Tuesday, 27 October 2020

तुम्हारे साथ रहकर

 

तुम्हारे साथ रहकर 



 

तुम्हारे साथ रहकर

अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है

कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,

हर रास्ता छोटा हो गया है,

दुनिया सिमटकर

एक आँगन-सी बन गयी है

जो खचाखच भरा है,

कहीं भी एकाकीपन नहीं

न बाहर, न भीतर।

 

हर चीज़ का आकार घट गया है,

पेड़ इतने छोटे हो गये हैं

कि मैं उनके शीश पर हाथ रख

आशीष दे सकती हूँ,

आकाश छाती से टकराता है,

मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकती हूँ।

 

तुम्हारे साथ रहकर

अक्सर मुझे महसूस हुआ है

कि हर बात का एक मतलब होता है,

यहाँ तक की घास के हिलने का भी,

हवा का खिड़की से आने का,

और धूप का दीवार पर

चढ़कर चले जाने का।

 

तुम्हारे साथ रहकर

अक्सर मुझे लगा है

कि हम असमर्थताओं से नहीं

सम्भावनाओं से घिरे हैं,

हर दीवार में द्वार बन सकता है

और हर द्वार से पूरा का पूरा

पहाड़ गुज़र सकता है।

 

शक्ति अगर सीमित है

तो हर चीज़ अशक्त भी है,

भुजाएँ अगर छोटी हैं,

तो सागर भी सिमटा हुआ है,

सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,

जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है

वह नियति की नहीं मेरी है,मेरी है********

 

काग की चोंच में अंगूर

 
काग की चोंच में अंगूर

एक शिक्षिता कन्या के
विद्यावती सुधन्या के
पूज्य पिता ने वर खोजा
वर से पहले घर खोजा ।
कन्या ने देखा वर को
कुसुम लखे ज्यों पत्थर को
कन्या ने की रस की चर्चा
वर ने दिखा दिया पर्चा ।
कोठी,कार, दुकानों का,
गोदामों, तहखानों का,
लॉन, दालान, बगीचों का,
सोफ़े, दरी, गलीचों का ।
वर बातों में लीन हुआ
कन्या से छह तीन हुआ
मुँह आया जो बोल दिया
अपना ढकना खोल दिया ।
कन्या भीतर झाँक गई
गहराई को आँक गई
वर कन्या को देखा गया
सुलेख मानो कुलेख भया ।
कहा पिता ने कैसा है ?
कन्या बोली भैंसा है
शक्ल को देखूँ शक्ल नहीं
अक्ल को देखूँ अक्ल नहीं ।
इसने कुछ भी नहीं पढ़ा
महल ज्ञान का नहीं गढ़ा
यह बुद्धू है बुद्ध नहीं
भाषा इसकी शुद्ध नहीं ।
ध्रुव को धुरू बोलता है
लघु को गुरू बोलता है
यह अरसिक है, सूखा है
पैसों का यह भूखा है ।
किस कोयल ने पाला है ?
कौए जैसा काला है
कैसे इसकी चाह करूँ ?
कैसे इससे ब्याह करूँ ?
कहा पिता ने सुन बेटी
पुस्तक पढ़कर गुन बेटी
अक्ल से तू क्या काटेगी ?
शक्ल को तू क्या चाटेगी ?
बेशक इसने पढ़ा नहीं
महल ज्ञान का गढ़ा नहीं
पढ़ने से क्या होता है ?
ज्ञान सड़क पर रोता है ।
इसने असली काम किया
कुल का ऊँचा नाम किया
ऊँची कोठी बनवा ली
ज्ञानी पीट रहे ताली ।
वह जो इसका पी0ए0 है
अंग्रेज़ी में बी0ए0 है
वो भी स्कूटर रखता है
एम0ए0 इसका ट्यूटर है ।
ज्ञान गुलामी करता है
यह स्वच्छंद विचरता है
धनी घिरत घी को कहता
उसके घर में घी बहता ।
बेटी उसको वर लो तुम
उससे शादी कर लो तुम
पंडित के घर जाएगी
शब्द-अर्थ क्या खाएगी ?
अन्न नहीं मिल पाएगा
रस में रस क्या आएगा ।
जीवन का रस पी बेटी
धन को मन पर लिख बेटी
ज्ञान-ध्यान सब धन में है
खान-पान सब धन में है ।
बेटी बोली-सुनो पिता
ऐसा वर मत चुनो पिता
तुमने में प्यार पला
नाम रखा था-शकुंतला ।
जब यह अपना फाड़ गला
मुझे कहेगा- सकुंतला
मैं कैसे सुन पाऊँगी ?
रो-रो कर मर जाऊँगी ।
मान मैं धनवान नहीं
धनपति की संतान नहीं
निर्धनता की नारी हूँ
पर भैंस नहीं मैं नारी हूँ ।
कहा पिता ने सुन बेटी
धन को मन पर लिख बेटी
बेटी आज्ञा मान गई
भाव पिता का जान गई ।
कौए के संग चली गई
स्वर्ण-कमल की कली गई
पत्थर के दूब गई
तारकोल में डूब गई
तारकोल में डूब गई ।
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कहीं शब्द इसे मैला न कर दें ।

 

कहीं शब्द इसे मैला न कर दें ।



अजीब कशमकश में हूँ आजकल

इक नया सा एहसास साथ रहता है

हर लम्हा, हर पल...

