आज के दौर में युवाओं के बेहतर
भविष्य के लिए स्वामी विवेकानंद के विचार और भी प्रासंगिक
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”
कठोपनिषद
के इस वचन के
माध्यम से युगपुरुष, वेदांत दर्शन के पुरोधा, मातृभूमि के उपासक, विरले कर्मयोगी, दरिद्र नारायण मानव सेवक, करोड़ों युवाओं के प्रेरणास्रोत व प्रेरणा पुंज स्वामी विवेकानंद जी ने देशवासियों
को अज्ञानजन्य अंधकार से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन की प्रेरणा दी । कदाचित् अंधकार
से उनका तात्पर्य अंधविश्वासों, विकृत रूढ़ियों, अशिक्षा एवं अकर्मण्यता की अवस्था से था। वे चाहते थे कि अपने
देशवासी समाज के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं के प्रति सचेत हों और उनके
निराकरण का मार्ग खोजें।
ऐसे महान युगद्र्ष्टा और युगस्रष्टा महापुरुष का
जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता (कोलकाता) में पिता विश्वनाथ दत्त और माता भुवनेश्वरी देवी के घर हुआ था| दरअसल यह वह समय था, जब यूरोपीय देशों में भारतीयों व
हिंदू धर्म के लोगों को हीन भावना से देखा जा रहा था तथा समस्त समाज दिशाहीन हो
चुका था|
भारतीयों पर अंग्रेज़ियत हावी हो रही थी। तभी स्वामी विवेकानंद जी ने इस धरती पर
अवतरित होकर न केवल हिंदू धर्म के गौरव को पुनर्स्थापित किया, अपितु विश्व के पटल पर भारतीय
संस्कृति व सभ्यता का परचम भी लहराया। नरेंद्र स्वामी विवेकानंद बनने का सफ़र उनके
हृदय में सृष्टि व ईश्वर को लेकर उठते सवालों व अपार जिज्ञासाओं का ही ताज़ा परिणाम
है। समय के साथ नरेंद्र के मन में अंकुरित होता धर्म और समाज-परिवर्तन का बीज
वटवृक्ष में परिवर्तित होने लगता है। और फिर नरेंद्र देश के कोने-कोने में गुरु
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के आशीर्वाद से धर्म, वेदांत और संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के
लिए निकल पड़ते हैं। इसी श्रृंखला में स्वामी विवेकानंद का राजस्थान भी आना होता
है। यहीं खेतड़ी के महाराजा अजीतसिंह उन्हें विवेकानंद नाम देते हैं और सिर पर
स्वाभिमान की केसरिया पगड़ी पहनाकर अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद
में हिंदू धर्म व भारतीय संस्कृति का शंखनाद करने के लिए भेजते हैं। शिकागो में स्वामी
विवेकानंद को विश्व धर्म परिषद में पर्याप्त समय नहीं दिया गया, किसी प्रोफेसर की पहचान से अल्प समय
के लिए स्वामी विवेकानंद को बोलने के लिए कहा गया। अपने भाषण के प्रारंभ में जब
स्वामी विवेकानंद ने ‘अमेरिकी भाइयों और बहनों’ कहा, तो करबद्ध ध्वनि से पूरा सदन गूंज उठा। उनका
भाषण सुनकर विद्वान चकित हो गए। यहां तक कि वहां की मीडिया ने उन्हें साइक्लोनिक
हिंदू का कहा।
उनके इस भाषण ने उन्हें भारतीय दर्शन और
अध्यात्म का अग्रदूत बना दिया। तब से लेकर आज तक उनके विचार युवाओं को प्रभावित
करते रहे हैं। इसीलिए उनके जन्मदिवस को संपूर्ण भारत में ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
आज के दौर में जब युवा नई-नई समस्याओं का सामना
कर रहे हैं, नए लक्ष्य तय कर रहे हैं और अपने लिए
एक बेहतर भविष्य की आकांक्षा रख रहे हैं तो स्वामी विवेकानंद के विचार और भी
प्रासंगिक हो जाते हैं। स्वामी विवेकानंद का मानना था कि एक युवा का जीवन सफल होने के
साथ-साथ सार्थक भी होना चाहिए, जिससे
उसके मस्तिष्क, हृदय और आत्मा का संपोषण भी होता रहे।
सार्थक जीवन के विषय में उनके विचारों को चार बिंदुओं में समझा जा सकता है- शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक संधान।
निर्भय बनो-
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि अधिकतर युवा
सफल और अर्थपूर्ण जीवन तो जीना चाहते हैं, लेकिन
अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वे शारीरिक रूप से तैयार नहीं होते। इसलिए
स्वामीजी ने युवाओं से अपील की कि वे निर्भय बनें और अपने आपको शारीरिक रूप से
स्वस्थ बनाएं। वे कहते थे कि किसी भी तरीके का भय न करो। निर्भय बनो। सारी शक्ति
तुम्हारे अंदर ही है। कभी भी यह मत सोचो कि तुम कमज़ोर हो। उठो, जागो और तब तक न रुको, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। वे
हमेशा मानसिक रूप से सशक्त होने के साथ-साथ शारीरिक रूप से मज़बूत होने की बात भी
कहते थे। गीता पाठ के साथ-साथ फुटबॉल खेलने को भी वह उतना ही महत्वपूर्ण मानते थे।
