Thursday, 25 November 2021

भारत का संविधान 26.11.2021




भारत का संविधान

आज 26 नवंबर को भारतीय संविधान दिवस के पुनीत अवसर पर लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्वास को पुनर्स्थापित करने के विचार से आइए जानते हैं अपने संविधान की विशेषताएं-

भारत का संविधान एक पवित्र दस्तावेज़ है इसमें विश्व के प्रमुख संविधानों की विशेषताएं समाहित हैं। यह संविधान निर्मात्री सभा के 2 वर्ष 11 माह 18 दिन के सतत प्रयत्न, अध्ययन विचार, विमर्श, चिंतन एवं परिश्रम का निचोड़ है। यह 26 नवंबर 1949 को बनकर तैयार हुआ और इसे 26 जनवरी 1950 को संपूर्ण भारत पर लागू किया गया।


भारत के संविधान की प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित हैं-

1. विशालतम संविधान- सामान्यतया संविधान का आकार अत्यंत छोटा होता है संविधान में मोटी मोटी बातों का उल्लेख कर दिया जाता है और अन्य बातें अर्थान्वयन के लिए छोड़ दी जाती हैं, लेकिन भारत का संविधान इसका अपवाद है । भारत के संविधान का आकार न तो अत्यधिक छोटा रखा गया है और न ही अत्यधिक बड़ा । हमने सभी आवश्यक बातें समाहित करते हुए संतुलित आकार का रखा है।

संविधान के मूल प्रारूप में 22 भाग 395 अनुच्छेद तथा 9 अनुसूचियां थी कालांतर में संशोधनों के साथ साथ इनमें अभिवृद्धि होती गई। भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा और सबसे विस्तृत संविधान है । आलोचक इसे वकीलों का स्वर्ग कहकर संबोधित करते हैं।

2. सर्व प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना- हमारे संविधान का प्रमुख लक्षण सर्व प्रभुत्व लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना है इसे सर्व प्रभुत्व संपन्न इसलिए कहा गया है क्योंकि इसकी संप्रभुता किसी विदेशी सत्ता में निहित नहीं होकर भारत की जनता में निहित है यह बाहरी नियंत्रण से पूरी तरह से मुक्त है अपनी आंतरिक एवं बाहरी नीतियों का निर्धारण एवं नियंत्रण स्वयं भारत ही करता है भारत में लोकतंत्र की स्थापना की गई है यहां का शासन जनता के हाथों में सुरक्षित है यह प्रजातंत्र की इस कसौटी पर खरा उतरता है कि यहां सरकार जनता की, जनता के लिए और जनता द्वारा संचालित है इसका मुख्य उद्देश्य लोक कल्याण है।

3. समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्षता- हमारा संविधान समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्षता का पोषक है यह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी समाजवादी समाज की संरचना के  स्वप्न को साकार करता है इस की प्रस्तावना में सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय का  अवगाहन किया गया है सभी प्रकार के  विभेदों को समाप्त कर समता के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों के अध्ययन से निकाल कर साधारण संवैधानिक अधिकार के रूप में प्रतिस्थापित करना समाजवादी स्वरूप की पुष्टि करता है संविधान में प्रत्येक नागरिक को सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय का वचन दिया गया है हमारा संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान का भी संवाहक है इसमें सभी धर्मों को समान मान्यता प्रदान की गई है प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की और धर्म के अवैध रूप से मानने आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता है यह किसी भी व्यक्ति पर राज धर्म नहीं होता है उल्लेखनीय है कि अभिव्यक्ति समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल प्रारूप में समाहित नहीं थी इसे संविधान के 42 में संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया है।

