हिंदी का
भविष्य और भविष्य की हिंदी
मैं वह भाषा
हूं, जिसमें तुम सपनाते हो, अलसाते हो
मैं वह भाषा
हूं, जिसमें तुम अपनी कथा सुनाते हो
मैं वह भाषा
हूं, जिसमें तुम जीवन साज़ पे संगत देते
मैं वह भाषा
हूं, जिसमें तुम, भाव नदी का अमृत पीते
मैं वह भाषा
हूं, जिसमें तुमने बचपन खेला और बढ़े
हूं वह भाषा, जिसमें
तुमने यौवन, प्रीत के पाठ पढ़े
मां! मित्ती का
ली मैंने... तुतलाकर मुझमें बोले
मां भी मेरे
शब्दों में बोली थी - जा मुंह धो ले
जै जै करना
सीखे थे, और बोले थे अल्ला-अल्ला
मेरे शब्द
खजाने से ही खूब किया हल्ला गुल्ला
भावों की जननी
मैं, मैं मां, मैं हूँ तिरंगे की शान
जन-जन की आवाज
हूँ, मेरी शक्ति पहचान
लो चली मैं अब
विश्व विजेता बनने
तमसो मा
ज्योतिर्गमय,
बढ़ाने भारत की शान॥
हिंदी भाषा का इतिहास लगभग एक हज़ार वर्ष पुराना
माना गया है। हिंदी भाषा व साहित्य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्था 'अवहट्ठ'
से हिंदी का उद्भव स्वीकार करते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसी
अवहट्ठ को 'पुरानी हिंदी' नाम दिया।
अपभ्रंश की समाप्ति और
आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है। हिंदी का
स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। 1000 ई. के आसपास इसकी
स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक
संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय
आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रूप था - वही आधुनिक
बोलियों में विकसित हुआ। सन 1949 से हिंदी भारतीय संघ की राजभाषा है और अब यह
विश्व की भाषा बनने की देहरी पर खड़ी है ।
हिंदी के वैश्विक संदर्भ -
इक्कीसवीं सदी बीसवीं
शताब्दी से भी ज्यादा तीव्र परिवर्तनों वाली तथा चमत्कारिक उपलब्धियों वाली
शताब्दी सिद्ध हो रही है। विज्ञान एवं तकनीक के सहारे पूरी दुनिया एक वैश्विक गाँव
में तब्दील हो रही है और स्थलीय व भौगोलिक दूरियां अपनी अर्थवत्ता खो रही हैं। वर्तमान
परिदृश्य में भारत विश्व की सबसे तीव्र गति से उभरने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से
हैं तथा विश्व स्तर पर इनकी स्वीकार्यता और महत्ता स्वत: बढ रही है। हमारे पास
अकूत प्राकृतिक संपदा तथा युवतर मानव संसाधन है जिसके कारण हम भावी वैश्विक संरचना
में उत्पादन के बड़े स्रोत बन कर निकट भविष्य की विश्व शक्ति बन सकते हैं । ऐसी स्थिति में भारत की विकासमान
अंतर्राष्ट्रीय छवि हिंदी के लिए वरदान-सदृश है। यह सच है कि वर्तमान वैश्विक
परिवेश में भारत की बढती उपस्थिति हिंदी का भी उन्नयन कर रही है। आज हिंदी राजभाषा
की गंगा से विश्वभाषा का गंगासागर बनने की प्रक्रिया में है।
हिंदी सदियों से इस देश
की संपर्क भाषा का काम करती रही है, और प्रशासन में भी इसका उपयोग
होता रहा है, इसे विशेष स्थान मिला है देश की आज़ादी के बाद, जब यह औपचारिक
रूप से आजाद भारत की राजभाषा अंगीकार की गई। इससे इसकी अखिल भारतीयता को औपचारिक
और सांवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। तब से इसका प्रचार-प्रसार केंद्र सरकार की भी
जिम्मेदारी हो गई।
राजभाषा राजकाज की भाषा
होती है। अतः सरकार के स्तर पर हिंदी के
प्रचार-प्रसार का उद्देश्य था - हिंदी को कार्यालयीन कार्यों की भाषा बनाना। पहले
हिंदी जबकि केवल जनरुचि और जनस्वीकृति के
बल पर अपना प्रसार पाती थी,
अब इसे केंद्र सरकार की नीतियों का भी सहारा मिला। किंतु इसे
