पुस्तक समीक्षा:
गीतांजलि श्री द्वारा रचित ‘रेत समाधि’-लेखन
की हर सरहद को तोड़ता उपन्यास
‘रेत समाधि’, (Tomb of Sand) देश
दुनिया में छाया यह उपन्यास हिंदी के पाठकों की रुह से नाता जोड़ लेता है।
गीतांजलि श्री ( Geetanjali Shri) द्वारा हिंदी में लिखे
गए इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद ‘टूम्ब ऑफ सैंड’, इंटरनेशनल
बुकर सम्मान से सम्मानित किया गया है। यह हिंदी साहित्य के लिए एक बड़ी उपलब्धि
है। हिंदी
की अमूमन लिखाइयों में किसी नए क्राफ्ट, नए
शिल्प या बुनाई के खेल कम ही होते हैं। लेकिन इस किताब को सब बंधन को तोड़ देने
के बाद ऐसे लिखा गया है जैसे कि मन सोचता है। |
कोई किताब आपको पुराने दिनों की दुनिया में झम्म से ले जाए, वही
दरवाज़ा, वही लड़की-लड़कौरी-सी अम्मा, जिनके
बूढ़े बदन में पंद्रह साला लड़की बसे। जो चलते न चलते झपाझप कूदने-उड़ने लगे और आप
अम्मा बन जाएं और अम्मा बन जाए किशोरी। इस उलट झापे में जीवन रिवाइंड हो, कि चलो एक बार फिर बीतते हैं, कि पहली दफ़ा कुछ
चूक-सी रह गई थी, कुछ जल्दीबाज़ी भी, अब
इस बार ज़रा फिर से करते हैं जीवन के हिसाब-किताब। रेत समाधि ऐसा उपन्यास है जिसका शिल्प बंधे-बंधाए लीक को अनावश्यक करता एक सरल प्रवाह
में बहता है। इसकी फॉर्म कहानी और पात्र के परे है, घटनाओं
और संवाद के परे है। पात्र अगर हैं, तो अपनी सांकेतिक
उपस्थिति में, घटनाएं संदर्भ के तौर पर, संवाद हैं, तो एकालाप के रूप में और उन सब को लेकर
एक कैनवस रंगा गया है। छोटी रोज़मर्रा की घटनाओं और अनूठे बिंब की उंगली पकड़ मन के
बीहड़ गहरे अतल में उतर जाने की कथा है, जहां कभी आसमान है,
घर है, चिड़िया है, तो
कभी अंधेरा, बेचैनी और हाहाकार, कभी
दुख, तकलीफ़ है…
तो बस यूं कहें कि यह किताब एक पूरा मन है, भरा-पूरा…
उतना ही खाली, जितना होना चाहिए और उतना भरा, जिससे कि खाली का खालीपन ढनढन बोले, उसके बोल गूंजे।
शरीर के भीतर अनुगूंज ऐसे विचरे, जैसे आसमान में चक्कर काटता
कोई बाज़… गोल गोल लगातार…अम्मा कौन हैं, बेटी, रोज़ी? सब स्त्रियां हैं, लड़कियां,
एक कुछ पुरुष भी, माने स्त्री के भीतर पुरुष
मन या कुछ पुरुष का-सा शरीर भी। और जो पूरी स्त्री है, मां
है, पत्नी से ज़्यादा प्रेमिका, उसके मन
में कोई चंचल छोकरी है, कोई उद्दंड पुरुष।फिर मन भी अपनी
मनमानी करने वाला मन। अनवर की छाती पर सिर रख ठुमरी गा देने वाला मन, जीवन जी चुकने के बाद फिर जी लेने वाला मन। अपने मन की करने वाला मन। एक
स्त्री से ज़्यादा उसका मन है, स्त्रियों का सामूहिक मन। उस
अर्थ में फीमेल इमोशनल जेंडर का प्रतिनिधित्व करता हुआ, बाहरी
से ज़्यादा भीतरी। उसकी वर्जनाएं, उसकी सोच, उसका मन, सब किसी कंडीशनिंग के भीतर कैद मन है,
जो कई बार स्थूल होता है, मूर्त होता है। फिर
बाज़ वक्त किसी ऐसी खिड़की से खट बाहर निकल जाता है, इतना फैल
जाता है कि निस्सीम हो जाता है। ऐसा है अम्मा का मन, उसकी
दुनिया। ऐसी है औरत की अंतरंगी दुनिया।
एक अमूर्तन की दुनिया होती है। एक पक्की मूर्त… ऑब्वियस, लिनियर।
