को प्रयास करते हैं।
6. कार्य-निष्पादन, सहयोग, उत्साह, अनुशासन, कार्यकुशलता तथा सफलता संबंधी तत्वों को दिशा
प्रदान करता है ।प्रत्येक बच्चे के संबंध में जानकारी रखना, उसकी समस्याओं के समाधान में सहयोग करना शिक्षक
की जिम्मेदारी है। शिक्षको को शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन और सुधार के लिए
प्रबंधन और प्रशासकों को अवगत कराना चाहिए। ... शिक्षकों के ऐसे प्रयास बच्चों के
सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है।
7. व्यक्ति या सहयोगियों के
मानसिक चिंतन,
भावनाओं तथा सामूहिक प्रतिक्रियाओं का
विकास- भागती-दौड़ती ज़िंदगी में अचानक लगे इस ब्रेक और कोरोना वायरस के डर ने
लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालना शुरू कर दिया है.
इस बीच चिंता, डर, अकेलेपन और अनिश्चितता का माहौल बन गया है और
लोग दिन-रात इससे जूझ रहे हैं. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख
भाग्भवेत् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः की सोच उन सभी संकीर्ण मतों को निरुतर कर देता
है जो उन्हें मानने वालों को स्वर्ग सुख और नाना प्रकार के सपने दिखाता है जबकि न
मानने वालों को मारे जाने योग्य बता देता हैं.
8. आन्तरिक बल तथा
आत्मविश्वास का परिचायक- अपने अंदर का विश्वास ही किसी व्यक्ति के लिए सफलता का
मार्ग खोलता है। अगर आपके पास सारा संसधान, क्षमता, योग्यता आदि हो लेकिन उसके ऊपर आपका विश्वास
नहीं हो, तो सफलता आपसे उतनी ही दूर है, जितनी दूर समुद्र के किनारे बैठे व्यक्ति से
मीठा पानी। आत्मविश्वास का जीवन में बहुत महत्व है जिस आदमी मे विश्वास नहीं होता
वह जीवन में किसी भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता । आत्मविश्वास के बल पर
मनुष्य असंभव काम को भी संभव कर दिखाता है । समाचार पत्रों में अक्सर ऐसे समाचार
प्रकाशित होते रहते हैं जो आप में अविश्वसनीय लगते हैं । किंतु वे सच होते सकते
हैं ।
गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में ऐसे हैरतअंगेज कारनामे भरे पड़े हैं, जो कि अविश्वसनीय लगते हैं । यहां पर सोचने
वाली बात यह है कि इन हैरतअंगेज कारनामों को अंजाम देने वाले कौन लोग हैं । वह कोई
दूसरी दुनिया से आए हुए लोग नहीं है । वह लोग भी आप और हम जैसे ही हैं । उन्होने
जो कारनामे कर दिखाये वह किसी जादू की छड़ी के बल पर नहीं बल्कि जो कुछ भी किया
आत्मविश्वास के बल पर किया ।
अगर कोई आदमी अपंग है और उसमें आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा हुआ है ।
तो वह हिमालय की चोटी पर भी विजय पताका फहरा सकत्ता है । आज विश्वास के बल पर ही
वैज्ञानिकों ने वह मुकाम हासिल कर लिया है कि अब धरती पर बैठकर चांद पर पांव पसार
रहे हैं ।
निष्कर्ष
मन की तुलना मुकुरा के साथ दी जाती है
जो बहुत ही उपयुक्त है। मुकुर में तुम्हारा मुख साफ तभी देख पडे़गा जब दर्पण निर्मल है। वैसा ही मन
भी जब किसी तरह के विकार से रहित और निर्मल है तभी मनन जो उसका व्यापार है भलीभाँति बन पड़ता है। तनिक भी
बाहर की चिंता का कपट तथा कुटिलाई की मैल मन पर संक्रामित रहे तो उसके दो चित्त हो जाने से सूक्ष्म विचारों की स्फूर्ति चली जाती है। इसी से पहले के लोग
