राजभाषा:कार्याचरण
और सामासिक संस्कृति
स्वतंत्रता
प्राप्ति के पिचहत्तर वर्ष के बाद भी देश की राजभाषा विषयक समस्या को लेकर विचार
मंथन क दिशा में अग्रसर होने की हमारी प्रवृत्ति अभी अवशिष्ट ही रह गई है, यह कोई प्रसन्नता और संतोष का विषय नहीं कहा जा सकता। कोई तकपूर्ण शैली
में यह नहीं कहा कह सकता कि एक बड़े देश के लिए पिचहत्तर वर्ष का समय नगण्य हैं,
कुछ नहीं है। परंतु यह बात भी सत्य है कि इतने समय की मानवीय शक्ति
तथा राष्ट्रीय धन निरर्थक भी नहीं होना चाहिए। स्वराज्य या स्वातंत्रय का प्रयोजन
जनराज्य या लोकतंत्र है, तो सरकार का कामकाज भी जनभाषा में होना चाहिए, यह सर्वथा तर्कसंगत है। महात्मा गांधी जी की यह उक्ति यहाँ स्मरणीय है- ‘अगर हमारे देश का स्वराज्य अंग्रेज़ी बोलने वाले भारतीय का और
उन्हीं के लिए होना वाला है, तो निःसंदेह अंग्रेज़ी ही राजभाषा होगी, लेकिन अगर
हमारे देश के करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षर
बहनों और दलित जनों का है और इन सब के लिए होने वाला है तो हमारे देश में हिंदी का
एकमात्र राजभाषा हो सकती है।’
देश
की राजभाषा के संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार कर हमारे संविधान निर्माताओं ने
भारतीय संविधान में अनेक उपबंध किए हैं। इन उपबंधों का सही कार्याचरण करने से
हमारे वांछित उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। भारतीय संविधान के अनुसार उपर्युक्त
विषयक जो अनेक उपबंध है, उनको सार रूप में इस
प्रकार बताया जा सकता है। संघ की राजभाषा, राष्ट्रपति के
आदेश, राजभाषा आयोग, राजभाषा अधिनियम
तथा राज्यों की राजभाषाएँ। संसद में प्रयोग होने वाली भाषा कानून बनाने के लिए तथा
उच्चतम और उच्च न्यायालयों आदि की भाषा। प्रस्तुत विषय के प्रतिपादन के लिए
उपर्युक्त बातों का किंचित विवरण भी अपेक्षित होता है।
संघ
की राजभाषा अनुच्छेद 343 में संघ की राजभाषा
के संबंध में जो कहा गया है, उसका सार यह है कि संघ की
राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष के लिए
सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग के विषय में उस अनुच्छेद के खंड 2 में तथा उस कालावधि के पश्चात् अंग्रेजी भाषा के प्रयोग और अंकों के देवनागरी
रूप के प्रयोग के विषय में उसी अनुच्छेद के खंड 3 में बताया
गया है। खंड 1 में ही राजभाषा के संबंध में बताने के साथ साथ
भारतीय अंकों के अंतर्राष्ट्रीय रूप के प्रयोग के बारे में भी बताया गया है।
उपर्युक्त
अनुच्छेद 343 के खंड 2
के अधीन राष्ट्रपति का एक आदेश 1952 में जारी किया गया,
जिसमें राज्यों के राज्यपालों, उच्चतम
न्यायालय के न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के नियुक्ति
अधिपत्रों के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त देवनागरी के अंकों के प्रयोग को
प्राधिकृत किया गया एवं 1955 में जारी किए गए राष्ट्रपति के
एक और आदेश के अनुसार संघ के निम्नांकित राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के
अतिरिक्त हिंदी भाषा के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया - जनता के साथ पत्र व्यवहार
प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी पत्रिकाएँ और संसद में प्रयुक्त
