आज़ादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर उन वीरांगनाओं को नमन जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई 1
''मैं किसी भी समाज का मूल्यांकन उस समाज की महिलाओं की स्थिति के आधार पर करता
हूं।''
गौतम बुद्ध के इस कथन से ज्ञात होता है कि समाज में महिलाओं
का सर्वोपरि स्थान है। महिलाएं समाज की आधी आबादी हैं। परिवार जहां समाज की इकाई होता
है, वहीं परिवार की धुरी स्त्री होती है। स्त्री जिस मानसिकता
के अक्ष पर केन्द्रित होती है, परिवार उसी मानसिकता को आत्मसात करते हुए विकसित
होता है। यही मानसिकता देश और समाज की दशा और दिशा निर्धारित करती है। यही कारण है
कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की
महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं। उन्होंने परतंत्र भारत से आहवान किया था
कि देश को आज़ाद करवाने के लिए माताएं, बहनें सामने आएं। इस आह्वान
को दो स्वरूपों में स्वीकार किया गया था। एक तो था परोक्ष स्वरूप तथा दूसरा था
अपरोक्ष स्वरूप अर्थात स्वतंत्रता आंदोलन में सीधे सामने आकर सक्रिय भाग लेना और
दूसरा पर्दे के पीछे रहते हुए आंदोलनरत लोगों को सहयोग प्रदान करना।
हम इतिहास उठाकर देखें तो ज्ञात होता है कि स्वतंत्रता आंदोलन की सुगबुगाहट सन
1857 से पहले ही आरंभ हो चुकी थी। इस सुगबुगाहट को विचारों और कर्तव्यों से पुष्ट
करने के उत्तरदायित्व को महिलाओं ने बखूबी निभाया था।
कश्मीर की प्रसिद्ध कवयित्री ललद्यद 14वीं शताब्दी से ही
स्वतंत्रता के गीत रचती रहीं और आंदोलनकारियों में उत्साह भरती रहीं। सीधे तौर पर
सर्वप्रथम स्वतंत्रता की जंग लड़ने वाली स्त्रियों में नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी
बेगम हज़रत महल का नाम आता है। नवाब के नज़रबंद होने के बाद बेगम हज़रत महल ने
दिनांक 7 जुलाई,1857 से अवध का शासन अपने हाथ में लिया ।स्वतंत्रता की भावना उनके भीतर कैसी थी, बेगम हजरत महल की
कविता से ज्ञात हो जाता है-
साथ दुनिया ने न दिया न मुकद्दर ने दिया
रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया
एक तमन्ना थी कि आज़ाद वतन हो जाए
जिसने जीने दिया न चैन से मरने न दिया
रायगढ़ की रानी अवंतीबाई भी ऐसा ही एक नाम है। रानी अवंती बाई ने अंग्रेज़ों
की नीतियों से चिढ़कर उनके विरुद्ध संघर्ष का ऐलान कर दिया और मंडला के खेटी गांव
में मोर्चा जमाया। यहां उन्होंने अंग्रेज़ सेनापति वार्टर के घोड़े के दो टुकड़े कर
दिए और उसके वो छक्के छुडाए कि वार्टर रानी के पैरों पर गिरकर प्राणों की भीख
मांगने लगा। इसी तरह जीनत महल ने भी नाना साहेब और बहादुरशाह ज़फर के साथ
मिलकर स्वतंत्रता संग्राम की रूपरेखा तय की ।
''खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।''
इन रानी से भला किसका परिचय नहीं है? अस्त्र शस्त्र चलाने
में माहिर मनु की नाना साहेब और तात्या टोपे के कुशल निर्देशन में साहसी रानी के रूप
में परवरिश हुई थी। ''मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'' इस कथन का उद्धोष
करने वाली रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेज़ों की जमकर खबर ली थी। झांसी का नेतृत्व
करते हुए रानी लक्ष्मीबाई तमाम विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी कर्तव्य-पथ से
विमुख नहीं हुईं। ऐसा नहीं है कि केवल राज परिवार की शासक वीरांगनाओं ने ही
