Friday, 30 September 2022

वर्तमान में गांधी की प्रासंगिकता

 

वर्तमान में गांधी की प्रासंगिकता



 

गाँधी पुण्य संगम है, जग की सभ्यताओं का,

गाँधी शिलालेख है, पवित्र मान्यताओं का,

गाँधी तो विशेष है, परम विशेषताओं में,

जो सदा जियेगा, मेरे देश की हवाओं में,

गाँधी एक भावना है, आस्था के प्यार की,

एक मनोकामना है, परिधियों के पार की,

गाँधी एक कसौटी है, कुर्सियों के त्याग की,

अनूठी अंगूठी है, आजादी के सुहाग की,

गाँधी एक आइना है चेतना है शोध है,

इस धरा के आदमी में देवता का बोध है|

 

जब पूरे विश्व ने गिरमिटिया श्रम को एक सामाजिक व्यावस्था के रूप में स्वीकार कर लिया था, तब गांधी जी ने इस प्रथा का पुरजोर विरोध किया था। यही नहीं जब पूरी दुनिया में हिंसात्मक युद्ध छिड़ा हुआ था, तब गांधी जी ने अहिंसात्मक युद्ध शुरू कर दिया था। उन्होंने हिंसात्मक इतिहास को अहिंसा में बदल दिया। राजनीतिक संघर्ष हल करने के लिए जिस तरह से उन्होंने अहिंसात्मक प्रतिरोध यानी सत्याग्रह का उपयोग किया, इससे हुआ ये कि बाद की दुनिया में राजनीतिक संघर्षों के हल क लिए यह सर्वोत्म माध्यम बन गया। गांधी जी हिंसात्मक कार्यों के दुष्प्रभावों से अच्छी तरह वाकिफ थे। वह खुद दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध और जुलू विद्रोह के दौरान युद्ध के साथ जुड़े हुए थे और तब तक वे दो विश्व युद्ध की विभिषिका से परिचित हो चुके थे। यह याद करने वाली बात है कि 1915 से लेकर 1945 तक कि काल अवधिक को इतिहास में एक महत्वपूर्ण समय माना जाता है। पूरी दुनिया ने माना कि हिंसक तरीके से विवादों को केवल  निपटाया जाता है, उस विवाद की जड़ को खत्म नहीं किया जाता। वास्तविकता यह है कि युद्ध में मुद्दों को निपटाने के लिए एक साधन के रूप में स्वीकार कर लिया गया था। उस समय के विश्व के तमाम छोटे-बड़े नेता प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध और यूरोप में हो रहे कई युद्धों में शामिल थे। लेकिन उसी समया अवधि में जब पूरी दुनिया हिंसात्मक युत्द्ध में उलझी हुई थी और इसी पर उसने अपना विश्वास कायम किया हुआ था, तब ऐसे विपरित परिस्थिति में गांधी जी अकेले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने सोचा था कि युद्ध और हिंसा का अधिक रचनात्मक विकल्प होना चाहिए।

यही कारण है कि गांधी जी ने नस्लीय भेदभाव के खिलाफ सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका में सीधे अहिंसात्मक कार्रवाई शुरू की। यहीं से उन्होंने पूरी दुनिया में सत्य और अहिंसा की वास्तविक शक्ति का सफलतापूर्वक न केवल प्रदर्शन किया बल्कि इसे साबित करने में वे सफल भी रहे। गांधीजी ने सावधानीपूर्वक दुनिया को अहिंसा के नए रूप से न केवल परिचित बल्कि इसे जीने का एक मार्ग भी बताया। और वे दुनिया के सामने यह सिद्ध करने में सफल रहे कि एक सभ्य समाज के लिए संघर्ष के संकल्प की सबसे व्यावहारिक और शक्तिशाली तकनीक अहिंसा में निहित है। गांधी की अहिंसा स्थिर नहीं है, यह बदलती स्थितियों के लिए विकसित और अनुकूल है। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका और भारत में नस्लीय भेदभाव के खिलाफ अपने अहिंसात्मक प्रतिरोध का इस्तेमाल किया। उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ने के लिए अहिंसक तरीकों का इस्तेमाल किया। उन्होंने माना कि “हिंसा किसी दुश्मन को कमजोर कर सकती है, लेकिन यह लोगों को इस एजेंडे को गले लगाने के लिए कतई मजबूर नहीं कर सकती। सत्ता के लिए अपने तरीके से पुराने आदेशों को नष्ट कर सकते हैं, लेकिन आप अपने लोगों को तब तक मुक्त नहीं कर सकते जब तक वे आपको अपनी सहमति नहीं देते।”

एक गरीब आदमी महसूस करता है कि वह अन्य से बेहतर है, वास्तव में वह अंधेरे में है। गांधी जी आम आदमी की दुर्दशा से बहुत अधिक चिंतित थे। उन्होंने महसूस किया कि हमें वर्तमान स्थिति को बदलना होगा ताकि गरीब व्यक्ति भी सम्मान के साथ अपना सिर उठा सके। ऐसा करने के लिए उन्होंने तीन तरीके खोजे, नफरत के स्थान पर प्रेम का बर्ताव किया जाना चाहिए। लालच को प्यार से बदलें और ऐसे में सब कुछ ठीक हो जाएगा। अगर इसका पालन सच्ची भावना से किया जाए तो यह लोगों के साथ काम करने के लिए एक पेशेवर तरीके से काम करने के विश्वास को और आगे बढ़ाएगा।

इसलिए उन्होंने इस बात का आह्वान किया कि क्रोध व नफ़रत को प्यार और करुणा के मूल्य से बदलना चाहिए। हमारे मन में क्रोध और घृणा छा जाती है और हिंसक कार्य करने के लिए उतारु हो जाते हैं।  गांधी जी ने इस विनाशकारी वृत्ति को दूर करने का सूत्र दिया कि तर्क मस्तिष्क से आता है और सहानुभूति दिल में रहती है। हमें सत्य का पालन करना है ताकि मस्तिष्क से यह हृदय तक फैल जाए। मस्तिष्क द्वारा प्राप्त किसी भी सत्य को तुरंत हृदय तक भेजना चाहिए। जब तक इसे नीचे नहीं भेजा जाता है, तब तक यह मस्तिष्क के लिए जहर जैसा होता है और पूरे तंत्र को जहरीला बना देता है। इसलिए, मस्तिष्क का उपयोग करने की आवश्यकता है। जो भी प्राप्त होता है उसे तत्काल कार्रवाई के लिए हृदय में प्रेषित किया जाना चाहिए।

करुणा और प्रेम के साथ और विरोधी के प्रति बिना घृणा या क्रोध के हम रचनात्मक ऊर्जा उत्पन्न कर सकते हैं। “मानव प्रजातियों की एकता केवल एक जैविक और शारीरिक तथ्य नहीं है, यह तब होता है जब एक बड़ी शक्ति समझदारी से पूरी तरह से मुखर होकर काम करती है।” उन्होंने कहा कि अहिंसा से बढ़कर कोई भी ऐसा हथियार नहीं है, जिसे दृढ़ विश्वास के साथ, साहस के साथ, विश्वास के साथ संभाला जाए। पढ़ना, लिखना आदि लेकिन यह आवश्यक है कि हमें अपने साथियों से प्रेम करने की कला और जीवन जीने की कला भी सीखनी चाहिए।

