गिजुभाई बधेका द्वारा कृत ‘दिवास्वप्न’
‘की समीक्षा
मन में तो कौतूहल तभी जाग गया था, जब केंद्रीय विद्यालय संगठन के द्वारा गिजुभाई बधेका द्वारा कृत ‘दिवास्वप्न’ को पढ़ने
के निर्देश को देखा। तुरंत ही अमेज़ॉन से इसे मंगवाया और सच कहूं तो तीन दिनों में ही मैंने यह पुस्तक पढ़ डाली। तीन
दिनों में इसलिए पढ़ डाली क्योंकि यह मेरी अंतर चेतना को जगा गई, मेरे अंतस्थ उतरकर एक शिक्षक की काल्पनिक कथा
को सुनाते हुए,
शिक्षा की दकियानूसी संस्कृति को
नकारते हुए, परंपरा व पाठ्य पुस्तकों की सचेत
अवहेलना करते हुए, बच्चों
के प्रति सरस और सहज प्रयोग के रूप में ठेठ देसी अंदाज़ में समा गई।
गिजुभाई बधेका गुजराती भाषा के लेखक और
महान शिक्षाशास्त्री थे। बाल मनोविज्ञान और शैक्षणिक विचारों को कथा शैली में
प्रस्तुत करने के वे सदैव पक्षधर रहे । उनकी किताब ‘दिवास्वप्न’ उनके अनुभवों की
दुनिया है। पुस्तक के आरंभ में वे लिखते हैं- “यह किताब मेरे जीवंत अनुभवों से
उपजी है और मुझे विश्वास है कि प्राणवान, क्रियावान, निष्ठावान
शिक्षक अपने लिए इसे उपयोगी पाएंगे।” स्कूल कैसा हो, बच्चों के साथ व्यवहार कैसा हो और शिक्षक अपने
बर्ताव में कैसे हों? इसे
बड़े ही सरल, सहज और दिलचस्प अंदाज में गिजुभाई ने
बयां किया है। आरंभ की कुछ पंक्तियां बेहद प्रभावित करती हैं- “जब तक बच्चों को
प्रेम और सम्मान नहीं मिलता, तब
तक मुझे चैन कैसे आए?”
गिजुभाई ने बच्चों के विचारों व उनके
मानसिक स्थितियों का बारीक व सूक्ष्म अवलोकन किया | उन्होंने जब अपने शैक्षिक अनुभवों को पुस्तक
रूप में मूर्तता प्रदान की, तो
उन्हें भी एक बार ऐसा लगा कि क्या पता लोग सोचेंगे कि मैं ये क्या लिख रहा हूँ ? लोग मुझे पागल ही समझेंगे । किंतु देखा जाए तो, हमें यही ज्ञात होता है कि वे अपने ज़माने से
बहुत आगे की सोच रखते थे | ‘दिवास्वप्न’
को पढ़कर हर उस पाठक और शिक्षक को एक प्रकाशित मार्ग का बना बनाया नक्शा प्राप्त
होता है, जिस पर चलकर वह बच्चों को एक आलोकित व
उज्ज्वल भविष्य देता है । गिजूभाई ने सबसे पहले मौजूदा शैक्षणिक व्यवस्थाओं का
काफी गहनता से अवलोकन व अध्ययन किया, उसके बाद उसमें व्याप्त कमियों को पहचान कर उसे सुधारने का यथासंभव
प्रयास भी किया |
‘दिवास्वप्न’ जैसा कि पुस्तक के नाम से
ही पता चल रहा है कि दिन में देखा हुआ स्वप्न, जो कोई सुगम कार्य नहीं है, अर्थात इस पुस्तक में लेखक ने स्वयं के
वास्तविक व जीवंत अनुभवों व प्रयोगों के बारे में बताया है। लेखक ने स्वयं एक
विद्यालय में शिक्षण कार्य करने का निर्णय लेते हुए जैसे ही प्रथम बार कक्षा के
भीतर प्रवेश किया, तो
उसे एक अलग प्रकार के अनुभव से अवगत होना पड़ा । अनुभव ऐसा, जिसमें सभी बच्चों ने भिन्न–भिन्न प्रकार के
हाव–भाव से अध्यापक का स्वागत किया और कुछ इसी तरह का अनुभव हर उस शिक्षक के साथ
होता है, जो प्रथम बार किसी प्राथमिक विद्यालय
में प्रवेश करता है। लेखक द्वारा इस पुस्तक में वर्णित तमाम यथार्थ अनुभव इस
पुस्तक में जान फूँक देते हैं ।
गिजूभाई शिक्षण व्यवसाय को सबसे पवित्र
व्यवसाय मानते हैं,क्योंकि
अन्य व्यवसायों की तुलना में शिक्षण में सामाजिक उतरदायित्व अधिक होता है । उनका
मानना है कि बच्चों के भविष्य का निर्माण अधिकांशतः शालाओं तथा उनसे जुड़े
छात्रावासों में होता है और शालाओं की ज़िम्मेदारी शिक्षकों पर होती है । हमें एक
ऐसी शिक्षा पद्धति बनानी पड़ेगी, जिससे
हमारे स्कूलों के बच्चों के चेहरों पर हर्ष व उल्लास की रेखाएँ खिंची हुई दिखाई
