Saturday, 29 January 2022

लोकतंत्र- गांधी की दृष्टि में 30.01.2022

 

लोकतंत्र- गांधी की दृष्टि में

 


लोकतंत्र में आम आदमी का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, इसलिए एक स्वस्थ लोकतंत्र वही है, जिसमें हर लिंग, जाति और संप्रदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व हो।-महात्मा गांधी

देश-दुनिया के लोग आज महात्मा गांधी के निर्वाण-दिवस को ‘शहीद दिवस’ के रूप में मना कर उनके विचारों का अपने-अपने तरीके से प्रचार-प्रसार करने में जुटे हैं। जीवन से जुड़े तमाम विषयों पर महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को दुनिया अपने-अपने ढंग से जांच-परख रही है। इसी कड़ी में हम गांधी के लोकतंत्र की अवधारणा एवं व्यक्तिगत आज़ादी के मायने को समझने का प्रयास इस लेख में करने जा रहे हैं। सर्वविदित है कि जब से जगत एवं जीव अस्तित्व में आए हैं, तब से मानव अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए निरंतर संघर्षरत रहा है और आज भी सही अर्थों में स्वतंत्र नहीं हो पाया है। स्वतंत्रता, मानव जीवन का मुख्य केंद्र बन चुका है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता है क्या? किन-किन चीज़ों से हम स्वतंत्र होना चाहते हैं?

कहा जाता है कि मानव के उद्भव काल से ही उसमें क्रोध, मोह, माया एवं अपने-पराए आदि का भाव है। यही कारण है कि उसने खुद को शक्तिशाली बनाने के लिए तरह-तरह के जतन किए। सबसे पहले शारीरिक बल के आधार पर अपने से अक्षम को डराने एवं दबाने का दौर शुरू हुआ। यहीं से ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की कहावत चरितार्थ होनी शुरू हुई। शोषण का दौर शुरू हुआ। इस शोषण से कबीले के सरदार का उदय हुआ। कबीले के सरदार के रूप में शक्ति प्राप्त करने का जो अंध-दौर शुरू हुआ, कालांतर में उसका विस्तार राजतंत्र के उदय के रूप में देखा जा सकता है।

भारत के संदर्भ में बात करें, तो भारत हमेशा से दुनिया को समभाव का ज्ञान देता रहा है। इसी कड़ी में शासन-तंत्र की बात की जाए, तो भारत में ही सबसे पहले लोकतंत्र का उदय हुआ। इतिहास के जानकार अच्छी तरह जानते हैं कि लिच्छवी में विश्व के पहले लोकतंत्र का जन्म हुआ। हालांकि पश्चिम के दार्शनिक इसे स्वीकारने में हिचकते हैं, उनके अनुसार लोकतंत्र का उदय इंग्लैंड में हुआ था। लेकिन वहां के लोकतंत्र में भी समग्रता का अभाव है।

आदर्शवादी लोकतंत्र की परिकल्पना

19 वीं सदी के उतरार्द्ध में भारत के गुजरात राज्य के पोरबंदर ग्राम में करमचंद गांधी के घर एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी रखा गया। नैतिक मापदंडों को आत्मसात करने वाले मोहन दास करमचंद गांधी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक नई पहचान दी, एक नई राह दी और सत्य एवं अहिंसा का एक नवीन आदर्श स्थापित किया। उन्होंने लोकतंत्र में आदर्श व्यवस्था स्थापित करने की वकालत की। गांधी के लोकतंत्र में संपूर्णता है। एक-दूसरे के प्रति सद्भाव, समर्पण एवं सदाचार है। वहीं अगर हम पश्चिम के विचारकों की बात करें, तो उनके लिए आज़ादी का मतलब व्यष्टिगत ज़्यादा है, समष्टिगत कम।

