Monday, 21 February 2022

बहुभाषी शिक्षा के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना: चुनौतियाँ और अवसर

 

भाषा की बात

बहुभाषी शिक्षा के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना: चुनौतियाँ और अवसर










जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए हवाई-अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है मेरी आत्मा |

भाषा मनुष्य की दृष्टि का विस्तार करने और उनके संकायों को व्यापक बनाने और लोगों को सामाजिक अनुबंधों के मूल्य को समझने में सबसे शक्तिशाली उपकरण है। भाषा लोगों को उनके प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मतभेदों के बावजूद करीब आने के लिए प्रेरित करती है। विभिन्न समाजों की अलग-अलग भाषाएँ होती हैं, लेकिन भाषा की शक्ति सार्वभौमिक होती है। इसी को ध्यान में रखते हुए 1999 में यूनेस्को के आम सम्मेलन द्वारा 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में घोषित करने की घोषणा के बाद, वर्ष 2000 से अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को विश्व स्तर पर मनाया जा रहा है। बांग्लादेश द्वारा 'भाषा शहीदों' के सम्मान में पहल की गई थी, जिन्होंने 1952 में अपनी मातृभाषा 'बांग्ला' की गरिमा को बनाए रखने के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया था। यूनेस्को की घोषणा का बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपने कई आम सहमति प्रस्तावों में स्वागत किया गया था। प्रत्येक वर्ष अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाकर, संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य भाषाई विविधता और बहुभाषावाद को प्रोत्साहित करना है और शांतिपूर्ण, सहिष्णु और समावेशी दुनिया के निर्माण में भाषाओं और संस्कृतियों की बंधुता के महत्व पर प्रकाश डालना है। प्रत्येक वर्ष, 21 फरवरी को, अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (IMLD) मानव समाज की विशिष्टता को बनाए रखने और उनके विशिष्ट मूल्यों को बढ़ावा देने में भाषा की शक्ति की याद के रूप में आता है।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

अर्थात निज यानी अपनी भाषा से ही उन्नति संभव है, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है। जन्म से हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वही हमारी मातृभाषा है। सभी संस्कार एवं व्यवहार इसी के द्वारा हम पाते हैं । इसी भाषा से हम अपनी संस्कति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं। भारत वर्ष में हर प्रांत की अलग संस्कृति है, एक अलग पहचान है। उनका अपना एक विशिष्ट भोजन, संगीत,पहनावा, भाषा और लोकगीत हैं। इस विशिष्टता को बनाये रखना, इसे प्रोत्साहित करना अति आवश्यक है।

मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। एक कुशल संप्रेषक अपनी मातृभाषा के प्रति उतना ही संवेदनशील होगा जितना विषय-वस्तु के प्रति। मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की परिचायक है। मातृभाषा से इतर राष्ट्र की संस्कृति की संकल्पना अपूर्ण है। मातृभाषा मानव की चेतना के साथ-साथ लोकचेतना और मानवता के विकास का भी अभिलेखागार होती है। कबीर ने कहा है  चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए, दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए; यहां कबीर का यह दोहा अभिलेखागार है, उस लोक का,जहां चक्की का अस्तित्व था। अर्थात अब घरों में चक्की भले न मिले लेकिन उसका अनुभव भाषा के माध्यम से मिल जाएगा। भाषा ही हमें बता रही होती है कि कभी हमारे घरों में चक्की हुआ करती थी जिससे अनाज पिसा जाता था।

किसी भी समाज की स्थानीय भाषा (मातृभाषा) उस समाज के संस्कृति की परिचायक ही नहीं, बल्कि आर्थिक संपन्नता का आधार भी होती है। मातृभाषा का नष्ट होना राष्ट्र की प्रासंगिकता का नष्ट होना होता है। मातृभाषा को हम जब अर्थव्यवस्था की दृष्टि से समझने की कोशिश करते हैं, तो यह अधिक प्रासंगिक और समय सापेक्ष मालूम पड़ती है। किसी भी समाज की संस्कृति समाज के खानपान और पहनावे से परिभाषित होती है, यही खानपान और पहनावा जब अर्थव्यवस्था का रूप ले लेता है, तो यह ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।

मातृभाषा के महत्व को इस रूप में समझ सकते हैं कि अगर हमको पालने वाली, ‘माँ’ होती है; तो हमारी भाषा भी हमारी माँ है। हमको पालने का कार्य हमारी मातृभाषा करती है इसलिए इसे ‘मां’ और ‘मातृभूमि’ के बराबर दर्जा दिया गया है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। किसी व्यक्ति के जीवन में उसकी मातृभाषा के महत्व की सबसे अच्छी और सटीक तुलना करने के लिए माँ के दूध से बेहतर कुछ नहीं। जैसे जन्म के एक या दो वर्ष तक बच्चे के शारीरिक और भावनात्मक विकास के लिए माँ का दूध और स्पर्श सर्वश्रेष्ठ होते हैं वैसे ही उसके संवेगात्मक, बौद्धिक और भाषिक विकास के लिए मातृभाषा या माँ बोली महत्वपूर्ण होती है। मातृभाषा की इस भूमिका पर संसार में कोई भी मतभेद नहीं है, वैसे ही जैसे माँ के दूध के महत्व, प्रभाव और भूमिका पर कोई मतभिन्नता नहीं है। मातृभाषा एक मज़बूत नींव प्रदान कर मनुष्य को संस्कृति से जोड़ने वाले एक मज़बूत सेतु का कार्य करती है।