4. संसदीय शासन पद्धति का प्रादुर्भाव- भारत राज्यों का एक संघ है यहां का संविधान संघात्मक है संघात्मक संविधान भी दो प्रकार का होता है अध्यक्षात्मक एवं संसदीय।  अध्यक्षात्मक शासन पद्धति में राष्ट्रपति सर्वे सर्वा होता है जैसा कि अमेरिका में है जबकि संसदीय शासन पद्धति में शासन की वास्तविक बागडोर जनता में निहित होती है सरकार जनता की, जनता के लिए तथा जनता द्वारा चलाई जाती है जनप्रतिनिधि मंत्री परिषद के रूप में शासन का संचालन करते हैं।भारत में संसदीय शासन पद्धति को अंगीकृत किया गया है यहां शासन की वास्तविक  सत्ता जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों के हाथों में सुरक्षित है राष्ट्रपति देश का मुखिया अवश्य है लेकिन नाम मात्र का यह मंत्रिपरिषद की सलाह से ही सारे कार्य करता है।

5. मूल अधिकार- भारत के संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता एवं उपलब्धि इसमें मूल अधिकारों का समाहित होना है वर्षों से दासता के अधीन रहे भारत वासियों के लिए यह मूल अधिकार एक वरदान एवं उपहार स्वरूप है इन मूल अधिकारों का मुख्य उद्देश्य भारत के नागरिकों को सर्वांगीण विकास के अवसर उपलब्ध कराना है संविधान के भाग 3 में नागरिकों के निम्नांकित मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है-

1. समता का अधिकार

2. स्वतंत्र अर्थात स्वतंत्रता का अधिकार

3. प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण

4. गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण

5. शोषण के विरुद्ध अधिकार

6. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

7. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार तथा

8. संवैधानिक उपचारों का अधिकार

उल्लेखनीय है कि संपत्ति का अधिकार पहले एक मूल अधिकार था लेकिन कालांतर में संशोधन द्वारा इसे एक संवैधानिक अधिकार मात्र बना दिया गया है स्वतंत्रता का अधिकार अपने आप में एक महत्वपूर्ण मूल अधिकार है संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत नागरिकों को निम्नांकित स्वतंत्रता का विवेचन किया गया है-

1. वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

2. शांतिपूर्वक एवं निरा युद्ध सम्मेलन की स्वतंत्रता

3. संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता

4. भारत के राज्य क्षेत्रों में सर्वत्र अबाध संचरण करने की स्वतंत्रता

5. भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग  निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता तथाझ

6. कोई वृत्ति उपजीविका व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता

6. मूल कर्तव्य- भारतीय संविधान के मूल प्रारूप में मूल कर्तव्यों का उल्लेख नहीं था संविधान में मूल अधिकार तो जोड़ दिए गए लेकिन मूल कर्तव्य रह गए कालांतर में संविधान में मूल कर्तव्यों को जोड़ने की आवश्यकता महसूस हुई इसी का परिणाम है कि संविधान के 42वें में संशोधन द्वारा एक नया भाग 4क अंतः स्थापित कर अनुच्छेद 51 क में निम्नांकित मूल कर्तव्य समाहित किए गए-

भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-

क.  संविधान का पालन करें और उनके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें,

ख.  स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले ऊंचा देशों को हृदय में संजोए रखें और उनका पालन करें,

ग.  भारत की प्रभुता एकता और अखंडता की रक्षा करें और उसे अक्षुण रखें,

घ.  देश की रक्षा करें और आव्हान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करें,

ङ.  भारत के सभी लोगों में समरसता और सामान  भाईचारे की की भावना का निर्माण करें जो धर्म भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो,

च.  हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करें,

छ.  प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अंतर्गत वन झील नदी और वन्य जीव है उसका संवर्धन करें तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखें।

