नारी की प्रगति को अवरुद्ध न होने दें
भारत का प्राचीन इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। इसका श्रेय यहां
के जीवन-दर्शन, सामाजिक और पारिवारिक
पद्धति को ही है, जिसने ऐसी मान्यताएं,
भावनाएं एवं प्रेरणाएं दीं, जिनके आधार पर इस देश का बच्चा-बच्चा नर-रत्न एवं
महापुरुष बन सका| यहां के निवासियों का चरित्र, व्यक्तित्व, आदर्श, लक्ष्य एवं
कर्तव्य-कर्म इतने उत्कृष्ट रहे हैं कि वे अनायास ही अन्य के लिए अनुकरणीय बन जाते
हैं| जन-जीवन में इन गुणों का समागम उन संस्कारों के माध्यम से हुआ करता था, जो
उन्हें बाल्यकाल में ही अपने माता-पिता से बीज रूप में मिल जाया करते थे|
जननी और जनक संतानों को न केवल जन्म देने वाले होते हैं,
अपितु उनके चरित्र और व्यक्तित्व निर्माता भी होते हैं| संतान का भला या बुरा होना
बहुत कुछ उनके माता-पिता पर निर्भर करता है| संतान प्रायः उन्हीं गुणों-अवगुणों को
ग्रहण कर लिया करती है, जो उनके माता-पिता के जीवन में पाए जाते हैं| इनमें भी
माता के संस्कार संतान पर पिता की अपेक्षा अधिक गहरा प्रभाव डालते हैं| इसका कारण
यह है कि गर्भ से लेकर उसे सुकुमार आयु तक संतान एकमात्र माता के संपर्क में रहती
है, जिस आयु में उसका मानसिक धरातल संस्कारों को जल्दी और गहराई तक ग्रहण करने कर
लेने के लिए सर्वथा उपयुक्त होता है| माता के स्वभाव एवं व्यक्तित्व के गुण संतान
में प्रायः स्थिर हो जाया करते हैं इसलिए संतति-निर्माता में माता की ही प्रधानता
मानी जाती है अर्थात संतान विद्यावान हो, इसके लिए माताएं ज्ञानवती बनें, यह
आवश्यक हो जाता है| धर्मात्मा विदुषी स्त्रियां अध्ययन करें, उनसे कन्याएं उत्तम
शिक्षा प्राप्त करें, जिससे इस पुनीत परंपरा का विनाश ना हो| जब तक भारत में माता
के इस महत्व को समझा और उसका मूल्यांकन होता रहा, तब तक इस देश में एक से बढ़कर एक
विद्वान एवं शूरवीर पैदा होते रहे, जो शास्त्र और शस्त्र बल से तम और तमस का दमन
करते रहे, संसार को सुख शांति की ओर बढ़ाते रहे और राष्ट्रीय गौरव को ऊंचा करते रहे|
जहां वैदिक काल में भारत की मातृ-शक्ति ने भारद्वाज, गौतम,
कपिल, व्यास, वशिष्ठ, विश्वामित्र अत्रि जैसे महर्षि, मध्यकाल में राणा सांगा,
राणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, गोरा-बादल
जैसे शूरवीर तथा आधुनिक काल में शंकराचार्य, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, गांधी
जैसे संत एवं त्यागी पुरुष दिए हैं| इन सबके जीवन को गहराई से देखने पर पता चलता
है कि उनके इस उत्थान व उत्कर्षपूर्ण चरित्र-विकास में उनकी माताओं का बड़ा हाथ रहा
है| माता द्वारा आदि-संस्कार पाए बिना कदाचित ही कोई जीवन-पथ पर आगे बढ़ सकता है|
व्यक्ति ही नहीं, परिवार की सुख-शांति एवं समृद्धि भी बहुत कुछ
अंशों में नारियों पर निर्भर है| जहां शिक्षित, उन्नतिशील एवं कर्तव्यपरायण
स्त्रियां घर को स्वर्ग बना देती हैं, वहीं अशिक्षित, जड़ और मूढ़ स्त्रियां उसे नरक
में बदल देती हैं, इसलिए शास्त्रों में नारी को घर और परिवार का मूलाधार कहा गया
है-
अहं केतु रहं मूर्धाहिमुग्रा विवाचनी |
ममेदनु क्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत ||
अर्थात गृहणी ज्ञानवती हो क्योंकि वह घर का आधार होती है|
पति को उसके अनुकूल आचरण करना चाहिए| इस प्रकार जब तक नारी की महत्ता बनाई रखी गई,
भारत भारत बना रहा, किंतु जब से उसके महत्व की अपेक्षा की जाने लगी, देश का पतन