हमें संघर्ष और अस्तित्व के लिए संघर्ष की अवधारणा से पारस्परिक सहायता और सहयोग के लिए आगे बढ़ना है। गांधी के व्यावहारिक विचारों ने लोगों की जरूरतों के साथ प्रकृति के सामंजस्य को एक नई दृष्टि दी है। सत्य और अहिंसा, सरल जीवन और उच्च विचार और समग्र विकास के उनके विचारों से पता चलता है कि प्रकृति और हमारे साथी जीवों को नष्ट किए बिना सतत विकास कैसे संभव है। वह मनुष्य और प्रकृति के बारे में अपने विचारों में स्पष्ट थे और उन्होंने सभी जीवित और निर्जीव प्राणियों के बीच सहजीवी संबंध को समझा। उनका विचार है कि प्रकृति में हर एक को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा है, लेकिन किसी के लालच को संतुष्ट करने के लिए नहीं। आधुनिक पर्यावरणवाद के लिए यह पंक्ति एक महावाक्य बन गई है। गांधी पृथ्वी को एक जीवित जीव मानते थे।

हाल की महामारी ने हमारी आंखों को वास्तविकताओं से परिचित कराया है। शहर और शहरी क्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक असुरक्षित हैं। हमारा विकास मॉडल मौलिक रूप से कैसे गलत है। इस संदर्भ में, हम गांधी द्वारा प्रस्तावित विकास के विचारों पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर हैं। उनका आर्थिक दर्शन स्थिर नहीं, बल्कि जीवंत और व्यापक रहा है। यह तकनीक केंद्रित नहीं है, बल्कि जन केंद्रित है। मुट्ठी भर शहरों का विकास हमारी आर्थिक समस्याओं को हल नहीं कर सकता है। वास्तव में यह हमारी समस्याओं को और बढ़ाएगा। इसलिए गांधी ने गांवों के आर्थिक विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। बड़े पैमाने पर उत्पादन की बजाय, उन्होंने छोटे पैमाने पर उत्पादन का सुझाव दिया। केंद्रीकृत उद्योगों के बजाय, उन्होंने विकेंद्रीकृत छोटे उद्योगों का सुझाव दिया। बड़े पैमाने पर उत्पादन केवल उत्पाद से संबंधित होता है, जबकि जनता द्वारा उत्पादन का संबंध उत्पाद के साथ-साथ उत्पादकों से भी है और इसमें शामिल प्रक्रिया से भी है। उनका एक आदर्श गांव का सपना था। बड़े पैमाने पर उत्पादन से लोग अपने  गांव, अपनी जमीन, अपने शिल्प को छोड़कर कारखानों में काम करने पर मजबूर हो जाते हैं। गरिमामय जिंदगी और एक स्वाभिमानी ग्राम समुदाय के सदस्यों के बजाय, लोग मशीन के चक्रव्यू में फंस कर रह जाते हैं और मालिकों की दया पर जिंदगी गुजरबसर करने लगते हैं।

हमने यह भी देखा है कि इस दौरान प्रवासी श्रमिक के साथ कैसा व्यवहार किया गया। कैसा अमानवीय व्यवहार। हमें अपने महानगरों और पुलों के निर्माण के लिए उनकी आवश्यकता थी, लेकिन हम उनकी आवश्यकता नहीं हैं। उन्होंने हमारे जीवन को आसान बना दिया, लेकिन हमने उन्हें क्या दिया। यह विनाशकारी विकासात्मक मॉडल प्रवासी लोगों को बेरोज़गार करता है।

आज, जब हमारे सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ हमारे निजी जीवन में नैतिक मूल्यों का गहरा क्षरण हुआ है और जब नैतिक सिद्धांत राजनीति से लगभग गायब हो गए हैं, तो गांधीवादी मूल्य एक प्रभावी विकल्प के रूप में दिखाई देते हैं। अपने समय में गांधी जी ने न केवल राजनीतिक बल्कि देश को नैतिक नेतृत्व भी प्रदान किया, जो कि अब दुनिया से गायब हो चुका है। जैसा कि मार्टिन लूथर किंग ने सही कहा, “गांधी अपरिहार्य थे। अगर मानवता की प्रगति करनी है, तो गांधी अपरिहार्य हैं। उन्होंने शांति और सद्भाव की दुनिया विकसित करने की ओर प्रेरित किया। हम अपने जोखिम पर गांधी की उपेक्षा कर सकते हैं।”

मीता गुप्ता

Monday, 26 September 2022

युगद्रष्टा....युगस्रष्टा....या युगावतार गांधी

 

युगद्रष्टा....युगस्रष्टा....या युगावतार गांधी

आज़ादी का अमृत महोत्सव वर्ष में बापू की जन्म-जयंती के अवसर पर भावपूरित  श्रद्धांजलि




 

युगद्रष्टा गांधी या युगास्रष्टा गांधी.....महात्मा गांधी......या राष्ट्रपिता गांधी....या बापू। वास्तव में चाहे किसी भी नाम से संबोधित कर लें या किसी भी विशेषण से विभूषित करें, गांधी एक विचार हैं,एक चिंतन हैं,एक दर्शन हैं। वे ओबामा से लेकर नेल्सन मंडेला जैसी हस्तियों के प्रेरणास्रोत,अरब देशों की क्रांति में आदर्शों एवं सिद्धांतों की खुशबू और वर्तमान दौर में बड़े से बड़े आंदोलन, समाज सुधार, पर्यावरण संरक्षण,स्वच्छता, शिक्षा, कौशल-संवर्धन जैसे सामाजिक मसलों में आज भी ज़िंदा हैं।उनका प्रेम, त्याग, दूसरों पर भरोसा और सहअस्तित्व का संदेश आज के असुरक्षित समय और कलह से भरी दुनिया में प्रासंगिक हैं। उनकी राह मानवता, सहअस्तित्व, दृढ़ मनोबल और शांति की राह है। इन्हीं रास्तों पर चलने वाले कई लोग ऐसे भी होंगे, जिन्होंने न तो गांधीजी को पढ़ा होगा और न ही उनके बारे में सुना होगा ।

गांधी का जीवन एक नदी की भांति था, जिसमें कई धाराएं मौजूद थीं। उनके अपने जीवन में शायद ही ऐसी कोई बात रही हो, जिन पर उनका ध्यान नहीं गया हो या फिर उन्होंने उस पर अपने विचारों को प्रकट नहीं किया हो। आज़ादी की लड़ाई के साथ-साथ उन्होंने छुआछूत उन्मूलन, हिंदू-मुस्लिम एकता, चरखा और खादी को बढ़ावा, ग्राम स्वराज का प्रसार, प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा और परंपरागत चिकित्सीय ज्ञान के उपयोग सहित तमाम दूसरे उद्देश्यों पर काम करना जारी रखा था।

5 फरवरी 1916 को काशी के नागरी प्रचारिणी सभा के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- मेरे सपनों का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होना चाहिए। इसमें फ़र्क के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। ऐसे राज्य में जाति-धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। वह स्वराज्य सबके कल्याण के लिए होगा।