प्रशासन की उदासीनता कह लें या एक बहुभाषी राष्ट्र की राजनैतिक विवशताएंं, हिंदी को प्रशासन की भाषा बनाने
का सपना पूरा नहीं हुआ। बल्कि इन नीतियों ने अहिंदी भाषी जनता में हिंदी के प्रति
विद्वेष भी उत्पन्न किया। भले ही यह कमजोर रूप में है, लेकिन
वह अभी भी यदा-कदा मुखर रूप में उभर जाता है।
आज वह विश्व के सभी
महाद्वीपों तथा महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों- जिनकी संख्या लगभग एक सौ चालीस है- में
किसी न किसी रूप में प्रयुक्त होती है। वह विश्व के विराट फ़लक पर नवल चित्र के
समान प्रकट हो रही है। आज संख्या के आधार पर चीनी भाषा के बाद विश्व की दूसरी सबसे
बडी भाषा बन गई है।
देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता –
जहाँ तक देवनागरी लिपि
की वैज्ञानिकता का सवाल है तो वह सर्वमान्य है। देवनागरी में लिखी जाने वाली
भाषाएँ उच्चारण पर आधारित हैं। हिंदी भाषा का अन्यतम वैशिष्ट्य यह है कि उसमें
संस्कृत के उपसर्ग तथा प्रत्ययों के आधार पर शब्द बनाने की अभूतपूर्व क्षमता है।
हिंदी और देवनागरी दोनों ही पिछले कुछ दशकों में परिमार्जन व मानकीकरण की
प्रक्रिया से गुजरी है,
जिससे उनकी संरचनात्मक जटिलता कम हुई है। हम जानते हैं कि विश्व
मानव की बदलती चिंतनात्मकता तथा नवीन जीवन स्थितियों को व्यंजित करने की भरपूर
क्षमता हिंदी भाषा में है ।
हिंदी को माध्यम के रूप में
स्वीकार्यता–
विगत कुछ वर्षों से
विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आधारित हिंदी पुस्तकें की रचना में सार्थक प्रयास हो
रहे हैं। अभी हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा
द्वारा हिंदी माध्यम में एम.बी.ए. का पाठ्यक्रम आरंभ किया गया। इसी तरह
"इकोनामिक टाइम्स'
तथा "बिजनेस स्टैंडर्ड' जैसे अखबार हिंदी
में प्रकाशित होकर उसमें निहित संभावनाओं का उद्घोष कर रहे हैं। पिछले कई वर्षों
में यह भी देखने में आया कि "स्टार न्यूज' जैसे चैनल जो
अंग्रेज़ी में आरंभ हुए थे वे विशुद्ध बाजारीय दबाव के चलते पूर्णत: हिंदी चैनल में
रूपांतरित हो गए। साथ ही, "ई.एस.पी.एन' तथा "स्टार स्पोर्ट्स' जैसे खेल चैनल भी हिंदी
में कमेंट्री देने लगे हैं। हिंदी को वैश्विक संदर्भ देने में उपग्रह-चैनलों,
विज्ञापन एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों तथा
यांत्रिक सुविधाओं का विशेष योगदान है। हाल ही में ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर भी हिंदी
अपना वर्चस्व बढ़ा रही है । नेटफ़्लिक्स, लॉयंसगेट जैसे विदेशी
प्लेटफ़ॉर्म भी हिंदी के महत्व को समझ रहे हैं और हिंदी जनसंचार-माध्यमों की सबसे
प्रिय एवं अनुकूल भाषा बनकर निखरी है।
आज विश्व में सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले समाचार-पत्रों
में आधे से अधिक हिंदी के हैं। इसका आशय यही है कि पढ़ा-लिखा वर्ग भी हिंदी के
महत्त्व को समझ रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं बल्कि
दक्षिण पूर्व एशिया,
मॉरीशस,चीन,जापान,कोरिया, मध्य एशिया, खाड़ी
देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक में हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के ज़रिए प्रसारित
हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। हिंदी अब नई
प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ़ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट,
एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बड़ी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट
जैसे वैश्विक माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी
विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं।
माइक्रोसाफ्ट, गूगल,
सन, याहू, आईबीएम तथा
ओरेकल जैसी विश्वस्तरीय कंपनियाँ अत्यंत व्यापक बाज़ार और भारी मुनाफ़े को देखते हुए
हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दे रही हैं। संक्षेप में, यह
स्थापित सत्य है कि हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है। आज विश्व के दर्जनों
देशों में हिंदी की पत्रिकाएँ निकल रही हैं तथा अमेरिका, इंग्लैंड,
जर्मनी, जापान, आस्ट्रिया
जैसे विकसित देशों में हिंदी के कृतिकार अपनी सृजनात्मकता द्वारा उदारतापूर्वक
विश्व मन का संस्पर्श कर रहे हैं। हिंदी के शब्दकोश तथा विश्वकोश निर्मित करने में
भी विदेशी विद्वान सहायता कर रहे हैं।
जहाँ तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक तथा आर्थिक विनिमय के क्षेत्र में हिंदी के अनुप्रयोग का
सवाल है तो यह देखने में आया है कि हमारे देश के नेताओं ने समय-समय पर
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में भाषण देकर उसकी उपयोगिता का उद्घोष किया है। यदि
श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा श्री पी.वी.नरसिंहराव द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में
हिंदी में दिया गया वक्तव्य स्मरणीय है, तो श्रीमती इंदिरा
गांधी द्वारा राष्ट्र मंडल देशों की बैठक तथा श्री चंद्रशेखर द्वारा दक्षेस शिखर
सम्मेलन के अवसर पर हिंदी में दिए गए भाषण भी उल्लेखनीय हैं। यह भी सर्वविदित है
कि यूनेस्को के बहुत सारे कार्य हिंदी में संपन्न होते हैं। इसके अलावा अब तक
विश्व हिंदी सम्मेलन’ मॉरीशस, त्रिनिदाद, लंदन, सुरीनाम तथा न्यूयार्क जैसे स्थलों पर सम्पन्न
हो चुके हैं । हिंदी को वैश्विक संदर्भ और व्याप्ति प्रदान करने में भारतीय सांस्कृतिक
संबंध परिषद द्वारा विदेशों में स्थापित भारतीय विद्यापीठों की केंद्रीय भूमिका
रही है जो विश्व के अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रों में फैली हुई है। इन
विश्वविद्यालयों में शोध स्तर पर हिंदी अध्ययन अध्यापन की सुविधा है जिसका
सर्वाधिक लाभ विदेशी अध्येताओं को मिल रहा है।
हिंदी विश्व के प्राय:
सभी महत्त्वपूर्ण देशों के विश्व विद्यालयों में अध्ययन अध्यापन में भागीदार है।
अकेले अमेरिका में ही लगभग एक सौ पचास से ज्यादा शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी का
पठन-पाठन हो रहा है। हिंदी सिनेमा अपने संवादों एवं गीतों के कारण विश्व स्तर पर
लोकप्रिय हुए हैं। हिंदी की मूल प्रकृति लोकतांत्रिक तथा रागात्मक संबंध निर्मित
करने की रही है। वह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ही राजभाषा नहीं है, बल्कि
पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, फिजी, मॉरीशस,
गुयाना, त्रिनिदाद तथा सुरीनाम जैसे देशों की
संपर्क भाषा भी है। हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के बीच खाड़ी देशों, मध्य एशियाई देशों, रूस, समूचे
यूरोप, कनाडा, अमेरिका तथा मैक्सिको
जैसे प्रभावशाली देशों में रागात्मक जुड़ाव तथा विचार-विनिमय का सबल माध्यम है।
यह कहना सर्वथा उचित
होगा कि विपुल साहित्यिक वैभव के साथ ही सरल शब्दावली के समायोजन की क्षमता के
कारण हिंदी विश्व बाज़ार की भाषा बनने का व्यापक सामर्थ्य रखती है। भूमंडलीकरण के