डेनियल डीफ़ो ने अपने उपन्यास के किरदार रॉबिन्सन क्रूसो के माध्यम से व्यक्ति की आज़ादी एवं कर्तव्य पालन की बात बताई है, तो वहीं अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा देते हुए कहा कि, लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है। इस तरह के तमाम उदाहरण है जो लोकतंत्र को सीमित अर्थों में समेटते हैं। वहीं जब हम गांधी के लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता से संबद्ध विचारों को पढ़ते हैं, तो उनकी दूरदृष्टि नज़र आती है। महात्मा गांधी समान अधिकार, स्वतः जागरूकता, पूर्ण स्वतंत्रता, अहिंसा, कर्तव्य और ट्रस्टीशिप का वर्णन करते हैं। हालांकि कुछ पश्चिम और पूरब के दार्शनिकों ने उनके आदर्शवादी विचारों की आलोचना की है, लेकिन गांधी उन सभी आलोचनाओं से आगे बढ़कर अपनी विचार-यात्रा को एक नया मुकाम देते हैं। गांधी लोकतंत्र का सही अर्थ बताते हैं- स्वतः, स्वअधिकार, स्वतःशासन यानी खुद से अपने ऊपर शासन करना। गांधी स्वराज की बात करते हैं।

एक स्थान पर वे कहते है ‘लोकतंत्र की आत्मा कोई यांत्रिक यंत्र नहीं है, जिसे उन्मूलन के द्वारा समायोजित किया जा सके। इसके लिए हृदय के परिवर्तन की आवश्यकता है, भाईचारे की भावना को बढ़ाने की आवश्यकता है। लोकतंत्र, विभिन्न वर्गों की भलाई और उनके लिए सभी भौतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक संसाधन प्रदान करने की कला और विज्ञान होना चाहिए।‘

लोकतंत्र में स्वराज की भूमिका–

महात्मा गांधी जी स्वतःशासन, स्वतःसहयोग से लोकतंत्र की स्थापना की बात करते हैं और स्वराज्य का सही अर्थ बताते हैं। लेकिन यह लागू कैसे होगा?  इसके लिए वे खुद से या जनता के द्वारा एक आदर्श व्यक्ति, शिक्षित व्यक्ति का चुनाव करने की बात बताते हैं, ऐसा व्यक्ति जो मोह-माया, तृष्णा, लालच से मुक्त हो,  जिसमें निःस्वार्थ भाव से जन-सेवा का लक्षण निहित हो और वह सबके लिए एक समान कार्य करे, सबकी भलाई के बारे में सोचे। जब वे स्वतः से, स्वराज्य से लोकतंत्र की स्थापना करने की बात करते हैं, तो उसमें सभी वर्गों के लोग आ जाते हैं।

गांधी जी उन सभी वर्गों को समान अधिकार देते हुए बतलाते हैं कि  सब लोगों को मत देने का अधिकार है। लेकिन उससे पहले उन लोगों में सही शिक्षा और सही नीति एवं कर्तव्य पालन की भावना होनी चाहिए। वे व्यक्तिगत अधिकार, व्यक्तिगत आज़ादी की बात भी करते हैं। गांधी यहीं नहीं रूकते और धनवान-धनाढ्य व्यक्तियों के लिए ‘ट्रस्टीशीप’ का मार्ग सुझाते हैं और ट्रस्टीशिप से कमज़ोर वर्ग के लोगों को मदद करने की बात भी करते हैं।

ट्रस्टीशीप का सहयोग-

गांधी ने ट्रस्टीशीप के माध्यम से लोकतंत्र में होने वाली असमानता को समान करने की बात रखी। वे यह बताते हैं कि ट्रस्टीशीप से हम लोकतंत्र की खाइयों को हमेशा भर सकते हैं और जब गरीब सुदृढ़ और शिक्षित होगा, तो समाज में शांति और समानता आएगी और तब जाकर हम हर वर्ग को समान रखते हुए आदर्श जीवन और आदर्श लोकतंत्र की कल्पना कर सकते हैं। अगर समाज में समानता नहीं होगी, तो फिर वहां पर हिंसा का उदय होना लाज़मी हो जाता है और जहां हिंसा के लिए जगह हो,  जहां हिंसा जन्म लेती हो, वहां कभी आदर्श जीवन, आदर्श लोकतंत्र का उदय हो ही नहीं सकता है। इसलिए उन्होंने हमेशा अहिंसा पर भी बल दिया है।