 

कुछ अनूठा, कुछ अदभुत

कुछ पाने की प्यास

कुछ खोने का एहसास

 

कभी झील सा शान्त

तो कभी पहाड़ी नदी सा चंचल

कुछ संजीदा, कुछ अल्हड़

 

क्या है ये अनजाना सा एहसास

भावों का ये कोमल स्पर्श

पता नहीं ... पर अपना सा लगता है

 

कभी जी चाहता है इसे इक नाम दे दूँ

फिर सोचती हूँ बेनाम ही रहने दूँ

मैला ना करूँ...

कहीं शब्द इसे मैला न कर दें ।

ओ अंतरिक्ष !

 

ओ अंतरिक्ष !  



ओ अंतरिक्ष !

तुम क्या हो ?

क्या मायावी जाल हो ?

या अनजान नाव की पाल हो |

तुम प्रकाश या अंधकार हो,

तुम शुष्क हो या आर्द्र हो,

क्या तुम परमाणु हो अणु के,

लगते तुम कभी चंद्र तनु से,

क्या गति की परिभाषा हो ?

क्या तुम शक्ति की आशा हो ?

ओ अंतरिक्ष !

तुम क्या हो ?

क्या तुम आकाश का विस्तार हो ?

क्या प्रकृति का चमत्कार हो ?

क्या पदार्थ का कोई प्रहार हो ?

क्या ईश्वर का ही सौंदर्य हो ?

ओ अंतरिक्ष ! तुम क्या हो ?

कितना कठिन है तुम्हें समझ पाना,

तुम्हारे नियंता को हमने न जाना,

तुम गूढ़ रहस्य लघु-ज्ञान-बुद्धि मेरी,

कैसे जाना लघु कंकड़ों में तुमने बस जाना ?

अरे मूर्ख मनुष्य ! आंखें खोल दृष्टिपात कर,

मैं ही तेरे रतजगे में प्रकाश बनकर आया,

मैंने ही तेरी धमनियों में ऊर्जा का रूप पाया,

मैं ही तेरे संकल्पों में दृढ़ता बनकर आया,

मैं तेरे कण-कण में हूँ समाया,

हे मूर्ख मनुष्य ! तुममें मैं हूं, मुझ में तुम हो,

आंखें बंद कर हाथ बढ़ाकर,

मुझे बुला ले,

मेरा स्पर्श कर,

मुझसे बातें कर,

मेरी बातें कर,

मुझे अनुभव कर,

और मेरे स्निग्ध सागर में डूब जा,

मेरे स्निग्ध सागर में डूब जा

मेरे स्निग्ध सागर में डूब जा…….

ऐसा क्यूँ होता है ?

 

ऐसा क्यूँ होता है ?




वही मैं, वही तुम, वही जज़्बात

मगर

ना जाने क्यूँ

कभी कभी

बातें अथाह सागर सी होती हैं

विशाल, विस्तृत

कभी ना ख़त्म होने वाली

और कभी

इतनी सीमित

मुट्ठी भर रेत जैसे

मुट्ठी खोलो और

एक ही पल में बस

फिसल के गिर जाती हैं

बेजान साहिल पर...

आह्वान

 



उठे राष्ट्र तेरे कंधो पर

बढ़े प्रगति के प्रांगण में,

पृथ्वी को रख दिया उठाकर

तूने नभ के आँगन में ।

 

विजय वैजयंती फहरी जो

जग के कोने-कोने में,

उनमें तेरा नाम लिखा है

जीने में, बलि होने में !

 

गहरे रण घनघोर, बढ़ी

सेनाएँ तेरा बल पाकर

स्वर्ण-मुकुट आ गये चरण तल

तेरे शस्त्र सँजोने में ।

 

यह अवसर है, स्वर्ण सुयुग है,

खो न इसे नादानी में,

अब न तू बेसुध होना

मस्ती में, मनमानी में।

 

तरुण, विश्व की बागडोर ले

तू अपने कठोर कर में,

स्थापित कर रे मानवता

बाहर में, अपने घर में।

 

आशाएँ

 

आशाएँ




आशाएँ ही वृक्ष लगाती,

आशाएँ विश्वास जगाती,

आशा पर परिवार टिका है।

आशा पर संसार टिका है।।

आशाएँ श्रमदान करातीं,

पत्थर को भगवान बनाती,

आशा पर उपकार टिका है।

आशा पर संसार टिका है।।

आशा यमुना, आशा गंगा,

आशाओं से चोला चंगा,

आशा पर उद्धार टिका है।

आशा पर ही प्यार टिका है।।

आशाएँ हैं, तो सपने है,

सपनों में बसते अपने हैं,

आशा पर व्यवहार टिका है।

आशा पर संसार टिका है।।

आशाओं के रूप  बहुत हैं,

शीतल छाया धूप बहुत है,

प्रीत-रीत-मनुहार टिका है।

आशा पर संसार टिका है।।

आशाएँ जब उठ जायेंगी,

दुनियादारी लुट जायेंगी,

उड़नखटोला द्वार टिका है।

आशा पर परिवार टिका है।

आशा पर संसार टिका है।।

और न जाने क्या-क्या?

 कभी गेरू से  भीत पर लिख देती हो, शुभ लाभ  सुहाग पूड़ा  बाँसबीट  हारिल सुग्गा डोली कहार कनिया वर पान सुपारी मछली पानी साज सिंघोरा होई माता  औ...