वर्ष 2022 के अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का विषय, 'बहुभाषी शिक्षा के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग: चुनौतियां और अवसर', का उद्देश्य बहुभाषी शिक्षा को आगे बढ़ाने और सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षण और सीखने के विकास का समर्थन करने के लिए प्रौद्योगिकी की संभावित भूमिका को बढ़ावा देना है। आज बहुभाषा शिक्षा में कुछ सबसे बड़ी चुनौतियों का समाधान करने में प्रौद्योगिकी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यूनेस्को के अनुसार, चल रहे कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया के लगभग आधे विद्यार्थी आंशिक या पूर्ण स्कूल बंद होने से प्रभावित हुए हैं। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं ने सीखने की निरंतरता बनाए रखने के लिए प्रौद्योगिकी को नियोजित किया, कम आय वाले देश भी पीछे नहीं हैं, जहां, अधिकांश विद्यार्थी कोविड-19 के दौरान अपनी शिक्षा का समर्थन करने के लिए टेलीविजन और रेडियो जैसे पारंपरिक प्रसारण मीडिया के उपयोग के साथ-साथ नवाचार और नवोन्मेष भी कर रहे हैं।

भारत में बहुभाषी शिक्षण के प्रयोग वर्षों से हो रहे हैं।ओडिशा एक बहुभाषी राज्य है, जिसमें 62 अनुसूचित जनजातियों में 40 से अधिक जातीय भाषाएं बोली जाती हैं, साथ ही हिंदी, बंगाली और तेलुगु जैसी आधुनिक भारतीय भाषाएं भी बोली जाती हैं। स्कूलों में जातीय अल्पसंख्यक बच्चों की भाषा-शिक्षा को संबोधित करने के लिए, ओडिशा सरकार ने बहुभाषी शिक्षा कार्यक्रम की शुरुआत दस जनजातीय भाषाओं के साथ की। डॉ महेंद्र कुमार मिश्रा, बहुभाषी शिक्षा निदेशक के नेतृत्व में और प्रो डी पी पटनायक और प्रो खगेश्वर महापात्रा, प्रख्यात बहुभाषी विशेषज्ञों द्वारा निर्देशित, राज्य सरकार ने 547 स्कूलों में आदिवासी भाषाओं में एमएलई कार्यक्रम शुरू किया। 10 आदिवासी भाषाओं को अपनाया गया। ये हैं संताली, सौरा, कुई, कुवी, कोया, किशन, ओरोम, जुआंग, बोंडा और हो। आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने के लिए मातृभाषा आधारित बहुभाषी शिक्षा को बनाए रखने के लिए कक्षा एक से कक्षा पांच के लिए पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें तैयार की गईं। राज्य सरकार ने आदिवासी बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूलों में उसी भाषा समुदाय के शिक्षकों की नियुक्ति की। भाषा नीति भी बनाई गई। इस कार्यक्रम को मिस्टर स्टीव सिम्पसन और विकी सिम्पसन, पामेला मैकेंज़ी के नेतृत्व में समर इंस्टीट्यूट ऑफ लिंग्विस्टिक्स द्वारा भी समर्थन दिया गया था। पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें एमएलई संसाधन समूहों द्वारा निर्देशित आदिवासी शिक्षकों द्वारा तैयार की गई थीं। यह 2005 में शुरू किया गया था और अब यह बहुसंख्यक आदिवासी बच्चों वाले 2250 स्कूलों में चल रहा है। यह एशियाई देशों में एक सतत एमएलई कार्यक्रम है। लगभग 7 एशियाई देशों ने एमएलई स्कूलों का दौरा किया है।भाषा जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण गुण है, और भारत जैसे बहु-भाषाई और बहु-जातीय भूमि में इसकी बहुत प्रासंगिकता और महत्व है, देश में "कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी" ऐसी सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषावाद का अस्तित्व है। बच्चे की मातृभाषा में प्रारंभिक स्कूली शिक्षा, सीखने में सुधार कर सकती है, विद्यार्थियों की भागीदारी बढ़ा सकती है और स्कूल छोड़ने वालों की संख्या को कम कर सकती है, जैसा कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी सिफारिश की गई है। बच्चे जिस भाषा को अच्छी तरह समझते जानते है उस भाषा में शिक्षा से बच्चों में एक सकारात्मक निडर वातावरण निर्मित होता है और उनमें आत्म-सम्मान की भावना का विकास होता है अगर बच्चे को ऐसी भाषा में पढ़ाया जाता है, जो उसे समझ नहीं आती, तो परिणामस्वरूप रटकर याद किया जाता है और इसे कॉपी करके लिखा जाता है। प्रारंभिक वर्षों में मातृभाषा की उपेक्षा करने वाले शिक्षा के मॉडल अनुत्पादक, अप्रभावी हो सकते हैं और बच्चों के सीखने पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 में यह भी कहा गया है कि जहां तक संभव हो, स्कूल में शिक्षा का माध्यम बच्चे की मातृभाषा होनी चाहिए।