अहिंसा युक्त लोकतंत्र-

महात्मा गांधी कहते हैं कि सिर्फ स्वतःशासन, एवं जागरूक होने से, या समान अधिकार पा लेने या अपना कर्तव्य निभा लेने से ही हमें आदर्श जीवन, आदर्श लोकतंत्र की प्राप्ति नहीं हो सकती है, उसके लिए उन्होंने अहिंसा के मार्ग को अपना जीवन-दर्शन माना। वे कहते हैं कि जिस समाज में या जिसके विचार में हिंसा का उदय होता हो या हिंसा का स्थान दिखता हो, वहां कभी शांति, कभी स्वतंत्रता का वास नहीं हो सकता है। वहां कभी आदर्श स्थिति पनप नहीं सकती। अगर हमें आदर्श या संपूर्ण स्वतंत्रता चाहिए, तो समाज सभी तरह से, हिंसा मुक्त होना चाहिए, तब जाकर कहीं हम आदर्श लोकतंत्र को प्राप्त कर सकेंगे।

दरअसल, अहिंसा एक ऐसा शस्त्र है, जो मानव कल्याण का सबसे बड़ा साथी है और यहीं पर गांधी जी का लोकतंत्र, पश्चिमी सभ्यता के लोकतंत्र से भिन्न हो जाता है। पश्चिमी दार्शनिकों ने समान-अधिकार-समान व्यापार और समानता की बात तो की है, लेकिन उन सभी के अंश में हिंसा का अस्तित्व दिखाई देता है, जो लोकतंत्र को सुदृढ़ होने में बाधा उत्पन्न करता है। गांधी जी इन सभी बिंदुओं पर ज़ोर देते हुए, शहर से लेकर गाँव तक में, आदर्श का ढांचा इसी आधार पर निर्मित करने की बात करते हैं।

ग्राम पंचायती राज्य से लेकर शहर के भूमंडलीकरण तक की व्यवस्था में वे इसी दर्शन का समावेश देखना चाहते हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि जब से हमें आजादी मिली है, तब से लेकर आज तक हम वैसे लोकतंत्र का निर्माण नहीं कर पाए। लेकिन आज हम महात्मा गांधी के सुझाए गए बहुत सारे विचारों और उनके दर्शन पर अमल करने लगे हैं। समान अधिकार, समान भाव, समान जीवन पर विचार करने लगे हैं। बहुत हद तक अहिंसा का मार्ग भी अपनाने लगे हैं। लेकिन अभी भी हम सब अपना-अपना कर्तव्य भूल रहे हैं। जिस दिन मानव-चेतना में अपना कर्तव्य का सही मूल, सही अर्थ समझ में आ जाएगा, उस दिन हमारे जगत में एक आदर्श लोकतंत्र दिखाई पड़ेगा।

निष्कर्ष

महात्मा गांधी एक समाज सुधारक, विचारक एवं दूरद्रष्टा मनीषी थे। उन्होंने अपने विचारों के माध्यम से भारतीय समाज बहुत-से परिवर्तन किए, सच्चे जीवन-दर्शन का मार्ग दिखलाया और मानवता को  नए  अलंकारिक रूप में समझाया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिस तरह से, उन्नीसवीं शताब्दी में देश-दुनिया हिंसा की आग में झुलस रहा था, उस स्थिति में भी वे अपनी बौद्धिक छिद्रान्वेषी दृष्टि से स्थिरता लाने में बहुत हद तक कामयाब हुए।

मानवीय स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर बात करें, तो यह कह सकते हैं कि अभी भी मानवीय जीवन तमाम तरह के नकारात्मकता का गुलाम बना हुआ है। जब तक हम इन नकारात्मक विचारों से, स्थितियों से आज़ाद नहीं हो जाते, सही अर्थों में आज़ादी नहीं मिल सकती है। सच्चाई तो यह है कि मानव-जगत के अभी भी बहुत से पहलू हैं, जिन पर विचार विमर्श करने की ज़रूरत है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि गांधी के विचार उपयोगी और जन-मानस के लिए लाभकारी नहीं हैं। उन्होंने जो भी विचार और दर्शन, सामाजिक-सुधार, आत्म-सुधार, व्यक्तिगत-आज़ादी, अधिकार, ज्ञान, मान-सम्मान के बारे में बताए हैं, वे आज भी तर्कसंगत, उपयोगी, मानव-कल्याण और जगत कल्याण के लिए सत्य जान पड़ते हैं। हम नतमस्तक होकर कविवर सोहनलाल द्विवेदी के शब्दों में गांधी जी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं-

हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा,

पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?

इस राजतंत्र के खँडहर में

उगता अभिनव भारत स्वतंत्र !

उगता अभिनव भारत स्वतंत्र !

 

मीता गुप्ता

 

 

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