महात्मा गांधी अहिंसावादी थे और अन्याय के विरोध में अपनी आवाज़ उठाते थे। उनमें दोनों गुण शुरू में नहीं थे। अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज उठाने का अस्त्र उन्हें कस्तूरबा गांधी से मिला। अन्याय का दृढ़ता से विरोध करने की प्रेरणा कस्तूरबा ही थीं।इसी तरह अहिंसा के गुण उनमें प्रारंभ से नहीं थे। कहते हैं जब बैरिस्टर की पढ़ाई करने विदेश गए थे, तभी एक दिन तांगे में बैठने की जगह को लेकर एक अंग्रेज़ ने उनसे हाथापाई की। उन्होंने हाथ तो नहीं उठाया, लेकिन चुप रहकर विरोध प्रदर्शित किया। यहीं से नौजवान मोहनदास को मूक विरोध करने या कहें अहिंसा का अस्त्र मिला। संयुक्त राष्ट्र ने दो अक्तूबर को ‘अहिंसा दिवस’ घोषित किया क्योंकि विश्व संगठन को यह महसूस हुआ कि हम हिंसा के जिस भयावह दौर से गुजर रहे हैं, उससे बाहर निकलने का एक ही रास्ता है, जो गांधी ने सुझाया है, और वह है अहिंसा। गांधी की अहिंसा की बात केवल उपदेश तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उन्होंने स्पष्ट किया है कि अगर हम अहिंसक समाज बनाना चाहते हैं, तो हमारी राजनीति, हमारी अर्थनीति, हमारी संस्कृति, जो हमारी समाज रचना के बुनियादी आधार हैं, वे भी अहिंसा की बुनियाद पर होने चाहिए। जैसे, अगर शोषण पर आधारित आर्थिक नीति होगी, जो हिंसा का ही एक रूप है, तो हम अहिंसक समाज नहीं बना सकते। हमारी टेक्नोलॉजी, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी संस्कृति ऐसी बुनियाद पर आधारित हो, जो मानवीय हो, शोषण मुक्त हो, हिंसा मुक्त हो। उसी तरह से राजनीति में समाज को विभाजित करके आगे बढ़ने की जो प्रतिस्पर्धा चल रही है, वह भी हिंसा को बढ़ावा देने वाली है। इसलिए अहिंसक समाज की रचना के लिए राजनीतिक क्षेत्र में, आर्थिक क्षेत्र में, सांस्कृतिक क्षेत्र में-हर जगह अहिंसा के मूल्य दाखिल करने पड़ेंगे।

उनके उपवास का भी रोचक प्रसंग है। विदेश में पढ़ाई के दौरान वो बीमार पड़े। चिकित्सक ने सामिष सूप पीने की सलाह दी। बीमारी और कड़ाके की ठंड के बावजूद उन्होंने सिर्फ़ दलिया खाया। इससे उन्हें उपवास रूपी अस्त्र मिला। गांधीजी दोनों हाथों से लिखने में पारंगत थे। समुद्र में डगमगाते जहाज, तो चलती मोटर और रेलगाड़ी में भी फर्राटे से लिखते थे। एक हाथ थक जाता, तो दूसरे से उसी रफ़्तार में लिखना गांधीजी की खूबी थी। ‘ग्रीन पैंपलेट’ तथा ‘स्वराज’ पुस्तक चलते जहाज में लिखी थीं। यकीनन जहां लोग अपने काम को लोकार्पित करते हैं, वहीं गांधी ने अपना पूरा जीवन ही लोकार्पित कर दिया था।

विलक्षण गांधी अपने पूर्ववर्ती क्रांतिकारियों से जुदा थे। शोषणवादियों के खिलाफ अहिंसात्मक तरीके अपनाकर स्वराज, सत्याग्रह और स्वदेशी के पक्ष को मज़बूत कर वैचारिक क्रांति के पक्षधर गांधीजी साधन और साध्य को एक जैसा मानते थे। उनकी सोच थी कि सत्य और अहिंसा एक सिक्के के दो पहलू हैं। रचनात्मक संघर्ष में असीम विश्वास रखने वाले गांधीजी मानते थे कि जो जितना रचनात्मक होगा, उसमें स्वतः ही उतनी संघर्षशीलता के गुण आएंगे। स्वतंत्र राष्ट्र ही दूसरे स्वतंत्र राष्ट्रों के साथ मिलकर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना फलीभूत कर सकेंगे। वे स्वराज के साथ अहिंसक वैश्वीकरण के पक्षधर थे, जिससे दुनिया में स्वस्थ, सुदृढ़ अर्थव्यवस्था हो। गांधीजी मानते थे कि पश्चिमी समाजवाद, अधिनायकतंत्र है, जो एक दर्शन से ज़्यादा कुछ नहीं।

जहां मार्क्स के अनुसार आविष्कार या निर्माण की प्रक्रिया मानसिक नहीं, शारीरिक है, जो परिस्थितियों और माहौल के अनुकूल होती रहती है। वहीं गांधीजी इससे सहमत नहीं थे कि आर्थिक शक्तियां ही विकास को बढ़ावा देती हैं और दुनिया की सारी बुराइयों की जड़ या युद्धों के जन्मदाता आर्थिक कारण ही हैं । आध्यात्मिक समाजवाद के पक्षधर महात्मा ने इतिहास की आध्यात्मिक व्याख्या की है। उनके अनुसार यह उतना ही पुराना है, जितना पुराना व्यक्ति की चेतना में धर्म का उदय। उन्होंने केवल बाह्य क्रियाकलापों या भौतिकवाद को सभ्यता-संस्कृति का वाहक नहीं माना, बल्कि गहन आंतरिक विकास पर बल दिया। इसको समझाने के लिए वे कहते थे-ध्येयवादी जीवन के चार तत्व होते हैं- साधक, साधन, साधना और साध्य।

गांधीजी की सादगी रूपी अस्त्र के भी अनगिनत किस्से हैं। 1915 में भारत लौटने के बाद कभी पहले दर्जे में रेल यात्रा नहीं की। तीसरे दर्जे को हथियार बना रेलवे का जितना राजनीतिक इस्तेमाल गांधीजी ने किया, उतना शायद अब तक किसी भारतीय नेता ने नहीं किया।

गांधी जी क्रांतिकारी युगद्रष्टा थे, उन्होंने कभी नहीं कहा कि जो मैं कह रहा हूं, वही अंतिम सत्य है। उन्होंने कहा था कि सबको सत्य की तलाश करनी चाहिए, सबको सत्यनिष्ठ बनना चाहिए। इससे चिंतन के, विकास के, सभ्यता एवं संस्कृति के नए आयाम विकसित होंगे। हमें गांधी को मंदिर में स्थापित कर पूजा की वस्तु नहीं बनाना चाहिए, बल्कि उनके विचारों से प्रेरणा लेकर उनके मूल्यों को आगे बढ़ाना चाहिए। गांधी ने जीवन भर लक्ष्य को सामने रखा और खुद को पीछे रखा। अपनी सत्यनिष्ठा या विचारनिष्ठा के कारण ही उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया। याद रखना होगा गांधी एक विचारधारा हैं, दर्शन हैं, आईना हैं, जो शाश्वत है, सदैव प्रासंगिक हैं, और जो कभी मरता नहीं है,जो हमारे अस्तित्व में रचा-बसा है। इसीलिए श्री सोहन लाल द्विवेदी कह उठे-

तुम बोल उठे, युग बोल उठ, तुम मौन बने,युग मौन बना

कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर, युग कर्म जग,युगा धर्म तना,

युग-परिवर्त्तक,युग-संस्थापक,युग-संचालक,हे युग-धार !