प्रौद्योगिकी की उपस्थिति शिक्षा के स्तर को बढ़ाती है और इसे आसान बनाती है। आज इंटरनेट की आसान पहुंच ने शिक्षा को काफी सरल बना दिया है। आजकल विद्यार्थियों को अपना विषय पूरा करने के लिए शिक्षक की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है, और वे विभिन्न शैक्षिक ऐप और प्लेटफार्मों की मदद से जो कुछ भी आवश्यक है उसे आसानी से ऑनलाइन माध्यम से पढ़ सकते हैं।

प्रौद्योगिकी एक डिजिटल मंच प्रदान करती है और आजकल ये हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है। जहाँ कहीं भी हम जाते है प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हैं। स्कूल स्मार्ट कक्षाओं के नए टैग के साथ चल रहे हैं और ये स्मार्ट कक्षाएं प्रौद्योगिकी का सबसे बेहतर उदाहरण हैं।तकनीक के उपयोग ने शिक्षा को आसान बनाने के साथ-साथ रोचक भी बना दिया है। इन स्मार्ट कक्षाओं के अलावा, शैक्षिक उद्देश्यों के लिए और भी बहुत सारे सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं। वह सॉफ्टवेयर हमें अपडेट रखते हैं और नई चीजें सीखने में मदद करते हैं। यद्यपि प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं, अपने विवेक का प्रयोग आवश्यक है। यू ट्यूब पर विभिन्न विषय उपलब्ध हैं और कई शैक्षिक ऐप उपलब्ध हैं। हम उनसे पढ़ सकते हैं और प्रतिदिन कई नई चीजें सीख सकते हैं।

शिक्षण के लिए विभिन्न प्रौद्योगिकियां

कोई भी उपकरण जो छात्र को शिक्षित करने में सहायक है, एक छात्र-अनुकूल तकनीक है। यह एक मोबाइल फोन या लैपटॉप भी हो सकता है। आजकल छात्रों के लिए उनकी पढ़ाई के लिए विशेष रूप से कई उपकरण बनाए गए हैं। भाषा के चारों कौशलों- श्रवण-वाचन-पठन-लेखन का विकास प्रौद्योगिकी यानी टेक्नॉलिजी की मदद से किया जा सकता है।

अवसर-

ज्ञान प्राप्त करने के सर्वोत्तम माध्यमों में से एक है। इंटरनेट एक ऐसी चीज है जहां आप लिखित रूप में या श्रवण रूप में किसी भी तरह की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। आप अलग अलग प्लेटफार्मों पर विभिन्न शिक्षकों द्वारा विस्तृत विवरण प्राप्त कर सकते हैं। यह छात्रों को विस्तृत जानकारी प्राप्त करने में मदद करता है और उनकी शंकाओं को दूर करने में भी मदद करता है। लैपटॉप एक ऐसा उपकरण है, जहां आप विभिन्न शैक्षिक पोर्टलों तक आसानी से पहुंच सकते हैं, जैसे चैटबॉट्स, गूगल क्लासरूम लैपटॉपस्मार्ट फोन लैपटॉप के छोटे संस्करण हैं; आप अपने स्मार्टफ़ोन को कहीं भी ले जा सकते हैं और लैपटॉप की तुलना में इसका उपयोग करना थोड़ा सुविधाजनक भी होता है। आसान इंटरनेट कनेक्शन और छोटा आकार इसे उपयोगकर्ता के अनुकूल बनाता हैं। कई छात्रों के पास मोबाइल फोन हैं और वे शैक्षिक उद्देश्यों के लिए इनका उपयोग करते हैं। प्ले स्टोर में कई शैक्षिक ऐप उपलब्ध हैं जिनका उपयोग एंड्रॉइड फोन में आसानी से किया जा सकता है।इलेक्ट्रॉनिक पेन रीडर एक थर्मामीटर उपकरण है जो किताबों में लिखे शब्दों को रिकॉर्ड करने में मदद करता है। वास्तव में, हम हर वक़्त पढ़ना पसंद नहीं करते और कभी-कभी सुनना ज्यादा पसंद करते हैं और यह साबित भी हो चुका है कि हम सुनकर अधिक ज्ञान प्राप्त होता हैं। तो, यह उपकरण विशेष रूप से उन लोगों के लिए बनाया गया है जो सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। यह पेन एक किताब में लिखा हुआ सब कुछ इक्कठा कर लेता है और जरूरत पड़ने पर उसे ऑडियो के रूप में चलाता है। किंडल रूपी पुस्तकें ऑनलाइन प्लेटफार्म पर उपलब्ध हैं और वे भी सिर्फ आधी दरों पर। यह कागज के उत्पादन को कम करने में मदद करता है और ऑनलाइन पुस्तकों को आसानी से संग्रहीत भी किया जा सकता है। इन दिनों ये काफी ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं। नॉयज़ कैंसिलिंग हेडफ़ोन बेहद उन्नत प्रकार के हेडफ़ोन हैं जो पूर्ण निस्तब्धता को बनाए रखने में मदद करते हैं। कभी कभी शादी के मौसम के वजह से या कुछ अन्य कारणों से अध्ययन करना मुश्किल हो जाता है। ये हेडफ़ोन विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए हैं जो किसी भी प्रकार के शोर को हटाते हैं और आपको ध्यान केंद्रित करने में मदद करते हैं।

