शब्दों के
आदान-प्रदान
संस्कृत की आधारभूत
शक्ति से सम्पन्न हिंदी भाषा ने देश-दुनिया की कई भाषाओं से शब्द लिए हैं और बदले
में अपने शब्द-भंडार से उन्हें समृद्ध भी किया है। मूल में संस्कृत का होना हिंदी
को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जोड़ता है और संसार में एक विशिष्ट पहचान देता है। आज
हिंदी पखवाड़ा के अवसर पर हमारी भाषा के इन्हीं अंत: और बाह्य संबंधों पर इस लेख के
माध्यम से प्रकाश डालने का प्रयास कर रही हूँ|
फ ड़ाआआआ...ककक..! की ध्वनि से मेरी नींद खुली, बालकनी
में दूध का पात्र रखकर भूल गया था, उसका आस्वादन बिल्ली ने
भली प्रकार से कर लिया था। मेरी पड़ोसी महोदया गुजराती बोला करती हैं; उन्होंने जगत मौसी कहलाने वाले उस जीव को देखा और ‘बिलाड़ी’ कहकर हंस
पड़ीं। मैंने यह शब्द प्रथमत: सुना। मराठी का मांजर सुन चुका हूं। मेरे मस्तिष्क
में भाषा विज्ञान के घोड़े दौड़ना शुरू हो गए। महोदया का बिलाड़ी शब्द और मराठी का
मांजर शब्द क्रमश: संस्कृत विडाल और मार्जारी से उत्पन्न हुए हैं। भाषाएं आपस में
शब्द लेती-देती रहती हैं। हिंदी ने भी संस्कृत, प्राकृत,
फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी,
तुर्की, पश्तो, पुर्तगाली
आदि भाषाओं से शब्द लिए हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यह एक खिचड़ी भाषा है,
क्योंकि इस दृष्टि तो शरीर का विभिन्न अवयवों से बना होना भी वृथा
सिद्ध हो जाएगा। समुचित स्वाद का निर्माण मिश्रणों के माध्यम से ही संभव है;
केवल उन मिश्रणों का अनुपात सही होना चाहिए। बस यही विधा हिंदी भाषा
के संदर्भ में भी चरितार्थ हो जाती है।
दान से बना डोनर
अमेरिकी आनुवंशिकीविद्, डेविड
रीच के अनुसार दक्षिण एशिया में 1800 ई.पू. में संस्कृत का
आगमन हुआ। इस मान्यता से तो भाषा विकास का क्रम ही लड़खड़ाता हुआ प्रतीत होता है।
ऐसी उक्तियां वैदिक संस्कृति का उपहास भले ही करती रहें, लेकिन संस्कृत-हिंदी की
उत्कृष्टताकभी काम न कर सकीं | यही नहीं, जर्मन भाषा के डोनर
का उद्भव संस्कृत-हिंदी के दान से ही हुआ है। कालांतर में घूमते-फिरते ऐसे कई शब्द
अंग्रेज़ी में प्रवेश पा जाते हैं। कालविशेष और देशविशेष के कारण इनमें जो विकार
उत्पन्न होता है उसी से नवीन वर्तनीयुक्त नूतन शब्द बन जाते हैं। इसी तथ्य को 1783 में भाषाविद् विलियम जोन्स ने सगर्व स्वीकार किया था। उन्होंने ‘पाद’,
‘पेद’, ‘पोदी’, ‘पेयर’
एवं ‘पेडेस्ट्रीयन’ में जिस एकसूत्रात्मकता का दर्शन किया उससे ग्रीक, लेटिन, जर्मन, स्पेनिश व अन्य
यूरोपीय भाषाएं संस्कृत-हिंदी के धागे में स्पष्टता से पिरोई हुई दृष्टिगोचर होती
हैं। इन सभी तथ्यों के द्वारा यह स्पष्ट है कि विश्व की तमाम बड़ी भाषाओं के विकास
में संस्कृत का न्यूनाधिक योगदान रहा है और हिंदी के प्रतिनिधित्व में आगे भी
भाषाओं के वैश्विक पटल पर शब्दों का आदान-प्रदान होता रहेगा।
संस्कृत-हिंदी सार्वभौमिकता
‘भाषासु मुख्या मधुरा
गीर्वाणभारती’ की उक्ति भारत की भारतीयता और हमारी भाषागत
स्वतंत्रता की द्योतक है। संस्कृत-हिंदी से निकले शब्द मातृ-माता अंग्रेज़ी तक का
