वर्तमान समय में
विद्यार्थियों के संदर्भ में एक शिक्षक की भूमिका
गुरु
पूर्णिमा की अनंत शुभकामनाएं !
वर्तमान युग है
आधुनिकता का, भौतिकता का, व्यस्तता का, अस्थिरता का,
जल्दबाज़ी का। आज का विद्यार्थी-जीवन भी
इन्हीं समस्याओं से ग्रसित है। आज का विद्यार्थी पहले की तरह सहज, शांत और धैर्यवान नहीं रह गया है क्योंकि आगे
बढ़ना और तेज़ी से बढ़ना उसकी नियति या मजबूरी बन गई है। वह इसलिए क्योंकि उसे लगता है
कि यदि वह ऐसा नहीं करेगा, तो ज़िंदगी की दौड़ में वह पीछे रह जाएगा। आज यही तो वक्त का तकाज़ा
है। ऐसे समय में विद्यार्थी को एक सही, उचित, कल्याणकारी एवं दूरदर्शी दिशानिर्देश देना एक
शिक्षक का पावन कर्तव्य है।
“राष्ट्र निर्माता है वह जो, सबसे बड़ा इंसान है, किसमें कितना ज्ञान है, बस इसको ही पहचान है”।
एक राष्ट्र को
बनाने में एक शिक्षक का जितना सहयोग है, योगदान
है, उतना शायद किसी और का हो ही नहीं सकता क्योंकि
वे एक राष्ट्र को उन्नति के चरम शिखर पर ले जाते हैं उसके राजनेता, डॉक्टर, इंजीनियर, उद्योगपति, लेखक, अभिनेता, खिलाड़ी
आदि और परोक्ष रूप से इन सबको बनाने वाला कौन है ? एक शिक्षक। आचार्य चाणक्य के अनुसार-
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा
धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको
गुरुरुच्यते ॥
अर्थात धर्म को
जाननेवाले, धर्म
के अनुसार आचरण करनेवाले, धर्मपरायण और सब शास्त्रों में से तत्त्व/सार को ग्रहण करने वाले गुरु कहे जाते
हैं।वर्तमान समय में भी यह सर्वथा सत्य है क्योंकि आज विद्यार्थियों के संदर्भ में
एक शिक्षक की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है क्योंकि आज विद्यार्थियों
को उचित प्रशिक्षण, सदुपयोगी शिक्षण और सटीक कल्याणकारी, दूरगामी मार्गदर्शन प्रदान करते हुए उन्हें भावी
देश के कर्णधार, ज़िम्मेदार देशभक्त नागरिकों में परिणित
करना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। एक शिक्षक न केवल बच्चों का बौद्धिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक
,शारीरिक विकास करता है, अपितु सामाजिक, चारित्रिक, एवं
सांवेगिक विकास करना भी आज उसका कर्तव्य है। आज उसे अपने आदर्शों के द्वारा, अपने चरित्र के द्वारा बच्चों के मानस पटल पर
अपनी ऐसी छाप छोड़नी पड़ेगी कि जिससे भविष्य में यह बच्चे जब —
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै
श्रीगुरुवे नमः॥
….का उच्चारण करें तो बंद आंखों के सामने हमारा
चेहरा यानी एक शिक्षक का चेहरा उन्हें दिखाई दे। यह एक चुनौती भरा कार्य है। परंतु
सच्चा शिक्षक वही है, जिसे उसके विद्यार्थी जीवन-भर अपना गुरु मानते रहें, न कि केवल विद्यालय प्रांगण के अंदर तक
। ऐसा करने के लिए सबसे पहले एक शिक्षक को स्वयं को अनुशासित करते हुए अपने चारित्रिक, नैतिक ,धार्मिक
आदि गुणों का विकास करना होगा। क्योंकि इन सब के बिना हमारी आंतरिक भावनाओं का उदय
नहीं हो सकता।
एक सुयोग्य शिक्षक
अधिक से अधिक बच्चों के साथ इंटरेक्शन (Interaction) यानी वार्तालाप करता है, ताकि उनके हृदय के द्वंद्व को समझकर उसका
निदान खोज सके। वह अपने अनुभव, अपनी
शिक्षा, अपने प्रेम, समर्पण, अपनी सृजनशक्ति, अपने त्याग,
अपने धैर्य आदि का पूर्ण प्रदर्शन करते
हुए बच्चों के भी अनुभव, उनके मूल विचार, उनकी भावनाओं आदि को जानने का प्रयास करता है
और यथासंभव उन्हें अभिप्रेरित करने का प्रयास करता रहता है।
आदर्श शिक्षक का
कार्य एक गुरुतर कार्य है। एक बात और कि जिस प्रकार शिक्षा एक अंतहीन प्रक्रिया है,उसी प्रकार शिक्षण भी अंतहीन प्रक्रिया है क्योंकि
हर इंसान जैसे पूरी ज़िंदगी सीखता रहता है, सिखाता
रहता है, उसी
प्रकार एक शिक्षक का कार्य भी शिक्षा देना है, जो वह निरंतर देता रहता है इसलिए उसे किसी
विशेष प्रांगण, किसी विषय, किसी विशेष समय अंतराल, किसी विशेष सहायक सामग्री की आवश्यकता नहीं
होती। शिक्षक का संपूर्ण जीवन, उसका संपूर्ण व्यक्तित्व ही अनुकरणीय होता है। एक शिक्षक बिना किसी
मांग के, बिना कहे अपना सर्वस्व ज्ञान अनुभव में
डुबोकर प्रदान करने के लिए सदैव समाज के सामने तत्पर रहता है। वास्तव में एक
शिक्षक की वर्तमान संदर्भ में भूमिका यह है कि वह ऐसी शिक्षा को निरंतर प्रदान
करते रहने का प्रयत्न करे, जो एक विद्यार्थी के लिए उचित हो, कल्याणकारी हो, दूरगामी
हो, प्रायोगिक हो, धनोपार्जन में सहायक हो, ।
अंत में मैं यही
कहना चाहती हूँ कि विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए एक सजग, उदात्त चरित्र, नैतिकता से परिपूर्ण, ऊर्ध्वमुखी, नवाचारी, अंवेषी शिक्षक की आवश्यकता है ताकि हमारी आने
वाली पीढ़ी को हम ऐसे भारतीय नागरिक बनाने में सफल हो सकें, जो विश्व में भारत का नाम रोशन कर
सकें और पुनः भारत को ‘जगतगुरु’ की उपाधि प्राप्त करवा सके। हम सब की भी यही
अभिलाषा है। एक शिक्षक के मनोभावों को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
कैसे
कह दूँ कि थक गया हूँ मैं,
न जाने
किस-किस का हौसला हूँ मैं ।
मीता गुप्ता
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