इनके अलावा ट्रांसलेटिंग एप्स, वेबक्वेस्ट,फिल्में, डॉक्यूमेंटरी, वीडियो, टी.वी. चैनल्स,श्रवण कौशल संवर्धन हेतु 8 ट्रैक्स, शब्द-भंडार संवर्धन हेतु फ़्लूएंट यू, पठन कौशल संवर्धन हेतु विकिपीडिया,फ़ीडली, लेखन कौशल संवर्धन हेतु लैंग 8, हैलो टॉक, उच्चारण कौशल संवर्धन हेतु फ़ोनेटिक टूल्स,वर्बलिंग, ऑडियो बुक्स, विज़ुअल शब्दकोष, सांकृतिक अधिगम कौशल संवर्धन हेतु बीबीसी टूल्स आदि अनेक उपकरण और माध्यम ऐसे हैं, जो बहुभाषी शिक्षण में मददगार सिद्ध हो रहे हैं। आज विभिन्न चुनौतियों का सामना करने वाले विद्यार्थियों के लिए भी कई एप्स उपलब्ध हैं।

चुनौतियां-

निश्चित तौर पर प्रौद्योगिकी के उपयोग से विद्यार्थियों का स्क्रीन टाइम बढ़ा है, जो अनेक मानसिक और शारीरिक दुष्प्रभावों का कारण बन रहा है। इससे आंखों पर दुष्प्रभाव और मोटापे जैसी गंभीर बीमारियां जन्म ले रही हैं। एक और दुष्प्रभाव, जिसका भान अब धीरे-धीरे हो चला है, वह है, विद्यार्थियों का लगातार आभासी मंच से जुड़े रहने के कारण वास्तविकता का दामन छोड़कर काल्पनिक जगत को ही सत्य मानकर व्यवहार करना। ऐसे में वे जीवन की खुरदुरी सच्चाइयों का एहसास नहीं कर पाते। परंतु अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन ला कर और भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे मनोदर्पण जैसे कार्यक्रमों से मदद लेकर इस समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।

अंत में, नेल्सन मंडेला जी के शब्दों में,’यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जिसे वह समझता है, तो आपकी बात उसके दिमाग में जाती है। अगर आप उससे उसकी भाषा में बात करते हैं तो आपकी बात उसके दिल तक जाती है।

मातृभाषा हमारे अपनों की भाषा है, यह हमारे सपनों की भाषा है, इसे गर्व से अपनाएं।

 

 

मीता गुप्ता

Friday, 18 February 2022

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष.....

 

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष.....



निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।

सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।  

अर्थात निज यानी अपनी भाषा से ही उन्नति संभव है, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है। जन्म से हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वही हमारी मातृभाषा है। सभी संस्कार एवं व्यवहार इसी के द्वारा हम पाते हैं । इसी भाषा से हम अपनी संस्कति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं। भारत वर्ष में हर प्रांत की अलग संस्कृति है, एक अलग पहचान है। उनका अपना एक विशिष्ट भोजन, संगीत,पहनावा, भाषा और लोकगीत हैं। इस विशिष्टता को बनाये रखना, इसे प्रोत्साहित करना अति आवश्यक है।

मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। एक कुशल संप्रेषक अपनी मातृभाषा के प्रति उतना ही संवेदनशील होगा जितना विषय-वस्तु के प्रति। मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की परिचायक है। मातृभाषा से इतर राष्ट्र के संस्कृति की संकल्पना अपूर्ण है। मातृभाषा मानव की चेतना के साथ-साथ लोकचेतना और मानवता के विकास का भी अभिलेखागार होती है।

शब्दों के अस्मिता की पड़ताल के दौरान लोक के अभिलेखागार को देखा जा सकता है। कबीर ने लिखा ‘चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए, दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए’; यहां कबीर का यह दोहा अभिलेखागार है उस लोक का जहां चक्की का अस्तित्व था। अर्थात अब घरों में चक्की भले न मिले लेकिन उसका अनुभव भाषा के माध्यम से मिल जाएगा। भाषा ही हमें बता रही होती है कि कभी हमारे घरों में चक्की हुआ करती थी जिससे अनाज पिसा जाता था।

किसी भी समाज की स्थानीय भाषा (मातृभाषा) उस समाज के संस्कृति की परिचायक ही नहीं बल्कि आर्थिक संपन्नता का आधार भी होती है। मातृभाषा का नष्ट होना राष्ट्र की प्रासंगिकता का नष्ट होना होता है। मातृभाषा को जब अर्थव्यवस्था की दृष्टि से समझने की कोशिश करते हैं तो यह अधिक प्रासंगिक और समय सापेक्ष मालूम पड़ता है। किसी भी समाज की संस्कृति समाज के खानपान और पहनावे से परिभाषित होती है, यही खानपान और पहनावा जब अर्थव्यवस्था का रूप ले लेता है, तो यह ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।

