युगद्रष्टा....युगस्रष्टा....या युगावतार गांधी
आज़ादी का
अमृत महोत्सव वर्ष में बापू को श्रद्धांजलि
युगद्रष्टा
गांधी
या
युगास्रष्टा
गांधी.....महात्मा
गांधी......या
राष्ट्रपिता
गांधी....या
बापू।
वास्तव
में
चाहे
किसी
भी
नाम
से
संबोधित
कर
लें
या
किसी
भी
विशेषण
से
विभूषित
करें, गांधी
एक
विचार
हैं,एक
चिंतन
हैं,एक
दर्शन
हैं।
वे
ओबामा
से
लेकर
नेल्सन
मंडेला
जैसी
हस्तियों
के
प्रेरणास्रोत,अरब
देशों
की
क्रांति
में
आदर्शों
एवं
सिद्धांतों
की
खुशबू
और
वर्तमान
दौर
में
बड़े
से
बड़े
आंदोलन, समाज
सुधार, पर्यावरण
संरक्षण,स्वच्छता, शिक्षा, कौशल-संवर्धन
जैसे
सामाजिक
मसलों
में
आज
भी
ज़िंदा
हैं।उनका
प्रेम, त्याग, दूसरों
पर
भरोसा
और
सहअस्तित्व
का
संदेश
आज
के
असुरक्षित
समय
और
कलह
से
भरी
दुनिया
में
प्रासंगिक
हैं। उनकी राह
मानवता, सहअस्तित्व, दृढ़
मनोबल
और
शांति
की
राह
है।
इन्हीं रास्तों पर
चलने
वाले
कई
लोग
ऐसे
भी
होंगे,
जिन्होंने
न
तो
गांधीजी
को
पढ़ा
होगा
और
न
ही
उनके
बारे
में
सुना
होगा ।
गांधी
का
जीवन
एक
नदी
की
भांति
था,
जिसमें
कई
धाराएं
मौजूद
थीं।
उनके
अपने
जीवन
में
शायद
ही
ऐसी
कोई
बात
रही
हो,
जिन
पर
उनका
ध्यान
नहीं
गया
हो
या
फिर
उन्होंने
उस
पर
अपने
विचारों
को
प्रकट
नहीं
किया
हो।
आज़ादी
की
लड़ाई
के
साथ-साथ
उन्होंने
छुआछूत
उन्मूलन, हिंदू-मुस्लिम
एकता, चरखा
और
खादी
को
बढ़ावा, ग्राम
स्वराज
का
प्रसार, प्राथमिक
शिक्षा
को
बढ़ावा
और
परंपरागत
चिकित्सीय
ज्ञान
के
उपयोग
सहित
तमाम
दूसरे
उद्देश्यों
पर
काम
करना
जारी
रखा
था।
5 फरवरी
1916 को काशी के
नागरी
प्रचारिणी
सभा
के
एक
कार्यक्रम
को
संबोधित
करते
हुए
उन्होंने
कहा
था-
मेरे सपनों का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होना चाहिए। इसमें फ़र्क के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। ऐसे राज्य में जाति-धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। वह स्वराज्य सबके कल्याण के लिए होगा।
महात्मा
गांधी
अहिंसावादी
थे
और
अन्याय
के
विरोध
में
अपनी
आवाज़
उठाते
थे।
उनमें
दोनों
गुण
शुरू
में
नहीं
थे।
अन्याय
के
ख़िलाफ़
आवाज
उठाने
का
अस्त्र
उन्हें
कस्तूरबा
गांधी
से
मिला।
अन्याय
का
दृढ़ता
से
विरोध
करने
की
प्रेरणा
कस्तूरबा
ही
थीं।इसी
तरह
अहिंसा
के
गुण
उनमें
प्रारंभ
से
नहीं
थे।
कहते
हैं
जब
बैरिस्टर
की
पढ़ाई
करने
विदेश
गए
थे, तभी
एक
दिन
तांगे
में
बैठने
की
जगह
को
लेकर
एक
अंग्रेज़
ने
उनसे
हाथापाई
की।
उन्होंने
हाथ
तो
नहीं
उठाया, लेकिन
चुप
रहकर
