मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित इन पंक्तियों को जब=जब याद करती हूं, मानो हृदय में कुछ दरक जाता है, दरकते हिमालय पर्वत की तरह्। पर्वतों की वादियां जितनी हसीन होती हैं, उतनी ही खतरनाक भी। खूबसूरत पर्वतों की ज़िंदगी की तस्वीर बेहद भयावह है। गरीबी, बेरोज़गारी के साथ ही आपदा का कहर कब यहां के निवासियों को अपने आगोश में ले लेगा, यह कोई नहीं जानता। पर्वत सिर्फ बरसात में ही नहीं दरकते, बल्कि सामान्य दिनों में भी भू-स्खलन का दंश झेलते हैं। दरकते पर्वत सालभर इंसानी ज़िंदगी को निगलते रहते हैं। यूं तो पर्वतों का दरकना कोई नई बात नहीं है, लेकिन व्यवस्था की अनदेखी और अंधाधुंध अनियोजित विकास ने इंसानी ज़िंदगी के नुकसान में कई गुना इज़ाफ़ा किया है। हर साल सैकड़ों लोग अपनी जान गंवाते हैं। इनमें से कुछ सरकारी फाइलों में दर्ज हो जाते हैं और कुछ गुमनाम ही रह जाते हैं। हज़ारों लोगों के आशियाने उजड़ जाते हैं और जाने कितने लोग भूख से दम तोड़ देते हैं। सरकारी दस्तावेजों में इनकी दुश्वारियां कहीं दर्ज नहीं हो पातीं। सबसे अधिक दुश्वारियां सीमांत क्षेत्र के निवासियों को झेलनी पड़ती हैं। खास तौर पर हिमाचल और उत्तराखंड के सीमावर्ती गांव के लोगों को।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़, पौड़ी गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल के कई गांव ऐसे हैं, जहां तक प्रशासन भी नहीं पहुंच सका है। इन गांवों में पहुंचने के लिए आज भी 10 से 15 किमी पैदल कच्चे रास्तों पर चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। पिथौरागढ़ जिले के एक गांव नामिक इन्हीं दुश्वारियों की गवाही देता है। इस गांव के लोगों को वोट डालने के लिए आज भी मतदान के लिए 24 किमी का पैदल सफर तय करना पड़ता है। हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीति के दर्जनों गांव छह माह तक पूरे प्रदेश से कटे रहते हैं। आपदा के साथ ही सबसे बड़ी दुश्वारी बर्फीले पर्वतों में कड़ाके की ठंड के बीच पेट की आग बुझाने की होती है। इन पहाड़ी गांवों में दैनिक उपयोग के किसी भी सामान या खाद्य पदार्थ के लिए मैदानी इलाकों की तुलना में कई गुना अधिक कीमत चुकानी पड़ती है। मसलन, नमक का एक किलो का जो पैकेट मैदानी इलाकों में 25 से 30 रुपये में मिल जाता है, पहाड़ी शहरों में उसकी कीमत 40 से 45 रुपये हो जाती है, कस्बों में यही नमक 60 से 70 रुपये किलो तक बिकता है और सीमांत इलाकों में पहुंचते-पहुंचते इसकी कीमत डेढ़ सौ से दो सौ रुपये तक पहुंच जाती है। यही हाल अन्य खाद्य पदार्थों का भी होता है।
दस साल पहले जून 2013 में जब उत्तराखंड के केदारनाथ में आपदा ने कहर बरपाया था, तो कुमाऊं के सीमावर्ती एवं सीमांत इलाकों में भी भारी तबाही आई थी। उस आपदा से मिले ज़ख्मों को आज तक सरकारी व्यवस्था कुरेदने में लगी हुई है। केदारनाथ के बाद भी कई आपदाएं आईं, लेकिन वह मीडिया की सुर्खियां नहीं बटोर सकीं और खूबसूरत वादियों में ही दफ़न हो गईं। उत्तराखंड आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र के आंकड़ों के अनुसार, 2014 से 2020 के बीच राज्य में आई प्राकृतिक आपदाओं में करीब 600 लोगों की जान गई, जबकि 500 से अधिक घायल हुए। 