मातृभाषा के महत्व को इस रूप में समझ सकते हैं कि अगर हमको पालने वाली, ‘माँ’ होती है; तो हमारी भाषा भी हमारी माँ है। हमको पालने का कार्य हमारी मातृभाषा करती है इसलिए इसे ‘मां’ और ‘मातृभूमि’ के बराबर दर्जा दिया गया है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। किसी व्यक्ति के जीवन में उसकी मातृभाषा के महत्व की सबसे अच्छी और सटीक तुलना करने के लिए माँ के दूध से बेहतर कुछ नहीं। जैसे जन्म के एक या दो वर्ष तक बच्चे के शारीरिक और भावनात्मक विकास के लिए माँ का दूध और स्पर्श सर्वश्रेष्ठ होते हैं वैसे ही उसके संवेगात्मक, बौद्धिक और भाषिक विकास के लिए मातृभाषा या माँ बोली। मातृभाषा की इस भूमिका पर संसार में कोई भी मतभेद नहीं है, वैसे ही जैसे माँ के दूध के महत्व, प्रभाव और भूमिका पर कोई मतभिन्नता नहीं है।

बच्चों की प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा में मातृभाषा या पारिवारिक भाषा या परिवेश/स्थानीय भाषा का महत्व उन मुट्ठी भर विषयों में है जिस पर पूरी दुनिया के शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों की सर्वानुमति है। इस विषय पर इतने सारे शोध, प्रयोग, अध्ययन हुए हैं, इतनी सारी किताबें लिखी गई हैं कि अब इसे एक सार्वभौमिक निर्विवाद सत्य के रूप में वैश्विक स्वीकृति मिल गई है। शिक्षाविद् जानते हैं कि 6 साल की उम्र तक बच्चों के 90-95 प्रतिशत मस्तिष्क का विकास हो जाता है। यह भी अब एक सर्वविदित तथ्य है कि दो से आठ साल की उम्र के बीच कई भाषाएं आसानी से सीख लेने की क्षमता बच्चों में सबसे प्रबल होती है।

शोधों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन के आरंभिक वर्षों और प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों में सर्वश्रेष्ठ संवेगात्मक विकास के साथ-साथ सभी विषयों की समझ और अधिगम भी बेहतर होते हैं उन बच्चों की तुलना में जिन्हें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से अलग किसी भाषा में पढ़ना पड़ता है।

यह तथ्य अकेला ही पर्याप्त है यह सिद्ध करने के लिए कि दुनिया के किसी भी स्थान-समाज में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए मातृभाषा/परिवेश/स्थानीय भाषा ही सर्वांगीण विकास तथा सभी विषयों के बारे में सीखने के लिए सर्वोत्तम माध्यम होती है। यह बात सुदूर जंगलों में रहने वाले वनवासी बच्चों पर भी उतनी है लागू होती है, जितनी सबसे विकसित, संपन्न समाजों-देशों के बच्चों पर। यह बात ध्यान देने योग्य है कि भाषाविदों के अनुसार समाज विकसित या अविकसित हो सकते हैं, लेकिन कोई भी भाषा अविकसित नहीं होती। संसार की हर भाषा में अपने बोलने-बरतने वालों की सभी संचार-अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करने की अन्तर्निहित क्षमता होती है।

यहां भाषायी साम्राज्यवाद की चर्चा भी आवश्यक है। यह वह परिघटना है, जिसमें एक भाषा के बोलने वालों के मन-मस्तिष्क और जीवन एक दूसरी भाषा द्वारा इतने दबा दिए जाते हैं कि वे यह विश्वास करते हैं कि जब मामला जीवन के उच्चरतर पहलुओं का हो तो वे उसी विदेशी भाषा का प्रयोग कर सकते हैं और उन्हें करना चाहिए जब मामला जीवन के उन्नत पक्षों से, जैसे शिक्षा, दर्शन, साहित्य, शासन, प्रशासन, न्याय व्यवस्था आदि, निपटने का हो। भाषायी साम्राज्यवाद में किसी समाज के श्रेष्ठ लोगों के भी मानस, दृष्टिकोणों और आकांक्षाओं को विकृत करने और उन्हें देशज भाषणों के सही मूल्यांकन तथा उनकी संपूर्ण संभावनाओं का अहसास करने से रोकने की एक शक्ति है।

बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में मातृभाषा या भाषा की महती भूमिका है। इसे समझने से पहले यह ज़रूरी है कि भाषा के बारे में इस सबसे बड़ी लगभग वैश्विक और सार्वभौमिक गलतफहमी को दूर किया जाए कि भाषा केवल संवाद का माध्यम है। जब तक इस भ्रम को दूर नहीं किया जाता और भाषा की ज्यादा बड़ी भूमिका को ठीक से नहीं समझा जाता, तब तक बच्चों की प्रारंभिक देखभाल तथा शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को नहीं समझा जा सकता। जिस तरह गर्भनाल के माध्यम से बच्चे को मां के गर्भ में सारा पोषण प्राप्त होता है, धीरे-धीरे उसके विभिन्न अंगों और पूरे शरीर का निर्माण होता है, वैसे ही बच्चे की माँ/परिवार/परिवेश की भाषा उसके अंतःशरीर या अंतःकरण के गठन में निभाती है।

दृष्टि, स्पर्श, ध्वनियां और स्वाद- मुख्यतः जन्म के समय से सक्रिय इन चार इंद्रियों के माध्यम से भीतर जाने वाले अनुभवों, अनुभूतियों, प्रभावों से बच्चे की आंतरिक दुनिया बनती है। बच्चा जो देखता है, जिन्हें देखता है, जिन ध्वनियों को सुनता है, जिन स्पर्शों को महसूस करता है उनके दैनिक अनुभव से धीरे-धीरे उस की चेतना को कोरे पन्ने पर अनुभवों का कोश बढ़ता जाता है और बाहरी संसार के इन अनुभवों से, परिचित-सुखद अनुभूतियाँ देने वाले चेहरों-आवाज़ों-स्पर्शों से उसके रिश्तों और ज्ञान का आंतरिक संसार बनता जाता है।

यही आंतरिक संसार धीरे-धीरे बच्चे के आत्मबोध में परिवर्तित हो जाता है। उसके बाद जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है वैसे वैसे उसका परिचय अपने परिवार से शुरू होकर अपने परिवेश से होने लगता है। शैशव के इस बीजरूपी आत्मबोध से वयस्क होने पर संसार-बोध तक की इस यात्रा में उसकी इन्द्रियां ही सबसे अधिक सहायक होती है। इन ऐंद्रिक अनुभवों के माध्यम से वह जानता और पहचानता है माँ को, पिता को, निकट परिजनों को, घर को, विविध रूपों और वस्तुओं को, विभिन्न ध्वनियों और उनके स्रोतों-आशयों-अर्थों को। और यूं रूपाकारों, पारिवारिक तथा पारिवेशिक व्यक्तियों, संबंधों और वस्तुओं, नामों, उनके अर्थों तथा प्रयोजनों से उसका ज्ञान संसार भरता जाता है।

और जैसे-जैसे यह संसार बड़ा होता जाता है, बच्चा इसके अनुभवों को हृदयंगम करता जाता है। वह सहज मानवीय प्रतिक्रिया में अपने इस अंतरंग संसार से संवाद करना शुरू कर देता है, हाथ-पैर चला कर, मुखमुद्राओं से, किलकारियों या रुदन से, फिर अपनी तोतली अनगढ़ बातों से अपने को व्यक्त करना शुरू कर देता है। तब तक प्रमुखतः माँ और दूसरे परिजनों को सुनते-सुनते ध्वनियों, शब्दों, अर्थों, आशयों का उसका कोश भी बढ़ते हुए तुतुलाने से शुरू होकर एक दिन माँ/मम्मा शब्द से भाषा में बदल जाता है। यहाँ से बच्चे का भाषा भंडार आश्चर्चजनक तेज़ी से भरने लगता है। ये डेढ़-दो साल से आठ साल बच्चों के भाषिक, संवेगात्मक विकास के सबसे उत्कट साल होते हैं। ये अपने घर से आरंभ करके बाहर के वृहत्तर संसार से रोज़ सघन और विविधतापूर्ण परिचय के वे वर्ष हैं जब बच्चा सोख्ते की तरह हर चीज़ ग्रहण करता है। ये ही वे वर्ष हैं जब उसकी शाला-पूर्व शिक्षा आरंभ होती है और कक्षा आठ तक चलती है।

इस भाषा से ही बच्चा अपने रोज बढ़ते, विस्तृत होते संसार के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है, उससे संबंध स्थापित करता है। ये संबंध केवल बौद्धिक जानकारी के ही नहीं स्थानीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक तथा संवेगात्मक भी होते हैं। अपने भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक ज्ञान तथा सहज जिज्ञासा से बच्चा अवचेतन स्तर पर ही संसार की खोज करता जाता है और इस तरह अपने आपको उसमें स्थापित भी करता जाता है।

भारत को यदि इस ज्ञान युग में आधुनिक, प्रगतिशील, समृद्ध और ज्ञान-विज्ञान में अग्रणी बनना है, अपनी 90 प्रतिशत प्रतिभाओं को उनकी अपनी भाषाओं में शाला-पूर्व स्तर से ही उत्कृष्टतम शिक्षा देकर उनकी मौलिकता तथा रचनाशीलता को उच्चतम प्रस्फुटन के अवसर देने होंगे। अपनी-अपनी मातृ/परिवेश/प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा-संस्कार तथा स्वस्थ आत्म-बोध प्राप्त करके ही ये नई पीढियाँ भारतीय नवोन्मेष का नया युग निर्मित कर सकेंगी।