नेपथ्य का कोई गोशा-रेशा नहीं, लेकिन सब प्रत्यक्ष हो ऐसा तो
किसी सूफी-संत ने भी वादा करार नहीं किया। अपने मन तक की हमको खुद ख़बर नहीं होती।
अपने जीवन और आने वाली सांस तक नियंत्रण के बाहर है। सरहद के पार का धुंधलका है,
नो मेंस लैंड है। तो कैसी बुनकारी से उसकी परत दर परत दुनिया खड़ी की
जाए कि बाहर सब सुथरा हो, साफ हो, पीछे
के धागे सिर्फ आपके हाथ हो, ऐसे अमूर्तन को रच देना मन के
बड़े अमीर फैले कैनवस की सजावट है। रेत
समाधि ऐसे अमूर्तन के ढांचे पर मन और दुनिया का विशाल संसार रचती है। साधारण
रोज़मर्रा की घटनाओं में असाधारण तत्वों से एक ऐसी बुनावट है,
जिसकी कारीगरी बहुत पास से देखी नहीं जा सकती। उसे देखने के लिए कुछ दूरी ज़रूरी है।
उस दूरी से तस्वीर का पूरापन अपने समूचे मायने में दिखता है, लेकिन जब तक ये दूरी नहीं आती, अम्मा अपने साधारणपने
में, अपने दिमागी उलझावों में एक अजीब किस्म के भोलेपन से
ग्रसित दिखती है।
यह सच है कि ज़रूरी नहीं कि सिर्फ बाह्य कहन की कथा ही हो, यह भी
ज़रूरी नहीं कि पात्र किसी घटना से बंधे कोई व्यवहार करें, या
यह कि भावों के रस से डूबा सराबोर कोई प्रसंग हो। लेकिन यह तो सच है कि भीतरी गूढ़
रहस्यों की यात्रा में कोई तार, कोई तरंग का स्पर्श हो। रेत समाधि में,
कई-कई बार होता है, लेकिन कुछ बार पकड़ में आने
के पहले ही छूट-छूट भी जाता है, भीतर गहरे हृदय को छूने के
ठीक पहले कहीं और चला जाता है। बावज़ूद इसके पढ़ते समय हैरानी भरी खुशी होती है,
लगता है कोई साझा तार झनझना उठा या फिर कोई शार्प इनसाइट चमत्कृत कर
गया।
भाषा एक टूल है, यह मीडियम
ऑफ एक्स्प्रेशन है। उसको सहूलियत से बरतने की एक कला होती है और अलग तरीके से बरतने का अलग
हुनर। ज़ुबान की मिठास, मीठी बोली, शब्दों
को उच्चारने का स्वाद, उस उच्चारने में नई ध्वनि ईज़ाद करने
का सुख, उसको बोलने,ज़ोर से बोलने का
संगीत। रेणु, राही मासूम रज़ा, श्रीलाल
शुक्ल को पढ़ते कितनी ही बार हुआ है कि रुककर फिर-फिर ज़ोर से बोलकर पढ़कर उसके संगीत
में उल्लास का एहसास होना, ऐसा कुछ रेत समाधि के
साथ भी होता है। बहुत से शब्द हैं, जिन्हें गीतांजलि ऐसे
बरतती हैं, इतनी सहजता से, जैसे पुराने
दिन बचा ले रही हों, जैसे उनको इस्तेमाल भर करने से कोई आंगन,
कोई ठीया, कोई पुराने नीम के पत्ते से भरता
सहन, कोई पुराना बसा भरा घर फिर से गुलज़ार हो जाए। उनकी भाषा
में तरलता है। उनके वाक्य छोटे-छोटे बनते हुए एक सिरे से दूसरे सिरे तक खूबसूरत
चक्करघिन्नियों में घूमते हैं। इस घुमाई में ताज़गी है, भोलापन
है। उनके शब्द बेहद अलग बिंब रचते हैं और कुछ ऐसे प्रवाह से रचते हैं कि सब सहज
स्फूर्त बहता है, बिना हड़बड़ी के, एक
नादान भोलेपन से, जैसे बच्चे के हाथ में चरखी।
यह इस भाषा का कमाल है कि कई हिस्से पहली पढ़ाई में पानी की तरह
फिसल जाते हैं और इसके भाव सतह पर फूलों जैसे तैरते हैं। लेकिन कुछ हिस्से जो
चैप्टर की शुरुआत में अमूर्तन का संसार रचते हैं, उसकी बुनावट ही कुछ ऐसी है कि
ठहरकर इंट्रोस्पेक्शन किया जाए, कि ठहर कर डूबने का एहसास
लगातार होता रहे।
