Saturday, 29 January 2022

वसंत का आगमन...

 

वसंत का आगमन...



 

नई खुशी में, नए रंग में

मन को फिर हर्षाने दो।

न रोको मन के तारों को,

बावरे मन को गाने दो,

आज फिर चटकी हैं कलियाँ

आज वसंत को आने दो।।

वसंत तो सारे विश्व में आता है पर भारत का वसंत कुछ विशेष है। भारत में वसंत केवल फागुन में आता है और फागुन केवल भारत में ही आता है। गोकुल और बरसाने में फागुन का फाग, अयोध्या में गुलाल और अबीर के उमड़ते बादल, खेतों में दूर-दूर तक लहलहाते सरसों के पीले-पीले फूल, केसरिया पुष्पों से लदे टेसू की झाड़ियां, होली की उमंग भरी मस्ती, जवां दिलों को होले-होले गुदगुदाती फागुन की मस्त बयार, भारत और केवल भारत में ही बहती है।

विद्या की देवी सरस्वती के पूजन का दिवस 'वसंत पंचमी' देश भर में धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन से धार्मिक, प्राकृतिक और सामाजिक जीवन में बदलाव आने लगता है। वसंत पंचमी की तिथि से वसंत ऋतु की शुरुआत मानी जाती है। यह तिथि खासतौर पर विवाह मुहूर्तों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। यही वजह है कि इस शुभ दिन का इंतज़ार विवाह करने वाले लोगों को साल भर से रहता है। इस पर्व पर न सिर्फ मांगलिक कार्य करना, बल्कि खरीदी−बिक्री, भूमि पूजन, गृह प्रवेश सहित अन्य कार्य करना भी बेहद शुभ माना जाता है। यह सिर्फ आनंद का ही नहीं बल्कि नए संकल्प लेने और उसके लिए साधना आरंभ करने का पर्व भी है।

वसंत पंचमी ज्ञान, कला और संगीत की देवी मां सरस्वती का आविर्भाव दिवस है। सृष्टि के प्रारंभिक काल में ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की पर वे अपनी सृजना से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि चारों ओर मौन छाया था।विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमण्डल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जलकण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ। यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर देवी का था जिसके एक हाथ में वीणा थी तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी, तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। सरस्वती को बागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

अर्थात् ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं।

देवी भागवत में उल्लेख मिलता है कि माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को ही संगीत, काव्य, कला, शिल्प, रस, छंद, शब्द शक्ति जिव्हा को प्राप्त हुई थी। वसंत पंचमी पर पीले वस्त्र पहनने, हल्दी से सरस्वती की पूजा और हल्दी का ही तिलक लगाने का भी विधान है। पीला रंग इस बात का द्योतक है कि फसलें पकने वाली हैं इसके अलावा पीला रंग समृद्धि का सूचक भी कहा गया है। इस पर्व के साथ शुरू होने वाली वसंत ऋतु के दौरान फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों सोने की तरह चमकने लगती है, जौ और गेहूं की बालियां खिल उठती हैं और इधर-उधर रंग-बिरंगी तितलियां उड़ती दिखने लगती हैं। इस पर्व को ऋषि पंचमी के नाम से भी जाना जाता है।

इस दिन से फाग खेलना शुरू हो जाता है और चारों ओर आनंद तथा भक्ति का वातावरण नजर आता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इसी दिन मनुष्यों को वाणी की शक्ति मिली थी जिसके बारे में कहा जाता है कि परमपिता ब्रह्मा ने सृष्टि का कामकाज सुचारू रूप से चलाने के लिए कमंडल से जल लेकर चारों दिशाओं में छिड़का। इस जल से हाथ में वीणा धारण किए जो शक्ति प्रगट हुई, वह सरस्वती कहलाईं। उनके वीणा का तार छेड़ते ही तीनों लोकों में कंपन हो गया और सबको शब्द और वाणी मिल गई।

इस दिन उत्तर भारत के कई भागों में पीले रंग के पकवान बनाए जाते हैं और लोग पीले रंग के वस्त्र पहनते हैं। पंजाब में ग्रामीणों को सरसों के पीले खेतों में झूमते तथा पीले रंग की पतंगों को उड़ाते देखा जा सकता है। पश्चिम बंगाल में ढाक की थापों के बीच सरस्वती माता की पूजा की जाती है, तो छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में प्रसिद्ध सिख धार्मिक स्थल गुरु−का−लाहौर में भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन ही सिख गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था।

