अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर
विशेष.....
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।
अर्थात निज यानी अपनी भाषा से ही उन्नति संभव है, क्योंकि यही सारी उन्नतियों का मूलाधार
है। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय की पीड़ा का निवारण संभव नहीं है। जन्म से
हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वही हमारी मातृभाषा है। सभी
संस्कार एवं व्यवहार इसी के द्वारा हम पाते हैं । इसी भाषा से हम अपनी संस्कति के
साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं। भारत वर्ष में हर प्रांत की अलग संस्कृति
है, एक अलग
पहचान है। उनका अपना एक विशिष्ट भोजन, संगीत,पहनावा,
भाषा और लोकगीत हैं। इस विशिष्टता को बनाये रखना, इसे प्रोत्साहित करना अति
आवश्यक है।
मातृभाषा हमें
राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। मातृभाषा
ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। एक कुशल संप्रेषक
अपनी मातृभाषा के प्रति उतना ही संवेदनशील होगा जितना विषय-वस्तु के प्रति।
मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की परिचायक है। मातृभाषा से इतर राष्ट्र के
संस्कृति की संकल्पना अपूर्ण है। मातृभाषा मानव की चेतना के साथ-साथ लोकचेतना और
मानवता के विकास का भी अभिलेखागार होती है।
शब्दों के
अस्मिता की पड़ताल के दौरान लोक के अभिलेखागार को देखा जा सकता है। कबीर ने लिखा ‘चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए, दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए’; यहां कबीर का यह दोहा अभिलेखागार है उस
लोक का जहां चक्की का अस्तित्व था। अर्थात अब घरों में चक्की भले न मिले लेकिन
उसका अनुभव भाषा के माध्यम से मिल जाएगा। भाषा ही हमें बता रही होती है कि कभी
हमारे घरों में चक्की हुआ करती थी जिससे अनाज पिसा जाता था।
किसी भी समाज की
स्थानीय भाषा (मातृभाषा) उस समाज के संस्कृति की परिचायक ही नहीं बल्कि आर्थिक
संपन्नता का आधार भी होती है। मातृभाषा का नष्ट होना राष्ट्र की प्रासंगिकता का
नष्ट होना होता है। मातृभाषा को जब अर्थव्यवस्था की दृष्टि से समझने की कोशिश करते
हैं तो यह अधिक प्रासंगिक और समय सापेक्ष मालूम पड़ता है। किसी भी समाज की
संस्कृति समाज के खानपान और पहनावे से परिभाषित होती है, यही खानपान और पहनावा जब अर्थव्यवस्था
का रूप ले लेता है, तो यह ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है।
मातृभाषा के
महत्व को इस रूप में समझ सकते हैं कि अगर हमको पालने वाली, ‘माँ’ होती है; तो हमारी भाषा भी हमारी माँ है। हमको
पालने का कार्य हमारी मातृभाषा करती है इसलिए इसे ‘मां’ और ‘मातृभूमि’ के बराबर
दर्जा दिया गया है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
किसी व्यक्ति के जीवन में उसकी मातृभाषा के महत्व की सबसे अच्छी और सटीक तुलना
करने के लिए माँ के दूध से बेहतर कुछ नहीं। जैसे जन्म के एक या दो वर्ष तक बच्चे
के शारीरिक और भावनात्मक विकास के लिए माँ का दूध और स्पर्श सर्वश्रेष्ठ होते हैं
वैसे ही उसके संवेगात्मक, बौद्धिक और भाषिक विकास के लिए मातृभाषा या माँ बोली। मातृभाषा की इस
भूमिका पर संसार में कोई भी मतभेद नहीं है, वैसे ही जैसे माँ के दूध के महत्व, प्रभाव और भूमिका पर कोई मतभिन्नता
नहीं है।
बच्चों की
प्रारंभिक देखभाल और शिक्षा में मातृभाषा या पारिवारिक भाषा या परिवेश/स्थानीय
भाषा का महत्व उन मुट्ठी भर विषयों में है जिस पर पूरी दुनिया के शिक्षाविदों और