हिंदी की अमूमन लिखाइयां किसी पुराने धज को बचाए चलती हैं। विदेशी
लिखाइयों की तुलना में एक ठहरी दुनिया बार-बार जैसे रिपीट होती चलती है। किसी नए
क्राफ्ट, नए शिल्प या बुनाई के खेल कम ही होते हैं। मुझे हिंदी में बहुत सी किताबें
याद आ रही हैं, जो इस भीतरी संसार की महीन कारीगरी को बहुत
ठहर कर सांस दर सांस खोलती हैं, जैसे
कोई विलंबित आलाप… जो पूरे दिन चलता हो, पूरी रात चलती हो,
सौ पन्ने चलती हो या उम्र भर। गीतांजलि श्री की लेखनी में वही
आस्वाद, वही ठहराव है।कोई खेल नहीं, कोई
दिखावा नहीं, कोई सच का पाखंड नहीं। ऐसा लगता है मानो गीतांजलि
ने तय किया हो कि इस किताब में वे पारंपरिक तत्व नहीं होंगे। फिर सब बंधन को तोड़
देने के बाद उन्होंने ऐसे लिखा, जैसे कि मन सोचता है, यहां से
उड़कर वहां, फिर कहां-कहां।
शुरुआत में ऐसा लगता है कि कोई साहजिक बहाव है, बिना किसी
तैयारी के, फिर क्रमश: ये बात अंदर पैठती है कि इस सेमल के
बीज के से जंगली बहाव में भी एक बीहड़ और महीन किस्म का नियंत्रण है। एक ऐसा रियाज़
है, इसके पीछे जो अपनी सहज सरलता में उसके पीछे के काम को
अदृश्य बना देता है। बहरहाल, गीतांजलि जो नहीं कहती और नहीं
सोचती या जिसे उन्होंने नहीं लिखा-कहा, उस सब अनकहे की भी एक
कहानी है, जो बेहद महत्वपूर्ण है। तस्वीर में जो नहीं दिखा, उसकी अहमियत, उसका भाव भी एक तरीके से सिलसिलेवार
ठोस तरीके से उभरता है। जैसे बेटी का अम्मा के साथ का रिश्ता, जो एक चिढ़ के बावज़ूद बड़ा तरल-सा बहता है, जैसे किसी
बच्चे को शामिल कर रही हो, या फिर रोज़ी को न बर्दाश्त करते
रहने, फिर रज़ा मास्टर के स्नेह में भी पड़ जाना, या एक अनकहा-सा कुछ सिगरेट के धुंए-सा तिरते रहना, उसने
अपनी ज़िंदगी ऐसी बनाई कि अपनी मर्ज़ी का जीवन हो, और अम्मा और
अनवर की कहानी को ऐसे स्वीकार कर लेना, जैसे अंतत: माता-पिता अपनी प्रेम में भाग गई बेटी को मान स्वीकार लेते हैं। इनका
जीवन कितने अप्रत्यक्ष तरीके से फेमिनिस्ट है, कितने सहज-सरल
तरीके से, जैसे ऐसा होना एक वे ऑफ़ लाइफ है। कोई क्रांति,
कोई मोर्चा नहीं है, बस जीवन है। कोई नाटक-नौटंकी-ड्रामा
नहीं है।
और हां, यहां सौंदर्यबोध के लेकर कुछ अप्रत्याशित नवीन स्थापनाएं भी हैं। मरीचिका के बारे में यही हमारी एक सामान्य समझ है कि वह रेगिस्तान में धोखे की तरह
होती है।। पर उपन्यासकर उस समझ के आगे की बात करती हैं, जब
वे कहती हैं- 'पूछ खुद से, मूरखमन, कि मरीचिका से ज्यादा चमक कहां और वो
क्या झूठा, उसके नीचे पृथ्वी ठोस नही है क्या? उसके ऊपर हवा नहीं गुंजान? और हम जब उसे देखे हैं, उम्मीद, लालसा और कविता हममें नहीं अंखुआए क्या?’
रिश्तों के ताने-बाने में उपन्यास कई मुद्दों पर कटाक्ष करता चलता है। समाज
की स्त्री से उम्मीदें, उसका तय रास्ते से भटकने पर उपजने वाला टकराव, पितृसत्ता, मस्कुलिनिटी, फेमिनिस्म,
राजनीति, पर्यावरण, सांप्रदायिकता,
ट्रांस्जेंडर ईशूज़, ब्रेन ड्रेन, पार्टीशन, भारत-पाकिस्तान पॉलिटिक्स, और हां.....प्रेम भी।
अवश्य पढ़ें !!
मीता गुप्ता
No comments:
Post a Comment