पड़े | गिजुभाई ने मुख्यतः अपने व्यावहारिक
यथार्थ, अनुभवों व ज्ञान को वास्तविक दुनिया के
साथ जोड़कर देखा , तब
उन्हें बहुत से अबूझ और उलझे हुये सवालों के जवाब ढूँढने में काफ़ी मदद मिली , जो आज भी वहीं के वहीं हैं– क्या कारण है कि
प्राथमिक स्कूलों के बच्चों का मन पढ़ाई से ज़्यादा खेलने–कूदने में अधिक लगता है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब हम केवल किताबें पढ़कर
या मेज़ पर बैठकर नहीं ढूँढ सकते , इसके
लिए तो हमें सीधे कक्षाकक्ष में बच्चों के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ना होगा ।
पुस्तक में एक और मुख्य बात है, जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि तमाम विपरीत
परिस्थितियों से जूझते हुए भी लेखक तनिक भी विचलित नहीं होता, और निरंतर अपने मार्ग में उत्साह के साथ आगे की
ओर बढ़ता रहता है और वर्ष के अंत तक अपने अथक परिश्रम व त्याग के परिणामस्वरूप
शिक्षा के मूल उद्देश्यों को सभी के बीच प्रस्तुत करता है , क्योंकि शिक्षा के उद्देश्यों को ध्यान में रखे
बिना अधिगम अपूर्ण ही रहता है ।
लेखक ने रूढ़ परंपरागत तरीकों पर बहुत ही कम
दृष्टि दौड़ाते हुए परंपरागत तरीकों का नवीनता के साथ एक सामंजस्य स्थापित किया है
। अतः हम यह नहीं कह सकते है कि गिजुभाई ने पारंपरिक शैलियों को खारिज किया है | कक्षाकक्ष में पाठ्यपुस्तक आधारित अध्ययन को किनारे करते हुए
उन्होंने बच्चों के निजी संदर्भों के ज्ञात अनुभवों को विशेष तरजीह दी है, ताकि बच्चे किसी भी प्रक्रिया को करके सीखें व
समझें | गिजुभाई किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, शिक्षा जगत में उनके योगदान को आज भी याद किया
जाता है और आगे भी याद किया जाता रहेगा | बाल-मनोविज्ञान और बाल–दर्शन में उनकी गहरी पैठ थी। सूक्ष्म
काव्यात्मक पंक्तियों के द्वारा लेखक ने गूढ़ संवेदनात्मक अर्थ को सभी के समक्ष रखा
है ताकि हर उस पाठक व अध्यापक का ध्यान इन समस्याओं की ओर जाए , और फिर वह इन तमाम समस्याओं के निदान हेतु हर
तरह के भरसक प्रयास के बारे में अवश्य सोचे |
‘दिवास्वप्न’ प्राथमिक
शिक्षा जगत के लिए नवाचार शैक्षणिक प्रयोगों का एक छोटा-सा दस्तावेज़ है। यह
शैक्षणिक प्रयोग शिक्षा के स्तर पर वस्तु ज्ञान के स्थान पर आत्म ज्ञान की
प्रक्रिया को महत्व देते हुए सृजनात्मकता के नए आयामों को प्रस्तुत करता है। पारंपरिक
शिक्षा की रुढ़िवादी प्रक्रिया को तोड़ते हुए गिजुभाई ने प्राथमिक शिक्षा को
प्रायोगिक और मौलिक रूप प्रदान करने का सफल प्रयास किया है। शिक्षक प्रधान शिक्षा
के स्थान पर बालकेंद्रित शिक्षा को महत्व दिया है, जिसके अंतर्गत बालक की रूचि, क्षमता और आवश्यकता के अनुरूप ही शिक्षण
प्रकिया का स्वरूप निर्धारित किया जाता है। इस पुस्तक के अंतर्गत गिजुभाई के
शैक्षणिक प्रयोगों का उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा की रुढ़िवादी प्रकिया, बालकों में बढ़ रही शिक्षा के प्रति नीरसता, विद्यालय के द्वारा दिए जा रहे अनावश्यक बोझ और
शिक्षकों द्वारा प्रयोग की जा रही रटंत शिक्षण पद्धतियों को दूर कर शिक्षा को
आनन्दमय और सृजनात्मक रूप प्रदान करना है।
गिजुभाई के वास्तविक अनुभवों को शब्द
देती इस पुस्तक की रचना गिजुभाई ने स्वयं 1932 में गुजरती भाषा में की थी. पुस्तक
की आवश्यकता को शिक्षा के क्षेत्र में महसूस करते हुए कुछ समय बाद रामनरेश सोनी ने