वसंत पंचमी के दिन कोई भी नया काम प्रारंभ करना भी शुभ माना जाता है। जिन व्यक्तियों को गृह प्रवेश के लिए कोई मुहूर्त ना मिल रहा हो, वे इस दिन गृह प्रवेश कर सकते हैं या फिर कोई व्यक्ति अपने नए व्यवसाय को आरंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त को तलाश रहे हों, तो वे वसंत पंचमी के दिन अपना नया व्यवसाय आरंभ कर सकता है। इसी प्रकार अन्य कोई भी कार्य जिनके लिए किसी को कोई उपयुक्त मुहूर्त ना मिल रहा हो, वह वसंत पंचमी के दिन वह कार्य कर सकता है।

वसंत पंचमी के दिन ही होलिका दहन स्थान का पूजन किया जाता है और होली में जलाने के लिए लकड़ी और गोबर के कंडे आदि एकत्र करना शुरूकरते हैं। इस दिन से होली तक 40 दिन फाग गायन यानी होली के गीत गाए जाते हैं। होली के इन गीतों में मादकता, एन्द्रिकता, मस्ती, और उल्लास की पराकाष्ठा होती है ।  

भारत की छः ऋतुओं में वसंत ऋतु विशेष है। इसे ऋतुराज या मधुमास भी कहते हैं। “वसंत पंचमी” प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य, श्रृंगार और संगीत की मनमोहक ऋतु यानी ऋतुराज के आगमन की संदेश वाहक है। वसंत पंचमी के दिन से शरद ऋतु की विदाई के साथ पेड़-पौधों और प्राणियों में नवजीवन का संचार होने लगता है। प्रकृति नवयौवना की भांति श्रृंगार करके इठलाने लगती है। पेड़ों पर नई कोपलें, रंग-बिरंगे फूलों से भरी बागों की क्यारियों से निकलती भीनी सुगंध, पक्षियों के कलरव और पुष्पों पर  भंवरों की गुंजार से वातावरण में मादकता छाने लगती है। कोयलें कूक-कूक के बावरी होने लगती हैं।

वसंत ऋतु में श्रृंगार रस की प्रधानता है और रति इसका स्थायी भाव है, इसीलिए वसंत के गीतों में छलकती है मादकता, यौवन की मस्ती और प्रेम का माधुर्य। भगवान् श्री कृष्ण वसंत पंचमी उत्सव के अधि-देवता हैं अतः ब्रज में यह उत्सव विशेष उल्लास और बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। सभी मंदिरों में उत्सव और भगवान् के विशेष श्रृंगार होते हैं। वृन्दावन के श्री बांकेबिहारी और शाह जी के मंदिरों के वसंती कक्ष खुलते हैं। वसंती भोग लगाए जाते है और वसंत राग गाए जाते हैं महिलाएं और बच्चे वसंती-पीले वस्त्र पहनते हैं। वैसे भारतीय इतिहास में वसंती चोला त्याग और शौर्य का भी प्रतीक माना जाता है जो राजपूती जौहर के अकल्पनीय बलिदानों की स्मृतियों को मानस पटल पर उकेर देता है।

महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने वर्ष 1996 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का शुभारम्भ भी वसंत पंचमी के दिन ही किया था। हिंदी साहित्य की अमर विभूति और कालजयी सरस्वती वंदना “वर दे, वीणावादिनि वर दे!; प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव, भारत में भर दे!” के रचियता महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस (28.02.1899) भी वसंत पंचमी ही था।

वसंत पंचमी का दिन हमें वर्ष 1192 में पृथ्वीराज चौहान के बलिदान की भी याद दिलाता है। उन्होंने मोहम्मद गौरी को तराइन के युद्ध में पराजित किया और उदारता दिखाते हुए जीवित छोड़ दिया, पर जब दूसरी बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट करने का संकेत किया, तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संकेत दिया।

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण।

ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान ॥

पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भोंककर आत्मबलिदान दे दिया।

भारत उत्सवों का देश है और यहाँ हर उत्सव अलग प्रकार का है। वसंत पंचमी उत्सव है वसंत ऋतु का, जिसके आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। शिक्षाविद इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं, तो कलाकार, चाहें वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, वे सब इस  दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं। साहित्यकारों के लिए वसंत प्रकृति के सौंदर्य और प्रणय के भावों की अभिव्यक्ति का अवसर है तो वीरों के लिए शौर्य के उत्कर्ष की प्रेरणा है। 

कश्मीर पर मां शारदा की ऐसी महती कृपा हुई कि शिवपुराण, कल्हण की राजतरंगणी, चरक-संहिता, पतंजलि का अष्टांग-योग और अभिनव गुप्त का नाट्यशास्त्र जैसे महान ग्रंथों की रचना कश्मीर में हुई। अतः हमें सरस्वती का प्राकट्य दिवस वसंत पंचमी को जीवन के महान संकल्पों के दिवस के रूप में मनाना चाहिए।