ज.  वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें,

झ.  सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें,

ञ. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले।

7. राज्य की नीति के निदेशक तत्व- हमारे संविधान निर्माताओं ने एक ऐसे संविधान की  संचरण की परिकल्पना की थी जो मानव मात्र के लिए कल्याण परख हो संविधान निर्माता वह चाहते थे की राज्य अपनी नीतियों का निर्धारण इस प्रकार करें कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्तर ऊंचा उठे बालकों को निशुल्क शिक्षा मिले अर्थ अभाव के कारण कोई भी व्यक्ति जीवन न्याय से वंचित न रहे समान कार्य के लिए सभी को समान वेतन मिले वर्धावस्था एवं रुग्ण अवस्था में आर्थिक संबल दिया जाए सत्ता का अधिकाधिक विकेंद्रीकरण हो आदि इन कल्याणक उपलब्धियों की क्रियान्वित अनिवार्य न बनाकर राज्यों के आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता पर छोड़ दी गई यही कारण है कि इन्हें मूल अधिकारों की संज्ञा नहीं देकर राज्य की नीति के निदेशक तत्व के नाम से संबोधित किया गया।

संविधान के भाग में इन नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है यद्यपि इन नीति निदेशक तत्वों  को लागू करना राज्य के लिए आबद्ध कर नहीं है लेकिन एक कल्याणकारी राज्य के नाते राज्यों का वह नैतिक दायित्व बन जाता है कि वे इन्हें अधिकाधिक लागू करें।

अब तो न्यायपालिका के ऐसे अनेक निर्णय आ गए हैं जो इन नीति निदेशक तत्वों को भी मूल अधिकारों का दर्जा देते हैं।

8. कठोरता एवं लचीलापन का समन्वय- यदि यह  कहां जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी की संशोधन की दृष्टि से भारत का संविधान ने अधिक कठोर और ना ही अधिक लचीला है हमारे संविधान में संशोधन की ऐसी प्रक्रिया को अंगीकृत किया गया है जिसमें देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप इसमें संशोधन किए जाने का प्रावधान किया गया है यह इस बात का प्रमाण है कि सन 2001 तक इसमें केवल 85 संशोधन हुए हैं।

9. व्यस्क मताधिकार-

जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं भारत में संसदीय शासन प्रणाली को अंगीकृत किया गया है संसदीय शासन प्रणाली में सत्ता जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों में सुरक्षित रहती है जनता द्वारा ही जनप्रतिनिधियों का निर्वाचन किया जाता है संविधान के अंतर्गत निर्वाचन का यह अधिकार ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान किया गया है जो व्यस्क है अर्थात जिसने 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है।

इस प्रकार भारत का संविधान एक अनूठा एवं विलक्षण संविधान है इसे विश्व के आदर्श संविधानों में से एक की संज्ञा दी जा सकती है।


मीता गुप्ता

 

Value Education: Meaning, Objectives and Needs 26.11.2021

 

Value Education: Meaning, Objectives and Needs























 

मूल्य परक शिक्षा: अर्थ, उद्देश्य और आवश्यकताएं

 

काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।

अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।

अर्थात विद्यार्थी में हमेशा कौवे की तरह कुछ नया सीखने की चेष्टा, एक बगुले की तरह एक्राग्रता और ध्यान केंद्रित रखने हेतु कुते के समान नींद, गृहत्यागी और यहाँ पर अल्पाहारी का मतबल अपनी आवश्यकता के अनुसार खाने वाला जैसे पांच लक्षण होते हैं।

 

 

मूल्य परक शिक्षा का अर्थ:

शिक्षा का मूल उद्देश्य और मुख्य कार्य छात्रों के सर्वांगीण और संतुलित व्यक्तित्व का विकास करना है, साथ ही मानव बुद्धि के सभी आयामों को विकसित करना है ताकि हमारे बच्चे हमारे देश को अधिक लोकतांत्रिक, एकजुट, सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार बनाने में मदद कर सकें और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और बौद्धिक रूप से प्रतिस्पर्धी राष्ट्र के रूप में निर्मित कर सकें। लेकिन, आजकल ज्ञान आधारित और सूचना-उन्मुख शिक्षा पर अधिक ज़ोर दिया जाता है,जो केवल बच्चे के बौद्धिक विकास का ध्यान रखती है। परिणामतः, उनके व्यक्तित्व के अन्य पहलुओं जैसे शारीरिक, भावनात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण, आदतों, मूल्यों, कौशल और रुचियां ठीक से विकसित नहीं हो पाती हैं। यहीं पर हम मूल्य-शिक्षा की बात करते हैं। 

मूल्य परक शिक्षा क्या है ?