मनोवैज्ञानिकों की सर्वानुमति है। इस विषय पर इतने सारे शोध, प्रयोग, अध्ययन हुए हैं, इतनी सारी किताबें लिखी गई हैं कि अब इसे एक
सार्वभौमिक निर्विवाद सत्य के रूप में वैश्विक स्वीकृति मिल गई है। शिक्षाविद्
जानते हैं कि 6
साल की उम्र तक बच्चों के 90-95 प्रतिशत मस्तिष्क का विकास हो जाता है। यह भी अब
एक सर्वविदित तथ्य है कि दो से आठ साल की उम्र के बीच कई भाषाएं आसानी से सीख लेने
की क्षमता बच्चों में सबसे प्रबल होती है।
शोधों ने यह
सिद्ध किया है कि जीवन के आरंभिक वर्षों और प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा माध्यम
में पढ़ने वाले बच्चों में सर्वश्रेष्ठ संवेगात्मक विकास के साथ-साथ सभी विषयों की समझ और अधिगम भी
बेहतर होते हैं उन बच्चों की तुलना में जिन्हें अपनी मातृभाषा/परिवेश भाषा से अलग
किसी भाषा में पढ़ना पड़ता है।
यह तथ्य अकेला
ही पर्याप्त है यह सिद्ध करने के लिए कि दुनिया के किसी भी स्थान-समाज में जन्म
लेने वाले बच्चों के लिए मातृभाषा/परिवेश/स्थानीय भाषा ही सर्वांगीण विकास तथा सभी
विषयों के बारे में सीखने के लिए सर्वोत्तम माध्यम होती है। यह बात सुदूर जंगलों
में रहने वाले वनवासी बच्चों पर भी उतनी है लागू होती है, जितनी सबसे विकसित, संपन्न समाजों-देशों के बच्चों पर। यह
बात ध्यान देने योग्य है कि भाषाविदों के अनुसार समाज विकसित या अविकसित हो सकते
हैं,
लेकिन कोई भी भाषा अविकसित नहीं होती। संसार की हर भाषा में अपने बोलने-बरतने
वालों की सभी संचार-अभिव्यक्ति-आवश्यकताओं को पूरा करने की अन्तर्निहित क्षमता
होती है।
यहां भाषायी साम्राज्यवाद
की चर्चा भी आवश्यक है। यह वह परिघटना है, जिसमें एक भाषा के बोलने वालों के मन-मस्तिष्क
और जीवन एक दूसरी भाषा द्वारा इतने दबा दिए जाते हैं कि वे यह विश्वास करते हैं कि
जब मामला जीवन के उच्चरतर पहलुओं का हो तो वे उसी विदेशी भाषा का प्रयोग कर सकते
हैं और उन्हें करना चाहिए जब मामला जीवन के उन्नत पक्षों से, जैसे शिक्षा, दर्शन, साहित्य, शासन, प्रशासन, न्याय व्यवस्था आदि, निपटने का हो। भाषायी साम्राज्यवाद में
किसी समाज के श्रेष्ठ लोगों के भी मानस, दृष्टिकोणों और आकांक्षाओं को विकृत करने और
उन्हें देशज भाषणों के सही मूल्यांकन तथा उनकी संपूर्ण संभावनाओं का अहसास करने से
रोकने की एक शक्ति है।
बच्चों के
व्यक्तित्व निर्माण में मातृभाषा या भाषा की महती भूमिका है। इसे समझने से पहले यह
ज़रूरी है कि भाषा के बारे में इस सबसे बड़ी लगभग वैश्विक और सार्वभौमिक गलतफहमी को
दूर किया जाए कि भाषा केवल संवाद का माध्यम है। जब तक इस भ्रम को दूर नहीं किया
जाता और भाषा की ज्यादा बड़ी भूमिका को ठीक से नहीं समझा जाता, तब तक बच्चों की प्रारंभिक देखभाल तथा
शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को नहीं समझा जा सकता। जिस तरह गर्भनाल के माध्यम से
बच्चे को मां के गर्भ में सारा पोषण प्राप्त होता है, धीरे-धीरे उसके विभिन्न अंगों और पूरे
शरीर का निर्माण होता है, वैसे ही बच्चे की माँ/परिवार/परिवेश की भाषा उसके अंतःशरीर या
अंतःकरण के गठन में निभाती है।
दृष्टि, स्पर्श, ध्वनियां और स्वाद- मुख्यतः जन्म के समय से
सक्रिय इन चार इंद्रियों के माध्यम से भीतर जाने वाले अनुभवों, अनुभूतियों, प्रभावों से बच्चे की आंतरिक दुनिया
बनती है। बच्चा जो देखता है, जिन्हें देखता है, जिन ध्वनियों को सुनता है, जिन स्पर्शों को महसूस करता है उनके दैनिक
अनुभव से धीरे-धीरे उस की चेतना को कोरे पन्ने पर अनुभवों का कोश बढ़ता जाता है और
