ज़रूरी है बच्चों से बातचीत
पिछले
दिनों घटित एक घटना ने एक बार फिर यह सूचने पर मजबूर कर दिया कि क्या हम अपने
बच्चों से वाकई बातचीत कर रहे हैं? या हमने यह मान लिया है कि बच्चा ज़्यादा
बोलता नहीं,
तो सब ठीक-ठाक है। हाँ ऊपर से सब ठीक लगता है, पर
बच्चे के मन की उमड़-घुमड़ को कौन समझे? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊपर से शांत दिखने
वाली झील की गहराइयों में भीषण उथल-पुथल हो रही है? भारत में बड़े पैमाने पर मानसिक स्वास्थ्य
से जुड़ी परेशानियों का मज़ाक़ बनाया जाता है और लोग इन परेशानियों को शर्म के तौर पर
देखते हैं| साथ ही, मानसिक
स्वास्थ्य की देखभाल की व्यवस्था और सार्वजनिक संसाधन में भी कमी से,
हाशिए पर पड़े लोग सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं|
मानसिक स्वास्थ्य सेवा तक लोगों की पहुँच न के बराबर है|
इतना ही नहीं, मानसिक
स्वास्थ्य की ज़रूरत वाले नागरिकों की संख्या और सेवा देने वाले पेशेवरों की संख्या
में भी काफ़ी अंतर है|
इसके
अलावा, कोविड
महामारी के दौरान, देश
में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर बातचीत करना, पहले
से कई ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। आज प्रस्तुत लेख में हम
विद्यालय और शिक्षकों की भूमिका पर चर्चा कर रहे हैं ।
बातचीत
एक ज़रिया है,
जिसके माध्यम से बच्चों की कल्पनाओं, सोच आदि को विस्तार दिया जा सकता है।
बातचीत से बच्चों को अभिव्यक्ति के मौके तो मिलते ही हैं, साथ
ही उनके अंदर आत्मविश्वास भी बढ़ता है। पढ़ने-लिखने के
लिए भी एक ज़मीन तैयार होती है। बच्चों के पूर्व अनुभवों को कक्षा में तवज्जो मिलने
पर सीखने की गुंजाइश काफी बढ़ जाती है। सीखने का एक सरल-सा मतलब यह भी होता है कि
उनके अनुभवों का विस्तार हो।
यह
निर्विवाद सत्य है
कि भाषा का ज्ञान मौखिक उच्चारित
भाषा से ही प्रारम्भ होता है और बच्चा इसे सुनकर-बोलकर सीखता है। हम अपने दैनिक
जीवन में मौखिक भाषा का ही अधिकाधिक प्रयोग करते हैं। स्कूली दिनचर्या में प्रवेश
के समय हर बच्चे के पास मौखिक भाषा के रूप में एक अनुभवजनित पूँजी होती है। यानी
यह स्पष्ट होना चाहिए कि कक्षा में बातचीत की प्रक्रियाओं पर ध्यान देना अत्यंत
उपयोगी होता है क्योंकि बच्चे विवेकपूर्ण रूप से सुनते और प्रभावी रूप से अपनी बात
रखते हैं। बातचीत, पढ़ना-लिखना सीखने के बुनियादी कौशलों
को आधार देती है। साथ ही हमारे सोचने के तरीकों में भी धार लाती है।
शैशवावस्था के दौरान लर्निंग यानी सीखने का एक
महत्वपूर्ण ज़रिया होता है,
बातचीत। बातचीत के ज़रिए अपने आसपास की
चीज़ों को बारीकी एवं गहराई से जानने का प्रयास लगातार जारी रहता है। यहाँ हम
बच्चों के साथ भाषा की कक्षा के लिए उपयुक्त बातचीत की प्रक्रियाओं व ज़रूरतों को
साझा करने की कोशिश करेंगे।
कक्षा में बातचीत का उद्देश्य
कक्षा में औपचारिक बातचीत का मतलब किसी निश्चित उद्देश्य के साथ
बातचीत करना होता है।