प्रारंभ हो गया| नारी की उपेक्षा का यह क्रम लगभग हजार बारह सौ साल से चला आ रहा
है, जिसमें अब तक कोई उल्लेखनीय अथवा आशाजनक सुधार नहीं हुआ है| नारी के इस पतन
अथवा उपेक्षा के कारण चाहे देश का अज्ञान रहा हो, चाहे विदेशी आक्रमण, इससे कोई
अंतर नहीं पड़ता| वास्तविकता यह है कि नारी की उपेक्षा हुई है, जिसके फलस्वरुप
समाज का पतन हुआ है|
एक समय था, जब भारत की नारियां विद्या-बुद्धि में पुरुषों
के समक्ष थीं| वे आध्यात्म चिंतन, शास्त्रार्थ एवं पुरुषों के साथ धर्मानुष्ठान
में बराबर भाग लिया करती थीं, जिसके फल स्वरुप उनके प्रभाव से उनकी गोद में पली
हुई संतानें भी संसार में अपनी विद्या-बुद्धि तथा शौर्यवीरता का प्रभाव दे सकीं|
किंतु एक ऐसा अंधकार-युग भी आया, जब राष्ट्र की निर्मात्री नारी को उसके अधिकारों
से वंचित कर विविध बंधनों में जकड़ दिया गया| उनके पढ़ने, समाज में आने-जाने और
स्वतंत्र रूप से अपना विकास करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, उन्हें केवल चूल्हा-चौके
तक घर में सीमित कर, संतान-उत्पत्ति की मशीन भर माना जाने लगा| आज समाज में जो विकृतियां
बहुतायत में दिखाई देती हैं, इन सब का हेतु बहुत कुछ नारी की अधोगति है|
यद्यपि आज समाज में नारी-शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जा रहा
है, बुद्धिमान लोग उसका समर्थन भी करने लगे हैं तथापि बहुमत अभी ऐसे लोगों का ही
है, जो स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर की चारदिवारी तक ही सीमित मानते हैं| उन्हें
बौद्धिक, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से विकसित करना अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी
मानते हैं| ऐसे लोगों की कमी समाज में अभी भी नहीं है, जिनकी धारणा है कि पढ़-लिखकर
पुरुषों के समक्ष हो जाने पर और सामाजिक क्षेत्र से निकलकर कार्य करने से नारियां उच्छृंखल
हो सकती हैं। ऐसी भ्रांत धारणा वाले लोग ऐसी नारियों को आदम दृष्टि से ही देखने का
पाप करते हैं, जो अपने व्यवसाय को परिश्रम
एवं लगन के बल पर पर आरंभ कर स्वावलंबिनी अथवा सामाजिक सेविका बनकर कुछ करने के
लिए आगे बढ़ती हैं। निस्संदेह इस प्रकार के दृष्टिकोण रखना नारीत्व का तिरस्कार है, जो कि किसी भी समाज, राष्ट्र और परिवार का हित
चाहने वालों को शोभा नहीं देता। नारियों के प्रति इस प्रकार का संकीर्ण दृष्टिकोण
अराष्ट्रीय, असामाजिक और अमानवीय है इसकी जितनी भी भर्त्सना
एवं विरोध किया जाए, उतना ही कम है। नारी पर लगे प्रतिबंध
निश्चय ही अपनी सामाजिक एवं राष्ट्रीय प्रगति में बाधक हैं< इन्हें हटाना ही होगा, अन्यथा राष्ट्र जिस पतन के गर्भ
में गिरा हुआ था, उसी में गिरा रहेगा और तब भारतीय संस्कृति
के अनुरूप राष्ट्र का पूर्णकालिक गौरव प्राप्त करना संभव नहीं होगा। यदि राष्ट्र
को उठाना, समाज को उन्नत बनाना और भारत को उसके पूर्ण गौरव
पर प्रतिष्ठित करना है तथा परिवार और कुटुंब में सुख शांति लानी व स्वस्थ सुंदर
सुशील संतान पानी है, तो नारी को शिक्षित करना और उसके
मानसिक और बौद्धिक तथा शारीरिक विकास की समुचित व्यवस्था करनी होगी। उसे परदे से
बाहर निकाल कर सामाजिक अधिकार देने और भोग-भावना से निकलकर पुरुष की तरह
अर्धांगिनी, राष्ट्र की जननी और समाज की सहयोगिनी के सर्वथा
योग्य पद पर प्रतिष्ठित करना ही होगा।
डॉ मीता गुप्ता
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