रहिमन धागा प्रेम का..
भाई-बहन का रिश्ता दुनिया के सभी रिश्तों में सबसे ऊपर है। हो भी न क्यों, भाई-बहन दुनिया के सच्चे मित्र और एक-दूसरे के मार्गदर्शक होते है। जब बहन शादी करके ससुराल चली जाती है और भाई नौकरी के लिए घर छोड़कर किसी दूसरे शहर चला जाता है तब महसूस होता है कि भाई-बहन का ये सर्वोत्तम रिश्ता कितना अनमोल है। सरहद पर खड़ा एक सैनिक भाई अपनी बहन को कितना याद करता है और बहनों की ऐसे वक़्त क्या दशा होती है, इसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। रंग-बिरंगे धागे से बंधा ये पवित्र बंधन सदियों पहले से हमारी संस्कृति से बहुत ही गहराई के साथ जुड़ा हैं। यह पर्व उस अनमोल प्रेम का,
भावनाओं का बंधन है, जो भाई को सिर्फ अपनी बहन की नहीं बल्कि दुनिया की हर लड़की की रक्षा करने हेतु वचनबद्ध करता है। भाई-बहन के आपसी अपनत्व, स्नेह और कर्तव्य बंधन से जुड़ा त्योहार भाई-बहन के रिश्ते में नवीन ऊर्जा और मजबूती का प्रवाह करता है। बहनें इस दिन बहुत ही उत्साह के साथ अपने भाई की कलाई में राखी बांधने के लिए आतुर रहती हैं। जहां यह त्योहार बहन के लिए भाई के प्रति स्नेह को दर्शाता है तो वहीं यह भाई को उसके कर्तव्यों का बोध कराता है।फिराक गोरखपुरी के शब्दों
में रक्षाबंधन की सुंदरता देखिए-
रक्षाबंधन की सुबह रस की पुतली
छायी है घटा गगन की हल्की-हल्की
बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे
भाई के हैं बाँधती चमकती राखी।
रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का त्योहार है,
रक्षा का अर्थ सुरक्षा और बंधन का अर्थ बाध्यता है। रक्षाबंधन के दिन बहनें भगवान से अपने भाइयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परंतु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। वास्तव में ये त्योहार से रक्षा के साथ जुड़ा हुआ है,
जो किसी की भी रक्षा करने को प्रतिबद्ध करता है। अगर इस पवित्र दिन अपनी बहन के साथ दुनिया की हर लड़की की रक्षा का वचन लिया जाए तो सही मायनों में इस त्योहार का उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा। इस पावन त्योहार का अपना एक अलग स्वर्णिम इतिहास है, लेकिन बदलते समय के साथ बाकी रिश्तों की तरह इसमें भी बहुत से बदलाव आए हैं। जैसे-जैसे आधुनिकता हमारे मूल्यों और रिश्तों पर हावी होती जा रही है। संस्कृति में पतन के फलस्वरूप रिश्तों में मजबूती और प्रेम की जगह दिखावे ने ले ली है। आज के बदलते समय में इस त्योहार पर भी आधुनिकता हावी होने लगी है, तब से आज तक यह परंपरा तो चली आ रही है लेकिन कहीं न कहीं हम अपने मूल्यों को खोते जा रहे हैं।
रंग-बिरंगे धागों में अब अपनत्व की भावना और प्रेम की गर्माहट कम होने लगी है। एक समय में जिस तरह के उसूल और संवेदना राखी को लेकर थी शायद अब उनमें अब रुपयों के नाम की दीमक लगने लगी है, फलस्वरूप रिश्तों में प्रेम की जगह पैसे लेने लगे हैं। ऐसे में संस्कृति और मूल्यों को बचाने के लिए आज बहुत ज़रूरत है दायित्वों से बंधी राखी का सम्मान करने की क्योंकि राखी का ये अनमोल रिश्ता महज कच्चे धागों की परंपरा भर नहीं है। लेन-देन की परंपरा में प्यार का कोई मूल्य भी नहीं है। बल्कि जहां लेन-देन की परंपरा होती है वहां प्यार तो टिक ही नहीं सकता,