बातचीत के ज़रिए बच्चों में पढ़ने-लिखने के कौशल के विकास की गुंजाइश
उभरती है। धीरे-धीरे इस बातचीत से लेखन भी विकसित होता है।
कक्षा में बातचीत को प्रधानता देने का एक और फ़ायदा है कि इससे शिक्षक
व बच्चे के बीच की दूरी कम होती है। शिक्षक व विद्यार्थी के रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने में कक्षा में बातचीत एक आवश्यक
प्रक्रिया के रूप में दिखाई देती है। इससे शिक्षक को बच्चों के बारे में नज़दीक से
जानने के मौके भी मिलते हैं।
इसके अलावा बातचीत आकलन का एक अच्छा टूल (उपकरण) भी है। यानी बातचीत
के दौरान सामने वाले की प्रतिक्रिया से, उसके
सोचने-समझने के बारे में पता चलता है -- उसके तर्क क्या हैं, सोचने की दिशा क्या है,
बातचीत
के साथ वह कैसे जुड़ पा रही है इत्यादि।
बातचीत के बारे में मान्यताएँ
शिक्षक साथियों से चर्चा के दौरान अक्सर सुनने को मिलता है कि बातचीत
तो बच्चे आपस में करते ही रहते हैं, ज़रूरत
है ध्यान-से पढ़ाई करने की। अक्सर बातचीत को शोरगुल या गप का पर्याय माना जाता है।
शायद इसीलिए कक्षाओं में ‘बातचीत’ को तवज्जो नहीं मिल पाती है। दूसरी ओर, बातचीत के बारे में ऐसी मान्यताएँ भी हैं कि
बच्चों में सुनने व बोलने की दक्षता प्राकृतिक रूप से मौजूद है। इस पर काम करने या
ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। यह स्वत: विकसित होती रहेगी।
अमूमन सवाल किसी मसले को समझने में या बातचीत को आगे बढ़ाने में
मददगार साबित होते हैं। हम अक्सर पारिभाषिक शब्दावली या सुविचारित अर्थ की कसौटी
पर खरा उतरने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। इससे भी कक्षा में बातचीत को उचित स्थान
नहीं मिल पाता है। जब शिक्षक भाषा सिखाने की बात करते हैं तो पढ़ना-लिखना सिखाना
यानी प्रतीकों की पहचान या प्रतीकों-लिपि को लिखने का अभ्यास एक मुख्य चुनौती के
रूप में उभरकर सामने आता है।
हमें यह भी समझना होगा कि कक्षा में बच्चों के साथ बातचीत और अन्य परिवेश में होने
वाली बातचीत में थोड़ा फर्क है। आम तौर पर कक्षा के बाहर
होने वाली बातचीत अनौपचारिक होती है। इसमें सामान्यत: एक
तरह की बातचीत में दूसरी बात भी शामिल होती रहती है जिससे एक विषय-वस्तु पर
व्यवस्थित बातचीत कम हो पाती है। पर इसकी भी अपने-आप में महत्ता है। यदि हम सहजता
के साथ अपने आसपास बच्चों के बीच होने वाली बातचीत का अवलोकन करें या मिसाल के तौर
पर साहित्य में जैसे ईदगाह कहानी में हामिद और उसके दोस्तों के बीच वार्तालाप पर
गौर फरमाएँ, तो इसके बेहतर उदाहरण सुनने-पढ़ने को
मिल सकते हैं। दूसरी तरफ कक्षा में बातचीत का मतलब भाषा शिक्षण की दृष्टि से एक
व्यवस्थित एवं सायास प्रयास से है। इसमें किसी विषय-वस्तु के ज़रिए भाषा शिक्षण के
कौशलों को विकसित करने का प्रयास होता है।
सुनने-सुनाने के
मौके/गतिविधियाँ
बातचीत के लिए ज़रूरी है सुनना। सुनना भी एक ध्यान-क्रिया है जिसे
धैर्य के साथ करना होता है। कक्षाओं में अक्सर यह देखा गया कि जो बच्चा ध्यान से
