विदुर नीति में कहा गया है-
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥
अर्थात जो मनुष्य क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति-उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की और आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।
वास्तव में मनुष्य का "स्वार्थ "उसे अन्य लोगों से दूर ले जाकर नकारात्मक हालातों की ओर धकेलता है। परिणामस्वरूप वह अकेला रह जाता है। स्वार्थ शीशे में फैली धूल की तरह है, जिसकी वजह से मनुष्य अपना प्रतिबिंब ही नहीं देख पाता।
जब मनुष्य अपने लाभ एंव हित के लिए कार्य करता है, तो वह उसका स्वार्थ कहलाता है। स्व + अर्थ = स्वार्थ अर्थात खुद + लाभ = खुद का लाभ । संसार का प्रत्येक प्राणी अपने हित का कार्य करता है,यह कोई अपराध नहीं है क्योंकि प्रकृति ने सभी जीवों को जीने का अधिकार दिया है, जिसके लिए स्वार्थ सभी जीवों की स्वभाविक क्रिया है ।
परंतु स्वार्थ को समाज में अनुचित समझा जाता है, किसी को स्वार्थी कहना उसके लिए अपशब्द के समान है, आखिर क्यों ? क्योंकि स्वार्थ में लिप्त मनुष्य न केवल दूसरों को दुख पहुंचाता है, बल्कि स्वयं भी दूसरों की नज़रों से गिरकर अपने भविष्य के रास्ते बंद कर लेता है । स्वार्थ के लिए शब्दकोश में लोभ के अतिरिक्त कोई शब्द नहीं है।
स्वार्थ का जन्म प्रेम के कारण ही होता है । प्रेम एक अद्भुत भावना का समुद्र है, जिसमें व्यक्ति ही नहीं वरन जीव भी जितना समाता है, उतना ही अधिक शाश्वत आत्मिक सुख की प्राप्ति करता है, किन्तु इसके विपरीत स्वार्थ क्षणिक सुख ही प्रदान कर सकता है।स्वार्थ व्यक्ति को,उसकी सोच को कुछ समय हेतु भौतिक सुख दे सकता है,स्थाई सुख नहीं। स्वार्थी व्यक्ति सदैव प्राप्ति की इच्छा रखता है, तृष्णा की मारीचिका में उलझा रहता है ।यही तृष्णा दंभ, लोभ छल-कपट को बढ़ाता है।
स्वार्थ के विषय में अधिक कुछ नहीं किया जा सकता क्योंकि इसकी केवल एक ही परिकल्पना होती है, जिसे स्वयं का लाभ कहा जाता है। केवल स्वयं के लाभ के विषय में सोचना तथा किसी भी कार्य में इसी लाभ के लोभ से जुड़ना जबकि दूसरों के लाभ हानि के विषय में न सोचना यही स्वार्थ है। अतः स्वार्थ पूर्णतया एक अव्यावहारिक एवं असामाजिक प्रक्रिया है।
स्वार्थ रिश्तों में आने वाली कड़ुवाहट का मुख्य कारक है। जब-जब संबंधो के मध्य स्वार्थ आ जाता है, तब-तब घरों में महाभारत शुरू हो जाती है। बढ़ते भौतिक संसाधनों ने मानव को और भी ज्यादा अवसरवादी और स्वार्थी बना दिया है। जिसके कारण एक-दूसरे के प्रति वैमनस्यता भी चरम पर पहुंच चुकी है।
स्वार्थ की अधिकता से जीवन में तथा समाज में अनेक समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं , या यह कहा जाय कि संसार में जितनी भी समस्याएँ हैं, सभी मनुष्य के स्वार्थ की अधिकता के कारण ही उत्पन्न हुई हैं । मनुष्य में जब स्वार्थ की अधिकता उत्पन्न होनी आरंभ होती है, तो वह स्वार्थ पूर्ति के लिए अनुचित कार्यों को अंजाम देने लगता है, जो उसके जीवन में भ्रष्टाचार का आरंभ करता है, और जिसके बढ़ने से मनुष्य धीरे धीरे अपराध की ओर बढने लगता है । यह स्थिति उस में विवेक की कमी अथवा विवेकहीनता बढ़ाती है और उसके विनाश का कारण बन जाता है ।
मनुष्य में स्वार्थ की अधिकता का कारण उस के मन की चंचलता एंव लोभ है । स्वार्थ की वृद्धि मन करता है, तो उसमे रंग भरने का कार्य उस की कल्पना शक्ति करती है तथा क्रियाशील करने का साहस भावना-शक्ति के कारण उत्पन्न होता है व स्वार्थ पूर्ति को अंतिम रूप इच्छाशक्ति प्रदान करती है । जो मनुष्य स्वार्थ के मद में आपराधिक कार्यों को अंजाम देते हैं, उनके लिए रिश्तों एंव भावनाओं की कोई कीमत नहीं होती ।
मनुष्य के मन में जब स्वार्थ की वृद्धि होने लगे, यदि उसी समय उसके मन को शांत किया जाए, तो सहजता से शांत किया जा सकता है अन्यथा उस का स्वार्थ पोषित होकर जीवन को विनाश के मार्ग पर ले जाता है एवं उसे परिणाम भुगतने के समय जब इसका अहसास होता है, तब तक बहुत देरी हो जाती है । स्वार्थ के लिए हमें यह भी समझना आवश्यक है कि जीवन में स्वार्थ पूर्ति द्वारा भौतिक सुख तो जुटाए जा सकते हैं, सम्मान प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि स्वार्थ व सम्मान की आपसी शत्रुता होती है जो सदैव रहेगी यदि सम्मान चाहिए तो स्वार्थ को संयमित रखना अति आवश्यक है ।
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