अटूट रिश्तें कैसे बन पाएंगे। इतिहास मे कृष्ण और द्रौपदी की कहानी प्रसिद्ध है, जिसमे युद्ध के दौरान श्री कृष्ण की उंगली घायल हो गई थी, श्री कृष्ण की घायल उंगली को द्रौपदी ने अपनी साड़ी मे से एक टुकड़ा बाँध दिया था और इस उपकार के बदले श्री कृष्ण ने द्रौपदी को किसी भी संकट मे द्रौपदी की सहायता करने का वचन दिया था। रक्षा बंधन की कथाएं बताती हैं कि पहले खतरों के बीच फंसी बहन का साया जब भी भाई को पुकारता था, तो दुनिया की हर ताकत से लड़ कर भी भाई उसे सुरक्षा देने दौड़ पड़ता था और उसकी राखी का मान रखता था।
कहते हैं,
मेवाड़ की रानी कर्मवती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लड़ऩे में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से प्रारंभ हुई। आज एक बार फिर भातृत्व की सीमाओें को बहन फिर चुनौती दे रही है, क्योंकि उसके उम्र का हर पड़ाव असुरक्षित है, उसकी इज्जत एवं अस्मिता तार-तार हो रही है।
लड़कों से ज्यादा बौद्धिक प्रतिभा होते हुए भी उसे ऊंची शिक्षा से वंचित रखा जाता है,
क्योंकि आखिर उसे घर ही तो संभालना है। उसे नई सभ्यता और नई संस्कृति से अनजान रखा जाता है, ताकि वह भारतीय आदर्शों व सिद्धांतों से बगावत न कर बैठे। इन विपरीत हालातों में उसकी योग्यता, अधिकार, चिंतन और जीवन का हर सपना कसमसाते रहते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि राखी के इस परम पावन पर्व पर भाइयों को ईमानदारी से पुनः अपनी बहन ही नहीं बल्कि संपूर्ण नारी जगत की सुरक्षा और सम्मान करने की, कसम लेने की अहम ज़रूरत है। तभी ये राखी का पावन पर्व सार्थक बन पड़ेगा और भाई-बहन का प्यार धरती पर शाश्वत रह पाएगा। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्त्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फ़िल्में भी इससे अछूते नहीं हैं। रक्षाबंधन पर्व सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता या एकसूत्रता का सांस्कृतिक प्रतिरूप रहा है।
लेकिन अब प्रेम रस में डूबें रंग-बिरंग धागों की जगह चांदी और सोने की राखियों ने ली तो सामाजिक व्यवहार में कर्तव्यों को समझने के बजाय रिवाज को पूरा करने कि नौबत आई। प्रेम और सद्भावना की जगह दिखावे ने ले ली। तभी तो रक्षाबंधन के दिन सुबह उठते ही हर किसी के स्टेटस पर बस रक्षाबंधन की तस्वीरें और वीडियो की भरमार होती है,
अब बहनों की जगह ई-कॉमर्स साइट ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गए पते पर पहुँचाती है। अगर हम सोशल मीडिया पर दिखावे की जगह असल जिंदगी में इन रिश्तों को प्रेमरुपी जल से सींचा जाए तो हमेशा परिवार में मजबूती बनी रहेगी। राखी के त्योहार का अर्थ केवल बहन की दूसरों से रक्षा करना ही नहीं होता है बल्कि उसके अधिकारों और सपनों की रक्षा करना भी भाई का कर्तव्य होता है, लेकिन क्या सही मायनों में बहन की रक्षा हो पा रही है? आज के समय में राखी के दायित्वों की रक्षा करना बेहद आवश्यक हो गया है।
राखी के दिन केवल अपनी बहन की रक्षा का संकल्प मात्र नहीं लेना चाहिए, बल्कि संपूर्ण नारी जगत के मान-सम्मान और अधिकारों की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए ताकि सही मायनों में राखी के दायित्वों का निर्वहन करते हुए वर्तमान में घटित हो रही वीभत्स घटनाओं से बचा जा सके।
डॉ मीता गुप्ता
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