युग-निर्माता,युग-मूर्ति! तुम्हें,युग-युग तक युग का नमस्कार ॥

 

      

                   मीता गुप्ता

फ़ोमो नहीं, जोमो अपनाइए..

 

फ़ोमो नहीं, जोमो अपनाइए..



हम सभी कुछ छूट जाने, कहीं पहुंच न पाने या किसी से मिल न पाने से या यूं कहें कि अपने महत्व को काम होता देख दुखी..परेशान हो जाते हैं। इसे फ़ोमो यानी ‘फीयर ऑफ मिसिंग आउट’ कहते हैं। इसके उलट कुछ खो देने का भी सुख लिया जाए, तो वह जोमो कहलाता है यानी ‘जॉय ऑफ मिसिंग आउट’ है न, नई और मज़ेदार बात ?

हम सूचनाओं की भरमार के युग में जी रहे हैं। कई बार हम इनके ढेर में दब से जाते हैं, जिससे ख़ुद के लिए उपयोगी और ज़रूरी विचार हमसे कहीं छूट जाते हैं। नतीजतन हम तनाव और अवसाद से घिर जाते हैं। पर यदि इनहके छूट या कभी-कभी खोने का आनंद लिया जाए, तो ज़िंदगी बेहतर बन सकती है। अमेरिकी विचारक रिचर्ड सॉल वुरमैन ने अपनी पुस्तक ‘इंफर्मेशन एंग्ज़ायटी’ में लिखा है, ‘बीते 30 सालों में इतनी सूचनाएं उत्पन्न की जा चुकी हैं, जितनी बीते 5000 वर्षों में भी नहीं हुईं।’ ग़ौरतलब है कि उनकी किताब आज से 30 साल पहले लिखी गई थी, जब सोशल मीडिया जैसे पल-पल नोटिफिकेशन भेजने वाले प्लेटफॉर्म नहीं थे। दार्शनिक व मार्केटिंग गुरु रेगिस मैककेना ने कहा है कि हम नए तथ्यों, नए विकास, नए विचारों और नई सूचनाओं की बमबारी के बीच ऐसे फंस गए हैं कि हमें अपने अतीत या वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर ही नहीं मिलता।

कहां से आया ‘जोमो’?

जोमो शब्द का प्रयोग सबसे पहले जुलाई 2012 में अमेरिकी ब्लॉगर और तकनीक उद्यमी अनिल डाश द्वारा किया गया था, जो सोशल मीडिया पर सक्रियता कम करने के संदर्भ में था। डाश ने उस साल अपने पुत्र के जन्म के बाद उसके साथ ख़ूब समय बिताया, जिससे उन्हें न सिर्फ़ ख़ुशी बल्कि सुकून भी मिला। तब उन्हें पता चला कि सोशल मीडिया से दूर रहने में कितना आनंद है, तो उन्होंने फ़ोमो यानी फियर ऑफ मिसिंग आउट के विपरीत जोमो शब्द ईजाद दिया। अनिल कहते हैं कि हम सोशल मीडिया जनित थकान से ग्रस्त हो चुके हैं, क्योंकि यहां बेहतर दिखने के लिए हम कई फिज़ूल काम करते हैं। इनको न करने से जिंदगी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, लेकिन इनको करने के चलते हम थकान के शिकार हो जाते हैं और बहुत-से ज़रूरी कार्य नहीं कर पाते। सूचनाओं के आदान-प्रदान की आपाधापी में सुकून और ख़ुशी के पलों का ठीक से आनंद भी नहीं ले पाते।

अधिक सूचनाएं, बढ़ती परेशानी

समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने 14 अक्टूबर 1996 में सभी अख़बारों के लिए एक लेख जारी किया था, ‘इंफॉर्मेशन इज़ बैड फॉर यू।’ इस लेख में बताया गया था कि सूचनाओं की अधिकता कारोबार पर बुरा असर डाल रही है और व्यक्तिगत जीवन में मानसिक उद्विग्नता और बीमारियों का कारण भी बन रही है। साथ ही यह रिश्तों और हमारे निजी समय को भी प्रभावित कर रही है। पुस्तक ‘द जॉय ऑफ मिसिंग आउट’ की लेखिका व मोटिवेशनल स्पीकर क्रिस्टीना क्रुक कहती हैं, ‘इंटरनेट पर हर रोज़ करोड़ों सूचनाएं दर्ज होती हैं। जब भी हम वेब पर जाते हैं, हमेशा कुछ नया मिल जाता है। इसमें उलझने पर हमारी ऊर्जा का क्षय होता है।’ इन तथ्यों के मद्देनज़र एक बात तो साफ़ है कि सूचनाओं और संदेशों की भरमार ने हमारी जिंदगी में बेकार की व्यस्तता, चिंता, उलझन और दुविधाएं बढ़ा दी हैं। उत्पादक या सार्थक काम में व्यस्त रहने के बजाय हम फिज़ूल बातों में उलझकर अस्त-व्यस्त रहने लगे हैं।

नज़रअंदाज़ करना है बेहतर

अच्छा होगा कि ऐसी चीज़ों पर ध्यान न दिया जाए जो हमारे कॅरियर, स्वास्थ्य और संबंधों के लिए ज़रूरी नहीं हैं, ताकि हम सुकून से जी सकें और उपयोगी काम कर सकें। }कभी गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे, तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि हमारे पास सोशल मीडिया और टीवी के माध्यम से जितनी सूचनाएं या संदेश आते हैं, वे ख़ास काम के नहीं होते। ये सनसनीखेज या किसी सेलिब्रिटी से जुड़े होते हैं। इन्हें चटपटा बनाकर हमारे सामने पेश किया जाता है।

आइए करें इंटरनेट उपवास

क्रिस्टीना क्रुक ने ज़िंदगी  का पूरा आनंद लेने के लिए 31 दिनों तक इंटरनेट उपवास किया। इस दौरान उन्होंने काफ़ी सुकून और आनंद अनुभव किया। अपने परिजनों और मित्रों से नज़दीकी और अपनापन महसूस किया। नई आदत विकसित की, जैसे कविता लिखना। वे कहती हैं कि भीड़ के पीछे भागने से आपको कभी संतुष्टि और आनंद नहीं मिल सकता। हम अपना आत्मविश्वास अपने चुने हुए पथ पर चलकर ही बढ़ा सकते हैं, सोशल मीडिया की दिखावटी (आभासी) दुनिया से प्रभावित होकर नहीं।

