Thursday, 18 November 2021

वो सुनहरा बचपन !! 14.11.2021

 

वो सुनहरा बचपन !!



हां, फिर आना तुम मेरे प्रिय बचपन!

मुझे तुम्हारा इंतज़ार रहेगा ताउम्र!!

राह तक रहा हूं मैं!!!

हर किसी को अपना बचपन याद आता है। हम सबने अपने बचपन को जीया है। शायद ही कोई होगा, जिसे अपना बचपन याद न आता हो। बचपन की मधुर यादों में माता-पिता, भाई-बहन, यार-दोस्त, स्कूल के दिन, आम के पेड़ पर चढ़कर 'चोरी से' आम खाना, खेत से गन्ना उखाड़कर चूसना और ‍खेत के मालिक के आने पर 'नौ दो ग्यारह' हो जाना, हर किसी को याद है। जिसने 'चोरी से' आम नहीं खाए व गन्ना नहीं चूसा, उसने क्या खाक अपने बचपन को 'जीया' है! चोरी और ‍चिरौरी तथा पकड़े जाने पर साफ़ झूठ बोलना, बचपन की यादों में शुमार है। बचपन से पचपन तक यादों का अनोखा संसार है।

रोने की वजह भी ना थी, ना हंसने का बहाना था,

क्यों हो गए हम इतने बड़े, इससे अच्छा तो बचपन का ज़माना था |

 

सपने सुहाने लड़कपन के...

छुटपन में धूल-गारे में खेलना, मिट्टी मुंह पर लगाना, मिट्टी खाना किसे नहीं याद है? और किसे यह याद नहीं है कि इसके बाद मां की प्यारभरी डांट-फटकार व रुंआसे होने पर मां का प्यार भरा स्पर्श! इन शैतानीभरी बातों से लबरेज़ है सारा बचपन।

जो नटखट नहीं था, उसने बचपन क्या जिया?

जिस किसी ने भी अपने बचपन में शरारत नहीं की, उसने भी अपने बचपन को क्या खाक जिया होगा, क्योंकि 'बचपन का दूसरा नाम' नटखटपन ही होता है। शोर व ऊधम मचाते, चिल्लाते बच्चे सबको लुभाते हैं तथा हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद हो आती हैं।फिल्म 'दूर की आवाज़' में जानी वॉकर पर फिल्माए गए गीत की पंक्तियां कुछ यूं ही बयान करती हैं-

हम भी अगर बच्चे होते,

नाम हमारा होता गबलू-बबलू,

खाने को मिलते लड्डू,

और दुनिया कहती हैप्पी बर्थडे टू यू

उपरोक्त गीत में नायक की भी यही चाहत है कि काश! हम भी अगर बच्चे होते, तो बचपन को बेफिक्री से जीते और मनपसंद चीजें खाने को मिलतीं।

हम में से अधिकतर का बचपन गिल्ली-डंडा,पोशमंपा,खो-खो, धप्पा,पकड़न-पकड़ाई, छुपन-छुपाई खेलते तथा पतंग उड़ाते बीता है। इन खेलों में जो मानसिक व शारीरिक आनंद आता था, वह कंप्यूटरजनित खेलों में कहां? ये देसी खेल अब तो आजकल के बच्चों के मनोरंजन से निहायत ही बाहर होते जा रहे हैं, क्योंकि वीडियो गेम, टीवी, कंप्यूटर व मोबाइल ने इन खेलों की जगह ले ली है। आजकल के बच्चों को फटाफट खेल (टू मिनट्स मैगी जैसा) पसंद हैं। मैदान में खेलने से शारीरिक व मानसिक विकास होता है, जो अब नदारद-सा होता जा रहा है।

वह तोतली व भोली भाषा

वह रेलगाड़ी को 'लेलगाली' व गाड़ी को 'दाड़ी' या 'दाली' कहना......हमारी तोतली व भोली भाषा ने सबको लुभाया है। वह नानी-दादी का हमारे साथ-साथ हमारी तोतली बोली को हंसकर दोहराना....शायद बड़ों को इसमें मज़ा आता था और हमारी तोतली बोली सुनकर उनका मन भी चहक उठता था ।

होठो पर मुस्कान थी कंधों पर बस्ता था,

सुकून के मामले में वो जमाना सस्ता था |

वो पापा का साइकिल पर घुमाना...

हम में अधिकतर अपने बचपन में पापा द्वारा साइकिल पर घुमाया जाना कभी नहीं भूल सकते। जैसे ही पापा ऑफ़िस जाने के लिए निकलते थे, तब हम भी पापा के साथ जाने को मचल उठते थे, चड्ढू खाने के लिए लालायित रहते थे, तब पापा भी लाड़ में आकर हमें साइकिल पर घुमा ही देते थे। आज बाइक व कार के ज़माने में वो 'साइकिल वाली' यादों का झरोखा अब कहां?

पढ़ाई थी या मिटाना-सुधारना...