विरोध
प्रदर्शित
किया।
यहीं
से
नौजवान
मोहनदास
को
मूक
विरोध
करने
या
कहें
अहिंसा
का
अस्त्र
मिला।
संयुक्त
राष्ट्र
ने
दो
अक्तूबर
को
‘अहिंसा दिवस’ घोषित किया
क्योंकि
विश्व
संगठन
को
यह
महसूस
हुआ
कि
हम
हिंसा
के
जिस
भयावह
दौर
से
गुजर
रहे
हैं, उससे
बाहर
निकलने
का
एक
ही
रास्ता
है, जो
गांधी
ने
सुझाया
है, और
वह
है
अहिंसा। गांधी
की
अहिंसा
की
बात
केवल
उपदेश
तक
सीमित
नहीं
हैं, बल्कि
उन्होंने
स्पष्ट
किया
है
कि
अगर
हम
अहिंसक
समाज
बनाना
चाहते
हैं, तो
हमारी
राजनीति, हमारी
अर्थनीति, हमारी
संस्कृति, जो
हमारी
समाज
रचना
के
बुनियादी
आधार
हैं, वे
भी
अहिंसा
की
बुनियाद
पर
होने
चाहिए।
जैसे, अगर
शोषण
पर
आधारित
आर्थिक
नीति
होगी, जो
हिंसा
का
ही
एक
रूप
है, तो
हम
अहिंसक
समाज
नहीं
बना
सकते।
हमारी
टेक्नोलॉजी, हमारी
अर्थव्यवस्था, हमारी
संस्कृति
ऐसी
बुनियाद
पर
आधारित
हो, जो
मानवीय
हो, शोषण
मुक्त
हो, हिंसा
मुक्त
हो।
उसी
तरह
से
राजनीति
में
समाज
को
विभाजित
करके
आगे
बढ़ने
की
जो
प्रतिस्पर्धा
चल
रही
है, वह
भी
हिंसा
को
बढ़ावा
देने
वाली
है।
इसलिए
अहिंसक
समाज
की
रचना
के
लिए
राजनीतिक
क्षेत्र
में, आर्थिक
क्षेत्र
में, सांस्कृतिक
क्षेत्र
में-हर
जगह
अहिंसा
के
मूल्य
दाखिल
करने
पड़ेंगे।
उनके
उपवास
का
भी
रोचक
प्रसंग
है।
विदेश
में
पढ़ाई
के
दौरान
वो
बीमार
पड़े।
चिकित्सक
ने
सामिष
सूप
पीने
की
सलाह
दी।
बीमारी
और
कड़ाके
की
ठंड
के
बावजूद
उन्होंने
सिर्फ़
दलिया
खाया।
इससे
उन्हें
उपवास
रूपी
अस्त्र
मिला।
गांधीजी
दोनों
हाथों
से
लिखने
में
पारंगत
थे।
समुद्र
में
डगमगाते
जहाज, तो
चलती
मोटर
और
रेलगाड़ी
में
भी
फर्राटे
से
लिखते
थे।
एक
हाथ
थक
जाता, तो
दूसरे
से
उसी
रफ़्तार
में
लिखना
गांधीजी
की
खूबी
थी।
‘ग्रीन पैंपलेट’
तथा
‘स्वराज’ पुस्तक चलते
जहाज
में
लिखी
थीं।
यकीनन
जहां
लोग
अपने
काम
को
लोकार्पित
करते
हैं, वहीं
गांधी
ने
अपना
पूरा
जीवन
ही
लोकार्पित
कर
दिया
था।
विलक्षण
गांधी
अपने
पूर्ववर्ती
क्रांतिकारियों
से
जुदा
थे।
शोषणवादियों
के
खिलाफ
अहिंसात्मक
तरीके
अपनाकर
स्वराज, सत्याग्रह
और
स्वदेशी
के
पक्ष
को
मज़बूत
कर
वैचारिक
क्रांति
के पक्षधर गांधीजी
साधन
और
साध्य
को
एक
जैसा
मानते
थे।
उनकी
सोच
थी
कि
सत्य
और
अहिंसा
एक
सिक्के
के
दो
पहलू
हैं।
रचनात्मक
संघर्ष
में
असीम
विश्वास
रखने
वाले
गांधीजी
मानते
थे
कि
जो
जितना
रचनात्मक
होगा, उसमें
स्वतः
ही
उतनी
संघर्षशीलता
के
गुण
आएंगे।
स्वतंत्र
राष्ट्र
ही
दूसरे
स्वतंत्र
राष्ट्रों
के
साथ
मिलकर
वसुधैव कुटुम्बकम की
भावना
फलीभूत