 

वसंत को आने दो

 

 

वसंत को आने दो





वसंत को आने दो,

न रोको मन के तारों को,

बावरे मन को गाने दो,

आज फिर चटकी हैं कलियाँ

आज वसंत को आने दो।।

सुवासित कली यह सुंदर

शोभायुक्त खिल आई है

ऋतु लिए एक नव आगमन का

होकर प्रफुलित, हर्षोल्लास

अब नवपरिवर्तन लाने दो,

वसंत को आने दो।

नवनिर्मित बीजों से

पुष्प-गुच्छों से लदे,

कली कोई सुंदर, शोभायुक्त,

करके उल्लास फिर खिल जाने दो,

वसंत को आने दो।

वन के इस उद्यान में

भू, नीर, तना,

कुछ उसके संग साथी हैं,

कुछ निर्मोही, हठीले

तीव्र प्रवाह पवन के झोंके

संघर्ष उसे जीवन का सिखलाने दो,

वसंत को आने दो।

कोकिल कूके, भौंरे गुंजित,

सरसी सरसों फूले,

बोया अंकुर किसी ने

या स्वयं होकर अंकुरित

इस वसुंधरा पर उग आई है वल्लरी,

देखो सखा आज इसे झूल जाने दो,

वसंत को आने दो।

मन मौन रहा सकुचाई भाषा

अंधकार ओर घोर निराशा

अब तो इस बंधन को काटो

मन में उमंग समाने दो।।

नई खुशी में नए रंग में

मन को फिर हर्षाने दो।

न रोको मन के तारों को,

बावरे मन को गाने दो,

आज फिर चटकी हैं कलियाँ

आज वसंत को आने दो।।

लोकतंत्र- गांधी की दृष्टि में 30.01.2022

 

लोकतंत्र- गांधी की दृष्टि में

 


लोकतंत्र में आम आदमी का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, इसलिए एक स्वस्थ लोकतंत्र वही है, जिसमें हर लिंग, जाति और संप्रदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व हो।-महात्मा गांधी

देश-दुनिया के लोग आज महात्मा गांधी के निर्वाण-दिवस को ‘शहीद दिवस’ के रूप में मना कर उनके विचारों का अपने-अपने तरीके से प्रचार-प्रसार करने में जुटे हैं। जीवन से जुड़े तमाम विषयों पर महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को दुनिया अपने-अपने ढंग से जांच-परख रही है। इसी कड़ी में हम गांधी के लोकतंत्र की अवधारणा एवं व्यक्तिगत आज़ादी के मायने को समझने का प्रयास इस लेख में करने जा रहे हैं। सर्वविदित है कि जब से जगत एवं जीव अस्तित्व में आए हैं, तब से मानव अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए निरंतर संघर्षरत रहा है और आज भी सही अर्थों में स्वतंत्र नहीं हो पाया है। स्वतंत्रता, मानव जीवन का मुख्य केंद्र बन चुका है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता है क्या? किन-किन चीज़ों से हम स्वतंत्र होना चाहते हैं?

कहा जाता है कि मानव के उद्भव काल से ही उसमें क्रोध, मोह, माया एवं अपने-पराए आदि का भाव है। यही कारण है कि उसने खुद को शक्तिशाली बनाने के लिए तरह-तरह के जतन किए। सबसे पहले शारीरिक बल के आधार पर अपने से अक्षम को डराने एवं दबाने का दौर शुरू हुआ। यहीं से ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की कहावत चरितार्थ होनी शुरू हुई। शोषण का दौर शुरू हुआ। इस शोषण से कबीले के सरदार का उदय हुआ। कबीले के सरदार के रूप में शक्ति प्राप्त करने का जो अंध-दौर शुरू हुआ, कालांतर में उसका विस्तार राजतंत्र के उदय के रूप में देखा जा सकता है।

भारत के संदर्भ में बात करें, तो भारत हमेशा से दुनिया को समभाव का ज्ञान देता रहा है। इसी कड़ी में शासन-तंत्र की बात की जाए, तो भारत में ही सबसे पहले लोकतंत्र का उदय हुआ। इतिहास के जानकार अच्छी तरह जानते हैं कि लिच्छवी में विश्व के पहले लोकतंत्र का जन्म हुआ। हालांकि पश्चिम के दार्शनिक इसे स्वीकारने में हिचकते हैं, उनके अनुसार लोकतंत्र का उदय इंग्लैंड में हुआ था। लेकिन वहां के लोकतंत्र में भी समग्रता का अभाव है।