स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। जिसने जैसे भी हो, जो भी संभव हो सका, अपना योगदान दिया। ऐसा ही एक नाम है अजीजन बाई। अजीजन ने युवतियों की
एक टोली बनाई थी, जो सदैव मर्दाना भेष में
रहतीं। वे सभी घोडों पर सवार होकर हाथ में तलवार लेकर नौजवानों को आज़ादी की लंडाई
में शामिल होने को आमंत्रित करतीं, घायल सैनिकों का इलाज करतीं। नानक चंद्र की 16 जून 1857 की डायरी के अनुसार
अजीजन दिन-रात मिलिट्री यूनीफॉर्म पहने रहती। उसका प्रिय कार्य था तोपी
सिपाहियों का रजिस्टर रखना और उनकी हर मुमकिन सहायता करना। अजीमुल्ल खां जो नाना
साहब का दाहिना हाथ था, अजीजन की बहादुरी और वफ़ादारी से बहुत प्रभावित था।
इस पुनीत आंदोलन में बड़े ही नहीं बच्चों ने भी अपने प्राणों का त्याग किया था।
नाना साहब की पुत्री मैना देवी के त्याग को भला कौन विस्मृत कर सकता है? इसी कड़ी में रानी
झलकारी बाई,
भगतसिंह को सुरक्षा देने वाली दुर्गा भाभी का नाम भी लिया जाता है। ऐसी
कितनी ही वीरांगनाएं हैं जिनका नाम तक इतिहास को पता ही नहीं है, पर इन सबने अपना मूक त्याग किया है। इतना ही नहीं, अपरोक्ष रूप से अपने
कपड़े-ज़ेवर आदि के द्वारा सिपाहियों को सहयोग देने वाली स्त्रियों को तो हम जानते
भी नहीं । खाना,
कपड़ा देना ही नहीं सैनिकों के लिए कपड़े सिलना, बुनना भी एक
महत्वपूर्ण प्राथमिक कार्य था, जिसे महिलाओं ने देश की
आज़ादी के लिए किया। महात्मा गांधी जी की पत्नी, जिन्हें हम बा के नाम से जानते हैं, कस्तूरबा गांधी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू और बहन विजयलक्ष्मी
पंडित के संघर्ष भी बेहद महत्वपूर्ण थे। इनका त्याग मूक था। इंदिरा गांधी
ने भी जब अंग्रेज़ों के विरुद्ध लोहा लेना चाहा, तो उनकी टोली को वानर सेना का नाम दिया गया, जो विदेशी कपड़ों की होली जलाने में सहयोगी सिद्ध हुई। सुभद्रा कुमारी
चौहान और महादेवी वर्मा जी दोनों ही कवि सम्मेलनों में साथ-साथ जातीं और अपनी कविताओं
के माध्यम से मुक्ति का आह्वान करतीं। हम लक्ष्मी सहगल को कैसे भूल सकते
हैं, जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई ब्रिगेड की कमान संभालकर आज़ाद
हिंद फ़ौज को एक नई दिशा दी।
सरोजिनी नायडू ने एक कुशल सेनापति की भाँति अपनी प्रतिभा का परिचय
हर क्षेत्र में दिया। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी
गयीं। संकटों से न घबराते हुए वे एक धीर वीरांगना की भाँति गाँव-गाँव घूमकर देश-प्रेम की अलख जगाती रहीं और देशवासियों को उनके कर्तव्य की
याद दिलाती रहीं। उनके वक्तव्य जनता के हृदय को झकझोर देते थे और देश के लिए अपना
सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे।
आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तो हम इन सब महिलाओं के योगदान को कैसे भुला सकते हैं? आज जिस स्वतंत्र भारत में हम सांस ले
रहे हैं, यह हमें इन्हीं महान स्वतंत्रता सेनानियों की
बदौलत प्राप्त हुई है। आज मेरा सभी महिलाओं से आह्वान है कि आइए, आज मिलकर प्रण करें कि हम इनके अथक प्रयत्नों से प्राप्त स्वतंत्रता को बनाए
रखने में अपना संपूर्ण योगदान देंगे और इनके संघर्ष और बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने
देंगे ।
जय हिंद! जय भारत!
मीता गुप्ता 8126671717
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