टैगोर
जयंती के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप......
रवीन्द्रनाथ टैगोर की कला दृष्टि, चिंतन और संघर्ष
सामान्य धारणा की बात करें तो कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(टैगोर) की पहचान एक कवि, कहानीकार और नाटककार की है,
किंतु कला की दुनिया से इतर बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि कला की
दुनिया में उनकी पहचान आधुनिक भारतीय कला के पुरोधा के तौर पर भी है। किंतु यह भी
एक तथ्य है कि भले ही अपने को एक कलाकार के तौर पर स्थापित करने के बारे में
उन्होंने कभी सोचा नहीं हो, किंतु एक कलाकार के तौर पर
स्थापित होने के क्रम में उन्हें भी तमाम झंझावातों और संघर्षों से गुज़रना पड़ा
था। यही नहीं संभवत: रवीन्द्रनाथ दुनिया के पहले ऐसे चित्रकार हैं, जिन्होंने जब गंभीरता पूर्वक चित्र रचना को अपनाया,
तब वे अपनी उम्र के 67 वें पड़ाव में थे। दूसरी विशेष बात यह
भी रही कि उनके परिवार में ज्योतिरीन्द्रनाथ ठाकुर, गगनेन्द्रनाथ
ठाकुर और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर समेत कई ऐसे नज़दीकी रिश्तेदार भी थे, जो पेशेवर कलाकार थे। यानी उन्होंने कला की विधिवत शिक्षा- दीक्षा ली थी।
इनमें से अवनी बाबू की प्रतिष्ठा तो अपने समय के सर्वाधिक चर्चित कलागुरु की थी,
जिन्हें बंगाल स्कूल की कला शैली का उन्नायक भी माना जाता है। दूसरी
तरफ रवीन्द्रनाथ ने हालांकि बंगाल चित्र शैली की जड़ता या विषयगत रूढ़ता का कभी
विरोध नहीं किया, किंतु अपनी चित्र रचना में उसे अपनाना तो
दूर, उसके प्रभावों से भी अपने को अलग रखा।
नंदलाल बसु के चित्रों की रंग योजना व उसमें व्याप्त लोकजीवन
की छाप उन्हें अवश्य आकर्षित करता था। किंतु रवीन्द्रनाथ ठाकुर कला में जिस
आधुनिकता के पक्षधर थे, उसके बारे में उनकी क्या सोच थी,
इसे हम जानते हैं कला लेखक रणजीत साहा के इन शब्दों से- प्रसिद्ध
कला मनीषी ई.बी.हैवेल से परिचय होने पर और वर्ष 1916 में
जापान- यात्रा के बाद रवीन्द्रनाथ के कला-चिंतन और सौंदर्य- चिंतन में व्यापक
परिवर्तन आया था और तब वे चित्रकला को स्वायत्त, सार्वभौम,
सार्वदेशिक अभिगम और कला-प्रस्थान मानने लगे। इस दौरान रवीन्द्रनाथ
आधुनिकता की व्याख्या अपने निकष पर करते रहे। वे इसे काल-बद्ध नहीं बल्कि उसे भाव-बद्ध
या भावपरक मानते रहे। उनके अनुसार, साहित्य में आने के पहले
ही आधुनिकता का प्रवेश चित्रकला में हो चुका था। चित्रकला, जो
परंपरागत तौर पर ललित कला का अंग है, आधुनिकता की अवधारणा को
स्वीकार करने लगी और उसने तरह- तरह के उत्पात मचाने शुरू कर दिए।
उन्होंने कहा,”आर्ट का काम
मनोहारिता नहीं, चित्र विजय है, उसका
लक्षण लालित्य नहीं, यथार्थ है। उसके लिए चेहरे में आकर्षण
का होना बड़ी बात नहीं, मुख्य चीज है- कैरेक्टर अर्थात एक
प्रकार का आत्मकथन। अपने बारे में वह चेहरा और कोई परिचय नहीं देना चाहता, केवल ज़ोर से कहना चाहता है- मैं दृष्टव्य हूं। उसकी इस दृष्टव्यता की
शक्ति हाव-भाव के द्वारा नहीं, प्रकृति के अनुकरण या नकल
नवीसी के द्वारा नहीं, आत्मगत रचना-सत्य के द्वारा व्यक्त
होती है। कोई सुंदर है, तो कोई असुंदर, कोई काम का है, तो कोई बेकार, किंतु
सृष्टि के क्षेत्र में किसी के बहाने किसी को अस्वीकार करना असंभव है। साहित्य और
चित्रकला में भी वही बात है। यदि किसी रूप में सृष्टि हो जाए और यदि ना हो पाए, तो भी कोई उत्तरदायित्व नहीं रह जाता। यदि उसकी सत्ता की शक्ति प्रबल न
हो, उसमें सिर्फ भाव लालित्य हो तो वह वर्जनीय है।”
वस्तुत: रवीन्द्रनाथ टैगोर के आधुनिक कला में योगदान को
जानने समझने के लिए उनके समग्र रचना कर्म को जानना व समझना आवश्यक हो जाता है और
