हम अपनी
दुनिया के सिकंदर
विश्व बाल श्रम दिवस 12 जून को मनाया जाता है, बाल श्रम के खिलाफ बढ़ते विश्वव्यापी आंदोलन के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में
मनाया जाता है। विश्व बाल श्रम दिवस 2022
की थीम- "बाल श्रम को समाप्त करने के लिए सार्वभौमिक सामाजिक संरक्षण" |
पिछले दिनों यात्राओं का दौर रहा। बहुत से स्टेशन, बहुत सी ट्रेन और बहुत सी
भीड़। हाँ,
बहुत-सी पटरियाँ और सबसे ख़ास प्लेटफ़ॉर्म पर दौड़ते-भागते
चाय वाले,
समोसे वाले पानी से भरी बोतल वाले और भी बहुत सी चीज़ों को
बेचने वाले,…..और इनमें से अधिकतर बच्चे। मुझे ना जाने
क्यों ये बच्चे प्लेटफ़ॉर्म के हीरो लगते हैं। ये कभी प्लेटफार्म को बेरौनक नहीं
होने देते। असली भारत, असली ज़िंदगी इन स्टेशनों पर ही दिखती
है।
ट्रेनों को तो
जैसे फ़ुर्सत ही नहीं मिलती जीवन-भर। जीवन भर चलती है। फिर भी कभी कहीं नहीं
पहुँचती। ज़रा देर रुकी,
फिर चल दी। शोर मचाती ट्रेनें, आती-जाती ट्रेनें। खुद में लोगों को समेटे। खुद में भर कर….समा कर….ये दौड़ती रहती हैं। हैरान-परेशान सी भीड़ को भी चैन नहीं। किसी को आने की
जल्दी… किसी को जाने की बैचेनी। कितने चेहरे, लेकिन सभी परेशान से दिखते
हैं। लेकिन,
लेकिन, लेकिन.. इन्हीं स्टेशनों पर ये बच्चे
कितने खुश दिखते हैं। इनके चेहरे पर कितनी ताज़गी दिखती
है....निश्छल....अलौकिक.....रेल मंत्री यदि इन मासूम मुस्कानों को देख लें, तो इन पर टैक्स लगा दें।
प्लेटफ़ॉर्म पर
आने वाली हर ट्रेन का ये दिल से स्वागत करते हैं ( ऐसा स्वागत तो लाखों रुपये
दहेज़ में लानी वाली बहू का भी नहीं होता)। आँखों में गज़ब की चमक। ऊर्जा और उत्साह
से लबरेज़ ये हीरो कलाबाजियाँ खाते हुए। ट्रेन के साथ-साथ दौड़ते हैं। अपने साथ अपनी
दुकान लिए,
संतुलन साधे ये सुपरमैन कितने खुश दिखते हैं। चलती ट्रेन को
लपक लेना, उस पर चढ़ जाना,मानो उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य हो। इक़ खेल की तरह ये दिन भर खेलते हैं। प्लेटफार्म पर झाड़ू लगाने वाले
बूढ़े व्यक्ति के चेहरे पर मुझे बहुत शांति दिखती है....एक़ अलौकिक तेज। ऐसा तेज
उन बाबाओं के चेहरे पर क्यों नहीं दिखता, जो टेलीविज़न पर लोगों के
भविष्य बताते हैं,
दुखों को दूर करने का दावा करते हैं। बहरहाल, उस दिन ट्रेन में एक पाँच-छह साल के बच्चे को खिलौने बेचते देखा। खिलौने से
खेलने की उम्र में वह मासूम दौड़-दौड़ कर अपना "टिन-टिन बाजा" बेच रहा
था। लेकिन किसी ने भी उसका बाजा नहीं खरीदा। लेकिन उसके चेहरे पर बादशाह जैसी
मुस्कान देखी मैंने। ना कोई खीज, ना कोई परेशानी। जीवन को कितनी सहजता
से जी लेते है ये "हीरो"।
ये वाकई बादशाह हैं प्लेटफ़ॉर्म के। ये योद्धा
हैं, पर कोई युद्ध नहीं लड़ते। ये नेता हैं, पर राजनीति नहीं करते। ये
ज्ञानी हैं,
पर कोई सत्संग नहीं, मंदिर
मस्जिद नहीं जाते। ये अपने कर्म के साथ अपनी मेहनत के बल पर जीते हैं। अपनी दुनिया
के सिकंदर हैं ये। ये दुनिया को नहीं जीतते, ये हमारे दिलों को सोचने पर मजबूर करते हैं और आँखों को नम। ये बताते हैं कि जीवन
बहुत ही सहज है। ये तो हमें जीवन का पढ़ा रहे हैं, पर
क्या हम जैसे तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों ने कभी इनके बारे में सोचा ?
विचार कीजिएगा....उत्तर हमारे ही पास है।
मीता गुप्ता
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