आदर्शवादी लोकतंत्र की परिकल्पना

19 वीं सदी के उतरार्द्ध में भारत के गुजरात राज्य के पोरबंदर ग्राम में करमचंद गांधी के घर एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी रखा गया। नैतिक मापदंडों को आत्मसात करने वाले मोहन दास करमचंद गांधी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई पहचान दी, एक नई राह दी और सत्य एवं अहिंसा का एक नवीन आदर्श स्थापित किया। उन्होंने लोकतंत्र में आदर्श व्यवस्था स्थापित करने की वकालत की। गांधी के लोकतंत्र में संपूर्णता है। एक-दूसरे के प्रति सद्भाव, समर्पण एवं सदाचार है। वहीं अगर हम पश्चिम के विचारकों की बात करें, तो उनके लिए आज़ादी का मतलब व्यष्टिगत ज़्यादा है, समष्टिगत कम।

डेनियल डीफ़ो ने अपने उपन्यास के किरदार रॉबिन्सन क्रूसो के माध्यम से व्यक्ति की आज़ादी एवं कर्तव्य पालन की बात बताई है, तो वहीं अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए कहा कि, लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है। इस तरह के तमाम उदाहरण है जो लोकतंत्र को सीमित अर्थों में समेटते हैं। वहीं जब हम गांधी के लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता से संबद्ध विचारों को पढ़ते हैं, तो उनकी दूरदृष्टि नज़र आती है। महात्मा गांधी समान अधिकार, स्वतः जागरूकता, पूर्ण स्वतंत्रता, अहिंसा, कर्तव्य और ट्रस्टीशिप का वर्णन करते हैं। हालांकि कुछ पश्चिम और पूरब के दार्शनिकों ने उनके आदर्शवादी विचारों की आलोचना की है, लेकिन गांधी उन सभी आलोचनाओं से आगे बढ़कर अपनी विचार-यात्रा को एक नया मुकाम देते हैं। गांधी लोकतंत्र का सही अर्थ बताते हैं- स्वतः, स्वअधिकार, स्वतःशासन यानी खुद से अपने ऊपर शासन करना। गांधी स्वराज की बात करते हैं।

एक स्थान पर वे कहते है ‘लोकतंत्र की आत्मा कोई यांत्रिक यंत्र नहीं है, जिसे उन्मूलन के द्वारा समायोजित किया जा सके। इसके लिए हृदय के परिवर्तन की आवश्यकता है, भाईचारे की भावना को बढ़ाने की आवश्यकता है। लोकतंत्र, विभिन्न वर्गों की भलाई और उनके लिए सभी भौतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संसाधन प्रदान करने की कला और विज्ञान होना चाहिए।‘

लोकतंत्र में स्वराज की भूमिका–

महात्मा गांधी जी स्वतःशासन, स्वतःसहयोग से लोकतंत्र की स्थापना की बात करते हैं और स्वराज्य का सही अर्थ बताते हैं। लेकिन यह लागू कैसे होगा?  इसके लिए वे खुद से या जनता के द्वारा एक आदर्श व्यक्ति, शिक्षित व्यक्ति का चुनाव करने की बात बताते हैं, ऐसा व्यक्ति जो मोह-माया, तृष्णा, लालच से मुक्त हो,  जिसमें निःस्वार्थ भाव से जन-सेवा का लक्षण निहित हो और वह सबके लिए एक समान कार्य करे, सबकी भलाई के बारे में सोचे। जब वे स्वतः से, स्वराज्य से लोकतंत्र की स्थापना करने की बात करते हैं, तो उसमें सभी वर्गों के लोग आ जाते हैं।

गांधी जी उन सभी वर्गों को समान अधिकार देते हुए बतलाते हैं कि  सब लोगों को मत देने का अधिकार है। लेकिन उससे पहले उन लोगों में सही शिक्षा और सही नीति एवं कर्तव्य पालन की भावना होनी चाहिए। वे व्यक्तिगत अधिकार, व्यक्तिगत आज़ादी की बात भी करते हैं। गांधी यहीं नहीं रूकते और धनवान-धनाढ्य व्यक्तियों के लिए ‘ट्रस्टीशीप’ का मार्ग सुझाते हैं और ट्रस्टीशिप से कमज़ोर वर्ग के लोगों को मदद करने की बात भी करते हैं।