इसका हिंदी अनुवाद किया। गिजुभाई ने अपने शैक्षणिक प्रयोगों को एक काल्पनिक पात्र
शिक्षक लक्ष्मीराम के माध्यम से पुस्तक के अंतर्गत चार खंडों में विभाजित कर
प्रस्तुत किया है। एक वर्ष के अंतर्गत कक्षा चार के विद्यार्थियों के साथ किए गए
शैक्षणिक प्रयोगों की यात्रा को कहानी के माध्यम से साझा किया है। प्रथम खंड
‘प्रयोग का आरम्भ’ है। इस खंड के अंतर्गत बालमनोविज्ञान को समझाने का सफल प्रयास
किया गया है। बाल-मन की इच्छाओं व जिज्ञासाओं को जानकर उसी के अनुसार शिक्षक को
कक्षा शिक्षण के लिए शिक्षण नीति तैयार करनी चाहिए ताकि कक्षा शिक्षण को सहज और
रुचिकर बनाया जा सकें। द्वितीय खंड ‘प्रयोग की प्रगति’ में बालकों के साथ प्रयोग
की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए शिक्षक ने शिक्षा मनोविज्ञान को समझते हुए बालकों
में विषयों के प्रति रूचि विकसित करने के लिए खेल विधि का प्रयोग किया गया। हर
विषय के लिए अलग-अलग शिक्षण पद्धति का प्रयोग कर विषय के संदर्भ में समझ विकसित की
गई है। विषयों को पुस्तकीय ज्ञान के स्थान पर परिवेशीय ज्ञान के साथ जोड़ कर बालकों
में स्थाई और वास्तविक ज्ञान प्रदान किया गया है। शिक्षक ने बालकों को कहानी कहने, चित्र बनाने, नाटक करने आदि रचनात्मक क्रियाओं के अवसर
प्रदान करके उनमें विचारों की अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता के गुणों को विकसित किया
है। कक्षा-कक्ष और खेल के मैदान में शैक्षणिक खेलों के द्वारा बालकों में
स्वाध्याय, आत्मीय अनुशासन अनुभूत करवाना, सीखने के सिद्धांत की समझ जाग्रत करना, स्वच्छता के प्रति जागरूकता, सहयोग की भावना आदि गुणों को विकसित करने का
सफल प्रयास किया है।
तृतीय खंड ‘छ: महीनों के अंत में’ के अंतर्गत
शिक्षक द्वारा किए गए प्रयोगों का सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है, जहाँ बालकों में विषयों के प्रति रूचि और समझ
विकसित होती है और दंड और भय की खाई को कम करते हुए शिक्षक और विद्यार्थियों के
आपसी संबंधों में भी सहजता का भाव उत्पन्न होता है ।चतुर्थ खंड ‘अंतिम सम्मेलन’ के
अंतर्गत शिक्षक के प्रयोग की यात्रा एक सार्थक मंज़िल की ओर पहुंचती है। बालकों के
सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया में गतिशीलता आती है और अन्य शिक्षकों और बालकों के
माता-पिता भी इन प्रयोगों से प्रभावित व जागरूक दिखाई देने लगते हैं।
अत: कहा जा सकता है की ‘दिवास्वप्न’
आदर्श प्राथमिक शिक्षा की आधारशिला की नींव रखती है। एक ऐसे बालक रूपी निर्माणाधीन
इमारत, जिसके द्वारा भविष्य में देश और समाज
की प्रगति का ग्राफ निर्धारित किया जाएगा ।गिजुभाई की यह पुस्तक प्राथमिक शिक्षा
में नए आविष्कारों और मौलिक प्रयोगों के कारण शिक्षाविदों, निष्ठावान शिक्षकों और जागरूक अभिभावकों के लिए
प्रेरणास्रोत के रूप में कार्य करती है। जहाँ तक इस पुस्तक की प्रासंगिकता की बात
है तो जब तक शिक्षा जगत में शिक्षा के स्वरूप, शिक्षा मनोविज्ञान, बाल मनोविज्ञान शिक्षण प्रकिया और शैक्षणिक
समस्याओं से लेकर वर्तमान की सभी विधियाँ-प्रविधियाँ,जैसे अनुभवजन्य अधिगम, कलासमेकित शिक्षण, अंतर्विषयक दृष्टिकोण आदि-आदि को अपने में
प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समेटे हुए है ।इसीलिए ‘दिवास्वप्न’ अपनी मौलिकता और
सार्थकता को परिलक्षित करते हुए वर्तमान परिवेश में अनुकरणीय और पठनीय है ।
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