सौभाग्य से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने दशकों बाद भारतीय राष्ट्र के नवनिर्माण में भारतीय भाषाओं की इस अनिवार्य भूमिका को पहचाना है और प्राथमिक से लेकर उच्चतम स्तर की शिक्षा में उनको केंद्रीय स्थान दिया है। अगले 15-20 वर्षों में इस नई शिक्षा व्यवस्था से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, तकनीक तथा एक पुनर्प्राप्त सांस्कृतिक गर्व और सभ्यता-बोध से संपन्न होकर जह भावी भारतीय संसार में पदार्पण करेंगे तब भारत की वास्तविक प्रतिभा का चमत्कार संसार देखेगा।

 

मीता गुप्ता

 

 

परिवर्तन ही एकमात्र स्थिर है

 

परिवर्तन ही एकमात्र स्थिर है





















प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने कहा है-परिवर्तन प्रकृति का नियम है, हम प्रकृति के इस नियम को जब भी मानने से इनकार करने लगते हैं, तब हम दुखी होते हैं, अवसाद से घिर जाते हैं । जीवन में परिवर्तन होते रहते हैं। यह प्रकृति का नियम है।

जीवन में परिवर्तन ही एकमात्र स्थिर है। परिवर्तन में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन स्थिर रहता है, अर्थात् परिवर्तन का चरित्र स्थिर है, वह कभी परिवर्तित नहीं होता। प्रकृति में पल-पल परिवर्तन होते रहते हैं। मानव की ज़िंदगी और ऋतुएं निरंतर परिवर्तित होती रहती हैं। ज़माने में परिवर्तन होता रहता है। कुछ भी स्थिर नहीं है, परंतु वह क्रिया जिसे स्थिर का नाम दिया गया है, वह स्थिर क्रिया है परिवर्तन। जब से मानव-इतिहास शुरू हुआ है, तभी से परिवर्तन होता रहा है, परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर हो रही है। समाज ने तरक्की की है, शिक्षा ने तरक्की की है, चिकित्सा जगत ने तरक्की की है, विज्ञान ने तरक्की की है। यह संसार खुद परिवर्तित होता रहता है, परंतु जीवन में परिवर्तन ही एकमात्र स्थिर है।

परिवर्तन संसार का नियम है। जीवन हमेशा एक-सा नहीं रहता। परिवर्तन तो जीवन- काल में स्वीकारना ही है। अपने जीवन के हताशा-निराशा से उबर सकते हैं। समय के साथ अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं। हमें स्वीकारना होगा कि जब अच्छे दिन स्थाई नहीं रहते हैं तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। जो व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, वह कभी निराश-हताश नहीं होता। उसका कर्मशील जीवन मज़बूत होकर सामने आता है। समय परिवर्तनशील है, यह सीख हमें सूर्य ,चंद्रमा तथा रात और दिन देते हैं । व्यक्ति इस नियमों  को मानकर जीवन में विकास करता है ,उन्नति ,प्रगति करके अपना जीवन सुखमय बनाता है। मानव- जीवन तथा अन्य सभी जीव इस नियम में बंध कर परिवर्तन की दिशा को अपनाता हुआ जीवन में पूर्णता प्राप्त करते हैं। अपने पूरे जीवन-काल में वह अनेक परिवर्तन देखता है-शिशु अवस्था से बाल्यावस्था, किशोरावस्था से युवावस्था, युवावस्था से वृद्धावस्था, ये सब परिवर्तन के ही नाम हैं। यह परिवर्तन शाश्वत है, जो स्थिर है, और जो होकर ही रहता है ।

गतिशीलता से होता है विकास

मानव जीवन उतार-चढ़ाव से भरा होता है। जीवन की गति सदा एक समान नहीं रहती। मनुष्य को अपने जीवन में विभिन्न परिवर्तनों का सामना करना पड़ता है। ये परिवर्तन मनुष्य के धैर्य और स्थिरता की परख करते हैं। परिवर्तन जीवन के लिए आवश्यक हैं क्योंकि मनुष्य के जीवन में यदि एकरसता रहेगी, तो जीवन नीरस हो जायेगा। इसलिए मनुष्य को परिवर्तनों को सकारात्मक भाव से ग्रहण करना चाहिए।

