सागर
रेतीले तट पर खड़ी हुई,
मैं सम्मोहित-सी सम्मुख देख रही
मेरी सांसे
बहता पानी-सी
है दृष्टि
जहाँ तक जाती,
पैरों
के नीचे पानी था या अंबर
उस पार उमड़ती लहरें
झुक झुक करती
नभ का आलिंगन ।
सागर झुक-झुक करता आलिंगन...।
रवि बना साक्षी
एकटक देख
रहा
करता किरणों को न्योछावर।
सागर की गहराई उतनी,
जितने मोती, माणिक,
जलचर
कितनी लहरें बनती-मिटतीं लाती सिहरन ।
सागर झुक-झुक करता आलिंगन...।
नौकाएँ मछुआरों की
लहरों की गोदी में खेलें,
आती जाती लहरें तट पर
पद प्रक्षालन के
लगातीं मेले।
सिंधु लहरें,क्यूँ विकल हैं,
सिंधु लहरें,क्यों
करती उन्मीलन ।
सागर झुक-झुक करता आलिंगन...।
क्या
खोज में निकलीं अपने किनारों की?
नीली नीली,वेगवती,
कभी आह्लादित,कभी क्रोधित
उन्मादग्रस्त हो दौड़ लगातीं,
उठतीं गिरतीं क्या करती हैं चिंतन ?
सागर झुक-झुक करता आलिंगन...।
करती विलास,कभी उन्मुक्त हास,
गुंजायमान भोर
दूर कर सब विकार,
श्वेत फेनिल चँहु ओर
चरण धोकर समाती लाती ठहरन ।
सागर झुक-झुक करता आलिंगन...।
संसार-सागर की लहर हम
काश,
हम भी खोज पाते,
अपने सत्य रूपी किनारे को
मिल पाता विश्राम
काश, हम भी दृढ़प्रतिज्ञ, गंभीर हो पाते,
कभी राम की शक्ति-पूजा के आगे सिर नवाते
किसी भटके हुए कोलंबस को भारत दिखाते,
उस पार बसे साजन के सपने सजाते,
फिर मिलता चिर विश्राम
प्रश्न जीवन-मरण का समाप्त होता चिरंतन...
सागर फिर झुक-झुक करता आलिंगन...
आलिंगन.....अशेष आलिंगन...!!!
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