की जाने वाली रिपोर्ट सरकारी संकल्प और विधायी अधिनियम जिन राज्य सरकारों ने हिंदी
को अपनी राजभाषा के रूप में अपना लिया है उनके साथ पत्र-व्यवहार संधियाँ और करार
अन्य देशों की सरकारों और उनके दूतों और अंतराष्ट्रीय संगठनों के साथ पत्र व्यवहार
राजनीयिक तथा कौंसली अधिकारियों और अंतराष्ट्रीय संगठनों में भारत के प्रतिनिधियों
को जारी किए जाने वाले औरचारिक कागज पत्र। संघ की राजभाषा हिंदी के विकास के लिए
अनुच्देद 351 में जो निर्देश दिया गया है, वह इस प्रकार है - “हिंदी भाषा की प्रसार, वृद्धि करना, उसका विकास
करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृतिक के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो
सके तथा उसकी आत्मीयता में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी और अष्टम अनुसूची में
(अष्टम अनुसूची में उल्लिखित भाषाएँ हैं- तेलुगू , पंजाबी,
बंगला, मराठी, असमिया,
उड़िया, उर्दू, कन्नड़,
कश्मीरी, गुजराती, तमिल,
मलयालम, संस्कृत, और हिंदी)
उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूप में शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए जहाँ
आवश्यक या वांछित हो वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणतः
अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य
होगा।“
हिंदी
भाषा के उत्तरोत्तर अधिक प्रयोग के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग को काम करने के लिए संचार की भाषा के संबंध में निर्णय करने
के लिए तथा संघ के राजकीय प्रयोजनों में से सब या किसी के लिए अनुच्छेद 344 में एक आयोग गठित करने तथा तदनुसार आदेश जारी करने का अधिकार ‘राजभाषा
आयोग’ को है। उसके तीस सदस्यों में बीस सदस्य लोकसभा के तथा दस सदस्य राज्यसभा के
सदस्यों द्वारा अनुपाती प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल मत द्वारा निर्वाचित
हुए। उक्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार राष्ट्रपति ने 1960
में एक आदेश जारी किया, जिसमें निम्नांकित महत्वपूर्ण बातें
हैं-वैज्ञानिक तक तकनीकी शब्दावली केनिर्माण के लिए शिक्षा मंत्रालय को एक स्थायी
आयोग स्थापित करना चाहिए, शिक्षा मंत्रालय सांविधिक नियमों, विनियमों
और आदेशों के अतिरिक्त सभी मैन्युअलों तथा कार्य विधि साहित्य का अनुवाद अपने हाथ
में ले ले और भाषा में एक रूपपता सुनिश्चित करने की आवश्यकता की दृष्टि से यह काम
केवल एक ही अभिकरण को सौंपा जाए। एक मानक विधि शब्दकोश बनाने, हिंदी में विधि के
पुनः अधिनियम और विधि शब्दावली के निर्माण के लिए विभिन्न राष्ट्रीय भाषाओं का
प्रतिनिधित्व करने वाले कानून के विशेषज्ञों का एक स्थायी आयोग स्थापित किया जाए।
तृतीय श्रेणी के नीचे के कर्मचारियों, औद्योगिक संस्थाओं के
कर्मचारियों और कार्य प्रभारित कर्मचारियों को छोड़कर उन सभी केंद्रीय सरकारी
कर्मचारियों के लिए हिंदी का सेवाकालीन प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जाए, जिनकी आयु
दिनांक 1-1-61 को 45 वर्ष से कम हो।
गृह
मंत्रालय टंकणों और आशुलिपिकों को हिंदी टंकण तथा आशुलेखन का प्रशिक्षण देने के