ट्रस्टीशीप का सहयोग-

गांधी ने ट्रस्टीशीप के माध्यम से लोकतंत्र में होने वाली असमानता को समान करने की बात रखी। वे यह बताते हैं कि ट्रस्टीशीप से हम लोकतंत्र की खाइयों को हमेशा भर सकते हैं और जब गरीब सुदृढ़ और शिक्षित होगा, तो समाज में शांति और समानता आएगी और तब जाकर हम हर वर्ग को समान रखते हुए आदर्श जीवन और आदर्श लोकतंत्र की कल्पना कर सकते हैं। अगर समाज में समानता नहीं होगी, तो फिर वहां पर हिंसा का उदय होना लाज़मी हो जाता है और जहां हिंसा के लिए जगह हो,  जहां हिंसा जन्म लेती हो, वहां कभी आदर्श जीवन, आदर्श लोकतंत्र का उदय हो ही नहीं सकता है। इसलिए उन्होंने हमेशा अहिंसा पर भी बल दिया है।

अहिंसा युक्त लोकतंत्र-

महात्मा गांधी कहते हैं कि सिर्फ स्वतःशासन, एवं जागरूक होने से, या समान अधिकार पा लेने या अपना कर्तव्य निभा लेने से ही हमें आदर्श जीवन, आदर्श लोकतंत्र की प्राप्ति नहीं हो सकती है, उसके लिए उन्होंने अहिंसा के मार्ग को अपना जीवन-दर्शन माना। वे कहते हैं कि जिस समाज में या जिसके विचार में हिंसा का उदय होता हो या हिंसा का स्थान दिखता हो, वहां कभी शांति, कभी स्वतंत्रता का वास नहीं हो सकता है। वहां कभी आदर्श स्थिति पनप नहीं सकती। अगर हमें आदर्श या संपूर्ण स्वतंत्रता चाहिए, तो समाज सभी तरह से, हिंसा मुक्त होना चाहिए, तब जाकर कहीं हम आदर्श लोकतंत्र को प्राप्त कर सकेंगे।

दरअसल, अहिंसा एक ऐसा शस्त्र है, जो मानव कल्याण का सबसे बड़ा साथी है और यहीं पर गांधी जी का लोकतंत्र, पश्चिमी सभ्यता के लोकतंत्र से भिन्न हो जाता है। पश्चिमी दार्शनिकों ने समान-अधिकार-समान व्यापार और समानता की बात तो की है, लेकिन उन सभी के अंश में हिंसा का अस्तित्व दिखाई देता है, जो लोकतंत्र को सुदृढ़ होने में बाधा उत्पन्न करता है। गांधी जी इन सभी बिंदुओं पर ज़ोर देते हुए, शहर से लेकर गाँव तक में, आदर्श का ढांचा इसी आधार पर निर्मित करने की बात करते हैं।

ग्राम पंचायती राज्य से लेकर शहर के भूमंडलीकरण तक की व्यवस्था में वे इसी दर्शन का समावेश देखना चाहते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि जब से हमें आजादी मिली है, तब से लेकर आज तक हम वैसे लोकतंत्र का निर्माण नहीं कर पाए। लेकिन आज हम महात्मा गांधी के सुझाए गए बहुत सारे विचारों और उनके दर्शन पर अमल करने लगे हैं। समान अधिकार, समान भाव, समान जीवन पर विचार करने लगे हैं। बहुत हद तक अहिंसा का मार्ग भी अपनाने लगे हैं। लेकिन अभी भी हम सब अपना-अपना कर्तव्य भूल रहे हैं। जिस दिन मानव-चेतना में अपना कर्तव्य का सही मूल, सही अर्थ समझ में आ जाएगा, उस दिन हमारे जगत में एक आदर्श लोकतंत्र दिखाई पड़ेगा।

निष्कर्ष

महात्मा गांधी एक समाज सुधारक, विचारक एवं दूरद्रष्टा मनीषी थे। उन्होंने अपने विचारों के माध्यम से भारतीय समाज बहुत-से परिवर्तन किए, सच्चे जीवन-दर्शन का मार्ग दिखलाया और मानवता को  नए  अलंकारिक रूप में समझाया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिस तरह से, उन्नीसवीं शताब्दी में देश-दुनिया हिंसा की आग में झुलस रहा था, उस स्थिति में भी वे अपनी बौद्धिक छिद्रान्वेषी दृष्टि से स्थिरता लाने में बहुत हद तक कामयाब हुए।

मानवीय स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर बात करें, तो यह कह सकते हैं कि अभी भी मानवीय जीवन तमाम तरह के नकारात्मकता का गुलाम बना हुआ है। जब तक हम इन नकारात्मक विचारों से, स्थितियों से आज़ाद नहीं हो जाते, सही अर्थों में आज़ादी नहीं मिल सकती है। सच्चाई तो यह है कि मानव-जगत के अभी भी बहुत से पहलू हैं, जिन पर विचार विमर्श करने की ज़रूरत है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि गांधी के विचार उपयोगी और जन-मानस के लिए लाभकारी नहीं हैं। उन्होंने जो भी विचार और दर्शन, सामाजिक-सुधार, आत्म-सुधार, व्यक्तिगत-आज़ादी, अधिकार, ज्ञान, मान-सम्मान के बारे में बताए हैं, वे आज भी तर्कसंगत, उपयोगी, मानव-कल्याण और जगत कल्याण के लिए सत्य जान पड़ते हैं। हम नतमस्तक होकर कविवर सोहनलाल द्विवेदी के शब्दों में गांधी जी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं-

हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा,

पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?