बचपन में हम पट्टी पर लिख-लिखकर याद करते व मिटाते थे। एक बार गलती होने पर मिटा व सुधारकर फिर से लिखते व पढ़ते थे। न जाने कितनी बार मिटा-मिटा कर सुधारा होगा । पर स्लेट की सहजता व सरलता से पढ़ना-लिखना सीखना, क्या आनंद था ।आजकल केजी-वन से ही बच्चों को कॉपी पर लिखना-पढ़ना व बोलना सिखाया जाता है। इससे बच्चों पर पढ़ाई का भी काफी तनाव देखा जाता है आजकल।

गिरते-संभलते साइकलिंग सीखना

थोड़ा बड़े होने पर साइकिल सीखने का प्रयास करना, वह भी अपने ही हमउम्र दोस्तों के साथ । यदि गिर गए, तो चोट के बजाए यह देखना कि कोई देख तो नहीं रहा। साइकिल के कैरियर को 2-3 दोस्तों द्वारा पकड़ना और सीट पर बैठकर हैंडिल को अच्छे से पकड़े रहने के साथ साइकल सीखने का प्रयास करना और कहते जाना कि कैरियर को छोड़ना नहीं, नहीं तो मैं गिर जाऊंगा/जाऊंगी।

लेकिन कैरियर पकड़े रखने वाले साथीगण साइकल की गति थोड़ी ज्यादा होने पर उसे छोड़ देते थे। इस प्रकार किशोरावस्था में थोड़ा गिरते-पड़ते व धूल झाड़कर उठ खड़े होते, साइकिल चलाना सीख ही जाते थे।

वो दादा-दादी का किस्से-कहानी सुनाना

पहले बचपन में दादा-दादी व नाना-नानी ‍काफ़ी किस्से-कहानियां सुनाया करते थे। राम, कृष्ण, गौतम, बुद्ध, गांधी, शिवाजी, महाराणा प्रताप तथा भारतीय वीरों व वीरांगनाओं की कहानियां सुनते-सुनते बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण हो जाया करता था। यह आजकल दुर्लभ होता जा रहा है, क्योंकि वर्तमान बुज़ुर्गों को टीवी व अन्य बातों के कारण समय ही नहीं है।

माता-पिता की डांट-फटकार याद है क्या ?

जब हम ज़रूरत से ज़्यादा शैतानी-नादानी किया करते थे, तो वे माता-पिता डांट-फटकार भी खाया करते थे। आज माता-पिता का प्रयास रहता है कि बच्चा शैतानी नहीं करे तथा पढ़ने-लिखने में ही अपना सारा समय व ध्यान लगाए। ऐसा सोचना अनुचित है। माता-पिता के व बाल-मनोविज्ञान में जमीं-आसमान का अंतर होता है। बच्चों को अपनी ही सोसायटी में खेलने-कूदने देना चाहिए, जिससे कि वे सामाजिकता सीख सकें। यह स्मरण रहे, बच्चे अपनी हमउम्र बच्चों के साथ जो खेल‍-किलोल कर सकते हैं, वे अपने से बड़ों या छोटों के साथ नहीं कर सकते हैं। उनको उनकी सोसायटी में ही खेलने-कूदने देना चाहिए जिससे कि उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो सके।

कहां खो गया है वह बचपन...??

आज लगता है कि बच्चों का 'बचपन' (भोलापन, मासूमियत, निश्छलता), 'पचपन' (जल्दी बड़े होने या हो जाने) के चक्कर में कहीं खो-सा गया है। इसका कारण तेज़ी से बदलता समय व माता-पिता की अपेक्षाएं हैं।

माता-पिता चाहते हैं कि बच्चा जल्दी-जल्दी सब कुछ सीख ले। माता-पिता की अपेक्षाओं-तले बच्चों का बचपन खत्म-सा होता जा रहा है। हर माता-पिता को अपने बच्चे को उसका बचपन स्वाभाविक रूप से जीने देना चाहिए। आजकल के बच्चों का बचपन लगता है कहीं खो-सा गया है।

बचपन है, कभी हंसी, कभी आंसू

जब कभी भी हमें अपने बचपन की याद आती है तो कुछ बातों को याद करके हम हर्षित होते हैं, तो कुछ बातों को लेकर अश्रुधारा बहने लगती है। हम यादों के समंदर में डूबकर भावनाओं के अतिरेक में खो जाते हैं। भाव-विभोर व भावुक होने पर कई बार हमारा मन भीग-सा जाता है।

एक प्रेरणा है बचपन

हर व्यक्ति का बचपन एक प्रेरणा भी है। बचपन में की गई गलतियां, नादानियां व शैतानियां बड़े होने पर जब याद आती हैं, तो व्यक्ति सोचता है कि हां, हमने बचपन में ये-ये गलतियां की थीं व अब इसे नहीं दोहराएंगे? लेकिन अब कब? बचपन तो अब बीत जो चुका है! सुधार व परिमार्जन करने की उम्र की दहलीज़ पर हम खड़े हैं। अब वो जो बचपन बीत चुका है, वह अगले जन्म के पहले नहीं आने वाला! हां, उसकी सुखद-मधुर यादें हमारे दिल-ओ-ज़हन में मृत्युपर्यंत तक बनी रहेंगी। नहीं जाने वाली हैं वे मधुर यादें.... कुंवर बेचैन जी के शब्दों में...

मैं महकती हुई मिट्टी हूँ किसी आंगन की,

मुझको दीवार बनाने पे तुली है दुनिया।

हमने लोहे को गलाकर जो खिलौने ढाले,

उनको हथियार बनाने पे तुली है दुनिया।

नन्हें बच्चों से ‘कुंअर’ छीन के भोला बचपन,

उनको होशियार बनाने पे तुली है दुनिया।

मीता गुप्ता

 

 

 

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