लेखक ग्रेग मैक कियोन कहते हैं, आपको अपनी ज़िंदगी  में एडिटिंग यानी काट-छांट या साफ़-सफ़ाई ठीक उसी प्रकार करते रहना चाहिए, जैसे आप अपनी अलमारी की करते हैं। लेखिका लिएन स्टीवंस ने लिखा है, फ़ोमो में हम चीज़ों को मिस करने के डर से कई बार गै़रज़रूरी चीज़ों को भी हां करते जाते हैं। जोमो इसका विपरीत है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि चुपचाप बैठकर ज़िंदगी को यूं ही बीत जाने दें। जोमो उन चीज़ों को मिस करने या उनसे दूर रहने के संबंध में है, जो हमारी ज़िंदगी  में ख़ुशियां हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं। इन्हें मिस करने के पीछे हमारा मक़सद यही होता है कि हम वास्तविक ज़िंदगी  के लिए समय, ऊर्जा और संसाधनों का सही दिशा में प्रयोग कर सकें।

    मीता गुप्ता

Sunday, 25 September 2022

हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी

 

हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी



 

 

मैं वह भाषा हूं, जिसमें तुम सपनाते हो, अलसाते हो

 

मैं वह भाषा हूं, जिसमें तुम अपनी कथा सुनाते हो

 

मैं वह भाषा हूं, जिसमें तुम जीवन साज़ पे संगत देते

 

मैं वह भाषा हूं, जिसमें तुम, भाव नदी का अमृत पीते

 

मैं वह भाषा हूं, जिसमें तुमने बचपन खेला और बढ़े

 

हूं वह भाषा, जिसमें तुमने यौवन, प्रीत के पाठ पढ़े

 

मां! मित्ती का ली मैंने... तुतलाकर मुझमें बोले

 

मां भी मेरे शब्दों में बोली थी - जा मुंह धो ले

 

जै जै करना सीखे थे, और बोले थे अल्ला-अल्ला

 

मेरे शब्द खजाने से ही खूब किया हल्ला गुल्ला

 

भावों की जननी मैं, मैं मां, मैं हूँ तिरंगे की शान

 

जन-जन की आवाज हूँ, मेरी शक्ति पहचान

 

लो चली मैं अब विश्व विजेता बनने

 

तमसो मा ज्योतिर्गमय, बढ़ाने भारत की शान॥

 

हिंदी भाषा का इतिहास लगभग एक हज़ार वर्ष पुराना माना गया है। हिंदी भाषा व साहित्‍य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्‍था 'अवहट्ठ' से हिंदी का उद्भव स्‍वीकार करते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसी अवहट्ठ को 'पुरानी हिंदी' नाम दिया।

अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है। हिंदी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। 1000 ई. के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रूप था - वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ। सन 1949 से हिंदी भारतीय संघ की राजभाषा है और अब यह विश्व की भाषा बनने की देहरी पर खड़ी है ।

हिंदी के वैश्विक संदर्भ -

इक्कीसवीं सदी बीसवीं शताब्दी से भी ज्यादा तीव्र परिवर्तनों वाली तथा चमत्कारिक उपलब्धियों वाली शताब्दी सिद्ध हो रही है। विज्ञान एवं तकनीक के सहारे पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव में तब्दील हो रही है और स्थलीय व भौगोलिक दूरियां अपनी अर्थवत्ता खो रही हैं। वर्तमान परिदृश्य में भारत विश्व की सबसे तीव्र गति से उभरने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से हैं तथा विश्व स्तर पर इनकी स्वीकार्यता और महत्ता स्वत: बढ रही है। हमारे पास अकूत प्राकृतिक संपदा तथा युवतर मानव संसाधन है जिसके कारण हम भावी वैश्विक संरचना में उत्पादन के बड़े स्रोत बन कर निकट भविष्य की विश्व शक्ति बन सकते हैं ।  ऐसी स्थिति में भारत की विकासमान अंतर्राष्ट्रीय छवि हिंदी के लिए वरदान-सदृश है। यह सच है कि वर्तमान वैश्विक परिवेश में भारत की बढती उपस्थिति हिंदी का भी उन्नयन कर रही है। आज हिंदी राजभाषा की गंगा से विश्वभाषा का गंगासागर बनने की प्रक्रिया में है।

हिंदी सदियों से इस देश की संपर्क भाषा का काम करती रही है, और प्रशासन में भी इसका उपयोग होता रहा है, इसे विशेष स्थान मिला है देश की आज़ादी  के बाद, जब यह औपचारिक रूप से आजाद भारत की राजभाषा अंगीकार की गई। इससे इसकी अखिल भारतीयता को औपचारिक और सांवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। तब से इसका प्रचार-प्रसार केंद्र सरकार की भी जिम्मेदारी हो गई।

राजभाषा राजकाज की भाषा होती है। अतः सरकार के स्तर पर हिंदी  के प्रचार-प्रसार का उद्देश्य था - हिंदी को कार्यालयीन कार्यों की भाषा बनाना। पहले हिंदी  जबकि केवल जनरुचि और जनस्वीकृति के बल पर अपना प्रसार पाती थी, अब इसे केंद्र सरकार की नीतियों का भी सहारा मिला। किंतु इसे प्रशासन की उदासीनता कह लें या एक बहुभाषी राष्ट्र की राजनैतिक विवशताएंं, हिंदी  को प्रशासन की भाषा बनाने का सपना पूरा नहीं हुआ। बल्कि इन नीतियों ने अहिंदी भाषी जनता में हिंदी के प्रति विद्वेष भी उत्पन्न किया। भले ही यह कमजोर रूप में है, लेकिन वह अभी भी यदा-कदा मुखर रूप में उभर जाता है।

आज वह विश्व के सभी महाद्वीपों तथा महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों- जिनकी संख्या लगभग एक सौ चालीस है- में किसी न किसी रूप में प्रयुक्त होती है। वह विश्व के विराट फ़लक पर नवल चित्र के समान प्रकट हो रही है। आज संख्या के आधार पर चीनी भाषा के बाद विश्व की दूसरी सबसे बडी भाषा बन गई है।

देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता –

जहाँ तक देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का सवाल है तो वह सर्वमान्य है। देवनागरी में लिखी जाने वाली भाषाएँ उच्चारण पर आधारित हैं। हिंदी भाषा का अन्यतम वैशिष्ट्य यह है कि उसमें संस्कृत के उपसर्ग तथा प्रत्ययों के आधार पर शब्द बनाने की अभूतपूर्व क्षमता है। हिंदी और देवनागरी दोनों ही पिछले कुछ दशकों में परिमार्जन व मानकीकरण की प्रक्रिया से गुजरी है, जिससे उनकी संरचनात्मक जटिलता कम हुई है। हम जानते हैं कि विश्व मानव की बदलती चिंतनात्मकता तथा नवीन जीवन स्थितियों को व्यंजित करने की भरपूर क्षमता हिंदी भाषा में है ।