इस राजतंत्र के खँडहर में

उगता अभिनव भारत स्वतंत्र !

उगता अभिनव भारत स्वतंत्र !

 

मीता गुप्ता

 

 

Monday, 24 January 2022

मेरी दृष्टि में नारी शक्ति: आर्यन साहित्य के संदर्भ में

 

मेरी दृष्टि में नारी शक्ति: आर्यन साहित्य के संदर्भ में



वस्तुतः यह आर्यन चिंतन शैली ही है, जो आज तक हमारे देश की नारियों की पथप्रदर्शिका रही है। हम आज इकीसवीं सदी में जीते हुए जिस नारी को आगे बढ़ते हुए देखते हैं,पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर चलते हुए देखते हैं, उसकी पूर्व भूमिका भारत में आर्यों के समय में समाज के स्थापनाकाल में ही देखी जा सकती है। आज हमारी दृष्टि जिस प्रकार देश,  समाज और  विश्व विकास में उनकी बढ़ती सहभागिता पर गर्व करना चाहती है, उनके महत्व को स्वीकार कर उन्हें सशक्ति के मार्ग पर देखना चाहती है,  वस्तुतः यह युग के साथ चिंतन में आता हुआ किंचित परिवर्तन हो सकता है, पर यह उपर से थोपा हुआ वैश्विक चिंतन नहीं है। इसकी जड़ें हमारे अपने प्राचीन समाज में ही देखी जा सकती हैं और अपने प्राचीन आदिसाहित्य में इसकी झलक ढूँढी जा सकती है। भारतीय स्त्रियों के व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले तथाकथित सभ्य और विद्वत्जन नारी समाज को करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कैंब्रिज विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उनके नकारात्मक स्वरूप से उबार कर उनके लिए मान-सम्मान अर्जित करने की चेष्टा स्वामी विवेकानंद  ने की थी। उन्होंने संभवतः सर्वप्रथम उनकी स्थिति को आर्यन जीवन शैली से जोड़ने की कोशिश कर अपने देश में भी उनकी स्वाभाविक प्रतिष्ठा पुनर्प्रतिष्ठित करने की कोशिश की।

आर्यों का आना कब और किधर से हुआ, यह आज भी संशय के घेरे में है, पर दक्षिण में फैली या संभवतः संपूर्ण भारत में फैली द्रविड़ संस्कृति के पश्चात हमारे समाज को नई दिशा देती हुई यही सभ्यता रही, जो उत्तर भारत की हमारी पुरातन संस्कृति बन गई। वस्तुतः यह आर्य चिंतन शैली एक अध्यात्मिक चिंतनशैली थी, जिसने भारतीय समाज को एक विशेष जीवन- शैली दी। हर व्यक्ति स्वाभिमानी और स्वतंत्र था। उनके पास अपनी भूमि थी, वे एक ग्रामीण समाज का निर्माण करके उसमें अपनी सभी आवश्कताओं की पूर्ति करते थे। घुमंतू प्रकृति के होने के बावजूद भी वे जहाँ-जहाँ गए, इस आर्य शैली के जीवन की स्थापना की। इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करने की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि यह आर्य जीवन की पहली विशेषता थी। जिस द्वितीय महत्वपूर्ण विचार की उत्तर भारत में आधारशिला रखी गई, वह स्त्री स्वातंत्र्य थी। आर्यन साहित्य के अनुसार स्त्रियाँ तब भी पुरुषों की समकक्षता रखती थीं। किसी अन्य साहित्य में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।

हमारे प्राचीनतम साहित्य, वेदों में,  जो निश्चय ही भारत से इतर स्थानों में लिखे गए,  उनमें वे प्राचीनतम ऋचाएँ हैं, जो देवों की स्तुति में लिखी गईं। वे अग्नि के लिए ,सूर्य के लिए,वरुण ,इंद्र एवम् अन्य देवताओं के लिए होती थीं, जिनमें रचना करने वालों के नामों का भी उल्लेख होता था। ऋग्वेद के दशम मंडल के दशम अध्याय के125वें सूक्त की आठ ऋचाओं में अम्भृण ऋषिकी कन्या वाक, जिन्हें अपने देवीत्व की प्रत्यभिज्ञा हो गयी थी,  ने स्वयं अपनी विराट शक्ति की अभ्यर्थना की।