बाहरी संसार के इन अनुभवों से, परिचित-सुखद अनुभूतियाँ देने वाले चेहरों-आवाज़ों-स्पर्शों से उसके
रिश्तों और ज्ञान का आंतरिक संसार बनता जाता है।
यही आंतरिक
संसार धीरे-धीरे बच्चे के आत्मबोध में परिवर्तित हो जाता है। उसके बाद जैसे-जैसे
बच्चा बड़ा होता जाता है वैसे वैसे उसका परिचय अपने परिवार से शुरू होकर अपने
परिवेश से होने लगता है। शैशव के इस बीजरूपी आत्मबोध से वयस्क होने पर संसार-बोध
तक की इस यात्रा में उसकी इन्द्रियां ही सबसे अधिक सहायक होती है। इन ऐंद्रिक
अनुभवों के माध्यम से वह जानता और पहचानता है माँ को, पिता को, निकट परिजनों को, घर को, विविध रूपों और वस्तुओं को, विभिन्न ध्वनियों और उनके
स्रोतों-आशयों-अर्थों को। और यूं रूपाकारों, पारिवारिक तथा पारिवेशिक व्यक्तियों, संबंधों और वस्तुओं, नामों, उनके अर्थों तथा प्रयोजनों से उसका ज्ञान संसार
भरता जाता है।
और जैसे-जैसे यह
संसार बड़ा होता जाता है, बच्चा इसके अनुभवों को हृदयंगम करता जाता है। वह सहज मानवीय
प्रतिक्रिया में अपने इस अंतरंग संसार से संवाद करना शुरू कर देता है, हाथ-पैर चला कर, मुखमुद्राओं से, किलकारियों या रुदन से, फिर अपनी तोतली अनगढ़ बातों से अपने को
व्यक्त करना शुरू कर देता है। तब तक प्रमुखतः माँ और दूसरे परिजनों को सुनते-सुनते
ध्वनियों, शब्दों, अर्थों, आशयों का उसका कोश भी बढ़ते हुए तुतुलाने से
शुरू होकर एक दिन माँ/मम्मा शब्द से भाषा में बदल जाता है। यहाँ से बच्चे का भाषा
भंडार आश्चर्चजनक तेज़ी से भरने लगता है। ये डेढ़-दो साल से आठ साल बच्चों के भाषिक, संवेगात्मक विकास के सबसे उत्कट साल
होते हैं। ये अपने घर से आरंभ करके बाहर के वृहत्तर संसार से रोज़ सघन और
विविधतापूर्ण परिचय के वे वर्ष हैं जब बच्चा सोख्ते की तरह हर चीज़ ग्रहण करता है।
ये ही वे वर्ष हैं जब उसकी शाला-पूर्व शिक्षा आरंभ होती है और कक्षा आठ तक चलती
है।
इस भाषा से ही
बच्चा अपने रोज बढ़ते, विस्तृत होते संसार के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है, उससे संबंध स्थापित करता है। ये संबंध
केवल बौद्धिक जानकारी के ही नहीं स्थानीय, सामाजिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक तथा संवेगात्मक भी होते हैं। अपने
भौतिक तथा मनोवैज्ञानिक ज्ञान तथा सहज जिज्ञासा से बच्चा अवचेतन स्तर पर ही संसार
की खोज करता जाता है और इस तरह अपने आपको उसमें स्थापित भी करता जाता है।
भारत को यदि इस
ज्ञान युग में आधुनिक, प्रगतिशील, समृद्ध और ज्ञान-विज्ञान में अग्रणी बनना है, अपनी 90 प्रतिशत प्रतिभाओं को उनकी
अपनी भाषाओं में शाला-पूर्व स्तर से ही उत्कृष्टतम शिक्षा देकर उनकी मौलिकता तथा
रचनाशीलता को उच्चतम प्रस्फुटन के अवसर देने होंगे। अपनी-अपनी
मातृ/परिवेश/प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा-संस्कार तथा स्वस्थ आत्म-बोध प्राप्त
करके ही ये नई पीढियाँ भारतीय नवोन्मेष का नया युग निर्मित कर सकेंगी।
सौभाग्य से नई
राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने दशकों बाद भारतीय राष्ट्र के नवनिर्माण में भारतीय
भाषाओं की इस अनिवार्य भूमिका को पहचाना है और प्राथमिक से लेकर उच्चतम स्तर की
शिक्षा में उनको केंद्रीय स्थान दिया है। अगले 15-20 वर्षों में इस नई शिक्षा
व्यवस्था से आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, तकनीक तथा एक पुनर्प्राप्त सांस्कृतिक गर्व और
सभ्यता-बोध से संपन्न होकर जह भावी भारतीय संसार में पदार्पण करेंगे तब भारत की
वास्तविक प्रतिभा का चमत्कार संसार देखेगा।
मीता गुप्ता
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