लिए भी प्रबंध करें। राष्ट्रपति के उपर्युक्त आदेश के तथा राजभाषा अधिनियम,
1963 जो 1967 में संशोधित हुआ और राजभाषा नियम,
1976 के अनुसार हिंदी को संघ की राजभाषा के आसन पर पूर्णरूपेण आसीन
करने का प्रयत्न किया जा रहा है यद्यपि इस प्रयत्न के सभी अंग समान रूप से
प्रभावशील और फलकारी सिद्ध नहीं हुए हैं। तमिलनाडु जैसे अहिंदी राज्य में हिंदी
विरोधी आंदोलन होने से तथा संसद में अहिंदी भाषी सदस्यों द्वारा आग्रह होने से
पंद्रह वर्ष की कालावधि के लिए अंग्रेजी को संघ की राजभाषा के रूप में पहले जो
स्वीकार किया गया था, वह 1965 के बाद
भी जारी रखकर कालावधि की बात ही हटा दी गई अर्थात अनिश्चित काल के लिए संघ की
राजभाषा वाला प्रश्न वैसा ही छोड़ दिया गया, इसलिए यह
निश्चित नहीं है कि हिंदी पूर्ण रूप से संघ की राजभाषा के रूप में सहराजभाषा के
रूप में नहीं एकमात्र राजभाषा के रूप में कब प्रतिष्ठित होगी। संविधान निर्माताओं
ने बहुत सोच समझकर संविधान के लागू होने से पंद्रह वर्ष की कालावधि तक अंग्रेजी के
प्रयोग को स्वीकार करना कोई शुभकर बात नहीं कही जा सकती। जिस प्रकार संविधान
निर्माताओं ने प्रारंभ में कालावधि निश्चित की थी उसी प्रकार अहिंदी भाषाभाषियों
को इस संबंध में आश्वासन कालावधि निश्चित करके दिया जा सकता था। वांछित होने पर
कालावधि बाद में बढ़ाई जा सकती थी, जैसा कि अन्य मामलों में
किया गया है।
यह
सर्वथा सत्य है कि संविधान के अनुच्छेद 344 के खंड 2 में राजभाषा आयोग द्वारा लोक सेवाओं के
बारे में अहिंदी भाषाभाषी क्षेत्रों के लोगों के न्यायपूर्ण दावों और हितों की
सम्यक रक्षा की बात कही गई है। संपूर्ण देश के हित के विचार से, राजभाषा के निश्चय के विचार से अनिश्चित काल की संज्ञा भ्रमकारक सिद्ध
होती है। इस कारण नई भाषा सीखने वालों के मन में एक प्रकार का ढीलापन और ताटस्थ्य
भाव उत्पन्न हो जाता है। यह मानते हुए भी कि हिंदी के विकास के लिए अनेक योजनाएँ
कार्यान्वित हो रही हैं, सरकारी कार्योलयों में उसकी
बढ़ोत्तरी के प्रयत्न हो रहे हैं, तथा देश के नेता और
गण्यमान व्यक्ति उसके संबंध में अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। यह भी मानना पड़ेगा
कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हिंदी के प्रति जो निष्ठा थी, हिंदी के प्रति जो प्रेम था, अहिंदी प्रदेशों में हिंदी
सीखने के लिए जो अदम्य उत्साह था और हिंदी का कार्यक्रम एक राष्ट्रीय कार्यक्रम
समझकर उसमें प्रवृत होने की जो मनोभावना थी, वह आज नहीं है।
।
तपस्या
से सब कुछ मिलता सकता है, भाषा भी एक तपस्या है,
उसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ेगी, राजभाषा हिंदी
के लिए की जाने वाली हमारी तपस्या व्यर्थ नहीं होगी, यह
भावना भी कई लोगों के मन में है। जहाँ तक राजभाषा का सवाल है, यह कहा जा सकता है कि हम लोग संधिकाल में हैं। अस्तु, सरकार के द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे कार्यक्रमों के संबंध में विचार
करने के पहले राजभाषा अधिनियम के संबंध में तथा अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन में
अंगीकृत कुछ महत्वपूर्ण बातों के विषय में विचार करें।
-मीता
गुप्ता
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