ऊँ अहं रुद्रेभिर्वसु भिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।

अहं मित्रावरुणोभाविभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा।।

यह वस्तुतः ब्रह्मांडीय स्त्री शक्ति की सर्वोत्तम स्वीकारोक्ति है। यह उसके निज की शक्ति का अभिमान है। वह परम विदुषी  है। उत्तम पुरुष में अभिव्यक्त ये ऋचाएँ वेदकालीन स्त्रियों की स्वतंत्रता और सामाजिक सम्मान को प्रतिध्वनित करती हैं। विश्व के किसी भी तत्कालीन साहित्य में स्त्री-सम्मान की ऐसी दूसरी अभिव्यक्ति नहीं मिलती। यह नारी-शक्ति का प्रत्क्षीकरण माना जा सकता है।    

धीरे धीरे वेदों का अध्ययन करने पर समाज में नारी की बढ़ती हुई भूमिका का ज्ञान होता है, जो पुजारी तक बनती है , यज्ञ संपन्न कराती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, पर कुछ ही आगे बढ़कर वैदिक युग के अंतिम पौराणिक साहित्य में बढते हुए ज्ञान-बोध की ओर इंगित करता है। यह प्रसंग राजा जनक के दरबार की विद्वत्सभा में मुनि याज्ञवल्क्य से विदुषी गार्गी ने आत्मा क्या है और ईश्वर क्या है, जैसे प्रश्नों को पूछकर पूर्ण सभा में उपस्थित धर्म-प्रेमी जनसमुदाय को चकित कर दिया था। संभवतः इन्हीं प्रश्नों से आत्मा और ईश्वर की खोज आरंभ हुई। अगर यह सत्य है, तो ये प्रश्न एक स्त्री द्वारा सर्वप्रथम उठाए गए,  यह बात महत्वपूर्ण है और उन लोगों को मूक कर देने के लिए पर्याप्त है, जो तत्कालीन भारतीय स्त्रियों को पराश्रित और अज्ञानी मान रहे थे। वस्तुतः स्वतंत्र चिंतन की छूट उन्हें आर्य सभ्यता के प्रारंभ से ही मिली। हर क्षेत्र में वे अपने को अतुलनीय सिद्ध करती थीं, यहाँ तक कि युद्ध कौशल भी वे प्राप्त कर सकती थीं। वे शक्तिहीना तो कदापि नहीं थीं। स्त्री-स्वातंत्र्य ही वर्तमान युग में उनके सशक्त होने की गर पहचान है, तो आर्य-सभ्यता का वह युग आरंभ से ही हर क्षेत्र में उन्हें स्वतंत्र मानता था।

वैदिक काल और उत्तर वेदकाल में समाज में स्त्रियों का वर्चस्व था , उनकी इच्छाओं का दमन नहीं किया जा सकता था, यह स्वयंवर परंपरा से  किंचित अवश्य स्पष्ट होता है। हालाकि स्वयंवर परंपरा के कारक तत्व के रूप में राजाओं के आत्माभिमान और राजनीति का घोर संबंध था,  तब भी स्त्रियों के अधिकार की रक्षा भी एक कारक विषय था। तभी आत्माभिमान की रक्षा के लिए अंबा ने दो जन्म की लड़ाई लड़ी थी।

