हरि को भजै, सो हरि का होई
संत शिरोमणि रविदास का जीवन ऐसे अद्भुत प्रसंगों
से भरा है, जो दया, प्रेम,
क्षमा, धैर्य, सौहार्द,
समानता, सत्यशीलता और विश्व-बंधुत्व जैसे
गुणों की प्रेरणा देते हैं। 14वीं सदी के भक्ति युग में माघी
पूर्णिमा के दिन रविवार को काशी के मंडुआडीह गांव में रघु व करमाबाई के पुत्र रूप
में जन्मी इस विभूति ने भले ही चर्मकारी के पैतृक व्यवसाय को चुना हो, मगर अपनी रचनाओं से जिस समाज की नींव रखी, वह वाकई
अद्भुत है। जिस तरह विशाल हाथी शक्कर के कणों को नहीं चुन पाता, मगर छोटी-सी चींटी उन कणों को सहजता से चुन लेती है, उसी तरह अभिमान त्यागकर विनम्र आचरण करने वाला मनुष्य सहज ही ईशकृपा पा
लेता है। जन्म और जाति आधारित वर्ण व्यवस्था को नकारते हुए रैदास कहते हैं-
रविदास ब्राह्मण मत पूजिए, जेऊ होवे गुणहीन।
पूजहिं चरण चंडाल के जेऊ होवें गुण परवीन।।
संत रैदास के इसी दर्शन को समझकर महात्मा गांधी
ने अपने ‘रामराज्य’ के लिए पारंपरिक हथकरधा तथा कुटीर उद्योगों को महत्व दिया था
और इसी आधार पर चलते हुए नई व्यवस्थाएं कायम हुईं। गरीबी, बेकारी और बदहाली से मुक्ति के लिए उनका श्रम और स्वावलंबन का दर्शन आज भी
कारगर है। कहा जाता है कि एक बार पंडित जी गंगा स्नान के लिए उनके पास जूते खरीदने
आए। बातों-बातों में गंगा पूजन की बात निकल चली। उन्होंने पंडित महोदय को बिना दाम
लिए ही जूते दे दिए और निवेदन किया कि उनकी एक सुपारी गंगा मैया को भेंट कर दें। संत
की निष्ठा इतनी गहरी थी कि पंडित जी ने सुपारी गंगा को भेंट की तो गंगा ने खुद उसे
ग्रहण किया।
संत रविदास के जीवन का एक प्रेरक प्रसंग यह है कि
एक साधु ने उनकी सेवा से प्रसन्न होकर, चलते समय उन्हें पारस पत्थर दिया और बोले कि इसका प्रयोग कर अपनी दरिद्रता
मिटा लेना। कुछ महीनों बाद वह वापस आए, तो संत रविदास को उसी
अवस्था में पाकर हैरान हुए। साधु ने पारस पत्थर के बारे में पूछा, तो संत ने कहा कि वह उसी जगह रखा है, जहां आप रखकर
गए थे। संत रैदास अपने समय से बहुत आगे थे। उनका धर्म-दर्शन 600 वर्ष बाद आज भी प्रासंगिक है।
मीता गुप्ता
संत रविदास की प्रासंगिकता
संत रविदास जी को भक्त रविदास, गुरू रविदास, रैदास, रोहीदास
और रूहीदास के नामों के साथ भी जाना जाता है। वह 15वीं सदी
में हुए। उनकी रचना का भक्ति-विचारधारा पर गहरा प्रभाव पड़ा। वह एक समाज-सुधारक,
मानववादी, धार्मिक मानव, चिंतक और महान कवि थे। उन के 40 सबद श्री गुरू ग्रंथ
साहिब में दर्ज हैं। उनकी रचनाएं ईश्वर, गुरू, ब्रह्मांड और कुदरत के साथ प्रेम का संदेश देती हुई मानव की भलाई पर ज़ोर
देती है। उस कालखंड में शूद्र, अतिशूद्र कही जानी वाली
जातियों में पैदा होने वाले कवियों की एक लंबी परंपरा रही है। इस परंपरा के एक
महत्वपूर्ण कवि संत रैदास हैं। उन्होंने वर्ण-जाति व्यवस्था को निर्णायक चुनौती दी
और एक ऐसे समाज का स्वप्न देखा, जिसमें कोई ऊँच-नीच न हो और
जहां धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो, जहां मनुष्य की
श्रेष्ठता का आधार जन्म नहीं, बल्कि उसके मानवीय गुण हों।