मूल्य परक शिक्षा एक बहुपक्षीय प्रयास है और एक ऐसी गतिविधि है, जिसके दौरान स्कूलों, परिवार के घरों, क्लबों और धार्मिक और अन्य संगठनों में वयस्कों या वृद्ध लोगों द्वारा युवाओं की सहायता की जाती है, जो कि अपने स्वयं के दृष्टिकोणों को स्पष्ट करने के लिए, प्रभावशीलता का आकलन करने के लिए इन मूल्यों को अपने और दूसरों के कल्याण के लिए और अन्य मूल्यों को प्रतिबिंबित करने और प्राप्त करने के लिए जो दीर्घकालिक कल्याण के लिए अधिक प्रभावी हैं।

सी. वी. गुड के अनुसार - "मूल्य-शिक्षा उन सभी प्रक्रियाओं का समुच्चय है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उसमें सकारात्मक मूल्यों की क्षमताओं, दृष्टिकोणों और व्यवहार के अन्य रूपों का विकास करता है।"

मूल्य परक शिक्षा के उद्देश्य:

परंपरागत रूप से मूल्य परक शिक्षा के उद्देश्य धर्म और दर्शन पर आधारित थे, परंतु आज की आधुनिक दुनिया में, इसके मायने काफ़ी बदल गए हैं।तदनुसार, मूल्य परक शिक्षा के उद्देश्यों को निम्नानुसार लिया जा सकता है:

1. बच्चे के व्यक्तित्व का उसके शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक पहलुओं में पूर्ण विकास

2. अच्छे शिष्टाचार और जिम्मेदार और सहकारी नागरिकता का समावेश।

3. व्यक्ति और समाज की गरिमा के लिए सम्मान विकसित करना।

4. देशभक्ति और राष्ट्रीय एकता की भावना का समावेश।

5. सोच और जीने का एक लोकतांत्रिक तरीका विकसित करना।

6. विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के प्रति सहिष्णुता और समझ विकसित करना।

7. सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भाईचारे की भावना का विकास करना।

8. विद्यार्थियों को खुद पर विश्वास करने में मदद करना।

9. विद्यार्थियों को अच्छे नैतिक सिद्धांतों के आधार पर निर्णय लेने में सक्षम बनाना

10. मूल्य-शिक्षा पर मूल्यांकन मानदंड विकसित करना।

11. मूल्य-शिक्षा के बेहतर उपयोग के लिए उपाय सुझाना।

12. मूल्य-शिक्षा के विभिन्न पहलुओं और गतिविधियों के संबंध में विद्यार्थियों की रुचियों का पता लगाना।

13. मूल्य-शिक्षा के अर्थ और अवधारणा को स्पष्ट करना।

मूल्य-शिक्षा की आवश्यकता:

बार-बार, बूमरैंग की तरह, यह सवाल उठता है कि "मूल्य कहाँ गए हैं?' के लिए प्रयास करते समय इस प्रश्न का उत्तर देते हुए, हम वर्तमान के शैक्षिक दर्शन में संज्ञानात्मक  विकास के लिए एक सचेत और विशिष्ट बदलाव को महसूस करते हैं।

मानव सभ्यता के मैराथन मार्च के दौरान विकसित हुए नैतिक, सौंदर्यपरक और सामाजिक प्रकृति के मूल्यों की एक विस्तृत श्रृंखला हमारे सामने प्राथमिकताओं का संकट प्रस्तुत कर रही है: इनमें से कौन से मूल्यों को विकसित किया जाना है और ऐसा करने का उपयुक्त चरण क्या है?