कर
सकेंगे।
वे
स्वराज
के
साथ
अहिंसक
वैश्वीकरण
के
पक्षधर
थे, जिससे
दुनिया
में
स्वस्थ, सुदृढ़
अर्थव्यवस्था
हो।
गांधीजी
मानते
थे
कि
पश्चिमी
समाजवाद, अधिनायकतंत्र
है, जो
एक
दर्शन
से
ज़्यादा
कुछ
नहीं।
जहां
मार्क्स
के
अनुसार
आविष्कार
या
निर्माण
की
प्रक्रिया
मानसिक
नहीं, शारीरिक
है, जो
परिस्थितियों
और
माहौल
के
अनुकूल
होती
रहती
है।
वहीं गांधीजी इससे
सहमत
नहीं
थे
कि
आर्थिक
शक्तियां
ही
विकास
को
बढ़ावा
देती
हैं
और दुनिया की
सारी
बुराइयों
की
जड़
या
युद्धों
के
जन्मदाता
आर्थिक
कारण
ही
हैं
।
आध्यात्मिक
समाजवाद
के
पक्षधर
महात्मा
ने
इतिहास
की
आध्यात्मिक
व्याख्या
की
है।
उनके
अनुसार
यह
उतना
ही
पुराना
है, जितना
पुराना
व्यक्ति
की
चेतना
में
धर्म
का
उदय।
उन्होंने
केवल
बाह्य
क्रियाकलापों
या
भौतिकवाद
को
सभ्यता-संस्कृति
का
वाहक
नहीं
माना, बल्कि
गहन
आंतरिक
विकास
पर
बल
दिया।
इसको
समझाने
के
लिए
वे
कहते
थे-ध्येयवादी
जीवन
के
चार
तत्व
होते
हैं-
साधक, साधन, साधना
और
साध्य।
गांधीजी
की
सादगी
रूपी
अस्त्र
के
भी
अनगिनत
किस्से
हैं।
1915 में भारत लौटने
के
बाद
कभी
पहले
दर्जे
में
रेल
यात्रा
नहीं
की।
तीसरे
दर्जे
को
हथियार
बना
रेलवे
का
जितना
राजनीतिक
इस्तेमाल
गांधीजी
ने
किया, उतना
शायद
अब
तक
किसी
भारतीय
नेता
ने
नहीं
किया।
गांधी
जी
क्रांतिकारी
युगद्रष्टा
थे, उन्होंने
कभी
नहीं
कहा
कि
जो
मैं
कह
रहा
हूं, वही
अंतिम
सत्य
है।
उन्होंने
कहा
था
कि
सबको
सत्य
की
तलाश
करनी
चाहिए, सबको
सत्यनिष्ठ
बनना
चाहिए।
इससे
चिंतन
के, विकास
के, सभ्यता
एवं
संस्कृति
के
नए
आयाम
विकसित
होंगे।
हमें
गांधी
को
मंदिर
में
स्थापित
कर
पूजा
की
वस्तु
नहीं
बनाना
चाहिए, बल्कि
उनके
विचारों
से
प्रेरणा
लेकर
उनके
मूल्यों
को
आगे
बढ़ाना
चाहिए।
गांधी
ने
जीवन
भर
लक्ष्य
को
सामने
रखा
और
खुद
को
पीछे
रखा।
अपनी
सत्यनिष्ठा
या
विचारनिष्ठा
के
कारण
ही
उन्होंने
अपने
जीवन
का
बलिदान
दिया।
याद
रखना
होगा
गांधी
एक
विचारधारा
हैं, दर्शन
हैं, आईना
हैं, जो
शाश्वत
है, सदैव
प्रासंगिक
हैं, और
जो
कभी
मरता
नहीं
है,जो
हमारे
अस्तित्व
में
रचा-बसा
है।
इसीलिए
श्री
सोहन
लाल
द्विवेदी
कह
उठे-
तुम बोल उठे, युग बोल उठ, तुम मौन बने,युग मौन बना
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर, युग कर्म जग,युगा धर्म तना,
युग-परिवर्त्तक,युग-संस्थापक,युग-संचालक,हे युग-धार !
युग-निर्माता,युग-मूर्ति! तुम्हें,युग-युग तक युग का नमस्कार ॥
मीता गुप्ता
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