जब किसी व्यक्ति का रचना कर्म इतना बहुविध और व्यापक हो, तो उसे समग्रता में जानने और समझने के लिए उसी व्यापकता को अंगीकार करना
पड़ता है। देखा जाए, तो हमारे यहां कहीं ना कहीं यह समस्या
रही है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं से जुड़ी या उनमें उपलब्ध जानकारियां हम हिंदी के
पाठकों तक सुलभता से पहुंच नहीं पाती हैं। परिणाम यह होता है कि हम अपने सर्वकालिक
महान व्यक्तित्वों के रचना कर्म या कृतित्वों से लगभग अनजाने रह जाते हैं। कुछ यही
बात रवीन्द्रनाथ टैगोर के कलाकर्म पर भी लागू होती है, ऐसे
में यह सुखद है कि प्रकाशन विभाग द्वारा रवीन्द्रनाथ की कला सृष्टि नामक पुस्तक
हमारे सामने है। जिसके लेखक हैं रणजीत साहा। यह पुस्तक जहां रवीन्द्रनाथ टैगोर के
रचनाकर्म विशेषकर उनके कला कर्म पर विस्तार से दृष्टि डालती है वहीं उससे जुड़ी
अनछुए पहलूओं को भी सामने लाती है।
मसलन एक सामान्य बहुप्रचलित धारणा है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर
ने चित्ररचना की शुरूआत बहुत बाद में की थी। किंतु रणजीत साहा यह बात भी सामने
लाते हैं कि - रवीन्द्रनाथ ने बाकायदा चित्र बनाने का भी अभ्यास किया था- बचपन में
अपने घर-परिवार के बालकों के साथ। कोलकाता के एक सुप्रसिद्ध व्यवसायी इन्द्रकिशोर
केजरीवाल के एक संग्रह से इस तथ्य की जानकारी मिलती है कि रवीन्द्रनाथ परवर्ती
वर्षों में भले ही चित्रांकन के क्षेत्र में विशेष आग्रही न रहे हों लेकिन उनका
चित्राभ्यास 1880 ई, में ही शुरू हो
गया था। संभव है, ‘बालक’ और ‘भारती’ जैसी पत्रिकाओं से
सक्रिय रूप से जुड़ने के कारण यह अभ्यास उन्हें आवश्यक लगा होगा। इस बीच कभी-कभार
आंके गए रेखाचित्रों में पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर और मृणालिनी देवी(पत्नी)
आदि के भी स्केच हैं।
उनके द्वारा बने एक रेखांकन पर लिखा है,’सर्वप्रथमोद्यमा’। यह पेंसिल से आंकी गई एक रेखाकृति
है। यह किसी बुजुर्ग व्यक्ति की मुखमुद्रा है- सधे हाथों से बनाई गई। इसे संबंधित
सूचना यह भी है कि ‘आर.एन.टैगोर पॉकेट बुक’ (1889) में उनके
कुछेक रेखांकन थे। हालांकि यह कृति अब उपलब्ध नहीं है। उक्त तथ्य इस बात के
साक्ष्य हैं कि रवीन्द्रनाथ के बहुआयामी व्यक्तित्व निर्माण में इन छोटे-मोटे
उपक्रमों का विशेष योगदान था। लेकिन लेखकीय सृजन में वह सब पीछे छूटता चला गया।
कला के प्रति उनका यह अनुराग ही था कि अपनी विदेश यात्राओं
में तमाम व्यस्तताओं के बीच समय निकालकर कला दीर्घाओं और संग्रहालयों में अवश्य
जाते थे। इस क्रम में उनकी मुलाकात काथे कॉलवित्स, मोदिग्लियानी,
आंद्रे लोते और जोहन्नेस इटेन जैसे प्रसिद्ध कलाकारों से भी होती
रही। अपने रचनाकर्म को लेकर स्वयं कवि की क्या सोच थी यह ज़ाहिर होता है, उनके द्वारा कलाकार असित कुमार हालदार को लिखे गए एक पत्र की इन बातों
से- इन चार महीनों में मैंने दो सौ चित्र आंके हैं, जो विविध
रूपाकारों में प्रकाश से दीप्त हैं।.. इसी के साथ मैंने शांतिनिकेतन के तमाम
दायित्व भी ले रखे हैं, काम काफी फैला लिया है और दुश्चिंताओं
का भी कोई अंत नहीं है, लेकिन खाली पेट काम कैसे हो, अन्न तो जुट नहीं रहा है और भिक्षा भी नहीं मिल रही है। अंत में यही जान
पड़ता है कि काम तो करना होगा स्वदेश में और भिक्षा मांगनी होगी विदेश में,
यही मेरी नियति में है। ख्याति के संबंध में भी, वही बात है, कर्म इस पार और यश उस पार। शायद मेरी
छवि आंकने की ललाय लिपि में भी यही लिखा है। अनेक किसान पद्मा (नदी) के उस पार के
चर में खेती करते हुए मरते-खपते रहते हैं, लेकिन सस पार के
घर में उनके धानों के बखार होते हैं। मेरे भाग्य में भी यही बदा है। काम तो करता
हूं स्वदेश में और उसकी फसल जमा होगी विदेश में, अस्तु।
मीता गुप्ता
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