हिंदी को माध्यम के रूप में स्वीकार्यता–

विगत कुछ वर्षों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित हिंदी पुस्तकें की रचना में सार्थक प्रयास हो रहे हैं। अभी हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा द्वारा हिंदी माध्यम में एम.बी.ए. का पाठ्यक्रम आरंभ किया गया। इसी तरह "इकोनामिक टाइम्स' तथा "बिजनेस स्टैंडर्ड' जैसे अखबार हिंदी में प्रकाशित होकर उसमें निहित संभावनाओं का उद्घोष कर रहे हैं। पिछले कई वर्षों में यह भी देखने में आया कि "स्टार न्यूज' जैसे चैनल जो अंग्रेज़ी में आरंभ हुए थे वे विशुद्ध बाजारीय दबाव के चलते पूर्णत: हिंदी चैनल में रूपांतरित हो गए। साथ ही, "ई.एस.पी.एन' तथा "स्टार स्पोर्ट्स' जैसे खेल चैनल भी हिंदी में कमेंट्री देने लगे हैं। हिंदी को वैश्विक संदर्भ देने में उपग्रह-चैनलों, विज्ञापन एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा यांत्रिक सुविधाओं का विशेष योगदान है। हाल ही में ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर भी हिंदी अपना वर्चस्व बढ़ा रही है । नेटफ़्लिक्स, लॉयंसगेट जैसे विदेशी प्लेटफ़ॉर्म भी हिंदी के महत्व को समझ रहे हैं और हिंदी जनसंचार-माध्यमों की सबसे प्रिय एवं अनुकूल भाषा बनकर निखरी है।

आज विश्व में सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले समाचार‌-पत्रों में आधे से अधिक हिंदी के हैं। इसका आशय यही है कि पढ़ा-लिखा वर्ग भी हिंदी के महत्त्व को समझ रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीशस,चीन,जापान,कोरिया, मध्य एशिया, खाड़ी देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक में हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के ज़रिए प्रसारित हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। हिंदी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ़ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बड़ी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट जैसे वैश्विक माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं।

माइक्रोसाफ्ट, गूगल, सन, याहू, आईबीएम तथा ओरेकल जैसी विश्वस्तरीय कंपनियाँ अत्यंत व्यापक बाज़ार और भारी मुनाफ़े को देखते हुए हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दे रही हैं। संक्षेप में, यह स्थापित सत्य है कि हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है। आज विश्व के दर्जनों देशों में हिंदी की पत्रिकाएँ निकल रही हैं तथा अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान, आस्ट्रिया जैसे विकसित देशों में हिंदी के कृतिकार अपनी सृजनात्मकता द्वारा उदारतापूर्वक विश्व मन का संस्पर्श कर रहे हैं। हिंदी के शब्दकोश तथा विश्वकोश निर्मित करने में भी विदेशी विद्वान सहायता कर रहे हैं।

जहाँ तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विनिमय के क्षेत्र में हिंदी के अनुप्रयोग का सवाल है तो यह देखने में आया है कि हमारे देश के नेताओं ने समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में भाषण देकर उसकी उपयोगिता का उद्घोष किया है। यदि श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा श्री पी.वी.नरसिंहराव द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में दिया गया वक्तव्य स्मरणीय है, तो श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्र मंडल देशों की बैठक तथा श्री चंद्रशेखर द्वारा दक्षेस शिखर सम्मेलन के अवसर पर हिंदी में दिए गए भाषण भी उल्लेखनीय हैं। यह भी सर्वविदित है कि यूनेस्को के बहुत सारे कार्य हिंदी में संपन्न होते हैं। इसके अलावा अब तक विश्व हिंदी सम्मेलन’ मॉरीशस, त्रिनिदाद, लंदन, सुरीनाम तथा न्यूयार्क जैसे स्थलों पर सम्पन्न हो चुके हैं । हिंदी को वैश्विक संदर्भ और व्याप्ति प्रदान करने में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा विदेशों में स्थापित भारतीय विद्यापीठों की केंद्रीय भूमिका रही है जो विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों में फैली हुई है। इन विश्वविद्यालयों में शोध स्तर पर हिंदी अध्ययन अध्यापन की सुविधा है जिसका सर्वाधिक लाभ विदेशी अध्येताओं को मिल रहा है।

हिंदी विश्व के प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण देशों के विश्व विद्यालयों में अध्ययन अध्यापन में भागीदार है। अकेले अमेरिका में ही लगभग एक सौ पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी का पठन-पाठन हो रहा है। हिंदी सिनेमा अपने संवादों एवं गीतों के कारण विश्व स्तर पर लोकप्रिय हुए हैं। हिंदी की मूल प्रकृति लोकतांत्रिक तथा रागात्मक संबंध निर्मित करने की रही है। वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ही राजभाषा नहीं है, बल्कि पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, फिजी, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद तथा सुरीनाम जैसे देशों की संपर्क भाषा भी है। हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बीच खाड़ी देशों, मध्य एशियाई देशों, रूस, समूचे यूरोप, कनाडा, अमेरिका तथा मैक्सिको जैसे प्रभावशाली देशों में रागात्मक जुड़ाव तथा विचार-विनिमय का सबल माध्यम है।

यह कहना सर्वथा उचित होगा कि विपुल साहित्यिक वैभव के साथ ही सरल शब्दावली के समायोजन की क्षमता के कारण हिंदी विश्व बाज़ार की भाषा बनने का व्यापक सामर्थ्य रखती है। भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी राष्ट्र अस्मिता और पुनर्जागरण की भाषा बन गई है । यदि निकट भविष्य में बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था निर्मित होती है और संयुक्त राष्ट्र संघ का लोकतांत्रिक ढंग से विस्तार करते हुए भारत को स्थायी प्रतिनिधित्व मिलता है, तो हिंदी यथाशीघ्र ही इस शीर्ष विश्व संस्था की भी भाषा बन जाएगी।

हिंदी ने अपनी विभिन्न बोलियों और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से प्रभाव ग्रहण करते हुए अपना एक अखिल भारतीय मानक रूप विकसित कर लिया है। अब इसका एक अत्यंत समृद्ध साहित्य है, जिसमें साहित्य के अलावा इसके पास अन्य अनुशासनों में रचित साहित्य का विशद भंडार है। यह भारत की राजभाषा और सम्पर्क भाषा होने के साथ अघोषित राष्ट्रभाषा भी है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि यह देश की बहुसंख्या की भाषा है, बल्कि इसलिए भी कि यह देश के संपूर्ण सांस्कृतिक उत्तराधिकार का वहन करती है। यह एक तरफ देश की संस्कृति की वाहिका संस्कृत भाषा के समीप है, जो समस्त आर्यभाषाओं की जननी है और एक तरह से द्रविड़ भाषाओं की भगिनी है, तो दूसरी ओर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को भी व्यक्त करने में सक्षम है। खड़ी बोली हिंदी के साहित्य को अभी एक सदी से थोड़ा ही जो अधिक हुआ है किंतु इतनी अल्पावधि में ही इसने जितना विकास कर लिया है उतना अंग्रेज़ी जर्मन आदि विकसित भाषाएं कई सदियों में कर पाई हैं। यह गर्व की बात है। हिंदी अपने अपार अभिव्यक्ति सामर्थ्य के बल पर आज के युग की आवश्यकताओं को पूरा करने में पूर्ण सक्षम है - कम से कम अपने देश में तो अवश्य। इसमें संभावनाएं अनंत है। किंतु संभावनाओं का होना एक बात है और उन संभावनाओं को यथार्थ का रूप देना दूसरी बात।