इसलिए, जब ज़िम्मेदारियों को तय करने की बात आती है, तो यह मुद्दा और भी गड़बड़ हो जाता है: मूल्यों को विकसित करने वाला कौन है? - माता-पिता, नेता, संपन्न, व्यवसायी, विचारक, कलाकार, शिक्षक? इसका आसान और स्पष्ट उत्तर है - "शिक्षक मूल्यों का प्रमुख प्रेरक होता है क्योंकि युवा उसकी औपचारिक देखरेख में होते हैं"।

जवाब कुछ भी हो! वास्तव में, केवल मूल्यों के बारे में जानना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि मूल्यों का अभ्यास करना होता है। हमारा देश आमूलचूल सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इसलिए, जो छात्र कल के भविष्य के नागरिक हैं, उन्हें वांछित कौशल और मूल्यों से लैस करके इन सामाजिक परिवर्तनों का संतोषजनक ढंग से जवाब देने और उनके साथ तालमेल बिठाने के लिए उन्मुख होना होगा।

आधुनिक भारत समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, राष्ट्रीय एकता आदि के मार्गदर्शक सिद्धांतों के लिए प्रतिबद्ध है। शैक्षिक प्रणाली और उपयुक्त मूल्यों में इन मार्गदर्शक सिद्धांतों पर जोर दिया जाना चाहिए; समानता, सामाजिक न्याय, राष्ट्रीय एकता और लोकतांत्रिक नागरिकता को बढ़ावा देने के लिए विद्यार्थियों में शामिल किया जाना चाहिए।

इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए, वर्तमान एकतरफा शिक्षा में आमूल-चूल सुधार पेश किए जाने हैं और बड़े होने के नाते हमारे के लिए अच्छी तरह से एकीकृत व्यक्तित्व विकसित करने के लिए सभी प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। इसलिए, वांछनीय मूल्यों को विकसित करने की आवश्यकता है।

भारत अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत के लिए जाना जाता है, और शिक्षा के माध्यम से एक मूल्य-प्रणाली की आवश्यकता सदियों से महसूस और मान्यता प्राप्त है। किसी भी निर्णय लेने की प्रक्रिया में मूल्य प्रणाली एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वास्तव में, प्रत्येक मानवीय क्रिया व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्यों का प्रतिबिंब है।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधुनिक युग ने कई बुराइयों को जन्म दिया है। हिंसा, अनैतिकता, अहंकार, आत्मकेंद्रितता, हताशा हर जगह व्याप्त है। विश्व युद्ध I और II के दौरान दुनिया पहले ही आधुनिक युद्धों की भयावहता का अनुभव कर चुकी है।

यह हिंसा, ईर्ष्या, राष्ट्रीय श्रेष्ठता और अहंकार जैसी भावनाओं और बुराइयों का शिकार रहा है। इसलिए, अद्भुत वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद, दुनिया हिंसा, निराशा और बेचैनी का स्थान है।

भौतिक समृद्धि के बीच मानवता का एक बड़ा वर्ग अनैतिकता, गरीबी और भ्रष्टाचार की चपेट में है। इस प्रकार मूल्यों के संकट के कारण ऐसी असंतोषजनक स्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं।इसलिए, इस तरह के सवालों के जवाब खोजने के लिए विद्यार्थी में वांछनीय मूल्यों का समावेश आवश्यक महसूस किया जाता है:

1.आज की पूरी शिक्षा प्रणाली में मौजूद गलत चीज वास्तव में क्या है?

2.अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव और शांति को कैसे बढ़ावा दिया जा सकता है?3,

3.आधुनिक दुनिया में सामाजिक न्याय और भाईचारा कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है?

4.आज हम सभी द्वारा देखे या देखे जाने वाले संकटों के प्रकोप के लिए किन चीजों को सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जा सकता है?

5.मानव जाति अपने लिए शांति और समृद्धि का पसंदीदा भविष्य कैसे बना सकती है? आदि।

कोठारी आयोग ने ठीक ही कहा है कि "विस्तारित ज्ञान और बढ़ती शक्ति जो कि आधुनिक समाज के लिए उपलब्ध है, को सामाजिक ज़िम्मेदारी की भावना को मजबूत और गहरा करने और नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की गहरी समझ के साथ जोड़ा जाना चाहिए" .

