बदलते दौर की होली
हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी,उर अंतर को
अनुराग।।
आज होली के अवसर पर न जाने कहाँ गए हरि और न जाने कहाँ गया फाग....सारे गए-बजाए जानेवाले ढोल, मजीरें, झांझ, धमाए, चैती और ठुमरी, लोकगीत, लोकउत्सव और पारंपरिक संगीत धीरे-धीरे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और चेतना से लुप्त होते जा रहे हैं। बदलते दौर में फागुन का अंदाज़ बदलने लगा है। पहले वसंत की अंगड़ाई, जहां-तहां खिलने वाले फूल और पछुआ की सरसराहट से फाल्गुन की आहट मिलने लगती थी, लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ में हमारी परंपराएं सिसकने लगी हैं। फागुन के महीने में फाग गाने और ढोलक की थाप सुनने को कान तरस गए हैं। फाग का सदियों पुराना राग शहरों में ही नहीं, गांवों की चौपालों से भी गुम हो गया है। अब कोई नहीं कहता-
रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
आज के दौर में होली कुछ-कुछ फिल्मी और कुछ व्यावसायिक रंग में रंगी नजर आती है। यह धार्मिक निष्ठा, उत्सव, मनोरंजन, रंगों से मनों को सराबोर होने का त्यौहार गाना-बजाना, हुडदंग मचाना, टेसू के फूल और भंग का रंग इत्यादि का त्योहार है, ये बातें सिर्फ किताबी और पौराणिक लगने लगती हैं। विशेषत: महानगरों में, या विदेशों में बसे भारतीयों के लिए, तथा मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करनेवालों के लिए उत्सव की यह परंपरा लगभग सिमटती जा रही है। इससे नई पीढ़ी अपनी परंपराओं और ज़मीन से कटती जा रही है। अपनी संस्कृति को बचाए रखने में उत्सवों का बहुत बड़ा योगदान रहा है और आज भी है। कमर्शियल होना, प्रोफेशनल होना, अप्रवासी होना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी है, नई पीढ़ी को संस्कारो से, संस्कृति से और जीवन मूल्यों से जोड़ना।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।
चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलो से तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा खत्म हो रही है। इनकी जगह रासायनिक रंगों का प्रयोग होने लगा है, जो शरीर और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। एकल परिवारों की तादाद बढ़ने के कारण मिलने-मिलाने, पारिवारिक स्नेह मिलन, दावतें, मिठाइयों की परंपरा नष्ट हो रही है। बंद घरों में टीवी के सामने ठुमके लगातीं अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की होली देखकर हम धन्य हो रहे हैं। समय के साथ जब सारे संदर्भ बदल रहे हैं, तो होली जैसे उत्सव के भी संदर्भ बदल रहे हैं। मनोरंजन के अन्य साधनों के चलते लोगों की परंपरागत लोक त्योहारों के प्रति रुचि कम हुई है। इसका कारण लोगों के पास समय कम होना है। होली आने में महज कुछ ही दिन शेष हैं, लेकिन शहर में होली के रंग कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। एक माह तो दूर रहा, अब तो होली की मस्ती एक-दो दिन भी नहीं रही। मात्र आधे दिन में यह त्योहार सिमट गया है। रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली। जैसे-जैसे परंपराएं बदल रही है, रिश्तों का मिठास खत्म होता जा रहा है।
फाल्गुन की मस्ती का नजारा अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। कुछ सालों से फीके पड़ते होली के रंग अब उदास कर रहे हैं। शहर के बुजुर्गों का कहना है कि ‘ न हंसी- ठिठोली, न हुड़दंग, न रंग, न ढप और न भंग’ ऐसा क्या फाल्गुन? न पानी से भरी ‘खेली’ और न ही होली आई रे....का शोर। अब कुछ नहीं, कुछ घंटों की रंग-गुलाल के बाद सब कुछ शांत। होली की मस्ती में अब वो रंग नहीं रहे। आओ राधे खेला फाग होली आई….तांबा पीतल का मटका भरवा दो…सोना रुपाली लाओ पिचकारी…के स्वर धीरे धीरे धीमे हो गए हैं।
होली के दिन खान-पान में भी अब अंतर आ गया है। गुझिया, पूड़ी-कचौड़ी, आलू दम, महजूम (खोवा) आदि मात्र औपचारिकता रह गई है। अब तो होली के दिन भी मेहमानों को कोल्ड ड्रिंक्स और फास्ट फूड जैसी चीज़ों को परोसा जाने लगा है। होली के मौके पर बनने वाली ठंडई और भांग की जगह अब अंग्रेजी शराब ने ली है। चारों ओर बाज़ारवाद हावी होता जा रहा है। वहीं, होलिका के चारों तरफ सात फेरे लेकर अपने घर के सुख शांति की कामना करना, वो गोबर के विभिन्न आकृति के उपले बनाना, दादी-नानी का मखाने वाली माला बनाना, रंग-बिरंगे ड्रेस में अपनी सखी-सहेलियों संग घर-घर मिठाई बांटना, गेहूं के पौधे भूनना, अब यह सब परंपराएं तो मानो नाम की ही रह गए हैं। पहले पूरा दिन घरों में पकवान बनते थे और मेहमानों की आवभगत होती थी। अब तो सबकुछ बस घरों में ही सिमट कर रह गया है। आजकल तो मानों रिश्तों में मेल-मिलाप की कोई जगह ही नहीं रह गई हो। मन आया, तो औपचारिकता में फोन पर हैप्पी होली कहकर इतिश्री कर लिए। कुछ हुड़दंगी लड़के मोटरसाइकिल का साइलेंसर निकाल कर भड़भड़ाते-गुर्राते से हर शहर में देखे जा सकते हैं। क्या यही होली है? अब हालात यह है कि होली के दिन बहुत से लोग खुद को कमरे में बंद कर लेते हैं।
हमारे देश में हर माह, हर ऋतु किसी न किसी त्योहार के आने का संदेशा लेकर आती है और आए भी क्यों न, हमारे ये त्योहार हमें जीवंत बनाते हैं, ऊर्जा का संचार करते हैं, उदास मनों में आशा जागृत करते हैं। अकेलेपन के बोझ को थोड़ी देर के लिए ही सही, कम करके साथ के सलोने अहसास से परिपूर्ण करते हैं, यह उत्सवधर्मिता ही तो है जो हमारे देश को अन्य की तुलना में एक अलग पहचान, अस्मिता प्रदान करती है। होली पर समाज में बढ़ते द्वेष, स्वार्थ और असामाजिक-असांस्कृतिक भावना को कम करने के लिए मानवीय व आधारभूत अनिवार्यता की दृष्टि से देखना होगा। अब यह परंपरा भी आखिरी सांसें ले रही है, अब तो इसे बचा लें और कहें-
उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।।
मीता गुप्ता
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