आज़ादी  के पूर्व हिंदी ने अगर भारतीय नवजागरण की चेतना का वहन किया, तो आज़ादी  के बाद राष्ट्र-निर्माण की प्रेरणा का माध्यम भी बनी। साहित्य और ज्ञान के विविध क्षेत्रों में हिंदी में नए और मौलिक काम हुए। एक उद्देश्य था कि देश को अपनी भाषा में, आम जन को सम्मिलित करते हुए सशक्त बनाना है, आगे बढ़ाना है। यह उत्साह अब मृतप्राय है। आज़ादी  के सात दशक बीतते न बीतते यह स्पष्ट दिखने लगा है कि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर भारत की तरक्की की जा सकती है इसका कोई विश्वास हममें नहीं बचा है। पूरा देश इस बात पर एकमत दिखता है कि भारतीय भाषाओं में कोई भविष्य नहीं,यदि आज की वैश्वीकृत दुनिया में आगे बढ़ना है तो वह अंग्रेज़ी के रास्ते ही संभव है।

हिंदी में चाहे जितनी भी सामर्थ्य और संभावना हो उसे अपनाने का ही कोई उत्साह लोगों में नहीं रहा। हिंदी में साहित्य के क्षेत्र में भले पूर्ववत सक्रियता बनी हुई है लेकिन कोई भाषा केवल साहित्य के बल पर आगे नहीं बढ़ती। बल्कि साहित्येतर क्षेत्रों में भाषा का प्रयोग उसकी व्यावहारिक शक्ति का परिचायक है - वही उसमें जीविकोपार्जन की क्षमता लाता है। हालांकि हिंदी विषय की पढ़ाई दुनिया में नई-नई जगहों में शुरू हो रही है, लेकिन स्वयं अपने देश के शिक्षण संस्थानों में शिक्षण माध्यम के रूप में सिकुड़ती जा रही है, इसलिए कुछेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विज्ञापनों के बल पर यह मान लेना कि हिंदी  की लोकप्रियता दुनिया भर में बढ़ रही है, एक भ्रम पालने जैसा है।

हिंदी माध्यम के स्कूल, कॉलेज या तो उपेक्षा से बंद होते जा रहे हैं या विवशता में अंग्रेज़ी माध्यम अपना रहे हैं। नई पीढ़ी को हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर किसी प्रकार का गौरव या भरोसा नहीं है। वह जैसे भी हो, अंग्रेज़ी अपना रही है ताकि आज की प्रगति और विकास की दौड़ में शामिल हो सके। दूसरी तरफ, आज के युग की तकनीकी प्रगति में हिंदी ने तेजी से अपनी पैठ बनाई है। सूचना प्रौद्योगिकी का आरंभ अंग्रेज़ी में हुआ लेकिन तकनीक किसी एक भाषा को ही सुविधा या अवसर नहीं देती। सूचना प्रौद्योगिकी के पंखों पर सवार होकर हिंदी  अपना अभूतपूर्व प्रसार कर रही है। ज्ञान और मनोरंजन के माध्यमों में हिंदी का स्थान दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

इंटरनेट पर हिंदी के प्रयोक्ताओं की संख्या किसी भी अन्य भारतीय भाषा की अपेक्षा अधिक है। मास मीडिया के जबरदस्त उभार से पत्रकारिता व इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों में हिंदी के लिए अवसर बढ़े हैं और उल्लेखनीय रूप से रोजगार सृजन हुआ है। लेकिन अपने तमाम फैलाव के बावजूद हिंदी  पत्रकारिता अपनी गुणवत्ता के प्रति खास उम्मीद नहीं जगाती। वह आत्मविश्वास जो पहले अज्ञेय आदि के जमाने में हिंदी  पत्रकारिता में नजर आता था, अब लुप्तप्राय है। अब वह साफ तौर पर अंग्रेज़ी की पिछलग्गू नजर आती है। सामग्री ही नहीं, भाषा के स्तर पर भी उसमें अंग्रेज़ी की घुसपैठ हो रही है।

हिंदी के अखबार और टीवी चैनल, रेडियो हिंदी  और अंग्रेज़ी की मिली-जुली भाषा पर उतर आए हैं, जिसमें अंग्रेज़ी शब्दों-पदबंधों का अनुपात दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। समूह माध्यमों की भाषा हिंदी  में हो रहे एक बड़े क्षरण का संकेत दे रही है। कहा ही जा रहा है कि हिंदी  धीरे धीरे हिंग्लिश में बदल जाएगी। एक ऐसी मिश्रित भाषा, जिसमें हिंदी का केवल अस्थिपंजर होगा, उसपर मांस-मज्जा-रक्त-शिराएं सभी अंग्रेज़ी की होंगी। समूह माध्यमों की यह खिचड़ी भाषा धीरे-धीरे साहित्य में भी 'रिसती' जा रही है। हद तो तब होती है जब हिंदी के साहित्यालोचक भी अपनी भाषा में बीच बीच में अंग्रेज़ी की छौंक लगाकर अपने को आधुनिक और अंग्रेज़ी-शिक्षित साबित करने की कोशिश करते हैं।

भाषा अस्मिता से जुड़ी चीज है और अस्मिता के प्रश्न जल्दी नहीं मरते। भारतीय अस्मिता की सच्ची वाहिका हिंदी व अन्य भारतीय भाषाएं ही हैं, अंग्रेज़ी नहीं। यह सच है कि हिंदी भाषी क्षेत्र अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति उदासीन हैं और वे हिंदी के संरक्षण या संवर्धन के लिए उत्सुक नहीं दिखते जिस कारण हिंदी का भविष्य भी अंधेरा दिखता है लेकिन हिंदी तर क्षेत्रीय भाषाओं के समाज में अपनी भाषा के प्रति पर्याप्त सजगता और सक्रियता है। क्षेत्रीय भाषाएं रहेंगी और साथ में उनके बीच संपर्क सेतु का काम करती हिंदी  भी रहेगी। हिंदी  का क्षेत्रीय भाषाओं के साथ सहयोग और सहकार का संबंध है।

अंत में, उपर्युक्त सारी बातों के बावजूद, भविष्य कई बार हमारी कल्पना और अनुमानों से भी ज्यादा विलक्षण होता है। अभी हमारे सामर्थ्य में यही है कि मौजूदा प्रवृत्तियों और परिवर्तनों को देखते हुए अपनी निराशा को परे रखते हुए आनेवाले समय में हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं की बेहतरी के लिए प्रार्थना, और भरसक प्रयत्न, करते रहें। हिंदी माह की मौजूदा सक्रियता, सामयिक होते हुए भी, इस मायने में एक उम्मीद जगाती है।

 

 

मीता गुप्ता

हिंदी प्रवक्ता

केंद्रीय विद्यालय पूर्वोत्तर रेलवे

बरेली

8126671717

mgupta1301@gmail.com

 

 

जानिए पढ़ाई का बेस्ट टाइम

 