अब, आज की स्थिति जो बहुत तेजी से विकसित हो रही है, को देखते हुए, हमारे लिए यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम अपनी शिक्षा प्रणाली को उचित मूल्य-उन्मुखीकरण दें। इसलिए, भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद, इसके लिए निरंतर प्रयास किए गए हैं ।

शिक्षा के विभिन्न चरणों में छात्रों में सही मूल्यों का समावेश-

तदनुसार, एनईपी 2020 ने छात्रों में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को विकसित करने के महत्व पर जोर दिया, जो हमारी संस्कृति का एक हिस्सा हैं,जैसे-ईमानदारी, दया, दान, सहिष्णुता, शिष्टाचार, सहानुभूति और करुणा।

आधुनिक भारत के संदर्भ में, जो औद्योगीकरण और प्रौद्योगिकी की ओर बढ़ रहा है, हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक मूल्यों पर आधारित हो। महत्वपूर्ण आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक मूल्य जो भारतीय सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं:

1. साहस

2. सत्य

3. सार्वभौमिक प्रेम

4. सभी धर्मों का सम्मान

5. श्रम का महत्व

6. सेवा

7. पवित्रता

8. सौजन्य

9. शांति

10. प्रसन्नता

11.विश्व बंधुत्व

इन सभी मूल्यों को प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ाया जाना है और शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावकों के लिए यह अनिवार्य है कि वे स्कूल की स्थिति को समझें और स्कूलों में मूल्यों को बढ़ावा देने में स्कूल की गतिविधियों की क्षमता को भी समझें।

उपरोक्त उद्धृत संदर्भ में, यह दृढ़ता से कहा जा सकता है कि शिक्षकों, अभिभावकों और प्रशासकों को स्कूलों में मूल्य-उन्मुख शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए। इसलिए, जनसंचार माध्यमों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के स्कूल संगठनों के माध्यम से लोगों में पर्याप्त जागरूकता पैदा करना आवश्यक है।

स्कूल निश्चित रूप से विभिन्न, पाठ्यचर्या और सह-पाठयक्रम कार्यक्रमों के प्रभावी संगठन के माध्यम से विद्यार्थियों में वांछनीय मूल्यों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। अब, ऐसा कार्य अनिवार्य रूप से संयुक्त जिम्मेदारी होना चाहिए जो सभी शिक्षकों द्वारा किया जाना चाहिए, न कि केवल एक या दो शिक्षकों के नियत कर्तव्य।

उन देशों में जहां केवल एक आधिकारिक धर्म था, चर्च, मंदिर या मस्जिद स्कूलों पर एक समान नैतिक संहिता लागू करने के लिए आवश्यक अधिकार प्रदान कर सकते थे। लेकिन ज़्यादातर देशों में ऐसे कई धर्म और संस्कृतियां हैं, जो समय-समय पर संघर्ष करती रहती हैं। शांति और राष्ट्रीय एकता को प्राप्त करने के लिए अधिकांश देशों ने धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली की स्थापना की है।

स्वतंत्रता के बाद की अवधि के दौरान संस्कृति और धर्म के मामले में हमारी जनसंख्या में वृद्धि हुई है; धीरे-धीरे हम संस्कृतियों की समृद्धि और विविधता को देखने लगे हैं, जो हमारे राष्ट्र के लिए एक संपत्ति है, और यह समझने के लिए कि विविधता अपने आप में मूल्यवान है।

इस प्रकार, हम शिक्षा के एक और लक्ष्य के रूप में सामाजिक समरसता और सामान्य मूल्यों के प्रति सम्मान विकसित करना भी पाते हैं, लेकिन दूसरी ओर, एक ऐसी शिक्षा भी चाह्ते हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और प्रत्येक सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करती है। . लेकिन सवाल यह है कि - "क्या शिक्षा विविधता में एकता को बढ़ावा दे सकती है, और यदि हां, तो कैसे?"