इस दौर में हिंदी राष्ट्र अस्मिता और पुनर्जागरण की भाषा बन गई है । यदि निकट
भविष्य में बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था निर्मित होती है और संयुक्त राष्ट्र संघ का
लोकतांत्रिक ढंग से विस्तार करते हुए भारत को स्थायी प्रतिनिधित्व मिलता है, तो
हिंदी यथाशीघ्र ही इस शीर्ष विश्व संस्था की भी भाषा बन जाएगी।
हिंदी ने अपनी विभिन्न
बोलियों और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से प्रभाव ग्रहण करते हुए अपना एक अखिल भारतीय
मानक रूप विकसित कर लिया है। अब इसका एक अत्यंत समृद्ध साहित्य है, जिसमें
साहित्य के अलावा इसके पास अन्य अनुशासनों में रचित साहित्य का विशद भंडार है। यह
भारत की राजभाषा और सम्पर्क भाषा होने के साथ अघोषित राष्ट्रभाषा भी है। इसका कारण
सिर्फ यह नहीं है कि यह देश की बहुसंख्या की भाषा है, बल्कि
इसलिए भी कि यह देश के संपूर्ण सांस्कृतिक उत्तराधिकार का वहन करती है। यह एक तरफ
देश की संस्कृति की वाहिका संस्कृत भाषा के समीप है, जो
समस्त आर्यभाषाओं की जननी है और एक तरह से द्रविड़ भाषाओं की भगिनी है, तो दूसरी ओर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को भी व्यक्त करने में सक्षम है। खड़ी
बोली हिंदी के साहित्य को अभी एक सदी से थोड़ा ही जो अधिक हुआ है किंतु इतनी
अल्पावधि में ही इसने जितना विकास कर लिया है उतना अंग्रेज़ी जर्मन आदि विकसित
भाषाएं कई सदियों में कर पाई हैं। यह गर्व की बात है। हिंदी अपने अपार अभिव्यक्ति
सामर्थ्य के बल पर आज के युग की आवश्यकताओं को पूरा करने में पूर्ण सक्षम है - कम
से कम अपने देश में तो अवश्य। इसमें संभावनाएं अनंत है। किंतु संभावनाओं का होना
एक बात है और उन संभावनाओं को यथार्थ का रूप देना दूसरी बात।
आज़ादी के पूर्व हिंदी ने अगर भारतीय नवजागरण की चेतना
का वहन किया, तो आज़ादी के बाद राष्ट्र-निर्माण
की प्रेरणा का माध्यम भी बनी। साहित्य और ज्ञान के विविध क्षेत्रों में हिंदी में
नए और मौलिक काम हुए। एक उद्देश्य था कि देश को अपनी भाषा में, आम जन को सम्मिलित करते हुए सशक्त बनाना है, आगे
बढ़ाना है। यह उत्साह अब मृतप्राय है। आज़ादी के सात दशक बीतते न बीतते यह स्पष्ट दिखने लगा
है कि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर भारत की तरक्की की जा सकती है इसका कोई
विश्वास हममें नहीं बचा है। पूरा देश इस बात पर एकमत दिखता है कि भारतीय भाषाओं
में कोई भविष्य नहीं,यदि आज की वैश्वीकृत दुनिया में आगे
बढ़ना है तो वह अंग्रेज़ी के रास्ते ही संभव है।
हिंदी में चाहे जितनी
भी सामर्थ्य और संभावना हो उसे अपनाने का ही कोई उत्साह लोगों में नहीं रहा। हिंदी
में साहित्य के क्षेत्र में भले पूर्ववत सक्रियता बनी हुई है लेकिन कोई भाषा केवल
साहित्य के बल पर आगे नहीं बढ़ती। बल्कि साहित्येतर क्षेत्रों में भाषा का प्रयोग
उसकी व्यावहारिक शक्ति का परिचायक है - वही उसमें जीविकोपार्जन की क्षमता लाता है।
हालांकि हिंदी विषय की पढ़ाई दुनिया में नई-नई जगहों में शुरू हो रही है, लेकिन
स्वयं अपने देश के शिक्षण संस्थानों में शिक्षण माध्यम के रूप में सिकुड़ती जा रही
है, इसलिए कुछेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विज्ञापनों के बल
पर यह मान लेना कि हिंदी की लोकप्रियता
दुनिया भर में बढ़ रही है, एक भ्रम पालने जैसा है।
हिंदी माध्यम के स्कूल, कॉलेज
या तो उपेक्षा से बंद होते जा रहे हैं या विवशता में अंग्रेज़ी माध्यम अपना रहे