रैदास संत परंपरा के कवि हैं। उनके काव्य में पीड़ितजन का आक्रोश और आवेश, सुखी समाज की आकांक्षा, और शोषक श्रेणी के प्रपंचों
पर आघात है, और सबसे बढ़कर समता, स्वतंत्रता
और बंधुत्व की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। भक्ति की परंपरा उतनी ही प्राचीन है, जितना की आदिम मनुष्य। मध्यकाल के संतों का स्वर मानवता का स्वर था और
भारत में भी वैष्णव चिंतन इसका मूल था, जिसने सबमें समन्वय
फैलाने का यत्न किया।
प्रकारांतर से सभी संतों ने समाज-कल्याण की
मान्यता को स्वीकार किया था और अपने जीवन के आदर्शों तथा कार्यों में इसे उतारा
था। कबीर ने भी अपनी वाणी का विस्तार समाज कल्याण के लिए किया था। संत चरणदास ने
अपने गुरू के विचारों की स्रोतस्विनी जगत् की प्यास बुझाने के लिए प्रवाहित की थी।
रैदास ने तत्कालीन समाज की पीड़ा को समझा था और व्यावहारिक रूप से उसका समाधान
निकाल कर अपनी वाणी के माध्यम से उस समाधान को सामान्य जनता में प्रसारित किया था।
रविदास जी स्वभावतः मानवतावादी थे। वे प्रभु-पारायण, जातीयता के कट्टर विरोधी, तथा मानव समानता के
उदारवादी संत थे।
उन्होंने कहा है ऊँचे कुल में जन्म लेने से मानव
ऊँचा नहीं होता। अच्छे कर्म करने से ही ऊँचा होता है। उन्होंने बार-बार कहा कि
इष्ट के प्रति दीनता और विनम्रता से ही भक्ति का प्रसाद प्राप्त होता है।
वर्तमान समय में संत रविदास के काव्य की मानवीय
प्रासंगिकता एक दूसरे रूप में भी हमारे सामने आती है। कुछ मूल्य ऐसे होते है जो
काल एवं स्थान से परे होते हैं और वे सदैव अनुकरणीय होते हैं। ऐसे मूल्यों को
शाश्वत मूल्य कहते हैं। सत्य एक शाश्वत मूल्य है। कला शाश्वत मूल्यों की अभिव्यकित
करता है और समाज में उनका प्रसार करता है। सामाजिक नियंत्रण शाश्वत मूल्यों पर
आधारित रहता है। इन शाश्वत मूल्यों से मानव व्यवहार सदैव से संचालित एवं प्रामाणित
होता चला आया है। मानवीय शाश्वतता की महागाथा रचने वाले संत रैदास की वाणी में
उनकी परिस्थितिजन्य अनुभव कूट-कूट कर भरा हुआ है। यही कारण है कि संत रैदास आज भी
उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस युग में थे।
संत रैदास में समाज को सुधारने की चेष्टा दूसरे
ढंग से सामने आती है। वे कबीर की तरह आक्रामक वाणी से सुधार लाने की बात नहीं
करते। वे अपनी वाणी में अत्यंत विनम्रता से मनुष्य के मन का उस वृत्ति का परिष्कार
करना चाहते हैं जिसके चलते कुरीतियां उत्पन्न होती हैं। संत रविदास की वाणी में
कहीं आक्रोश था बदले की भावना नहीं झलकती। इन विभाजक रेखाओं को पाटने के लिए
उन्होंने सहज रास्ता अपनाया।
रविदास राति न
सोईये, दिवस न करिये स्वाद।
अह निस हरि जी सुभारिये, छोड़ि सकल प्रतिवाद।।
उनकी महानता को देखते हुए परमसंत राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी जी ने कहा था कि, ‘‘रविदास जी ने अपने आप को मिटा कर दूसरों को जीवन-दान देना सिखाया था।
मानवता के कल्याण के लिए स्वयं को कष्टों की भट्टी में जलाना रविदास जी का ही काम
था।“ रविदास जी की प्रभु-भक्ति की तड़प हरिजनों के लिए
प्रभु के मंदिरों के द्वार खुलवाने में थी। रविदास जी की अमृत-रस से भरी हुई वाणी
जहाँ तपते हुए हृदयों को शीतल करने का काम देती है, वहाँ वही