सफ़र करने पर मदर में तब्दील हो जाते हैं। भारतीय चिकित्सा का ही एक अति साधारण
शब्द संस्कृत-हिंदी में क्रमश: कफ:-कफ के रूप में प्रयुक्त होता है, जो कि
बिना किसी परिवर्तन के अंग्रेज़ी में भी कफ (cough) के रूप
में ही स्थान पाता है। आयुर्वेदिक वृक्ष संस्कृत-हिंदी में निंब-नीम कहलाता है,
विदेशियों के मध्य भी नीम (neem) के रूप में
पहचान पाता है। संस्कृत-हिंदी का माध्यमः-माध्यम आंग्लभाषा में मीडियम के रूप में
परिवर्तित होता है। आंग्लभाषा के अतिरिक्त हिंदी का सप्ताह अरबी में हफ़्ता बन जाता
है व श्वेत, सफ़ेद कहलाता है।
अब यदि कोई बच्चा पिता को प्रमादवश ‘फादर’ कह भी
दे, तो भाषापकार की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि प्रकारांतर से वह पितृ
का ही उच्चारण है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक अदूरदर्शिता का परिणाम ही है कि किसी
भाषा की श्रेष्ठता भारतीय भाषाओं की उपेक्षा पर खड़ी होती है। सर विलियम जोन्स
लिखते हैं- ‘संस्कृत भाषा, चाहे उसकी प्राचीनता कुछ भी हो,
की संरचना अद्भुत है; ग्रीक की तुलना में
अधिक प्रभावशाली, लैटिन से अधिक विपुल है।’ इस गुणी भाषा की
संतान, जो कि देखने पर इसी का सरलीकरण है, हिंदी कहलाती है और इसी सरल रूप से विभिन्न भाषाओं व बोलियों को शब्द
प्रदान किए गए हैंं।
ऑक्सफोर्ड में भारतीय अंग्रेज़ी
महर्षि पाणिनि से व्याकरण के प्रारम्भ के साथ
विश्व को जो अमूल्य निधि प्राप्त हुई उसी की अनुकृति से भारत की बहुत-सी भाषाओं का
जन्म अकाट्य रूप से सिद्ध है। जब जन्मदात्री भारतीय भाषा है तो व्यवहार की दृष्टि
से इसी से उद्भूत गुणों का प्रभाव अन्य भाषाओं में स्वाभाविक है। आज के उत्तर
आधुनिक युग में साहित्य के नाम पर जिन भाषाओं का समुचित प्रचार दृष्टिगोचर होता है, उन
सबके शब्दकोश में संस्कृत-हिंदी का समावेश न होना असंभव है।
अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित शब्दकोश ऑक्सफोर्ड ने भी
कुछ समय से ‘नमस्कार’,
‘अच्छा’, ‘नाटक’, ‘आधार’
व ‘चुप’ जैसे कई शब्दों को भारतीय अंग्रेज़ी के नाम पर स्वीकृत कर लिया है। वास्तव
में यह वैश्विक स्तर पर हिंदी का प्रभाव ही है। न जाने कितने शब्द ऐसे हैं जो
हिंदी-संस्कृत मूल के होते हुए भी अन्य भाषाओं में धड़ल्ले से व्यवहृत हो रहे हैं।
आज इनका जागरण और स्मरण भाषाविज्ञान की मांग बन चुका है।
भारतीय भाषाओं की व्यापकता
हिंदी भाषा का भारतीय समाज एवं जनमानस पर इतना
गहन प्रभाव है कि हमने इंडियन इंग्लिश की कल्पना को भी संजो रखा है। हिंदी के
अनेकानेक शब्दों का उपयोग अन्य भाषाओं में हमेशा से होता आ रहा है। संस्कृत का नम:
हिंदी में नम हुआ जिसका अर्थ झुकना है, नम् धातु के प्रयोग से ही नमाज़
शब्द बना। आफ़त का जन्म आपत्ति से होने के कारण संस्कृत-हिंदी के द्वारा ही कई
अरबी शब्दों का विकास भी परिलक्षित होता है।
वास्तव में हिंदी की सर्वमान्यता और
सार्वभौमिकता इसी बात से प्रमाणित होती है की अनेक विदेशी भाषाओं में
हिंदी-संस्कृत के शब्द कभी अपना रूप बदलकर और कभी बिना रूप बदले विद्यमान हैं|
मीता गुप्ता
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