2021 में उत्तराखंड में ऋषिगंगा में अचानक आई बाढ़़ से 200 से अधिक लोगों की मौत हो गई। इसके अलावा चमोली जिले के रेणी और तपोवन इलाकों में भारी तबाही हुई, जहां दो जल विद्युत परियोजनाओं को भी नुकसान उठाना पड़ा। पिछले साल हिमाचल में जुलाई में किन्नौर की सांगला घाटी में भी ऐसी ही तबाही देखने को मिली थी। फिर जोशीमठ के दरकते पर्वत और अब हिमाचल प्रदेश के मंडी, सोलन और शिमला सहित विभिन्न जिलों में कुदरत ने जो कहर बरपाया है उसके लिए कुदरत के साथ ही सरकारी तंत्र भी जिम्मेदार है।
वर्ष 1970 और इसके बाद अलकनंदा नदी में कई बार बाढ़ आई है, जिस कारण जोशीमठ में भू-धंसाव और घरों में दरार पड़ने की घटनाएं सामने आईं। तब अलकनंदा नदी की बाढ़ ने जोशीमठ समेत अन्य स्थानों पर तबाही मचाई थी। वर्ष 1976 में गढ़वाल के तत्कालीन मंडलायुक्त की अध्यक्षता में कमेटी गठित की। कमेटी ने 47 साल पहले ही ऐसे खतरों को लेकर सचेत कर दिया था। लेकिन सरकारी तंत्र ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। कहते हैं पर्वत का पानी और पर्वत की जवानी कभी पर्वत के काम नहीं आती। इसकी सबसे बड़ी वजह दरकते पर्वतों के बीच खौफ़ज़दा ज़िंदगी ही है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) और डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2022 में प्राकृतिक आपदा से देश में सर्वाधिक 359 लोगों की मौत हुई। वहीं, 31 जुलाई 2000 की मध्यरात्रि को सतलुज घाटी में एक भीषण आपदा आई। इससे तिब्बती पठार से लेकर गोविंद सागर झील तक लगभग 250 किमी तक सतलुज नदी का जलस्तर 60 फीट तक बढ़ गया।
अनेक वर्षों में पहली बार ऐसी बाढ़ आई थी। इससे लगभग 200 किमी लंबी सड़क क्षतिग्रस्त हो गई। लगभग दो दर्जन पुल बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए थे। लगभग 1,000 सिंचाई, सीवरेज, बाढ़ सुरक्षा और जल आपूर्ति योजनाएं ध्वस्त हो गई थीं। पर्वतों से जन-पलायन की सबसे बड़ी वजह यही प्राकृतिक आपदाएं हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के गांव के गांव अब खाली हो चुके हैं। कुछ लोगों को आपदा निगल गई तो कुछ रोज़ी-रोज़गार की तलाश में पलायन कर गए। कई गांव ऐसे हैं जो अंतिम सांसें गिन रहे हैं। ये आधे से ज्यादा खाली हो चुके हैं। जो यहां रह रहे हैं, वे भी पलायन का इंतजार कर रहे हैं। सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रहे पर्वतों के निवासियों की सिसकियां इन्हीं पर्वतों में दफ़न होती जा रही हैं। क्या यही है सुंदर पर्वतों का भविष्य ?
दरकते पहाड़ ने कहा
मुझे संभाल मैं गिर रहा हूँ...
पत्थर के सौदागर ने कहा, तू गिर
तुझे बेचकर ही खाऊंगा मैं...।।
इन मशीनी हाथों से
छिन्न-भिन्न जो कर दिया है तुझे मैंने...
तेरा कद छोटा जो रोज़ हुआ जा रहा है...
फिर बेच आऊंगा तुझे टुकड़ो में दलालों के पास,
पैसा-पैसा जोड़ कर फिर तेरा अस्तित्व ही मिटाना
है मुझे...।।
मत रोना रो अपने गिरने का
तुझसे मेरा कारोबार चल रहा है...
न रुकूँगा मैं तब तक,
जब तक तू पहाड़ से मैदान नहीं हो जाता है...।।
मीता गुप्ता
No comments:
Post a Comment