वाणी प्राणिमात्र के लिये समानता और बराबरी के द्वार खोलने वाली है।
रविदास ने तत्कालीन समाज में फैले आडंबरों व
कर्मकांडों का खुलकर विरोध किया। भले ही उनका स्वर कबीर की तरह प्रहारात्मक नहीं
है, तथापि वे मिथ्याचारी व आडंबरों का निर्वाह करने वालों
को पूर्णतया अस्वीकार करते हुए उनके जीवन को व्यर्थ व थोथा कहते हैं तथा नाम स्मरण
को ही जीवन का सार मानते हैं-
थोथी काया थोथी माया, थोथा हरि
बिन जनम गवाया।
थोथा पंडित थोथी बानी, थोथी हरि
बिन सबै कहानी।।
थोथा मंदिर भोग बिलासा, थोथी आन देव की आसा।
साचा सुमरन नांव बिसासा, मन बच कर्म कहै रविदासा।।
उन्होंने अपनी वाणी के माध्यम से मध्यकालीन
सामाजिक चेतना को एक नई दिशा दी तथा अपने उच्च व सात्विक विचारों व उदात्त मूल्यों
से तत्कालीन समाज को एक नया आलोक प्रदान किया। हर दृष्टिकोण से रैदास की वाणी में
निहित मानवीय मूल्य प्रासंगिक हैं।
सही मायने में देखें तो संत रैदास समूची मानवता
के प्रणेता बनकर उभरे हैं। वे दिखावा पसंद नहीं करते हैं, बल्कि नाम स्मरण के बाहरी धरातल पर नाम और नामी की एकता स्थापित करते हैं,
अर्थात् पद और पदार्थ का ऐक्य घोषित करते हैं। पद और पदार्थ की एकता
का आधार है प्रत्यय यानी विश्वास। रविदास इसी विश्वास की प्रतिष्ठा अंधविश्वास के
उच्छेद से करते हैं-
जहं अन्ध बिस्वास है, सत्त परख
तहं नांहि।
‘रविदास’ सत्त सोई जानि है, जौ
अनभउ होई मन मांहि।।
अस्तु, रविदास की वाणी में मानवता का स्वर एकता के रूप में भक्ति के रूप में,
सामाजोत्थान और कल्याण भावना के रूप में उभरा है। उनकी अमृतवाणी
हिंदी साहित्य की एक अमूल्य निधि है। वह सत्य सनातन धर्म की एक ऐसी अनुपम थाती है
जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। वैचारिक क्रांति के प्रणेता संत रैदास की जीवन दृष्टि
पूर्ण वैज्ञानिक है। वे सभी की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता देखते हैं। उनके
अनुसार स्वराज ऐसा होना चाहिए, जिसमें किसी को किसी भी
प्रकार का कोई कष्ट न हो। संत रैदास साम्यवादी, समाजवादी
व्यवस्था के प्रबल समर्थक जान पड़ते हैं। उनका मानना था कि पराधीनता से देश,
समाज और व्यक्ति की सोच संकुचित हो जाती है और संकुचित विचारधारा
वाला व्यक्ति बहुजन-हिताय,बहुजन-सुखाय की अवधारणा को व्यावहारिक
रूप प्रदान नहीं कर सकता। उनके मन में समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति गहरा
आक्रोश था। इसीलिए वे आजीवन सामाजिक कुरीतियों, बाह्य आडंबर
एवं रूढ़ियों के विरुद्ध लड़ते रहे।
संत रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत थी। उनके भजनों
तथा उपदेशों से लोगों की शंकाओं का संतोषजनक समाधान सहज ही हो जाता था। उनकी वाणी
का प्रभाव इतना व्यापक था कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके अनुयायी हो गए थे।
संत रैदास अपने समय से बहुत आगे थे। क्रांतिकारी वैचारिक अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तथा युगबोध की सार्थक अभिव्यक्ति के कारण
उनका विचार दर्शन आज भी प्रासंगिक है।
मीता गुप्ता
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