जानिए पढ़ाई का बेस्ट टाइम




सुबह होती है शाम होती है, उम्र यूं ही तमाम होती है

- मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम

मेरे लिए पढ़ाई करने का बेस्ट टाइम क्या है, जिससे मैं अपना परफॉरमेंस सुधार लूं? प्रिय स्टूडेंट्स, क्या आप भी इस प्रश्न में उलझ रहे हैं? आज मैं आपको सही समाधान दूंगी ।

विज्ञान क्या कहता है...और प्रैक्टिकली क्या होता है-वैज्ञानिक रिसर्च कहती है कि सुबह 10 बजे से दोपहर 2 बजे के बीच और शाम 4 बजे से रात 10 बजे तक इंसान का दिमाग सीखने के मोड में होता है, इसलिए यह पढ़ने का सबसे सही समय है। लेकिन प्रैक्टिकली देखा जाए, तो यहाँ दो फैक्टर्स काम करते हैं: पहला आपके दिन का पैटर्न क्या है - मतलब आपके स्कूल-कॉलेज जाने के टाइम के अनुसार आपके पास पढ़ने के लिए समय कब है, और दूसरा आपका बायोलॉजिकल साइकिल क्या है - मतलब आप कब सबसे ज्यादा अलर्ट और एनर्जेटिक महसूस करते हैं। आज हम कॉलेज, स्कूल और कोचिंग के कंपल्सरी टाइम के नहीं, आपके स्वेच्छा से तय टाइम की बात करेंगे।

पहले एक प्यारी कहानी सुनिए-जंगल में एक आश्रम में एक ज्ञानी साधु रहते थे। ज्ञान प्राप्ति की चाह में विद्यार्थी उनके पास आया करते थे। एक बेहद आलसी छात्र की मां उसे लाई, और बाबा से समाधान मांगा। ज्ञानी साधु ने आलसी बालक को अपने पास बुलाया और उसे एक पत्थर देते हुए कहा, 'यह कोई सामान्य पत्थर नहीं, बल्कि पारस पत्थर है। लोहे की जिस भी वस्तु को यह छू ले, वह सोना बन जाती है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं, इसलिए दो दिनों के लिए ये पारस पत्थर तुम्हें दे रहा हूं। अगले दो दिनों के बाद तुमसे ये पारस पत्थर ले लूंगा। जितना चाहो, उतना सोना बना लो।'

आलसी छात्र बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने सोचा, इससे मैं इतना सोना बना लूंगा कि मुझे जीवन भर काम करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। फिर उसने अपनी आदत से सोचा कि अभी तो पूरे दो दिन हैं। ऐसा करता हूं, एक दिन आराम करता हूं। जब दूसरा दिन आया, तो उसने सोचा कि आज बाज़ार जाकर ढेर सारा लोहा ले आऊंगा और पारस पत्थर से छूकर उसे सोना बना दूंगा। लेकिन इस काम में अधिक समय लगेगा नहीं। इसलिए पहले भरपेट भोजन करता हूं। भरपेट भोजन करते ही उसे नींद आने लगी। ऐसे में उसने सोचा कि अभी मेरे पास शाम तक का समय है। कुछ देर सो लेता हूं।

फिर क्या? वह गहरी नींद में सो गया। जब उसकी नींद खुली, तो सूर्य अस्त हो चुका था और दो दिन का समय पूरा हो चुका था। साधु ने कहा, 'सूर्यास्त के साथ ही दो दिन पूरे हो चुके हैं। तुम मुझे वह पारस पत्थर वापस कर दो।' आलसी रोने लगा। इसी तरह जीवन में आलस्य से लड़ाई सतत होती है और आप इस लड़ाई में हारना मत। अवसर का पारस पत्थर बेकार हो जाएगा। एक प्रसिद्ध गीत है-आने वाला पल जाने वाला है, हो सके तो इसमें ज़िंदगी बिता दो, पल जो ये जाने वाला है। इस भाव का हमेशा ध्यान रखना ज़रूरी है|

कैसे पता लगाएं, कौन-सा समय पढ़ने के लिए बेस्ट है?

सबसे पहले अपने शेड्यूल में देखे कि आप किस वक्त पढ़ाई के लिए समय निकाल सकते हैं। क्रोनोबायोलॉजी (उचित समय के विज्ञान) के अनुसार मनुष्य शरीर का विभिन्न क्षेत्रों में प्रदर्शन हमारे डीएनए से जुड़ा है और हमारी बायोलॉजिकल क्लॉक (जो हमें भूख, प्यास, नींद का अहसास कराती है) पर निर्भर करता है। इसलिए एक बार शेड्यूल में उपलब्ध टाइम पता चल जाने पर यह देखें कि उसमें कौन सा समय आपके शरीर की बायोलॉजिकल क्लॉक पर फिट बैठता है।

सुबह, दोपहर, शाम - एक एनालिसिस-

सुबह: सुबह पढ़ते वक्त दिमाग फ्रेश होता है, वातावरण में प्राकृतिक ठंडक और रोशनी के कारण पढ़ने में मन ठीक से लगता है, वातावरण शांत होता है। शास्त्रों में इसे ब्रह्ममुहूर्त कहा गया हैं। एक फायदा और है कि सोशल मीडिया का डिस्ट्रैक्शन कम होता है। कई लोग हैं जिन्हें सुबह उठने में परेशानी होती है, क्योंकि उनका रात का शेड्यूल परमिट नहीं करता। तो आपकी बायो क्लॉक, आपका शेड्यूल और आपकी आदत से ही तय करें, किसी के बोलने से नहीं।

दोपहर: दोपहर में पढ़ाई करने के अपने फ़ायदे हैं- आप ग्रुप स्टडी कर सकते हैं और यदि आप को पढ़ाई में कुछ डाउट्स आते हैं, तो आप टीचर्स और दोस्तों से पूछ सकते हैं। लेकिन यदि खाने पर नियंत्रण नहीं, और हैवी लंच लेते हैं या आपको दिन में सोने की आदत है, तो दिक्कत है!

रात: कई क्रिएटिव लोग रात को काम करते हैं। फायदे- डिस्टर्बेंस कम होता है (सब लोग सोए होते हैं), पढ़ने के के बाद सोने से दिमाग को सूचनाओं को अरेंज करने का समय मिलता है और मेमोरी में सुधार होता है, और सोशल मीडिया भी उतना एक्टिव होता है। हालांकि, यदि पर्याप्त नींद (घंटों में) ना लेने का हेल्थ पर असर पड़ सकता है और दिन के समय एकाग्रता की कमी हो सकती है। एक बात और, कई बार दिन भर की थकान (शारीरिक और मानसिक) के कारण काम की क्वालिटी पर असर पड़ सकता है।

तो आज का विचार यही है कि पढ़ाई के टाइम की प्लानिंग हर स्टूडेंट को अपने पर्सनल बायो क्लॉक, आदतों और ज़रूरतों से तय करनी चाहिए। हाँ, यह ज़रूरी है कि हम अपने शरीर, अपनी दिनचर्या, अपने समय, अपने परिवेश और अपनी आदतों को पहचानें और उसके अनुसार पढ़ाई के टाइम की प्लानिंग करें।

मीता गुप्ता

 

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...