उन्होंने साफ़ कहा कि शक्ति ही जीवन है, कमज़ोरी
ही मृत्यु और कोई भी व्यक्ति तब तक भौतिक जीवन का सुख नहीं ले सकता, यदि वह ताकतवर नहीं है।
सामाजिक गतिविधियों में शामिल हों-
स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि युवा अधिक से
अधिक संख्या में सामाजिक गतिविधियों में शामिल हों, जिससे न केवल समाज बेहतर बनेगा, बल्कि
इससे व्यक्तिगत विकास भी होगा। उन्होंने सामाजिक सेवा के साथ आध्यात्मिकता को भी
जोड़ा और मनुष्य में मौजूद ईश्वर की सेवा करने की बात कही। उनके अनुसार समाज सेवा
से चित्तशुद्धि भी होती है। उन्होंने समाज के सबसे कमजोर तबके के लोगों की सेवा
करके एक नए समाज के निर्माण की बात कही। युवाओं से अपील करते हुए उन्होंने कहा कि
बाकी हर चीज़ की व्यवस्था हो जाएगी, लेकिन
सशक्त, मेहनती, आस्थावान युवा खड़े करना बहुत ज़रूरी है। ऐसे 100 युवा दुनिया में एक नई क्रांति कर सकते हैं।
शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आम जनता की मदद करे
स्वामी विवेकानंद ने बौद्धिक संधान पर बहुत बल
दिया। उन्होंने सभी के लिए शिक्षा की बात करते हुए कहा कि शिक्षा कोई जानकारियों का बंडल नहीं, जो दिमाग में रख दिया जाए। हमें तो
ऐसे विचारों को संजोना है, जो समाज-निर्माण, व्यक्ति-निर्माण, चरित्र-निर्माण करे। उन्होंने एक राष्ट्रीय
शिक्षा व्यवस्था की बात कही, जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक शिक्षा देश के लोगों के हाथों में हो और
राष्ट्रीय चिंतन के आधार पर हो। उन्होंने भारत के पुनर्निर्माण में शिक्षा के
महत्व पर बल देते हुए कहा कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो आम जनता की मदद करे और जीवन
में संकटों से निपटने में मददगार बने, परोपकार
का भाव जगाए और सिंह की भांति साहस प्रदान करे।
जीवन में आध्यात्मिकता का भाव अवश्य रखना चाहिए
स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी सभ्यता की सराहना
तो की, परंतु भारतीय दर्शन और अध्यात्म के
प्रेम में वे वशीभूत थे। उन्होंने भारतीय युवाओं से कहा कि पश्चिमी सभ्यता से कुछ
सीखने के लिए बहुत कुछ है,
परंतु भारत की आध्यात्मिक थाती का कोई
सानी नहीं है। इसलिए युवाओं को अपने जीवन में आध्यात्मिकता का भाव अवश्य रखना
चाहिए। उन्होंने कहा कि पश्चिम का विचारवान युवा, भारतीय आध्यात्म में एक नई उमंग प्राप्त कर रहा है, हम भारतीय होकर इसकी उपेक्षा कैसे कर
सकते हैं?
जीवन बहुत छोटा है, लेकिन आत्मा अजर-अमर
विवेकानंद ने युवाओं को आध्यात्मिक संधान पर
जाने की बात कही, जिससे न केवल उन्हें अपना लक्ष्य पाने
में आसानी होगी, बल्कि वे जीवन में महानतम लक्ष्य बना
सकेंगे। उन्होंने कहा कि जीवन बहुत छोटा है, लेकिन
आत्मा अजर-अमर है, इसलिए अपने जीवन को एक बड़े लक्ष्य की
प्राप्ति में लगा दो। उन्होंने कहा कि त्याग और सेवा के आदर्शो को राष्ट्रीय स्तर
पर स्थापित करना चाहिए, जिससे ये युवाओं के जीवन का अभिन्न
हिस्सा बन सकें।
युवाओं से संधान करना चाहिए
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं से संधान करने के
लिए कहा। इसके माध्यम से वे व्यक्ति और राष्ट्र की सामूहिक चेतना को जगाना चाहते
थे। उन्होंने भारत के सभ्यतागत मूल्यों पर पूरी आस्था बनाए रखी और युवाओं से
राष्ट्र पुनर्निर्माण की अपील की। उनके सपनों का भारत एक ऐसी भूमि और समाज था, जहां मानवमात्र का सम्मान और स्वतंत्रता होने
के साथ-साथ प्रेम, सेवा और शक्ति का भाव भी हो।
समाज के सबसे कमज़ोर तबके की सेवा करते रहें
स्वामी विवेकानंद एक कर्मयोगी थे। उन्होंने
सिर्फ शिक्षा और उपदेश नहीं दिए, बल्कि
उन्हें अपने जीवन में सबसे पहले उतारा। योगी होने के साथ-साथ उन्होंने समाज के
सबसे कमज़ोर तबके को अपना भगवान माना और उनकी सेवा करते रहे। अपनी आध्यात्मिक चेतना
के साथ-साथ अपनी सामाजिक चेतना को भी जाग्रत रखा और समाज का काम करते रहे।
स्वामी विवेकानंद अपने विचारों, आदर्शो और लक्ष्यों की वजह से आज भी बहुत
प्रासंगिक हैं। उन्होंने युवाओं को शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक संधान के माध्यम से
इन्हें प्राप्त करने का तरीका बताया। आज का युवा इनमें से किसी एक भी मार्ग पर
चलकर शांति, समृद्धि और आनंद की प्राप्ति कर सकता
है।
हम “राष्ट्रीय युवा दिवस’ के अवसर पर उन्हें शत-शत प्रणाम करते
हैं।
जय हिंद!
जय भारत!
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