परिवर्तन अटूट सत्य है

जीवन की स्थितियों में परिवर्तन अवश्य होता है ! कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं, जिन्हें हम बदल नहीं सकते, हटा नहीं सकते ,भगा नही सकते। समय को हम रोक नहीं सकते, वह बदलता रहता है, बदलता रहेगा। हम भला प्रकृति के नियमों को कैसे रोक सकते हैं? वे स्थिर हैं! मनुष्य स्वयं अपनी जीवन-शैली में ज़रुरत के अनुसार परिवर्तन लाता है। ताजा उदाहरण है, कोरोना काल में सबकी जीवन-शैली ही बदल गई है ! आज हमारी शिक्षा ऑन लाइन हो गई है , हमारी सोच बदल गई है। आज औरतें जो कभी केवल घर की शोभा थीं, इस प्रगति के युग में पुरुष से कंधे से कंधा मिला काम कर रही हैं। समय बदल गया है। आज इस विज्ञान के युग में मानव ही दानव बन प्रकृति में परिवर्तन ला खुद को भगवान समझने लगा है। भौतिक सुख के पीछे भागते हुए मानव का दिमाग आकाश, जल ,थल सभी में परिवर्तन ला प्रकृति को अपने वश में करने का प्रयास रहा है। प्रकृति के स्वभाव में भी परिवर्तन आ रहा है। कहीं बाढ, कहीं भूकंप और अब हमारे सम्मुख कोरोना और अब ओमिक्रॉन ला अपने को भगवान समझने वाले मानव की जीवनशैली में ही परिवर्तन लाकर उसे हिला दिया! लगातार पल -पल समय ,काल, स्थिति हमारी धरती सब परिवर्तनशील है। कुछ भी स्थिर नहीं है। खगोलिकी परिवर्तन अनवरत होती रहती है। मौसम बदलते रहते हैं। व्यक्ति का स्वभाव परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होते रहता है। परिवर्तन एक प्राकृतिक नियम है जिसके अधीन हम सब हैं। हर चीज ,हर वस्तु लगभग क्षणभंगुर है। इसलिए यह अक्षरशः सत्य है कि हमारे जीवन में परिवर्तन ही एक मात्र स्थिर है अन्य सभी के अलावा ।

गुणात्मक परिवर्तन

जिस जगह पर हमारा जीवन रहता है, उस जगह से परिवर्तन की ओर गति करता है ।परिवर्तन होना अर्थात गुणात्मक परिवर्तन होना। गुणात्मक परिवर्तन के माध्यम से ही मनुष्य स्थिरता की ओर गति करता है। मनुष्य की स्थिरता उसकी मानवीय आचरण अर्थात आचरण पूर्णता ही मनुष्य की स्थिरता है। स्थिरता ही मनुष्य की लक्ष्य है किसी लक्ष्य को पाने के लिए मनुष्य अपने जिंदगी में गुणात्मक परिवर्तन चाहता है। गुणात्मक परिवर्तन से ही अपने स्थिरता को पाता है। गुणात्मक परिवर्तन के बिना स्थिरता तक पहुंचना नामुमकिन है। अतः मनुष्य को सकारात्मक विचार करते हुए गुणात्मक परिवर्तन की ओर गति कर अपने लक्ष्य को पाने के लिए हमेशा प्रयासरत होना चाहिए, तभी स्थिरता को प्राप्त कर सकते हैं। परिवर्तन कुदरत का नियम है। यहां स्थिर कुछ भी नहीं। समय के साथ किसी भी विषय,वस्तु और विचार में परिवर्तन आता रहता है। इस परिवर्तन से कभी हम खुश हो जाते हैं और कभी दुखी हो जाते हैं। लेकिन इंसानी फ़ितरत है कि हम सुखद परिवर्तन की स्वीकार करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि अगर सुख ज़्यादा समय नहीं टिका,यह दुख भी कुछ समय बाद दूर हो जाएगा। जैसे कहा जाता है कि एक जगह टिके पानी का सड़ना निश्चित है और कुछ समय बाद वो बदबू मारने लगता है। बहता पानी ही अच्छा होता है जो रवानगी भरता है।  उसे तरह हमारे जीवन में परिवर्तन भी हमें तरोताजा करता है और हमें नई ऊर्जा देता है। पूरे ब्रह्मांड में कुछ भी स्थिर नहीं। अगर ऋतु परिवर्तन न हो तो भी हमारा जीवन नीरस हो जाएगा। परिवर्तन ही प्रकृति को नया रंग,नया रूप प्रदान करता है। पतझड़ के बाद बसंत का आना बहुत उत्साह वर्धन होता है। परिवर्तन हमारे जीवन को रंगीन बनाता है।

निष्कर्षतः

आदिकाल से आजतक मानव के वातावरण, रहन-सहन, सोच व अन्य सारी गतिविधियों में परिवर्तन आया है। यही विकास की परिभाषा है। उसी प्रकार जीवन भी अनेक उबड़-खाबड़ सड़कों पर से गुजरता है। यह भी एक यात्रा है। जब हम यात्रा शुरू करते हैं, तो मंजिल तक पहुंचना तय होता है। परंतु बाधाएँ आकस्मिक आतीं हैं। अतः जन्म और मृत्यु स्थिर है । समय पर प्रक्रिया होगी ही । यात्रा की स्थिति परिवर्तनशील है। उसे स्वीकार करते हुए अपने अंतिम अंजाम पर पहुँचना होगा। जीवन में गतिशीलता बनाए रखने के लिए परिवर्तन को स्वीकार करना ही होगा। सच ही कहा गया है-

न थके कभी पैर,

न कभी हिम्मत हारी है,

जज़्बा है परिवर्तन का, ज़िंदगी से,

इसलिए सफ़र जारी है।

इसलिए मेरी दृष्टि में परिवर्तन के बिना जीवन में कुछ भी संभव नहीं होता है इसलिए जीवन में परिवर्तन ही एकमात्र स्थिर होते हैं ।

 

मीता गुप्ता

और न जाने क्या-क्या?

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