सुन रहा था, वही शिक्षिका के साथ बातचीत में भी
शामिल हो पाता है। सुनना सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि बड़ों के लिए भी ज़रूरी
है। सुनने का धैर्य हम बड़ों में भी कम होता है। यही कारण है कि जब किसी कार्यशाला
में हमें सुनने की ज़रूरत पड़ती है यानी लगातार ध्यान देना पड़ता है तो हम उस विचार
के साथ नहीं जुड़ पाते।
बातचीत का मतलब सुनना और उस पर सोचकर अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर करना
है। कक्षा में यह देखा गया है कि जो शिक्षक बच्चों के साथ पाठ्यपुस्तक के अलावा भी
बातचीत करते हैं, उन कक्षाओं में शिक्षक व बच्चों के बीच
एक आत्मीय संबंध की झलक दिखती है। यदि हम चाहते हैं कि बच्चों को अभिव्यक्ति के
भरपूर मौके मिलें और उनमें आत्मविश्वास भी विकसित हो तो भाषा की कक्षा में
कविता-कहानी सुनाना,
उस पर बातचीत करना या बच्चों के अनुभवों को सुनना, साथ ही आसपास की घटनाओं पर अपनी बात रखने के
मौके देना ज़रूरी है। कुछ गतिशील भावयुक्त चित्र हों जिन पर पर्याप्त बातचीत की संभावना
हो। बाल साहित्य को पढ़ने के मौके दिए जाएँ। कभी खुद किताब पढ़कर सुनाना, उस पर बातचीत करना इत्यादि के मौके भी हमें
तलाशने होंगे। इससे बच्चों को और नज़दीक से जानने-समझने का मौका मिलता है और उसके
अनुरूप कक्षा में नए क्रियाकलाप सोचने और गढ़ने में मदद मिलती है।
सतर्क हो जाएँ-
यदि कोई विद्यार्थी एकदम शांत दिखे, लंबे समय तक । विद्यालय अभी-अभी खुले हैं, पिछले वर्ष की विसंगतियों से बच्चे अभी बाहर
नहीं निकल पाए हैं, उनका व्यवहार नॉर्मल नहीं है, ऐसे में उन्हें विद्यालय में मौजूद मदद की की
आवश्यकता है, चाहे वह काउंसलर हों या शिक्षक, और हाँ,
उसके अभिभावक से ज़रूर मिलें और उनसे बच्चे की मानसिक अवस्था के बारे में चर्चा
करें। शायद आपको उनकी भी काउंसलिंग करनी पड़े, पर
उनको विश्वास में लेना अति आवश्यक है,
जिससे वे घर में अपने स्तर पर बच्चे की मदद कर सकें।
निष्कर्ष
इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि स्कूल आने के पूर्व किसी भी बच्चे
के सीखने
का महत्वपूर्ण ज़रिया ‘बातचीत’ होती है। इस आधार को इस्तेमाल
करते हुए कक्षा शिक्षण में आगे के सफर को कैसे गढ़ा जाए, इस पर विचार करने की ज़रूरत है। बातचीत करके ही
बातचीत करना भी सीखते हैं,
और सोचना भी सीखते हैं। चीज़ें ऐसी
क्यों हैं या किसी समस्या का समाधान कैसे होगा, इस
बात को भी बातचीत के ज़रिए सहजता से उभारा जा सकता है या समझा जा सकता है। इससे
बच्चों की जिज्ञासाएँ शांत होती है। कक्षा में ऐसी गतिविधियों का आयोजन हो, जो ‘अनुभव से सीखने’ की प्रक्रिया पर आधारित
हों। बातचीत के दौरान बच्चों को अपने अनुभवों को प्रस्तुत करने के मौके मिल रहे
हों। यदि बच्चों के अनुभवों का इस्तेमाल उनके सीखने में हो यानी उनकी सोच का
विस्तार करने में हो तो ज़्यादा कारगर व स्वाभाविक
सीखने-सिखाने की संभावना रहती है।
मीता गुप्ता
8126671717
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