ओ अंतरिक्ष !
ओ अंतरिक्ष !
तुम क्या हो ?
क्या मायावी जाल हो ?
या अनजान नाव की पाल हो |
तुम प्रकाश या अंधकार हो,
तुम शुष्क हो या आर्द्र हो,
क्या तुम परमाणु हो अणु के,
लगते तुम कभी चंद्र तनु से,
क्या गति की परिभाषा हो ?
क्या तुम शक्ति की आशा हो ?
ओ अंतरिक्ष !
तुम क्या हो ?
क्या तुम आकाश का विस्तार हो ?
क्या प्रकृति का चमत्कार हो ?
क्या पदार्थ का कोई प्रहार हो ?
क्या ईश्वर का ही सौंदर्य हो ?
ओ अंतरिक्ष ! तुम क्या हो ?
कितना कठिन है तुम्हें समझ पाना,
तुम्हारे नियंता को हमने न जाना,
तुम गूढ़ रहस्य लघु-ज्ञान-बुद्धि मेरी,
कैसे जाना लघु कंकड़ों में तुमने बस जाना ?
अरे मूर्ख मनुष्य ! आंखें खोल दृष्टिपात कर,
मैं ही तेरे रतजगे में प्रकाश बनकर आया,
मैंने ही तेरी धमनियों में ऊर्जा का रूप पाया,
मैं ही तेरे संकल्पों में दृढ़ता बनकर आया,
मैं तेरे कण-कण में हूँ समाया,
हे मूर्ख मनुष्य ! तुममें मैं हूं, मुझ में तुम हो,
आंखें बंद कर हाथ बढ़ाकर,
मुझे बुला ले,
मेरा स्पर्श कर,
मुझसे बातें कर,
मेरी बातें कर,
मुझे अनुभव कर,
और मेरे स्निग्ध सागर में डूब जा,
मेरे स्निग्ध सागर में डूब जा
मेरे स्निग्ध सागर में डूब जा…….
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