महात्मा गांधी ने बहुत पहले उत्तर दिया है - "मैं नहीं चाहता कि मेरा घर चारों तरफ से दीवारों से घिरा हो और मेरी खिड़कियां भरी हों। मैं चाहता हूं कि मेरे घर के चारों ओर विश्व की सभी संस्कृतियों को यथासंभव स्वतंत्र रूप से आने दिया जाए। ।" गांधीजी उन सभी के लिए प्रेरणा बने रहे, जो एकता की दृष्टि का समर्थन करना चाहते थे। उन्होंने सांस्कृतिक विविधता के मूल्य को समझा था।

आज हम सभी एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहाँ हम चिंताग्रस्त माता-पिता, निराश बेरोज़गार डिग्री धारकों, शिक्षकों की हड़ताल, दहेज हत्या, निजी कोचिंग कक्षाओं के प्रति छात्रों का आकर्षण, भीड़भाड़ वाली कक्षाओं पर नियंत्रण रखने में हमारे शिक्षकों की अक्षमता आदि को देखते हैं।

उक्त परिस्थितियों के कारण, मूल्य-शिक्षा नीतियों और कार्यक्रमों को विकसित करने की अत्यधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है जो शिक्षा में सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करेंगे। इसके लिए नियोजित कार्रवाई ऐसी होगी, जहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों का ध्यान रखा जाएगा, जहां बौद्धिक समझ को बढ़ावा दिया जाएगा, जहां अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता हो, जो विविधता में समृद्ध हो, लेकिन फिर भी 'वैश्विक नैतिकता' पर आधारित एक स्पष्ट एकीकृत प्रतिरूप हो।

अब तक जिस विषय पर चर्चा की गई है, वह मूल्य परक शिक्षा की आवश्यकता को पर्याप्त रूप से सामने लाता है, जो इस शताब्दी और पूर्ववर्ती समय के दौरान ज्ञान, शक्ति और भौतिक प्रगति की खोज की प्रक्रिया में खो गए हैं, को मूल्यों के पुनरुत्थान की ओर ले जाएगा। वास्तव में, मूल्य परक शिक्षा व्यक्ति विकास के सभी पहलुओं को प्रभावित करती है। इस प्रकार, मूल्य परक शिक्षा, परिणामस्वरूप, शिक्षा का एक ऐसा अभिन्न अंग है, जिसे शैक्षिक प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता है। इसलिए मूल्य परक शिक्षा को शैक्षिक प्रयास के केंद्र में रखना होगा।

स्कूलों को मूल्यों का एक ऐसा माहौल बनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए, जो विभिन्न गतिविधियों को संचालित करके विद्यार्थियों, शिक्षकों, अभिभावकों और शैक्षिक प्रशासकों के बीच मूल्यों के प्रचार के लिए अनुकूल हो। मूल्य परक शिक्षा के कार्यक्रमों में समग्र व्यक्तित्व के मूल्यों को उसके सभी आयामों में शामिल किया जाना चाहिए - शारीरिक, महत्वपूर्ण, बौद्धिक, सौंदर्य, नैतिक और आध्यात्मिक।

अब सवाल उठता है कि स्कूलों में इस तरह की मूल्य-शिक्षा का कार्यान्वयन वास्तव में कैसे किया जा सकता है और विभिन्न गतिविधियां क्या हैं? आज भारत सरकार अनेक ऐसे कार्यक्रमों को विद्यालयों में करवाने के लिए निर्देशित कर रही है,जैसे 'आज़ादी काअमृत महोत्सव, एक भारत,श्रेष्ठ भारत कार्यक्रम, फ़िट इंडिया मूवमेंट, स्वच्छता अभियान, सतर्कता जागरूकता अभियान' आदि के साथ-साथ विभिन्न महापुरुषों के जन्म-जयंती समारोह और राष्ट्रीय औरअंतर्राष्ट्रीय दिवस ,आदि को आयोजित करके विद्यार्थियों में मूल्य का समावेश कर सकते हैं। यथा- 

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

 चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।।

 


और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...