महाकवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की जन्म-जयंती के अवसर पर
श्रद्धांजलि व नमन
वर दे, वीणावादिनि वर दे!
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में
भर दे!
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव;
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे!
वर दे, वीणावादिनि वर दे।
निराला जी सरस्वती के वरद पुत्र थे। वे सरस्वती
के साधक थे। खड़ी बोली में हिंदी में मां सरस्वती पर जितनी कविताएं निराला जी ने
लिखी हैं, किसी और कवि ने नहीं लिखीं। उन्होंने
सरस्वती जी को अनेक अनुपम एवं अभूतपूर्व चित्रों में उकेरा है। उन्होंने सरस्वती
के मुख मंडल को करुणा के आंसुओं से धुला कहा हैधुला। उन्होंने किसानों की सरस्वती
की प्रतिष्ठा की है। उन्होंने सरस्वती को मंदिरों, पूजा-पाठ के कर्मकांड से बाहर निकालकर खेत-खलिहान में किसानों के
सुख-दुख भरे जीवन-क्षेत्र में स्थापित किया। वे एक स्थान पर कहते हैं-
हरी-भरी खेतों की सरस्वती लहराई,
मग्न किसानों के घर उन्मद बजी बधाई।
सरस्वती भाषा की देवी है, वाणी
है। वाणी सामाजिक देवी है,
,वे शब्दों को
सिद्धि देती हैं। कवि सरस्वती की साधना करके शब्दों को अर्थ प्रदान करता है, उन्हें सार्थक बनाता है। शब्द ही कवि की सबसे
बड़ी संपत्ति है और उसी संपत्ति पर कवि को सबसे अधिक भरोसा होता है। सरस्वती के
साधक पुत्र निराला शब्द-साधना करते हैं। निराला का जीवन तो मानो इस साधना की अनवरत
यात्रा है।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उद्भव एक ऐसे समय
में हुआ था, जब
राष्ट्र आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था। उनका रचनाकाल बीसवीं शताब्दी के शुरू के
40 वर्षों तक चलता है। यह छायावाद का काल था और इस समय और इस काल को देश की
स्वाधीनता के संघर्ष के समय के कालखंड के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है।
उनका प्रारंभिक जीवन घोर आर्थिक विपन्नता और
कष्ट की बीच व्यतीत हुआ, लेकिन इन विपरीत परिस्थितियों में वे और अधिक शक्ति के साथ उभरकर सामने
आए। वे जीवन पर्यंत अपनी शर्तों पर जिए। निराला पर बंगाल की शक्ति-पूजा, स्वामी विवेकानंद की काली-वंदना और टैगोर
की विश्वव्यापी देवी सुंदरी की प्रार्थना का प्रभाव पड़ा था। इसी वजह से निराला वह
कर पाए, जो
कल्पनातीत है। कष्ट से व्यक्ति और मज़बूत होता है और अपने आत्मबल को चट्टान सरीखा
बनाकर विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करता है।वे सभी तामसिक विकारों से मुक्ति
चाहते हैं,
व्यक्तिगत नहीं है, समष्टिगत। वे विराट फलक पर विश्व-चेतना को जागृत करते हैं। यही
चेतना निराला को एक बड़ा कवि बनाती है और वे ’भिक्षुक’, ‘विधवा’ और ‘डिप्टी साहब’ जैसी कविताओं की रचना करते हैं।
फ्रंचेस्का आर्सिनी ने निराला के विषय में लिखा
है, ‘छायावाद’ के सबसे अधिक प्रयोगात्मक और विस्तृत कवि, और मौलिक रेखाचित्रों, कहानियों, तथा लघु उपन्यासों के लेखक निराला को
अब इस शताब्दी के सबसे अग्रणी हिंदी साहित्यकारों में गिना जाता है। आधुनिक काल में साहित्य के सर्वाधिक
विस्तृत चेतना संपन्न साहित्यकार निराला जी हैं। निराला साहित्य सामाजिक प्रश्नों
से हमेशा दो-चार करता रहा है। इसी कारण आधुनिक साहित्य के सर्वाधिक विवादित, संघर्ष के प्रतीक और वर्तमान के लिए सर्वाधिक
प्रासंगिक कविताकार और गद्यकार निराला जी ही हैं। भारतेंदु के साहित्य में जिस
जनवाद का बीज दिखाई पड़ता है, वह
निराला में विशाल वृक्ष बन जाता है। निराला का जीवन संघर्ष दोहरे स्तर पर रहा है-
सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों रूपों से। ‘दुःख ही जीवन की कथा रही’ पंक्ति निराला के
सम्पूर्ण जीवन-संघर्ष का निचोड़ है। निराला जी के साहित्यिक-चिंतन का दायरा
अतिविस्तृत था। छायावादी काल के अंतर्गत जहाँ छायावादी-भावबोध से युक्त कविताएं
लिखीं, वही ‘बादल-राग’
जैसा यथार्थवादी काव्य भी लिखा। निराला की प्रगतिशीलता समाज से उनके जुड़ाव और
व्यक्तिगत संघर्ष से अनुप्राणित है। इसीलिए उनके साहित्य में स्वाभाविक व्यंग्य का
तीखापन है। निराला की बौद्धिकता अतिशयता थी। प्रखर कल्पना शक्ति को उन्होंने
बौद्धिकता का सबल आधार दिया था।
निराला-साहित्य सामाजिक चेतना से संपन्न है। उन्होंने
ने सामाजिक विसंगितियों पर जमकर प्रहार किया है। सामाजिक शोषण का पर्दाफाश करने
में कोई कसर नहीं छोड़ा है। ‘तोड़ती पत्थर’ नामक
कविता में सत्ताधारी वर्ग और सामान्य श्रमशील जनता का प्रतीक महिला का खींचा गया
चित्र अत्यंत ही प्रभावशाली है और समाज के यथार्थ स्थिति को सामने रख देती है –
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भरा बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत-मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार,
सामने तरु मलिका अट्टालिका, प्राकार।”
इसी तरह निराला अपनी प्रसिद्ध लंबी कविता ‘कुकुरमुत्ता’ में पूंजीवादी शोषक और सर्वहारा सामान्य
जन के शोषित चरित्र का उद्घाटन करते हैं –
‘अबे, सुन, बे,
गुलाब,
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतराता है केपिटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम’
निराला सामाजिक शासकों के चरित्र का पर्दाफाश
करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। निराला ने ‘तुलसीदास’
और ‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से मिथकीय चेतना
का नवसंदर्भ और नवदृष्टि देकर आधुनिक दर्शन की पीठिका तैयार की और समाज की चेतना
को गतिशील किया। निराला समाज के रुढ़िवादी मानसिकता के जर्जर मनोवृत्ति से परिचित थे।
ग्रामीण जीवन की रूढ़ियों एवं परंपरा के संकुचित नज़रिए को वे ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ में चुनौती देते हैं और इस मनोवृत्ति की तोड़ते भी हैं कि जो काम
कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध और घृणित था, उसे बिल्लेसुर से करवा के वे गाँव के लोगों की संकुचित जीवन-प्रणाली
को मिटाना चाहते हैं, जो निराला की मूल्य दृष्टि को बताती है। जात-पांत संबंधी व्यवस्था
और शिक्षा के महत्व को वे अपने उपन्यास ‘कुल्ली’
में कुल्लीभाट के द्वारा व्यक्त करते हैं, जिसमें
कुल्ली निम्न वर्ग के लड़कों को शिक्षा देने का कार्य शुरु करता है।
निराला ने शोषित और अधिकार वंचित आधी आबादी के
समाज के संघर्ष को भी अपने उपन्यासों में वाणी दी है। उनके उपन्यासों के विषय में
नारी जीवन के संघर्ष, स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। निराला ने
समाज में व्याप्त जाति-प्रथा के संदर्भ में अपने निबंध ‘वर्णाश्रम
धर्म की वर्तमान स्थिति’ में लिखा है- ‘आज भारतवर्ष की तमाम सामाजिक
शक्तियों का एकीकरण-काल आ चुका है, यह शूद्रों और अन्त्यजों के उठने का प्रभातकाल है।‘ ‘राम की शक्ति-पूजा’ की बात किए बिना, बात
अधूरी रहेगी। जो प्रासंगिकता, बिंबात्मकता, भावोत्पादकता और प्रतीकात्मकता निराला रचित
‘राम की शक्ति पूजा’ में पाई जाती है, अन्यत्र अप्राप्य है। निराला के राम
भगवान राम नहीं हैं, बल्कि मानव राम हैं,पुरूषोत्तम राम हैं। वास्तव में निराला के राम
