उठे राष्ट्र तेरे कंधो पर
बढ़े प्रगति के प्रांगण में,
पृथ्वी को रख दिया उठाकर
तूने नभ के आँगन में ।
विजय वैजयंती फहरी जो
जग के कोने-कोने में,
उनमें तेरा नाम लिखा है
जीने में, बलि होने में !
गहरे रण घनघोर,
बढ़ी
सेनाएँ तेरा बल पाकर
स्वर्ण-मुकुट आ गये चरण तल
तेरे शस्त्र सँजोने में ।
यह अवसर है,
स्वर्ण सुयुग है,
खो न इसे नादानी में,
अब न तू बेसुध होना
मस्ती में,
मनमानी में।
तरुण, विश्व की बागडोर ले
तू अपने कठोर कर में,
स्थापित कर रे मानवता
बाहर में,
अपने घर में।
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