मन पवित्र रखने को वन में जा बसते थे, प्रात: काल और साँझ को कहीं एकांत स्थल में स्वच्छ जलाशय के समीप बैठ मन को एकाग्र करने
का अभ्यास डालते थे। मन की
तारीफ में यजुर्वेद संहिता की 34 अभ्यास में 5 ऋचाएँ हैं जो ऐसे ही मन के संबंध में
हैं जो अकलुषित, स्वच्छ और पवित्र हैं। जल की स्वच्छता के बारे में एक जगह कहा भी है
'स्वच्छं सज्जनचित्तवत्' यह पानी ऐसा स्वच्छ है जैसा सज्जन का मन। अस्तु, उन 5 ऋचाओं में दो एक को हम यहाँ अनुवाद सहित
उद्धृत कर अपने पढ़ने वालों को यह दिखाया चाहते हैं कि वैदिक समय के ऋषि-मुनि मन
की फिलॉसफी को कहाँ तक परिष्कृत
किए थे।
''यस्मिन्नृच सामयजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविचारा:।
यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।।
सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयते s
भीषुभि
इवहूत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मन:शिसंकल्पमस्तु।।''
रथ की पहिया में जैसे आरा सन्निविष्ट रहते हैं वैसे ही ऋग् यजु साम के शब्द समूह मन में सन्निविष्ट हैं। पट में तंतु समूह जैसे ओत-प्रोत
रहते हैं। वैसे ही सब पदार्थों का ज्ञान मन में ओत-प्रोत है। अर्थात मन जब अकलुषित
और स्वस्थ है तभी विविध ज्ञान उसमें उत्पन्न होते हैं, व्यग्र हो जाने पर नहीं। जैसे चतुर सारथी
घोड़े को अपने अधीन रखता है और लगाम के द्वारा उनको अच्छे रास्ते पर ले चलता है वैसे ही मन हमें चलाता
है। तात्पर्य यह है कि मन
देह-रथ का सारथी है और इंद्रियाँ घोड़े हैं-चतुर सारथी हुआ तो घोड़े जब कुपंथ पर
जाने लगते हैं तब लगाम कड़ी कर उन्हें
रोक लेता है। जब देखता है रास्ता
साफ है तो बागडोर ढीली कर देता है, वैसा
ही मन करता है। जिन मन की स्थिति अंत:करण में है जो कभी बुढ़ापा नहीं जो अत्यंत
वेग गामी है वह मेरा मन शांत व्यापार
वाला हो -
यज्जाग्रतो दूरमुदैति तदु, सुप्तस्य तथैवैति।
दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे नम: शिवसंकल्पमस्तु।।
चक्षु आदि इंद्रियाँ इतनी दूर नहीं जाती
जितना जागते हुए का मन दूर से दूर जाता है और लौट भी आता है, जो दैव अर्थात दिव्य-ज्ञान वाला है, आध्यात्मिक संबंधी सूक्ष्म विचार जिस मन में आसानी से आ सकते हैं,
प्रगाढ़ निद्रा का सुषुप्ति अवस्था में जिसका सर्वथा नाश हो जाता है,
जागते ही जो तत्क्षण फिर जी उठता है, वह मेरा मन शिव संकल्प वाला हो अर्थात सदा उसमें धर्म ही स्थान पाए, पाप मन से दूर रहे।
मन के बराबर चंचल संसार में कुछ नहीं
है। पतंजलि महामुनि ने उसी चंचलता को रोक मन के एकाग्र रखने को योग दर्शन निकाला।
यूरोप वाले हमारी और-और विद्याओं को तो खींच ले गए पर इस योग-दर्शन और फलित ज्योतिष पर उनकी दृष्टि नहीं गई सो कदाचित
इसीलिए कि ये दोनों आधुनिक सभ्यता
के साथ जोड़ नहीं खाते। इस तरह के निर्मल मन वाले सदा पूजनीय हैं। जिनके मन में
किसी तरह का कल्मष
नहीं है, द्रोह, ईर्ष्या, मत्सर, लालच तथा काम-वासना से मुक्ति जिनका मन
है उन्हीं को जीवन्मुक्त कहेंगे।
बुद्ध और ईसा आदि महात्मा दत्तात्रेय और याज्ञवल्क्य आदि योगी जो यहाँ तक पूजनीय हुए कि
अवतार मान लिए गए उनमें जो कुछ महत्व था सो इसी का कि वे मन को अपने वश में किए थे। जो मन के