उपरोक्त विषय जनित स्वतंत्रता स्त्री स्वातंत्र्य का एक निर्णायक तत्व है, जिसके आधार पर विश्व में उसकी विकसित अथवा अविकसित स्थिति को मापा जा रहा था। उसे पराधीन समझा जा रहा था। यह सच है कि स्वयंवर की परंपरा उस काल में भी पूरे समाज में अथवा जन साधारण में प्रचलित नहीं थी, पर उसके पीछे जो गहरी सोच थी, उसका परिवार, समाज और राष्ट्र की दृष्टि से काफी महत्व था। माता-पिता की भूमिका बढ़ती गई, उन्होंने जन्मकाल के ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति देखकर .योग्य वर ढूँढ़ना अपना कर्तव्य समझा।  ब्राह्मणों और ज्योतिषियों की भूमिका बढ़ गई। उनका तर्क अकाट्य था कि अगर उनकी इस भूमिका को प्राधान्य नहीं मिला, तो पुरुष स्त्री सौंदर्य ही आकर्षण का कारण बनेगा, और इस प्रकार का विवाह परिवार और कुल के लिए हानिकारक होगा। राजा शांतनु का मत्स्यगंधा प्रेम ही कौरव कुल के विनाश का कारण क्या नहीं बना, यह कौन कह सकता है! इस सोच का विश्व के किसी अन्य समाज में कोई स्थान संभवतः नहीं था। अतः इसे भारतीय समाज की सोच का पिछड़ापन नही, एक विशिष्टता ही मानी जानी जा सकती है, पर जिसे आज प्रगतिशीलता की दृष्टि से अत्याधुनिक परिवारों द्वारा नकारा जाने लगा है। स्वयंवर की प्रथा का उल्लेख रामायण में सीता स्वयंवर के रूप में है,  जो सशर्त है,  ठीक ऐसा ही महाभारत काल में द्रौपदी के साथ हुआ। राजपूत राजाओं के काल में संयुक्ता स्वयंवर और संयुक्ता का सभी राजाओं को इंकार कर पृथ्वीराज चौहान का वरण करना, अपने अधिकार के प्रति जागरुकता का  प्रमाण था। उस समय स्त्रियों को ब्राह्मणों के समान संपूज्य माना गया और उसे दबाना, घर में अलक्ष्मी के आह्वान के सदृश ही माना। उन्हें पहले वेद-पाठ की छूट नहीं थी, पर बाद में वे भी वैदिक साहित्य पढ़ने की अधिकारिणी मान ली गईं। वे पुनर्विवाह भी कर सकती थीं। विधवा विवाह की भी उन्हें अनुमति थी।

कुल मिलाकर नारी अस्मिता से संबद्ध सारे स्वरूप  वैदिक और उत्तर वैदिक काल में प्राप्त हुए हैं। उसका स्वातंत्र्य कभी नियमतः नष्ट नहीं हुआ। एक गृहिणी के रूप में वह सदैव गृह शासिका रही। उसका मातृ स्वरूप सदैव पूजनीय रहा। अगर उस पर कभी प्रहार हुआ, तो पुरुष की शारीरिक शक्ति के परिणाम स्वरूप अथवा नैतिक मापदंडों के विरुद्ध आचरण करने पर ही। इस प्रकार पुरुष भी दंडनीय होते थे।

स्त्री मूलतः माता है और आर्य संस्कृति का वहन करने वाली भारतीय स्त्रियों के संबंध में यह एक अनुभूत सत्य है। वह अपने भावरूप अस्तित्व में सदैव मातृस्वरूपा है। उसके अन्य सारे रूप इस मातृरूप के ही विविध प्रतिफलन हैं। इसी रूप में वह माता ,पुत्री ,बहन, पत्नी, सेविका और सब कुछ है। इसीलिए भारतीय समाज ने मातृरूप में उसको सर्वाधिक महत्व दिया है। इसी रूप में वह गृहस्वामिनी बनने का अधिकार रखती है। इस रूप में उसको दी गई ज़िम्मेदारियाँ ही उसकी शक्ति संपन्नता को प्रमाणित करती हैं।

युग बीत गए, पर आज भी यह सार्थक प्रतीत होता है। आज भारतीय स्त्रियाँ आज बहुत जागरुक हैं। सौंदर्य दृष्टि की विशालता तो उनके पास है ही, व्यवस्था,  तार्किकता और अध्यात्मिक सोच के प्रति जागरुकता, उन्हें विशिष्ट बनाती है।  वे तत्संबंधित हर प्रकार की बाधाओं को पार करने के लिए निरंतर संघर्षरत हो रही दिखती हैं। वे अपने जीवन में जिस निर्भीकता की आवश्यता है, उसे ला रही हैं। अधिकारों की लड़ाई, पुरुष समानता की लड़ाई आदि उसी सभ्यता की ओर बढ़ते हुए कदम हैं। दृष्टि में वैज्ञानिकता है। प्रकृति के अनखुले ,अनसुलझे रहस्यों को खोलने और सुलझाने में सारी इन्द्रियों से वे अपना योगदान कराना चाहती हैं। ज्ञान उनकी मुट्ठियों में आ रहा है और वे किसी भी क्षण विकास के उच्चतम शिखर तक पहुँचने में सक्षम मान ली जाएंगी।ह वस्तुतः आज का भी बौद्धिक सत्य भी है। श्री केदारनाथ  अग्रवाल जी के शब्दों में समापन करना चाहूंगी-

 

मैंने उसको

जब-जब देखा,

लोहा देखा,

लोहे जैसा--

तपते देखा,

गलते देखा,

ढलते देखा,

मैंने उसको

गोली जैसा

चलते देखा!

मीता गुप्ता

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...