हैं। नई पीढ़ी को हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर किसी प्रकार का गौरव या
भरोसा नहीं है। वह जैसे भी हो, अंग्रेज़ी अपना रही है ताकि आज
की प्रगति और विकास की दौड़ में शामिल हो सके। दूसरी तरफ, आज
के युग की तकनीकी प्रगति में हिंदी ने तेजी से अपनी पैठ बनाई है। सूचना
प्रौद्योगिकी का आरंभ अंग्रेज़ी में हुआ लेकिन तकनीक किसी एक भाषा को ही सुविधा या
अवसर नहीं देती। सूचना प्रौद्योगिकी के पंखों पर सवार होकर हिंदी अपना अभूतपूर्व प्रसार कर रही है। ज्ञान और
मनोरंजन के माध्यमों में हिंदी का स्थान दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।
इंटरनेट पर हिंदी के
प्रयोक्ताओं की संख्या किसी भी अन्य भारतीय भाषा की अपेक्षा अधिक है। मास मीडिया
के जबरदस्त उभार से पत्रकारिता व इससे जुड़े अन्य क्षेत्रों में हिंदी के लिए अवसर
बढ़े हैं और उल्लेखनीय रूप से रोजगार सृजन हुआ है। लेकिन अपने तमाम फैलाव के
बावजूद हिंदी पत्रकारिता अपनी गुणवत्ता के
प्रति खास उम्मीद नहीं जगाती। वह आत्मविश्वास जो पहले अज्ञेय आदि के जमाने में हिंदी
पत्रकारिता में नजर आता था, अब
लुप्तप्राय है। अब वह साफ तौर पर अंग्रेज़ी की पिछलग्गू नजर आती है। सामग्री ही
नहीं, भाषा के स्तर पर भी उसमें अंग्रेज़ी की घुसपैठ हो रही
है।
हिंदी के अखबार और टीवी
चैनल, रेडियो हिंदी और अंग्रेज़ी की मिली-जुली
भाषा पर उतर आए हैं, जिसमें अंग्रेज़ी शब्दों-पदबंधों का
अनुपात दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। समूह माध्यमों की भाषा हिंदी में हो रहे एक बड़े क्षरण का संकेत दे रही है।
कहा ही जा रहा है कि हिंदी धीरे धीरे
हिंग्लिश में बदल जाएगी। एक ऐसी मिश्रित भाषा, जिसमें हिंदी
का केवल अस्थिपंजर होगा, उसपर मांस-मज्जा-रक्त-शिराएं सभी अंग्रेज़ी
की होंगी। समूह माध्यमों की यह खिचड़ी भाषा धीरे-धीरे साहित्य में भी 'रिसती' जा रही है। हद तो तब होती है जब हिंदी के
साहित्यालोचक भी अपनी भाषा में बीच बीच में अंग्रेज़ी की छौंक लगाकर अपने को आधुनिक
और अंग्रेज़ी-शिक्षित साबित करने की कोशिश करते हैं।
भाषा अस्मिता से जुड़ी
चीज है और अस्मिता के प्रश्न जल्दी नहीं मरते। भारतीय अस्मिता की सच्ची वाहिका
हिंदी व अन्य भारतीय भाषाएं ही हैं, अंग्रेज़ी नहीं। यह सच है कि
हिंदी भाषी क्षेत्र अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति उदासीन हैं और वे हिंदी के
संरक्षण या संवर्धन के लिए उत्सुक नहीं दिखते जिस कारण हिंदी का भविष्य भी अंधेरा
दिखता है लेकिन हिंदी तर क्षेत्रीय भाषाओं के समाज में अपनी भाषा के प्रति पर्याप्त
सजगता और सक्रियता है। क्षेत्रीय भाषाएं रहेंगी और साथ में उनके बीच संपर्क सेतु
का काम करती हिंदी भी रहेगी। हिंदी का क्षेत्रीय भाषाओं के साथ सहयोग और सहकार का
संबंध है।
अंत में, उपर्युक्त
सारी बातों के बावजूद, भविष्य कई बार हमारी कल्पना और
अनुमानों से भी ज्यादा विलक्षण होता है। अभी हमारे सामर्थ्य में यही है कि मौजूदा
प्रवृत्तियों और परिवर्तनों को देखते हुए अपनी निराशा को परे रखते हुए आनेवाले समय
में हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं की बेहतरी के लिए प्रार्थना, और भरसक प्रयत्न, करते रहें। हिंदी माह की मौजूदा
सक्रियता, सामयिक होते हुए भी, इस
मायने में एक उम्मीद जगाती है।
मीता गुप्ता
हिंदी प्रवक्ता
केंद्रीय विद्यालय पूर्वोत्तर रेलवे
बरेली
8126671717
No comments:
Post a Comment