पवित्र और दृढ़ हैं वे क्या
नहीं कर सकते। संकल्प
सिद्धि इसी मन की दृढ़ता का फल है। शत्रु ने चारों ओर से आके घेर लिया, लड़ने वाले फौज के सिपाहियों के
हाथ-पाँव फूल गए, भाग
के भी नहीं बच सकते, सबों
की हिम्मत छूट गई, सब एक स्वर से चिल्ला रहे हैं, हार मन अब 'ईल्ड' शत्रु के सुपर्द अपने को कर देने ही से
कल्याण है, कैदी हो जाएँगे बला से, जान तो बची रहेगी। पर सेनाध्यक्ष 'कमांडर' अपने संकल्प का दृढ़ है सिपाहियों के रोने-गाने और
कहने-सुनने से विचलित नहीं होता, कायरों
को सूरमा बनाता हुआ रण-भूमि में आ उतरा, तोप के गोलों का आघात सहता हुआ शत्रु की सेना पर जा टूटा,
द्वंद्व युद्ध कर अंत को विजयी होता है।
ऐसा ही योगी को जब उसका योग सिद्ध होने पर आता है तो विघ्नरूप, जिन्हें अभियोग कहते हैं, होने लगते हैं इंद्रियों को चलायमान
करने वाले यावत प्रलोभन सब उसे आ घेरते हैं। उन प्रलोभनों में फँस गया तो योग से
भ्रष्ट हो गया। अनके
प्रलोभन पर भी चलायमान न हुआ दृढ़ बना रहा तो अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उसकी गुलाम
बन जाती हैं, योगी सिद्ध हो जाता
है। ऐसा ही विद्यार्थी जो मन और चरित्र का पवित्र है दृढ़ता के साथ पढ़ने में लगा
रहता है पर बुद्धि का तीक्ष्ण
नहीं है, बार-बार फेल होता है तो
भी ऊब कर अध्ययन से मुँह नहीं
मोड़ता, अंत को कृतकार्य हो
संसार में नाम पाता है। बड़ी से बड़ी कठिनाई में पड़ा हुआ मन का पवित्र और दृढ़ है
तो उसकी मुश्किल आसान होते देर नहीं लगती। आदमी में मन की पवित्रता छिपाए नहीं
छिपती न कुटिल और कलुषित मन वाला छिप सकता है। ऐसा मनुष्य जितना ही ऊपरी दाँव-पेंच
अपनी कुटिलाई छिपाने को करता है उतना ही बुद्धिमान लोग जो ताड़बाज हैं ताड़ लेते
हैं। कहावत है 'मन
से मन को राहत है' 'मनु,
मन को पहचान लेता है' पहली कहावत के यह माने समझे जाते हैं कि
जो तुम्हारे मन में मैल नहीं
है वरन तुम बड़े सीधे और सरल चित्त
हो तो दूसरा कैसा ही कुटिल और कपटी है तुम्हारा और उसका किसी एक खास बात में
संयोग-वश साथ हो गया तो तुम्हारे
मन को राहत न पहुँचेगी। जब तक तुम्हारा
ही-सा एक दूसरा पड़ तुम्हें
निश्चय न करा दे कि इसका
विश्वास करो हम इसके
बिचवई होते हैं। दूसरी कहावत के मतलब हुए कि हमसे कुटिल चालबाज का हमारे ही समान
कपटी चालाक का साथ होने से पूरा जोड़े बैठ जाता है।
मस्तिष्क, मन, चित्त, हृदय, अंत:करण, बुद्धि ये सब मन के पर्याय शब्द हैं। दार्शनिकों ने बहुत ही थोड़ा
अंतर इनके जुदे-जुदे 'फंक्शन' कामों में माना है-अस्तु हमारे जन्म की सफलता इसी में है कि हमारा मन सब
वक्रता और कुटियाई छोड़ सरल वृत्ति धारण कर, भगवद्चरणारविंद के रसपान का लोलुप मधुप
बन, अपने असार जीवन को इस
संसार में सारवान् बनाए, तत्सेवानुरक्त महजनों की चरण रज को सदा अपने माथे पर
चढ़ाता हुआ ऐतिक तथा आमुष्मिक अनंत सुख का भोक्ता हो, जो निश्चितमेव नाल्पस्य तपसै: फलम् है। अंत को फिर भी हम एक
बार अपने वाचक वृंदों को चिताते हैं कि जो तभी होगा जब चित्त मतवाला हाथी-सा संयम के खूँटे में
जकड़ कर बाँधा जाय। अच्छा
कहा है -
अप्यस्ति कश्चिल्लोकेस्मिन्येनचित्त मदद्विप:।
नीत: प्रशमशीलेन
संयमालानलीनताम्।।
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