मेरी दृष्टि में नारी शक्ति:
आर्यन साहित्य के संदर्भ में
वस्तुतः यह आर्यन चिंतन शैली ही है, जो आज तक हमारे देश की नारियों की पथप्रदर्शिका
रही है। हम आज इकीसवीं सदी में जीते हुए जिस नारी को आगे बढ़ते हुए देखते हैं,पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर चलते हुए देखते
हैं, उसकी पूर्व भूमिका भारत में आर्यों के
समय में समाज के स्थापनाकाल में ही देखी जा सकती है। आज हमारी दृष्टि जिस प्रकार
देश, समाज और विश्व विकास में उनकी बढ़ती
सहभागिता पर गर्व करना चाहती है, उनके महत्व को स्वीकार कर उन्हें सशक्ति के मार्ग पर देखना चाहती है, वस्तुतः यह युग के साथ चिंतन में आता हुआ किंचित परिवर्तन हो सकता है, पर यह उपर से थोपा हुआ वैश्विक चिंतन
नहीं है। इसकी जड़ें हमारे अपने प्राचीन समाज में ही देखी जा सकती हैं और अपने
प्राचीन आदिसाहित्य में इसकी झलक ढूँढी जा सकती है। भारतीय स्त्रियों के
व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले तथाकथित सभ्य और विद्वत्जन नारी समाज को
करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व कैंब्रिज विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उनके नकारात्मक
स्वरूप से उबार कर उनके लिए मान-सम्मान अर्जित करने की चेष्टा स्वामी विवेकानंद ने की थी। उन्होंने संभवतः सर्वप्रथम उनकी
स्थिति को आर्यन जीवन शैली से जोड़ने की कोशिश कर अपने देश में भी उनकी स्वाभाविक
प्रतिष्ठा पुनर्प्रतिष्ठित करने की कोशिश की।
आर्यों का आना कब और किधर से हुआ, यह आज भी संशय के घेरे में है, पर दक्षिण में फैली या संभवतः संपूर्ण
भारत में फैली द्रविड़ संस्कृति के पश्चात हमारे समाज को नई दिशा देती हुई यही सभ्यता
रही, जो
उत्तर भारत की हमारी पुरातन संस्कृति बन गई। वस्तुतः यह आर्य चिंतन शैली एक
अध्यात्मिक चिंतनशैली थी, जिसने भारतीय समाज को एक विशेष जीवन- शैली दी। हर व्यक्ति
स्वाभिमानी और स्वतंत्र था। उनके पास अपनी भूमि थी, वे एक ग्रामीण समाज का निर्माण करके उसमें
अपनी सभी आवश्कताओं की पूर्ति करते थे। घुमंतू प्रकृति के होने के बावजूद भी वे
जहाँ-जहाँ गए, इस
आर्य शैली के जीवन की स्थापना की। इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करने की आवश्यकता
इसलिए भी है,
क्योंकि यह आर्य जीवन की पहली विशेषता थी। जिस द्वितीय महत्वपूर्ण विचार की उत्तर भारत
में आधारशिला रखी गई, वह स्त्री स्वातंत्र्य थी। आर्यन साहित्य के अनुसार स्त्रियाँ तब भी
पुरुषों की समकक्षता रखती थीं। किसी अन्य साहित्य में ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।
हमारे प्राचीनतम साहित्य, वेदों में, जो निश्चय ही भारत से इतर स्थानों में लिखे गए, उनमें वे प्राचीनतम ऋचाएँ हैं, जो देवों की स्तुति में लिखी गईं। वे अग्नि के
लिए ,सूर्य के लिए,वरुण ,इंद्र
एवम् अन्य देवताओं के लिए होती थीं, जिनमें रचना करने वालों के नामों का भी उल्लेख
होता था। ऋग्वेद के दशम मंडल के दशम अध्याय के125वें सूक्त की आठ ऋचाओं में अम्भृण
ऋषिकी कन्या वाक, जिन्हें अपने देवीत्व की प्रत्यभिज्ञा
हो गयी थी, ने स्वयं अपनी विराट शक्ति की अभ्यर्थना की।
ऊँ अहं रुद्रेभिर्वसु
भिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं
मित्रावरुणोभाविभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा।।
यह वस्तुतः ब्रह्मांडीय स्त्री शक्ति की
सर्वोत्तम स्वीकारोक्ति है। यह उसके निज की शक्ति का अभिमान है। वह परम
विदुषी है। उत्तम पुरुष में अभिव्यक्त ये ऋचाएँ
वेदकालीन स्त्रियों की स्वतंत्रता और सामाजिक सम्मान को प्रतिध्वनित करती हैं।
विश्व के किसी भी तत्कालीन साहित्य में स्त्री-सम्मान की ऐसी दूसरी अभिव्यक्ति
नहीं मिलती। यह नारी-शक्ति का प्रत्क्षीकरण माना जा सकता है।
धीरे धीरे वेदों का अध्ययन करने पर समाज में
नारी की बढ़ती हुई भूमिका का ज्ञान होता है, जो
पुजारी तक बनती है , यज्ञ संपन्न कराती है। ऐसे अनेक उदाहरण
हैं, पर
कुछ ही आगे बढ़कर वैदिक युग के अंतिम पौराणिक साहित्य में बढते हुए ज्ञान-बोध की
ओर इंगित करता है। यह प्रसंग राजा जनक के दरबार की विद्वत्सभा में मुनि
याज्ञवल्क्य से विदुषी गार्गी ने आत्मा क्या है और ईश्वर क्या है, जैसे प्रश्नों को पूछकर पूर्ण सभा में
उपस्थित धर्म-प्रेमी जनसमुदाय को चकित कर दिया था। संभवतः इन्हीं प्रश्नों से
आत्मा और ईश्वर की खोज आरंभ हुई। अगर यह सत्य है, तो ये प्रश्न एक स्त्री द्वारा सर्वप्रथम उठाए
गए, यह बात महत्वपूर्ण है और उन लोगों को मूक कर देने के लिए पर्याप्त है, जो तत्कालीन भारतीय स्त्रियों को
पराश्रित और अज्ञानी मान रहे थे। वस्तुतः स्वतंत्र चिंतन की छूट उन्हें आर्य
सभ्यता के प्रारंभ से ही मिली। हर क्षेत्र में वे अपने को अतुलनीय सिद्ध करती थीं, यहाँ तक कि युद्ध कौशल भी वे प्राप्त
कर सकती थीं। वे शक्तिहीना तो कदापि नहीं थीं। स्त्री-स्वातंत्र्य ही वर्तमान युग में
उनके सशक्त होने की गर पहचान है, तो आर्य-सभ्यता का वह युग आरंभ से ही हर क्षेत्र में उन्हें
स्वतंत्र मानता था।
वैदिक काल और उत्तर वेदकाल में समाज में
स्त्रियों का वर्चस्व था ,
उनकी इच्छाओं का दमन नहीं किया जा सकता
था, यह स्वयंवर परंपरा से किंचित अवश्य स्पष्ट होता है। हालाकि स्वयंवर परंपरा
के कारक तत्व के रूप में राजाओं के आत्माभिमान और राजनीति का घोर संबंध था, तब भी स्त्रियों के अधिकार की रक्षा भी एक कारक विषय था। तभी
आत्माभिमान की रक्षा के लिए अंबा ने दो जन्म की लड़ाई लड़ी थी।
उपरोक्त विषय जनित स्वतंत्रता स्त्री
स्वातंत्र्य का एक निर्णायक तत्व है, जिसके आधार पर विश्व में उसकी विकसित अथवा
अविकसित स्थिति को मापा जा रहा था। उसे पराधीन समझा जा रहा था। यह सच है कि
स्वयंवर की परंपरा उस काल में भी पूरे समाज में अथवा जन साधारण में प्रचलित नहीं
थी, पर
उसके पीछे जो गहरी सोच थी, उसका परिवार, समाज और राष्ट्र की दृष्टि से काफी महत्व था। माता-पिता की भूमिका
बढ़ती गई, उन्होंने जन्मकाल के ग्रह-नक्षत्रों की
स्थिति देखकर .योग्य वर ढूँढ़ना अपना कर्तव्य समझा। ब्राह्मणों और ज्योतिषियों की भूमिका बढ़ गई। उनका
तर्क अकाट्य था कि अगर उनकी इस भूमिका को प्राधान्य नहीं मिला, तो पुरुष स्त्री सौंदर्य ही आकर्षण का
कारण बनेगा, और इस प्रकार का विवाह परिवार और कुल
के लिए हानिकारक होगा। राजा शांतनु का मत्स्यगंधा प्रेम ही कौरव कुल के विनाश का