राम हैं ही नहीं, बल्कि स्वयं निराला हैं, अपने समय में गरीब, प्रताड़ित, पराजित और इन सबके परिणामस्वरूप विक्षिप्त सत्य के प्रतीक रहे
निराला। जब जामवंत राम को शक्ति पूजा के लिए प्रेरित करते हैं, तो वे राम की शक्ति की मौलिक कल्पना
प्रस्तुत करते हैं-
शक्ति की करो मौलिक कल्पना,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।
राम सिंहभाव से शक्ति की आराधना करते हैं और
शक्ति अर्थात् भगवती दुर्गा से विजय होने का वरदान प्राप्त करते हैं। यहाँ निराला
ने राम की मौलिक कल्पना में सिंह अर्थात् शक्तिवान को देवी के जनरंजन-चरण-कमल-तल
दिखाया है, अर्थात् उनके मतानुसार शक्ति का प्रयोग
हमेशा जनहित में ही होना चाहिए। निराला का साहित्य जीवित और जीवंत साहित्य है।
निराला का साहित्य प्रेमचंद की इस उक्ति पर बिलकुल खरा उतरता है- ‘हम साहित्य को केवल मनोरंजन
और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन का आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो – जो
हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।‘
कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी के युगांतकारी
कवि हैं, तथा छायावादी कवि चतुष्टय में उनका
महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता में नव जागरण का संदेश है, प्रगतिशील चेतना है तथा राष्ट्रीयता का स्वर
विद्यमान है, मानव
की पीड़ा, परतंत्रता के प्रति तीव्र आक्रोश तथा अन्याय एवं असमानता के प्रति विद्रोही की
भावना है। परिस्थितियों के घात-प्रतिघात ने उन्हें, उद्बुद्ध, सचेत एवं जागरूक कवि के रूप में
प्रतिष्ठित किया है। अन्याय, अत्याचार
एवं असमानता के विरूद्ध वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। मानव की पीड़ा ने उनके
संवेदनशील हृदय को करूणा से प्लावित कर दिया था। उच्च वर्ग की विलासिता एवं निम्न
वर्ग की दीनता को देखकर वे अपने हृदय में गहन वेदना, टीस, छटपटाहट का अनुभव करते थे। फलतः निराला
द्वारा रचित काव्य की प्रासंगिकता वर्तमान में उन्मेषमूलक अर्थवत्ता प्रदान करने
में पूर्णतः सक्षम है। निराला-काव्य में छायावादी प्रेमगीत हैं, राष्ट्र प्रेम की अभिव्यंजना करने वाले
राष्ट्रगीत हैं, मातृभूमि की वंदना एवं उद्बोधन, शोषणमुक्त समाज की संकल्पना है तथा आध्यात्मिक चेतना, रहस्यमय व निश्छल भक्ति से पूरित भावुक
भक्तिगीत भी हैं। इसी प्रकार जीवन, कर्म और मृत्यु सभी के प्रति उदात्त भाव
अभिव्यक्त करने वाली रचना ‘सरोज-स्मृति’ भी है। अब
प्रश्न उठता है कि निराला ने मानव के जिन आदर्शों का स्वप्न देखा था, क्या वह पूर्ण हो गया? यदि नहीं, तो ‘निराला आज भी प्रासंगिक हैं। साम्राज्यवाद
का विरोध, ऊँच-नीच का भेद-भाव, नारी की स्वाधीनता, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा के प्रति नवीन दृष्टिकोण, हिंदू-मुस्लिम एकता, दीन-हीन एवं शोषितों के प्रति गहन वेदना का जो
चित्रण,
उनके काव्य में दिखाई देता है, क्या
आज के समाज ने उसे पूर्ण कर लिया? यदि नहीं, तो निराला आज भी प्रासंगिक हैं। जिस
नारी-मुक्ति की आवाज़ निराला ने उठाई थी, वह
मुक्त हुई क्या? यदि नहीं, तो निराला आज भी प्रासंगिक हैं। अंधविश्वास
समाप्त हो गए क्या? यदि नहीं, तो निराला आज भी प्रासंगिक हैं। जब तक समाज में दोष और अभाव रहेंगे, जिनके विरूद्ध निराला ने आजीवन संघर्ष किया, तब तक निराला के साहित्य की प्रासंगिकता बनी
रहेगी।
मीता गुप्ता
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