कारण क्या नहीं बना, यह कौन कह सकता है! इस सोच का विश्व के
किसी अन्य समाज में कोई स्थान संभवतः नहीं था। अतः इसे भारतीय समाज की सोच का
पिछड़ापन नही, एक
विशिष्टता ही मानी जानी जा सकती है, पर जिसे आज प्रगतिशीलता की दृष्टि से
अत्याधुनिक परिवारों द्वारा नकारा जाने लगा है। स्वयंवर की प्रथा का उल्लेख रामायण
में सीता स्वयंवर के रूप में है, जो सशर्त है, ठीक ऐसा ही महाभारत काल में द्रौपदी के
साथ हुआ। राजपूत राजाओं के काल में संयुक्ता स्वयंवर और संयुक्ता का सभी राजाओं को
इंकार कर पृथ्वीराज चौहान का वरण करना, अपने अधिकार के प्रति जागरुकता का प्रमाण था। उस समय स्त्रियों को ब्राह्मणों के समान
संपूज्य माना गया और उसे दबाना, घर
में अलक्ष्मी के आह्वान के सदृश ही माना। उन्हें पहले वेद-पाठ की छूट नहीं थी, पर बाद में वे भी वैदिक साहित्य पढ़ने
की अधिकारिणी मान ली गईं। वे पुनर्विवाह भी कर सकती थीं। विधवा विवाह की
भी उन्हें अनुमति थी।
कुल मिलाकर नारी अस्मिता से संबद्ध सारे
स्वरूप वैदिक और उत्तर वैदिक काल में
प्राप्त हुए हैं। उसका स्वातंत्र्य कभी नियमतः नष्ट नहीं हुआ। एक गृहिणी के रूप में
वह सदैव गृह शासिका रही। उसका मातृ स्वरूप सदैव पूजनीय रहा। अगर उस पर कभी प्रहार
हुआ, तो
पुरुष की शारीरिक शक्ति के परिणाम स्वरूप अथवा नैतिक मापदंडों के विरुद्ध आचरण
करने पर ही। इस प्रकार पुरुष भी दंडनीय होते थे।
स्त्री मूलतः माता है और आर्य संस्कृति का वहन
करने वाली भारतीय स्त्रियों के संबंध में यह एक अनुभूत सत्य है। वह अपने भावरूप
अस्तित्व में सदैव मातृस्वरूपा है। उसके अन्य सारे रूप इस मातृरूप के ही विविध
प्रतिफलन हैं। इसी रूप में वह माता ,पुत्री
,बहन, पत्नी, सेविका और सब कुछ है। इसीलिए भारतीय समाज ने मातृरूप में उसको
सर्वाधिक महत्व दिया है। इसी रूप में वह गृहस्वामिनी बनने का अधिकार रखती है। इस रूप
में उसको दी गई ज़िम्मेदारियाँ ही उसकी शक्ति संपन्नता को प्रमाणित करती हैं।
युग बीत गए, पर आज भी यह सार्थक प्रतीत होता है। आज भारतीय
स्त्रियाँ आज बहुत जागरुक हैं। सौंदर्य दृष्टि की विशालता तो उनके पास है ही, व्यवस्था, तार्किकता और अध्यात्मिक सोच के प्रति जागरुकता, उन्हें विशिष्ट बनाती है। वे तत्संबंधित हर प्रकार की बाधाओं को पार करने
के लिए निरंतर संघर्षरत हो रही दिखती हैं। वे अपने जीवन में जिस निर्भीकता की
आवश्यता है,
उसे ला रही हैं। अधिकारों की लड़ाई, पुरुष समानता की लड़ाई आदि उसी सभ्यता की ओर बढ़ते हुए कदम हैं। दृष्टि
में वैज्ञानिकता है। प्रकृति के अनखुले ,अनसुलझे
रहस्यों को खोलने और सुलझाने में सारी इन्द्रियों से वे अपना योगदान कराना चाहती
हैं। ज्ञान उनकी मुट्ठियों में आ रहा है और वे किसी भी क्षण विकास के उच्चतम शिखर
तक पहुँचने में सक्षम मान ली जाएंगी। यह वस्तुतः आज का भी बौद्धिक सत्य भी है। श्री
केदारनाथ अग्रवाल जी के शब्दों में समापन
करना चाहूंगी-
मैंने उसको
जब-जब देखा,
लोहा देखा,
लोहे जैसा--
तपते देखा,
गलते देखा,
ढलते देखा,
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा!
मीता गुप्ता
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